सांध्य टाइम्स, 21.06.2018 |
1911 के तीसरे दिल्ली दरबार में अंग्रेज राजा जॉर्ज पंचम ने अंग्रेजी राज की राजधानी के कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरण की घोषणा की। इस निर्णय के साथ ही, नई राजधानी को बनाने की प्रक्रिया ने गति पकड़ी। अगले 20 वर्षों में युद्व स्तर पर भवन निर्माण के कार्य हुए। जिसका परिणाम एक बंजर भूमि के आंखों को सुकून देने वाले एक सुन्दर भूदृश्य में बदलने के रूप में सामने आया।
किंग जार्ज पंचम और क्वीन मेरी ने किंग्सवे कैंप में आयोजित दिल्ली दरबार में 15 दिसंबर 1911 को नई दिल्ली शहर की नींव के पत्थर रखें । बाद में, इन पत्थरों को नार्थ और साउथ ब्लाक के पास स्थानांतरित कर दिया गया और 31 जुलाई 1915 को एक अलग-अलग कक्षों में रख दिया गया । दिल्ली के नए शहर के स्थापना दिवस समारोह में लार्ड हार्डिंग ने कहा कि दिल्ली के इर्दगिर्द अनेक राजधानियों का उद्घाटन हुआ है पर किसी से भी भविष्य में अधिक स्थायित्व अथवा अधिक खुशहाली की संभावना नहीं दिखती है ।
उल्लेखनीय है कि देश की आजादी की पहली लड़ाई में भारतीयों की हार के बाद वर्ष 1857 में को पंजाब सूबे का हिस्सा बना दिया गया था। जबकि 1884 तक दिल्ली का हिस्सा न तो भारत की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र था और न ही ब्रिटिश पंजाब का प्रशासनिक मुख्यालय। यह केवल एक तहसील थी जो कि क्षेत्रफल के हिसाब से पंजाब सूबे के तीस जिलों में से सबसे सबसे छोटी थी। 1911 में अंग्रेज भारत की राजधानी के लिए नई दिल्ली में स्थान निश्चित करने के साथ ही इसमें परिवर्तन आया। यह दिल्ली तहसील के साथ एक नया सूबा बन गया, जिसमें बल्लभगढ़ तहसील का एक हिस्सा भी शामिल किया गया।
केवल मात्र ऐलान के साथ ही दिल्ली राजधानी नहीं बन गई। अगले बीस साल तक नई दिल्ली शक्ल लेती रही और सारा काम सिविल लाइन्स स्थित अस्थायी राजधानी के माध्यम से होता रहा। इस तरह यह अस्थायी राजधानी नई दिल्ली के बनने की प्रक्रिया में अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह बनी।
राजधानी की स्थानांतरण की घोषणा होने के बाद, अंग्रेज सरकार के सामने दिल्ली में पहले से मौजूद जमीन और अंग्रेजी साम्राज्य की राजधानी के लिए भूमि अधिग्रहण की संभावनाओं को तलाशने की चुनौती थी। 1915-16 में, दिल्ली क्षेत्र में 387 गांव थे। इन गांवों में, 73 प्रतिशत भूमि निजी संपत्ति, 21 प्रतिशत कॉमन होल्डिंग (संयुक्त जोत) और शेष 6 प्रतिशत भूमि सरकार के पास थी। 1857-1911 की अवधि में यह ग्रामीण इलाका दिल्ली के मूल शहर की केंद्रीय परिधि बन गया।
राजधानी के उत्तरी हिस्से यानी सिविल लाइन्स को इस आधार पर अस्वीकृत किया गया कि वह स्थान बहुत तंग होने के साथ-साथ पिछले शासकों की स्मृति के साथ गहरे से जुड़ा था और यहां अनेक विद्रोही तत्व भी उपस्थित थे। जबकि इसके विपरीत स्मारकों और शाही भव्यता के अन्य चिह्नों से घिरा हुआ नया चयनित स्थान एक साम्राज्यवादी शक्ति के लिए पूरी तरह उपयुक्त था, क्योंकि यह प्रजा में निष्ठा पैदा करने और उनमें असंतोष को न्यूनतम करने के अनुरूप था।
तब नई दिल्ली को अपनी खूबसूरत-विशाल इमारतों के दुनिया के नक्शे पर उभरने में दो दशकों की दूरी थी। जॉर्ज पंचम की घोषणा और राजधानी के रूप में नई दिल्ली के बसने में बीस बरस का समय लगा।
अंग्रेजों की राजधानी नई दिल्ली को बनाने के काम को उत्तरी दिल्ली यानी सिविल लाइंस से पूरा किया गया। इस इलाके को अस्थायी राजधानी के रूप में स्थापित किया गया। दिल्ली के राजधानी बनने के बाद, अस्थायी राजधानी (उत्तरी दिल्ली) में 500 एकड़ क्षेत्र जोड़कर उसकी देखभाल का जिम्मा नोटिफाइड एरिया कमेटी और प्रस्तावित नई दिल्ली को बनाने का जिम्मा इंपीरियल दिल्ली कमेटी को दिया गया।
