Saturday, September 23, 2017

पगले सरदार की "नई दिल्ली"_Delhi of Khushwant Singh



प्रसिद्व अंग्रेजी पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह का दिल्ली से चोली-दामन का साथ रहा है। जिंदगी को बिंदास तरीके से जीने के हिमायती खुशवंत ने अपनी आखिरी सांस भी नई दिल्ली में ही ली। उनका सोचना था कि “यही पर मैंने जिदंगी का अधिकांश हिस्सा बिताया और यही पर मैं मरूंगा।” इस तरह दिल्ली की मौजूदगी न केवल उनके व्यक्तित्व में बल्कि कृतित्व में भी दिखती है। 


"दिल्ली" नाम का उनका उपन्यास इस महानगर की ऐतिहासिक यात्रा को आधुनिक दौर तक की झांकी पेश करता है। इस फंतासी की किताब में एक किन्नर (हिजड़े) के जरिए दिल्ली की दास्तान कही गई है।

अपने बचपन में 6 साल की उम्र से दिल्ली के माॅडर्न स्कूल में पढ़ाई शुरू करने वाले खुशवंत सिंह के अनुसार, मैं 1920 में अपने पिता के साथ दिल्ली आया तब तक तो नई दिल्ली को बनाने का काम जोरों पर चल रहा था। नई दिल्ली के अंग्रेजी साम्राज्य की राजधानी बनने की कहानी बताते हुए वे कहते हैं कि सन् 1911 में दिल्ली में बर्तानिया के किंग जाॅर्ज और क्वीन मेरी का ऐतिहासिक दरबार लगा था, जिसमें हिंदुस्तान की राजधानी कोलकता से बदलकर दिल्ली में करने की घोषणा की गई थी। उस दरबार में शिरकत करने उनके मेरे पिता (सुजान सिंह) और दादा भी आए थे। वे दोनों ठेकेदारी के धंधे में थे और तब तक कालका शिमला रेलवे लाइन बिछा चुके थे। उन्होंने सोचा कि दिल्ली राजधानी बनेगी तो इमारतें बनाने के लिए बहुत सारे काम मिल जाएंगे, इसलिए वे सन् 1912 में यहां आ गए और निर्माण में जुट गए।


नई दिल्ली में आबादी की बसावट का उल्लेख करते हुए खुशवंत कहते है कि उन दिनों हम जहां रहते थे, उसे आजकल ओल्ड हिल कहते हैं, जहां आज का रफी मार्ग है। एक कतार में वहां ठेकेदारों के अपने अपने झोंपड़ीनुमा घर थे। घरों के सामने से एक नैरो गैज रेलवे लाइन जाती थी, जिस पर इम्पीरियल दिल्ली रेलवेज नाम की रेलगाड़ी चला करती थी, जो बदरपुर से कनाट प्लेस तक पत्थर-रोड़ी-बालू भरकर लाया करती थी। यह रेल बहुत ही धीमी गति से हमारे घरों के सामने से गुजरती थी। हम बच्चे हर दिन इसमें मुफ्त सैर किया करते।गार्ड हमें भगाता रहता, पर हम कहां मानने वाले। यही हमारा मनोरंजन का साधन था।


आज की संसद के बारे में वे बताते है कि जहां आज संसद भवन की एनेक्सी है, वहां इन दिनों बड़ी-बड़ी आरा मशीनें चलती थीं जिसमें पत्थरों की कटाई होती। सुबह-सुबह ही पत्थर काटने की ठक-ठक की आवाजों से हमारी नींद खुल जाती। लगभग साठ हजार मजदूर नई दिल्ली की इमारतों को बनाने में लगे थे। ज्यादातर तो राजस्थानी थे, उन्हें दिहाड़ी के हिसाब से मेहनताना मिला करता था, मर्दों को आठ आठ आना और औरतों को छह आना दिहाड़ी मिला करती थी।


उनके अनुसार, राजधानी में पहले सचिवालय बने। साथ ही साथ सड़के बिछानी शुरू की गई। सरकार चाहती थी कि लोग आगे आएं और जमीनें खरीदकर वहां इमारतें बनाएं, पर लोग अनिच्छुक थे। लोग काम करने नई दिल्ली के दफ्तरों में आते और पुरानी दिल्ली के अपने घरों को लौट जाते। यहां तो जंगल ही था सब-रायसीना, पहाड़गंज, मालचा-सब कहीं। गुर्जर ही रहते थे बस यहां। सारी जगह कीकर के जंगल थे, कहीं कहीं तो जंगली जानवर भी।


वे अपने परिवार और पैतृक व्यवसाय के नई दिल्ली के निर्माण से जुड़े रहने के बारे में बताते है कि मेरे दादा से अधिक मेरे पिता ही दरअसल वास्तविक रूप से निर्माण कार्य में लगे थे। उनके पिता व्यवसाय की ऊपरी देखरेख करते थे। उन्होंने नई दिल्ली की अनेक इमारतें बनाईं, जिनमें प्रमुख थीं-सचिवालयों का साउथ ब्लाॅक, इंडिया गेट (जिसे तब आल इंडिया वाॅर मेमोरियल आर्च कहा जाता था), आॅल इंडिया रेडियो बिल्डिंग (आकाशवाणी भवन), नेशनल म्यूजियम, बड़ौदा हाउस एवं अनगिनत सरकारी बंगले। साथ ही उन्होंने (सुजान सिंह) अपनी खुद की भी कई इमारतें बनाई, जैसे-वेंगर्स से लेकर अमेरिकन एक्सप्रेस तक का कनाॅट प्लेस का एक पूरा का पूरा ब्लाॅक। उन दिनों यह सुजान सिंह ब्लाॅक कहलाता था। रीगल बिल्डिंग, नरेंद्र प्लेस, जंतर मंतर के पास और सिंधिया हाउस भी उन्होंने ही बनाए। ये सब उनकी निजी संपत्तियां थीं। अजमेरी गेट के पास भी कई इमारतें उनकी थीं।


सुजान सिंह ने दूसरे ठेकेदारों के साथ मिलकर विजय चौक, संसद भवन का भी कुछ हिस्सा बनाया। नार्थ ब्लाॅक को सरदार बसाखा सिंह और साउथ ब्लाॅक को सुजान सिंह ने बनाया। उनकी पत्नी के पिता सर तेजा सिंह सेंट्रल पी‐डब्ल्यू‐डी में चीफ इंजीनियर थे। वे पहले भारतीय थे, जिन्हें चीफ इंजीनियर का दर्जा प्राप्त था, वरना तो सिर्फ अंग्रेजों को ही यह पद दिया जाता था। सचिवालयों के शिलापट्टों पर खुशवंत सिंह के पिता और ससुर दोनों के नाम खुदे हुए हैं। इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन की ओर जाने पर नार्थ और साउथ ब्लाॅकों के मेहराबदार ताखों में शिलापट्टों पर एक तरफ नई दिल्ली
को बनाने वाले ठेकेदारों के नाम हैं और दूसरी तरफ आर्किटेक्टों और इंजीनियरों का नाम हैं।



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