|
सांध्य टाइम्स, 04 जून, 2018
|
दिल्ली और कुओं का बरसों-बरस पुराना, इतिहास-सम्मत नाता है। इस बात का जीवंत प्रमाण पुराना किला में देखने को मिलता है। यह एक कम जानी बात है कि दिल्ली के पुराना किला के उत्खनन (2014) में आज से 23 सौ साल पहले से लेकर 3 हजार साल पहले तक प्रचलन में रहे रिंगवेल (वलय कूप) कुआं मिला है। मिट्टी के छल्लों का 70 सेंटीमीटर व्यास वाला यह कुआं मौर्य काल की विशेषता को रेखांकित करता है। एएसआइ के पूर्व महानिदेशक प्रो.बी.बी. लाल ने अपनी पुस्तक “हस्तिनापुर” में रिंगवेल का उल्लेख करते हुए बताया है कि गड्ढे की खुदाई कर पक्की मिट्टी के रिंग बनाकर सेट किए जाते थे। ऐसे कुएं मौर्य काल तक प्रचलित थे।ईंटों से बने हुए कुएं सर्वप्रथम सिन्धु घाटी की सभ्यता (2500-1900 ईसा पूर्व) में केवल मोहनजोदड़ो ऐसे शहरों में ही नहीं बल्कि कराची के समीप अलाहदिनो ऐसे स्थानों पर भी देखे गए] जहां पर इन कुओं से निकाले हुए पानी से निचली जमीन के खेतों की सिंचाई होती थी। इसके बाद ऋगवेद में (ईसा से 1000 सदी पूर्व) एक-दूसरे प्रकार की गरारी और पहिए के द्वारा पानी को ऊंचाई पर उठाने का प्रमाण मिलता है।
दिल्ली में ही तेरहवीं सदी का एक अभिलेख जो कि पालम गांव के एक सीढ़ीदार कुंए से मिला है, जिसमें उल्लेख है कि ढिल्ली के एक व्यक्ति ने सीढ़ीदार कुंए का निर्माण कराया था। यह अभिलेख मुलतान जिले में उच्छ से आए उद्वार (नामक व्यापारी) द्वारा (देहली से ठीक बाहर) पालम में एक बावली और एक धर्मशाला के निर्माण की बात दर्ज करता है। बलबन के समय के पालम-बावली अभिलेख तिथि 1272 ईस्वी (विक्रम संवत् 1333) में लिखा है कि हरियाणा पर पहले तोमरों ने तथा बाद में चौहानों ने शासन किया।
यह अभिलेख कहता है कि सबसे पहले तोमरों का हरियांका की भूमि पर स्वामित्व था, उसके बाद चौहानों का तथा बाद में शकों का हुआ। शिलालेख की सूची से पता चलता है कि शक शब्द का प्रयोग दिल्ली के पूर्व सुल्तानों मुहम्मद गोर से बलबन तक के लिए होता है। बलबन सहित गुलाम वंश के सभी शासकों को यहां पर शक शासक की संज्ञा दी गई है। यहां शहर का नाम ढिल्लीपुरा दिया गया है जिसका वैकल्पिक नाम योगिनीपुरा भी कहा गया है। योगिनीपुर पालम बावली के अभिलेख में ढिल्ली के वैकल्पिक नाम के रूप में आता है जिसमें पालम्ब गांव का भी उल्लेख है, स्पष्ट है कि यह आधुनिक पालम का नाम है। ढिल्ली और योगिनीपुर, ये दोनों नाम जैन पट्टावलियों में बार-बार आते हैं।
“दिल्ली सल्तनत के संस्कृत शिलालेख” पुस्तक में पुष्पा प्रसाद लिखती हैं कि छह अभिलेख, दिल्ली के सुल्तानों के समय में दिल्ली के अंचल में धनी व्यापारियों के द्वारा बनवाए कुओं (जिसमें एक बावली भी है) से संबंधित हैं। एक कुआं शाही परिवार की शहजादी आयशा] जो कि सिकंदर लोदी की बहन थी, की ओर से बनवाया गया था।
