23022019 दैनिक जागरण |
Saturday, February 23, 2019
Saturday, February 16, 2019
Connection of New British Capital of India and Jaipur State_अंग्रेजों की नयी राजधानी और जयपुर राज
1911 में दिल्ली के तीसरे दरबार में अंग्रेज राजा जॉर्ज पंचम ने ब्रिटिश भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली बनाने की घोषणा की। उसके बाद अंग्रेज दिल्ली में राजधानी योग्य भूमि की तलाश में जुट गए। ऐसे में जयपुर के राजा ने अंग्रेजों की नई दिल्ली के लिए भूमि (जयसिंहपुरा और रायसीना) उपलब्ध करवाई। पर यह सब इतनी आसानी से नहीं हुआ। इसके लिए जयपुर के तत्कालीन कछवाह नरेश माधो सिंह द्वितीय (1861-1922) के वकीलों और अंग्रेज अधिकारियों के मध्य काफी लिखत-पढ़त हुई।
महाराजा जयपुर ने दिल्ली के जयसिंहपुरा और माधोगंज (आज की नई दिल्ली नगर पालिका परिषद का इलाका) में स्थित उनकी इमारतों और भूमियों का नई शाही (अंग्रेज) राजधानी के लिए अधिग्रहण न किया जाए, इस आशय की याचिकाएं दी थी।
18 जून 1912 को महाराजा जयपुर के वकील शारदा राम ने दिल्ली के डिप्टी कमिशनर को दी याचिका में लिखा कि राज जयपुर के पास दिल्ली तहसील मेंजयसिंह पुरा और माधोगंज में माफी (की जमीन) है, और ब्रिटिश हुकूमत ने राजधानी के लिए इसके अधिग्रहण का नोटिस भेजा है। राज की यह माफी बहुत पुरानी है और उनमें से एक की स्थापना महाराजा जयसिंह ने और दूसरे की महाराजा माधोसिंह ने की थी, जैसा कि मौजों के नाम से स्पष्ट है। राज जयपुर की स्मृति में छत्र, मंदिर, गुरूद्वारे, शिवाले और बाजार जैसे कई स्मारक हैं और राजने माफी की जमीन का आवंटन इन तमाम संस्थाओं के खर्च निकालने के लिए किया है। मुगल सम्राटों के समय में जब दिल्ली राजधानी हुआ करती थी तो, राजा का एक बहुत बड़ा मकान था जो अब बर्बादी की हालत में है और राजा का यह दृढ़ संकल्प है कि दिल्ली को एक बार फिर ब्रिटिश भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी बनाए जाने के सम्मान में इसे बहुत शानदार और सुंदर बनाया जाए। इसलिए, विनती है कि इन संस्थाओं और पुराने अवशेषों को उनके साथ की जमीनों सहित अधिग्रहित न किया जाए और उन्हें राज के नियंत्रण और देख-रेख में छोड़ दिया जाए। उसे (जयपुर महाराज को), (अंग्रेज) सरकार की योजनाओं के अनुसार राज की कीमत पर सरकार की इच्छानुसार मकान, कोठियां, सड़कें आदि बनाने पर कोई ऐतराज नहीं है और राज ऐसी कोई जमीन मुफ्त में देने में तैयार है, जिसकी जरूरत सरकार को अपनी खुद की सड़कें खोलने या बनाने के लिए हो सकती है।
इसके जवाब में, अंग्रेज सरकार के विदेश विभाग के उपसचिव ने राजपूताना मेंगर्वनर जनरल के एजेंट लेफ्टिनेंट कर्नल डब्ल्यू.सी.आर. स्टैटन को 19 अगस्त 1912 को भेजे एक पत्र में लिखा कि हालांकि दिल्ली टाउन प्लानिंग कमेटी ने उस क्षेत्र के अधिग्रहण की सिफारिश की है जिसमें याचिकाओं में उल्लेखित जमीनें और इमारतें आती हैं, फिर भी गर्वनर-जनरल-इन-कौंसिल की राय नहीं हैकि जिन मंदिरों आदि का उल्लेख याचिकाओं में हुआ है और जिनका संरक्षण वे उन मकसदों के लिए करना चाहते हैं जिनको वे समर्पित हैं, जब तक उनका रखरखाव मुनासिब तरीके से नहीं होता है और उनके आसपास की गंदी इमारतों को भद्दे माहौल को हटा दिया जाता है, तब तक उन्हें लेने की जरूरत नहीं है। जहां तक महाराजा की उन जमीनों के अधिग्रहण का सवाल है जिनमें पुराने मुगल अनुदान आते हैं तो, इसे संभव हुआ तो, तब तक टाला जाए जब तक यह समझा जाएगा कि महाराज किसी भी सूरत में सरकार की योजनाओं के साथ होने को सहमत हो जाएंगे, चाहे जो भी इमारतें या सड़कें बनें या चाहे जिस भी तरीके से संबंधित जमीनों का निपटारा किया जाए, और यह भी कि इन योजनाओं के निष्पादन में कोई बाधा खड़ी नहीं की जाएगी।
