Hindi connection of Delhi_दिल्ली और हिंदी की नातेदारी
दिल्ली का भारत की सबसे पुरानी और सबसे नयी राजधानी के रूप में न केवल यहीं समस्त भारतीय दर्शन की सार-रूप श्रीमद्भगवद्गीता से युक्त महाभारत नामक काव्य का प्रणयन महर्षि वेदव्यास (इंद्रप्रस्थ में) ने किया। प्राचीन प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में यह (दिल्ली) नाम ढिल्ली अथवा ढिल्लिका के नाम से उल्लिखित है।
श्रीनिवासपुरी के निकट मिले सम्राट अशोक का प्राकृत शिलालेख और पूर्व एवं मध्यकाल में रचित विपुल जैन काव्य तथा नाथपंथी काव्य के अतिरिक्त इस (दिल्ली) का मध्ययुगीन नाम योगिनीपुर भी इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य है।
यहीं, हिंदी के आदिकवि के रूप में प्रसिद्ध चंदरबरदाई ने पृथ्वीराज रासो की ओजस्वी वाणी उच्चरित की और अमीर खुसरो ने लोकरंजक गीतों की सरस धारा प्रवाहित की। परवर्ती अपभ्रंश से विकसित पुरानी हिंदी (चंद्रधर शर्मा गुलेरी द्वारा दिया गया नाम) तथा ब्रज, बांगरू, राजस्थानी, कौरवी आदि जनपदीय बोलियों को क्रमशः लोक साहित्य तथा ललित साहित्य और ज्ञानपरक साहित्य का माध्यम बनाते हुए इसी महानगर ने देहलवी के नाम से उस केंद्रीय हिंदी के उद्भव और विकास का श्रेय प्राप्त किया जो आज मानक खड़ी बोली के रूप में भारत की राष्ट्रभाषा तथा राजभाषा का पद प्राप्त करने के बाद क्रमशः एक अंतरराष्ट्रीय भाषा बनने की ओर अग्रसर है।
दिल्ली की प्रादेशिक भाषा हिंदी है जिसे देसी भासा का शहरी संस्करण कहा जा सकता है। इसका उद्भव-ंस्त्रोत शौरसेनी, प्राकृत अथवा अपभ्रंश है। शूरसेन प्रदेश (मथुरा) किसी समय राज्यशक्ति और व्यापार का मुख्य केंद्र था। शौरसेनी, प्राकृत अथवा अपभ्रंश से पश्चिमी हिंदी की अनेक बोलियों का विकास हुआ है। इन्हीं बोलियों के पुंजीभूत सम्मिश्रण का यत्किंचित परिष्कृत रूप हिंदी है।
हिन्दी भाषा का आरंभिक रूप चंदरबरदाई के पृथ्वीराज रासो में मिलता है। ग्वालियर के तोमर राजदरबार में सम्मानित एक जैन कवि महाचंद ने अपने एक काव्यग्रंथ में लिखा है कि वह हरियाणा देश के दिल्ली नामक स्थान पर यह रचना कर रहा है।
बारहवीं शताब्दी के अंत में अमीर खुसरो ने हिंदी के विकसित रूप का प्रयोग किया है। उसकी पहेलियां, दो सुखने, मुकरियां इत्यादि इसके उदाहरण है। आगे इसी परंपरा में रहीम, रसखान, घनानंद आदि हिंदी के मूर्धन्य कवि हुए जिनका अधिकांशतः संबंध दिल्ली से ही रहा। गोपीचंद नारंग ने लिखा है कि कि खुसरो के प्रामाणिक या लगभग प्रामाणिक हिंदवी काव्य के अंशों की चर्चा करके हम प्रथम भूमिका में स्पष्ट कर चुके हैं कि उसमें प्राचीन ब्रजभाषा के तत्व भी हैं और प्राचीन खड़ी बोली के भी, और प्रायः हिंदी का वह मिलाजुला रूप सामने आता है जिसमें खड़ी बोली की अपेक्षा ब्रजभाषा का प्रधानता है। इस तरह तेरहवीं शताब्दी में दिल्ली में जिस भाषा का प्रयोग साहित्य रचना के लिए किया जा रहा था वह व्याकरण की दृष्टि से ब्रजभाषा और खड़ी बोली का मिश्रित रूप थी जिसमें एक ओर अपभ्रंश की शब्दावली के अवशेष थे तो दूसरी ओर अरबी, फारसी और तुर्की के शब्द प्रवेश करने लगे थे।
धीरेंद्र वर्मा तथा बाबूराम सक्सेना ने भी यह माना है कि संपूर्ण मध्य देश और विशेषकर दिल्ली के जनसामान्य की भाषा हिंदवी ही थी। दिल्ली का भारत की सबसे पुरानी और सबसे नयी राजधानी के रूप में न केवल राजनीतिक बल्कि एक सांस्कृतिक और साहित्यिक महानगर के नाते भी देश के पटल पर एक अलग स्थान है। ऐसा मान्यता है कि आदि ज्ञान स्त्रोत वेदों की रचनाएं सबसे पहले यहीं, यमुना के तट (निगम बोध घाट) पर उच्चारित हुईं।
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