इंपीरियल सिटी, जिसे अब नई दिल्ली कहा जाता है, का जब तक निर्माण नहीं हो गया और कब्जा करने के लिए तैयार नहीं हो गई तब तक के लिए पुरानी दिल्ली के उत्तर की ओर एक अस्थायी राजधानी बनाई गई। इस अस्थायी राजधानी के भवनों का निर्माण रिज पहाड़ी के दोनों ओर किया गया।
लार्ड हार्डिंग मार्च 1912 के अंत में अपने पूरे लाव लश्कर के साथ दिल्ली पहुंचा था। सन् 1911 में दिल्ली राजधानी स्थानांतरित होने पर दिल्ली विश्वविद्यालय का पुराना वाइसरीगल लॉज, वायसराय का निवास बना। प्रथम विश्व युद्ध से लेकर करीब एक दशक तक वायसराय इस स्थान पर रहा जब तक रायसीना पहाड़ी पर लुटियन निर्मित उनका नया आवास बना। आज पुराना वाइसरीगल लॉज में दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर का कार्यालय है।
दिल्ली के राजधानी बनने के राजनीतिक फैसले का यहां के नागरिकों को दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) की स्थापना के रूप में फायदा मिला। 1922 में तत्कालीन सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में पारित अधिनियम के तहत एक आवासीय शिक्षण विश्वविद्यालय के रूप में डीयू स्थापित हुआ। नागपुर के एक प्रतिष्ठित बार-एट-लॉ डॉ हरि सिंह गौर डीयू के पहले कुलपति नियुक्त हुए।
जब डीयू अस्तित्व में आया, तब दिल्ली में केवल तीन कॉलेज-सेंट स्टीफन, हिंदू और रामजस कॉलेज-थे। मजेदार बात यह है कि भारत सरकार के शिक्षा विभाग ने विश्वविद्यालय के बने रहने का पुरजोर समर्थन किया जबकि गृह और वित्त विभाग दोनों इसके विरोध में थे। 19 मार्च, 1923 को इस विषय को लेकर सेंट्रल असेम्बली में बहस के बाद सर्वसम्मति से डीयू के बने रहने को मंजूरी दे दी गई। डीयू के खर्च के लिए पैसे की व्यवस्था केन्द्रीय राजस्व से करने का निर्णय हुआ।
अंग्रेज सरकार के आसन के दिल्ली स्थानांतरित होने के शीघ्र बाद, इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल का सत्र मेटकाफ हाउस (आज के चंदगीराम अखाड़ा के समीप) में हुआ, जहां से इसका स्थान बाद में पुराना सचिवालय स्थानांतरित कर दिया गया। 1912 में मुख्य भवन पुराना सचिवालय, जहां आज की विधानसभा है, पुराने चंद्रावल गांव के स्थल पर बना है। यही पर 1914-1926 तक केंद्रीय विधानमंडल ने बैठकें की और काम किया।
1912 में तिमारपुर, चंद्रावल, वजीराबाद गांवों की जमीनों का अस्थायी सरकारी कार्यालयों के निर्माण के लिए अधिग्रहण किया गया। इसी तरह, मैटकाफ हाउस का अधिग्रहण कौंसिल चैम्बर, सचिवालय को कार्यालयों, प्रेस और काउंसिल के सदस्यों के घरों के उपयोग के लिए किया गया। 1920-1926 की अवधि में मैटकाफ हाउस केन्द्रीय विधान मंडल की कांउसिल ऑफ़ स्टेट का गवाह रहा।
इतना ही नहीं, महात्मा गाँधी ने इस केंद्रीय विधानसभा के पुराने सदन को 1918 तथा 1931 में अपनी उपस्थिति से गौरान्वित किया। बाद में, इस भवन का उपयोग संघ लोक सेवा आयोग और स्वतन्त्रता के उपरांत भारतीय प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण स्कूल ने भी किया। अब यह स्थान रक्षा मंत्रालय के अधीन है, जहां पर उसके कई सहायक कार्यालय हैं।
इस अस्थायी राजधानी के प्रमुख भवन आज भी कोरोनेशन (जार्ज पंचम का दरबार) पार्क, पुराना सचिवालय (विधानसभा), मैटकॉफ हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय का उपकुलपति कार्यालय, ओल्ड पुलिस लाइन, सिविल लाइन के बंगलों की रूप में
अपनी उपस्थिति को दर्ज करवाते हुए देखे जा सकते हैं.
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