एक अन्य याचिका के उत्तर में 20 अगस्त 1912 को दिल्ली के विशेष भूमि अधिग्रहण अफसर मेजर एच.सी. बीडन ने गृह विभाग के सचिव एच. व्हीलर को लिखा था कि जैसा कि नक़्शे में दिखाया गया है, जयसिंहपुरा और माधोगंज केपरिवार मौजा नरहौला की सीमाओं के भीतर हैं, और इमारतों के दोनों ब्लाॅक उस क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं जिन्हें दिल्ली कमेटी ने स्थायी अधिग्रहण करना है, और इसलिए इन याचिकाओं पर अभी किसी कार्रवाई की जरूरत नहीं है। साधारणतया इस किस्म की याचिका को सरकारी आदेश मिलने पर डिप्टी कमिशनर निपटाते हैं, लेकिन महाराजा (जयपुर) के ओहदे को देखते हुए, अधिक उपयुक्त तो यह होगा कि सरकार के जवाब को सीधे बता दिया जाए।
उल्लेखनीय है कि माधो सिंह द्वितीय 1902 में ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह में इंगलैंड गए थे। अंग्रेजों की विशेष कृपादृष्टि के कारण ही उन्हें 1903 में जीसीवीओ, 1911 में जीवीआई की सैन्य उपाधि दी गई। इतना ही नहीं, 1904 में माधोसिंह को अंग्रेज भारतीय सेना में 13 राजपूत टुकड़ी का कर्नल और 1911 में मेजर जनरल का पद दिया गया।
Sunday, February 10, 2019
Girija kumar Mathur_sartakhta_hindi poem_गिरिजा कुमार माथुर (सार्थकता)
तुमने मेरी रचना केसिर्फ एक शब्द परकिंचित मुस्का दियाअर्थ बन गई भाषा
छोटी सी घटना थीसहसा मिल जाने कीतुमने जब चलते हुएएक गरम लाल फूलहोठों पर छोड दियाघटना सच हो गई
संकट की घडियों मेंबढते अंधकार परतुमने निज पल्ला डालगांठ बना बांध लियाव्यथा अमोल हो गई
मुझसे जब मनमानातुमने देह रस पाकरआंखों से बता दियाउम्र अमर हो गई
-गिरिजा कुमार माथुर (सार्थकता)
Saturday, February 9, 2019
connaught place in English literature_साहित्य की जुबानी, कनाट प्लेस बसने की कहानी
09022019_दैनिक जागरण |
छह साल की उम्र से दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में पढ़ाई शुरू करने वाले अंग्रेजी लेखक-पत्रकार खुशवंत सिंह के अनुसार, मार्च 1913 तक नई दिल्ली को बनाने की प्राथमिक योजना बन गई थी। वे अपनी आत्मकथा "सच, प्यार और थोड़ी-सी शरारत" में लिखते हैं कि उन दिनों हम जहां रहते थे, उसे आजकल ओल्ड हिल कहते हैं, जहां आज का रफी मार्ग है। एक कतार में वहां ठेकेदारों के अपने अपने झोंपड़ीनुमा घर थे। घरों के सामने से एक नैरो गैज रेलवे लाइन जाती थी, जिस पर इम्पीरियल दिल्ली रेलवेज नाम की रेलगाड़ी चला करती थी, जो बदरपुर से कनाट प्लेस तक पत्थर-रोड़ी-बालू भरकर लाया करती थी।
उनके मुताबिक, कनॉट प्लेस तो 1919 में ही बनना शुरू हुआ और सबसे पहले वेंगर्स की दुकान बनी थी। ऊपर वेंगर्स रेस्तरां और डांस फ्लोर था जबकि वेंगर्स के नीचे वाली दुकान एक पारसी किराएदार के पास थी जो अंग्रेज साहब लोगों को चॉकलेट और शराब बेचा करता था। कनॉट प्लेस और कनॉट सर्कस का मास्टर प्लान सर हर्बर्ट बेकर के साथ मिलकर सर एडविन लेंडसियर लुटियन ने बनाया था। उनकी माने तो राजधानी में सरकारी भवन बनते जा रहे थे, पर कोई भी यहां, कनाट प्लेस, जमीन नहीं खरीद रहा था क्योंकि था तो इलाका बियाबान ही। तिस पर उनके पिता ने ही पहल करते हुए दो रूपए प्रति वर्ग गज से हिसाब से कनॉट सर्कस में फ्री-होल्ड जमीन खरीदी।
