अरावली पर्वतमाला प्रायद्वीपीय भारत की पर्वतमालाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं यह विवर्तनिक श्रृंखला का एकमात्र उदाहरण है। भारतीय भूगोल के प्राचीन पुराजीवी तथा मध्यजंतु काल में ये भौगोलिक परिदृश्य के महत्वपूर्ण प्रतिनिधि थे और इनका विस्तार अटूट रूप से एक भव्य पर्वतमाला के रूप में दक्कन से गढ़वाल तक था। किंतु वर्तमान में इस पर्वतमाला का केवल अवशेष हमें दिखलाई देता है जो अपरदन के सतत चक्रों को झेलते हुए इस अवस्था में विद्यमान है। भारत में सबसे प्राचीन पर्वतमाला धारवार काल के अंत में अस्तित्व में आई, जब उस काल के समुद्रों में एक अंदरूनी उग्र परिवर्तन के कारण नीचे का तलछट ऊपर उठ गया था। उस काल से लेकर आज तक अरावली पर्वतमाला भारतीय भूगोल की एक प्रमुख पहचान रही है और कालांतर में निक्षेपों और तलछटों के अपरदन से बनी अनेक निक्षेपात्मक संरचनाओं के निर्माण में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यह क्षेत्र संसार के प्राचीनतम भूगर्भीय अमीनतिय भूभाग का क्षेत्र है। अरावली सिस्टम के निचले हिस्से में क्वार्टजाइट कांग्लोमरेट्स (संगुष्टिकाश्म/मिश्र-पिंडाश्म), शेल, स्लेट, फाइलाइट और नाइस चट्टानें पाई जाती हैं। यह सुस्तरित और धारीदार नाइस चट्टानों के असामान्य अपरदनीय विन्यासों का क्षेत्र है।
बनावट की दृष्टि से अरावली भूगर्भीय समभिनति का प्रतिनिधित्व करती है। इसमें अरावली तथा दिल्ली सिस्टम की चट्टान भरी हुई है। इनमें आधारभूत रूप से नाइस तथा ग्रेनाइट चट्टानों का अतिक्रमण देखा जा सकता है जो निश्चिंत रूप से उपरोक्त दोनों चट्टानों से पुरानी है। अरावली की चट्टानों में सघन कायांतरण की प्रक्रिया होती रही है। इस सिस्टम का अधिकांश भाग मृण्मय निक्षेपण से बना है जिनका रूपांतरण, शेल स्लेट तथा फिलाइट से क्रमशः माइका की स्तरित चट्टानों के रूप में हुआ है।
अरावली पर्वतमाला एक वक्रीय तलवार की तरह है तथा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा में इस क्षेत्र की सर्वप्रमुख भू-आकृतिक संरचना के रूप में विस्तृत है। यह श्रृंखला समान चौड़ाई वाली नहीं है तथा यह गुजरात के पालनपुर से दिल्ली तक 692 किलोमीटर लंबी है। अरावली श्रृंखला के सबसे भव्य और सर्वाधिक प्रखर हिस्से मेवाड़ और मेरवाड़ा क्षेत्र के पहाड़ों के हैं जहां ये अटूट श्रृंखला के रूप में मौजूद हैं। अजमेर के बाद ये टूटी-फूटी पहाड़ियों के रूप में देखे जा सकते हैं। इस क्षेत्र में इनकी दिशा उत्तर पूर्ववर्ती उभार के रूप में सांभर झील के पश्चिम से होते हुए क्रमशः जयपुर, सीकर तथा अलवर से खेतड़ी तक जाती है। खेतड़ी में यह अलग-थलग पहाड़ियों के रूप में जमीन की सतह में विलीन होने लगती हैं और इसी रूप में इन्हें दिल्ली तक देखा जा सकता है।
रायलो श्रृंखला स्पष्टता के साथ अरावली पहाड़ियों से ऊपर और अलग नजर आती है। अरावली के उत्तरी हिस्से में रायलो श्रृंखला एक बार फिर अलग से दिखाई पड़ती है। यहां यह क्वार्ट्जाइट (कोल्हुआ पत्थर), ग्रिट और स्तरित चट्टानों से बनी, दिल्ली शहर के मशहूर रिज के रूप में मौजूद है। दिल्ली सिस्टम में विविध प्रकार की मूल चट्टानें प्रविष्ट हैं तथा ग्रेनाइट बॉस तथा लैकोलाइट की श्रृंखला एवं इससे संबद्ध पेगमलाइट तथा एपलाइट चट्टानों का समूह भी पाया