उस दौर में मुख्य रूप से चार तरह के कुओं का प्रयोग होता था। पहला, चिनाई वाला कुंआ ईंट, पत्थर और गारे से बना होता था, जिसे बरसों-बरस के उपयोग के हिसाब से बनाया जाता था। ऐसे कुएं लंबे समय तक पानी देने के काम आते थे। दूसरे, मजबूती के हिसाब से बनने वाले शुष्क चिनाई वाले कुंए थे जो कि मुख्य रूप से पहाड़ी इलाकों में होते थे, जहां आस-पास चट्टान के होने के कारण कुएं को बनाने में पत्थरों का उपयोग सस्ता पड़ता था। तीसरे, लकड़ी के कुएं थे। ऐसे कुओं की चारों ओर बैलगाड़ी के पहिए के समान लकड़ी के नौ इंच से दो फीट लंबे घुमावदार टुकड़े लगे होते थे जो कि अधिक गहरे न होने पर भी बरसों पानी देते थे। खादर इलाके के गांवों में इनकी संख्या अधिक थीं। चौथे, सिंचाई और टिकाऊपन के हिसाब से उपयोगी झार का कुंआ था जो कि जमीन में खुदा एक खड्डा भर होता था।
तब सिंचाई-पेयजल के लिए दो तरह के कुएं होते थे। पहला रस्सी-और-मशक यानी चड़स वाला और दूसरा रहट वाला कुआं। आज सिंचाई के जिस साधन को चड़स के नाम से पहचाना जाता है, वह मूल रूप से चमड़े का होता था। बैलों के बल के सहारे कुएं से जल को पात्र (चड़स) में भरकर ऊपर उठाया जाता और खाली कर पानी को इच्छित स्थान पर पहुंचाया जाता था। भ्रमणी (भूण) व ताकलिया (बेलनाकार चरखी) से लैस कुएं पर ही इसे संचालित किया जाता था। जबकि रहट खेतों की सिंचाई के लिए कुएँ से पानी निकालने का एक प्रकार का गोलाकार पहिए रूपी यंत्र होता था और जिस पर मिट्टी के हाँड़ियों की माला पड़ी रहती है। इसी पहिए के घूमने से कुंए में नीचे से हाँड़ियों में भरकर पानी ऊपर आता था। इस प्रकार के गियर युक्त रहट के बारे में सर्वप्रथम श्रेष्ठ वर्णन बाबर (1526-30) के वक्तव्य में मिलता है। बाबर ने इसके बारे में लिखा है कि इस प्रकार के रहट पंजाब और हरियाणा के सीमावर्ती इलाकों लाहौर, दीपालपुर और सरहिन्द में सामान्य रूप से प्रयुक्त होते थे।
“मध्यकालीन दौर में प्रोद्योगिकी” में इरफान हबीब के अनुसार, भारत में सबसे पहले रहट का पंचतंत्र के संस्करण में (सदी 300 वर्ष) में उल्लेख मिलता है। वहां एक व्यक्ति को अरहट्टा चलाते हुए बताया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है एक पहिया जिसकी तीलियों में मिट्टी के बर्तन (घट) बंधे हों। इसका प्राकृत अरहट्टा था] यह शब्द बुद्धघोष (पांचवी सदी) में मिलता है। इस प्रकार की माला का सर्वप्रथम सन्दर्भ ईसवीं 532 में यशोधरम के मंदसोर के शिलालेख में मिलता है। यहां तक कि बारहवीं सदी के अन्त में राजस्थान के एक मन्दिर के शिलालेख में एक अरघट्टा की स्वीकृति का उल्लेख है। रहट या अरहट को घटीयंत्र भी कहा जाता है। घटीमालयंत्र भी इसी का नाम है और ये नाम पंचतंत्र से लेकर छठी सदी के अभिलेख में भी हैं।