उनके ठेकेदार पिता सुजान सिंह ने अपने लिए वेंगर्स से लेकर अमेरिकन एक्सप्रेस तक का कनॉट प्लेस का एक पूरा का पूरा ब्लॉक बनवाया। उन दिनों यह सुजान सिंह (खुशवंत सिंह के दादा) ब्लॉक कहलाता था। इतना ही नहीं, उन्होंने ही रीगल बिल्डिंग, नरेंद्र प्लेस, जंतर मंतर के पास और सिंधिया हाउस बनाए। ये सब उनकी निजी संपत्तियां थीं।
अंग्रेजी लेखक रस्किन बांड “सीन्स फ्रॉम ए राइटर्स लाइफ“ पुस्तक में 40 के दशक की दिल्ली में अपने पिता घर के बारे में लिखते हैं कि उन्होंने कनाट सर्कस के सामने एक अपार्टमेंट वाली इमारत सिंधिया हाउस में एक फ्लैट ले लिया था। यह मुझे पूरी तरह से माफिक था क्योंकि यहां से कुछ ही मिनटों की दूरी पर सिनेमा घर, किताबों की दुकानें और रेस्तरां थे। सड़क के ठीक सामने एक नया मिल्क बार (दूध की दुकान) था। जब मेरे पिता अपने दफ्तर गए होते थे तो मैं कभी-कभी वहां स्ट्राबेरी, चॉकलेट या वेनिला का मिल्कशेक पीकर आता था। वही एक अखबार की दुकान से घर के लिए एक कॉमिक पेपर भी खरीदता था। रस्किन लिखते हैं कि उन दिनों में आपको नई दिल्ली से बाहर जाने और आसपास के खेतों में या झाड़ वाले जंगल तक पहुंचने के लिए थोड़ा-बहुत ही चलना पड़ता था। हुमायूँ का मकबरा बबूल और कीकर के पेड़ों से घिरा हुआ था।
1940 के शुरूआती दशक में अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ने कनॉट प्लेस के कई थिएटरों में मंचित अनेक नाटकों में अपने अभिनय का जलवा बिखेरा था। “थिएटर के सरताजःपृथ्वीराज“ पुस्तक के अनुसार, “पृथ्वीराज अपना थिएटर लेकर दिल्ली आए। उनके तीन बहुचर्चित नाटकों-“शकुन्तला”, “दीवार” और “पठान” का रीगल में प्रदर्शन हुआ। तब रीगल अकेला ऐसा सिनेमाघर था जिसमें नाटक-फिल्में दोनों का प्रदर्शन होता था। रीगल का स्वरूप रंगमंच और सिनेमा को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था और इसमें स्टेंडर्ड नामक एक रेस्तरां भी था जो बाद में गेलॉर्ड बन गया। पहले रीगल में फिल्म देखना एक सांस्कृतिक कर्म माना जाता था। उस समय फिल्म देखने का मतलब तक के डेविकोस और आज के स्टैंडर्ड रेस्तरां तथा गेलार्ड में भोजन करना भी होता था। रीगल का डिजाइन नई दिल्ली के वास्तुकार एडविन लुटियंस के दल के साथी वॉल्टर स्काइज़ जॉर्ज ने तैयार किया था।
खुशवंत सिंह ने “सेलिब्रेटिंग दिल्ली” पुस्तक में लिखा है कि उनके पिता (सरदार शोभा सिंह) नए शहर में एक सिनेमा-रीगल का निर्माण करने वाले पहले व्यक्ति थे। शुरू में उन्होंने खुद सिनेमाघर को चलाने की कोशिश की। मुझे याद है कि कई बार सिनेमाघर में केवल दस दर्शक होते थे और उन्हें दर्शकों को टिकट के उनके पैसे वापस लेने के लिए गुहार करनी पड़ती थी, जिससे उन्हें फिल्म को दिखाने पर पैसा बर्बाद नहीं करना पड़े।
यहां तक कि सन् 1952 से जब दिल्ली में बीटिंग रिट्रीट का कार्यक्रम आरंभ हुआ, तब इसका एक समारोह रीगल सिनेमा के सामने मैदान में और दूसरा लालकिले में हुआ था। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू वर्ष 1956 में रीगल में “चलो दिल्ली” फिल्म देखी थी। इसी साल सोवियत संघ नेता ख्रुशचेव और बुल्गानिन भारत की यात्रा पर आए थे। उनके साथ एक सांस्कृतिक दल भी था, जिसने उस समय के दिल्ली के सबसे बड़े थिएटर रीगल सिनेमा में प्रदर्शन किया था।
Saturday, February 2, 2019
History of local taxes in British Delhi_अंग्रेजों की दिल्ली में स्थानीय करों का इतिहास
वर्ष 1823 में पहली बार अंग्रेज गवर्नर जनरल एमहर्स्ट ने दिल्ली में एक नई अवधारणा की वकालत करते हुए कहा था कि कि स्थानीय ’सुधारों’ के लिए नगर शुल्क निर्धारित होगी और और इस उद्देश्य के लिए प्रत्यक्ष कर भी लगाया जा सकता है।
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