जाता है जो अरावली श्रृंखला के पश्चिमी हिस्से तक एक बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। दिल्ली सिस्टम को पुराण युग के प्रारंभ के संकेत के रूप में देखा जा सकता है जिसमें इससे प्राचीनतर अरावली (आर्कियन) सिस्टम की अपेक्षा आग्नेय चट्टानों की विविधता और बहुलता है। यहां चट्टानों के सघन रूपांतरण को देखा जा सकता है। हिमनदीय परिस्थितियों के प्रमाण अरावली में बोल्डर बेडों के रूप में पाए जाते हैं। उत्तर में मुख्यतः अरावली पर ही हिमानी मैदान होते थे जहां से हिमनदियां सभी दिशाओं में बहती थीं।
अरावली पर्वतमाला वास्तविक विवर्तनिक श्रृंखला के सर्वोत्तम उदाहरणों में से एक है। यह उत्तर भारत का प्रमुख जल विभाजक (पनढाल) है जो गंगा नदी तंत्र के अपवाह क्षेत्र को सिंधु नदी तंत्र के अपवाह क्षेत्र से पृथक करता है। अरावली पर्वतमाला की सर्वाधिक स्थायी और सतत संरचनात्मक विशेषता यह है कि इसकी उत्कृष्ट क्वार्टजाइट चट्टानें अनाच्छादन का बेहतर प्रतिरोध कर सकती हैं और इसीलिए ये एक लगभग समतल परकोटे के रूप में मौजूद हैं।
पृथ्वी के भूवैज्ञानिक इतिहास के प्राचीनतम एवं नवीनतक अध्यायों क्रमशः पूर्व-कैम्ब्रियन तथा क्वाटरनरी, दोनों काल की चट्टानें दिल्ली सिस्टम में विद्यमान हैं। इन कालावधियों के बीच के काल का रिकार्ड स्पष्ट नहीं है क्योंकि यह क्षेत्र पूर्व-कैम्ब्रियन काल (1500 मिलियन वर्ष पूर्व) के उत्तरार्द् में समुद्र की सतह से ऊपर उठा था। तबसे यह उप-वायवीय अपरदन का साक्षी रहा है। इसका नवोन्मेष 800 मिलियन वर्ष पहले, पूर्व-कैम्ब्रियन काल के अंतिम खंड में हुआ। 250 मिलियन वर्ष पूर्व परमो-कार्बोनीफेरस काल में, जब गोंडवानालैंड के नाम से विख्यात विशाल महाद्वीप के रूप में भारत, मालागैसी, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया तथा अंटार्कटिका संयुक्त थे, इस विशाल महाद्वीप के उत्तर-पूर्वी कोण में अरावली पर्वतमाला मेरूदंड का काम करती थी। एक मिलियन वर्षों से भी अधिक पहले अत्यंत नूतन काल में इसका नवोन्मेष हुआ। तुगलकाबाद का क्वार्ट्जाइट वाला पठारी भाग समुद्रतल से 243 मीटर ऊंचा तथा जमीन की सतह से 30 मीटर ऊंचा है। यहां की पहाड़ियों, रिजों और पठारों का विन्यास असामान्य है। यहां चारों तरफ क्वार्टरनरी काल की जलोढ़ मिट्टी तथा वायु-निक्षेपित बालू आच्छादित है।
अरावली पर्वतमाला और यमुना नदी
महान भारतीय जल-विभाजक अरावली, अरब सागर सिस्टम तथा पश्चिमी राजस्थान के अपवाह क्षेत्र को यमुना नदी द्वारा (जिसका जलस्त्रोत चंबल, बानगंगा, कुंवारी तथा सिंधु आदि नदियां हैं) गंगा सिस्टम से अलग करती है। इसमें चंबल सिस्टम शायद यमुना से भी पुराना है, क्योंकि टर्शियरी और होलोसीन कालों में यह सिंधु सिस्टम का एक हिस्सा हुआ करता था। गंगा डेल्टा के अवतलन के कारण तथा बाद में अरावली-दिल्ली धुरी क्षेत्र के उभार के कारण यमुना के प्रवाह मार्ग में परिवर्तन होने लगा, वह गंगा की सहायक नदी बन गई तथा मध्यक्षेत्रीय अग्रभाग में प्रवाहमान चंबल और अन्य नदियों के अपवाह क्षेत्र का इसने अपहरण कर लिया। सरस्वती नदी तंत्र का 1800 ईसा पूर्व परित्याग करने के बाद पूर्ववर्ती बहने वाली यमुना अपने प्रवाह मार्ग को तीव्र गति से परिवर्तित करती हुई पूर्व दिशा में ही बहती रही।