इतना ही नहीं उर्दू के अजीम शायर मिर्जा गालिब ने भी अपने खतों में दिल्ली के पानी के हालात बयान किए हैं। 1860-61 में लिखे एक खत में ग़ालिब कहते हैं कि अगर कुएं गायब हो गए और ताजा पानी मोती की तरह दुर्लभ हो जाएगा तो यह शहर कर्बला की तरह एक वीराने में बदल जाएगा। 1860 तक, शहर में 1,000 कुएं होने बात दर्ज थी, जिनमें लगभग 600 निजी स्वामित्व और 400 सार्वजनिक उपयोग में थे।
गौरतलब है कि अंग्रेजी राज में 1857 के बाद 1912 तक दिल्ली पंजाब सूबे का केवल एक जिला थी और दो अन्य तहसीलें, सोनीपत और वल्लभगढ़, जो अब हरियाणा राज्य की हिस्सा है, थी। सन् 1869 में दिल्ली म्यूनिसिपल कमेटी ने डबलिन में पानी की आपूर्ति का काम किए हुए क्रास्टवेट नामक एक अंग्रेज़ सिविल इंजीनियर के शहर में एक पेयजल आपूर्ति योजना के प्रस्ताव को स्वीकार किया। तब क्रास्टवेट ने अली मर्दन नहर के बेकार होने के कारण पानी के लिए शहर में नए कुओं को खोदने की आवश्यकता पर जोर दिया। उसका मानना था कि नदी के किनारे पर डूब के क्षेत्र में कुंए बनाकर पानी की नियमित आपूर्ति को सुनिश्चित किया जा सकता है जहां साफ और शुद्ध पानी की अंतर्धारा साल के बारहमास उपलब्ध होती है।
चकबंदी के वर्षों (1872-75) में, पंजाब जिले में कुल 8841 कुएं थे, जिनमें दिल्ली में 2,256, सोनीपत में 4797 और वल्लभगढ़ में 1,788 कुंए थे। दिल्ली में वॉटर वर्क्स सन 1889 में बनना शुरू हुआ और 1895 में बनकर तैयार हुआ। उसके बाद शहर में नल लगने शुरू हुए। शुरू-शुरू में नल का पानी अशुद्ध माना जाता था। पीने के काम में कुओं का पानी आता था। पुराने संस्कारों के लोग नल का पानी नहीं पीते थे।
दिल्ली के गजेटियर (1883-84) के अनुसार, ''पंजाब सूबे के सभी जिलों में दिल्ली खेती के लिए सिंचाई योग्य क्षेत्र के मामले में अव्वल थी। अकाल आयोग को दिए गए आंकड़ों के हिसाब से कुल 37 सिंचाई योग्य क्षेत्रों में से 15 क्षेत्र कुंओं से सिंचित होते थे जबकि चार सिंचाई योग्य क्षेत्रों में झील पर बने बंध से और अठारह सिंचाई योग्य क्षेत्रों में नहरों के पानी से सिंचाई की जाती थी।" जबकि दिल्ली के गजेटियर (1912) के अनुसार, "दिल्ली में होने वाली कुल सिंचित क्षेत्र में 57 प्रतिशत में सिंचाई के कृत्रिम साधनों से, 19 प्रतिशत में कुओं से, 18 प्रतिशत में नहरों से, और 20 प्रतिशत में बंध से होती थी।"
“आज भी खरे हैं तालाब” में अनुपम मिश्र लिखते हैं कि दिल्ली के सन् 1930 के एक दुर्लभ नक्शे में उस समय के शहर में तालाबों और कुओं की गिनती लगभग 350 की संख्या का छूती है। उसी दौर में नल लगने लगे थे। इसके विरोध की एक हल्की सुरीली आवाज सन् 1900 के आसपास विवाहों के अवसर पर गाई जाने वाली गारियों,-गीतों में दिखी थी। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियां फिरंगी नल मत लगवाय दियो गीत गाती। लेकिन नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुएं और बावड़ियों के बदले अंग्रेज द्वारा नियंत्रित वाटर वर्क्स से पानी आने लगा।
No comments:
Post a Comment