अरावली पर्वतमाला में मानव पुरावास
पहाड़ियों के ऊपर क्वार्ट्जाइट चट्टानों के खुले शैल दृश्यांशों से यमुना बेसिन में स्थित पुरापाषाण बाशिंदों को आवश्यक कच्चा माल सहजता से उपलब्ध हो जाता था। इसके अतिरिक्त इस इलाके में सघन वनों में रहने वाले जानवर बहुतायत में पाए जाते थे। पुराप्रवाह मार्ग पाषाणकालीन मनुष्य को कम खतरनाक पशुओं को हांक कर अपना शिकार बनाने के लिए अपनी सही स्थिति उपलब्ध कराते थे। वे या तो जानवरों को खदेड़कर पानी में डूबने देते थे या फिर इस भागदौड़ में जानवरी खुद घायल हो शिकार बन जाते थे। परवर्ती काल में जब मौसम खुशक होने लगा तब पाषाणकालीन बाशिंदों ने विवश होकर इस घाटी को छोड़ दिया। मरूभूमि के विस्तार के कारण इन पहाड़ियों को बालू की आंधियों का सामना करना पड़ा जिसके फलस्वरूप पर्यावरण पैटर्न में प्रतिकूल परिवर्तन होते गए।
दिल्ली रिज का वनस्पति समूह
अपनी भौगोलिक स्थिति तथा यहां के उप-उष्णकटिबंधीय मौसम के कारण इस क्षेत्र में सघन वानस्पतिक विविधता पाई जाती है। यहां के रिज क्षेत्र में स्थायी वनस्पति के रूप में कंटीले वृक्षों की प्रजातियां तथा कुछ कंटीली झाड़ियां उगती है। कीकर, कत्था, फुलाही, और, ये एकेशिया प्रजाति की हैं। एकेशिया प्रजाति की तरह ही प्रोसोपिस प्रजाति है, फिर अन्य प्रजातियां भी हैं, जैसे पीलू, हल्दू, हिंगोल, नीम, ढाक। जंगली खजूर के झुरमुट भी कहीं-कहीं दिखाई पड़ते हैं। यहां की स्थायी प्रकार की झाड़ियों में हीनस, करोर, बेर, ककेरा, लैसूरा तथा बांस की प्रजातियां भी छोटी झाड़ियों के रूप में पाई जाती है। पुराप्रवाहिकाओं तथा क्वार्ट्जाइट चट्टानों के भूगर्भीय वलनों के कारण बने अवनमनों या गर्तों में जो प्रजातियां पाई जाती हैं वे हैं-धॉय, तेंदू, सफेद चमेली, रोहेरा, हैथी और बेर। यहां अस्थायी प्रकृति की जड़ी-बूटियां भी पाई जाती हैं जिनमें प्रमुख हैं-लापा, मिस्सी, झोझरू, पुरर्नवा, कसनी, तिल, हुलहुल, गोखरू तिा विविध घासों एवं नरकटों की प्रजातियां। कंटीली झाड़ियों की ये प्रजातियां अनेक लतिकाओं एवं वल्लरियों को आश्रय प्रदान करती हैं जिनमें प्रमुख हैं-अमरबेल, रामबेल तथा एक अर्ध परजीवी (बंडा)।
दिल्ली रिज का जंतु समूह
इस क्षेत्र में जो प्रमुख मांसाहारी जानवर पाए जाते हैं, उनमें प्रमुख हैं-लकड़बग्गा, गीदड़, लोमड़ी, सियार तथा तेंदुआ एवं नेवला। खुरदार जानवरों में जंगली वराह, काला हिरण, नीलगाय प्रमुख हैं। इनके अलावा मछलियां, खरहे, चूहे, गिलहरी भी पाए जाते हैं। पक्षियों में जंगली कौआ, जंगली पंडुक, जंगली बेबलर, बया पक्षी, बंगाली गिद्व, नीलकंठ इत्यादि चट्टानी और घाटी इलाके में काफी संख्या में पाए जाते हैं। मध्यकालीन युग में दिल्ली के रिज वाला इलाका शिकार के लिए काफी मशहूर रहा, जिसका प्रमाण फिरोजशाह तुगलक के काल (1351-1388) में बने शिकार महलों से मिलता है। जिनमें से चार की जानकारी मिलती हैं-मालचा महला या मालचा बिस्टदारी तथा कुश्क महल (दक्षिणी रिज क्षेत्र में), भूली-भटियारी का महल (मध्य दिल्ली का रिज) तथा पीर-गालिब (दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट उत्तरी रिज)।
दिल्ली विकास प्राधिकरण के अनुसार, मोहम्मदपुर, मुनीरका, बसंत गांव, मसदूपुर, कुसुमपुर, महिपालपुर और मुरादाबाद पहाड़ी में आने वाले बड़े भूखंड़ों के सबंध में अधिग्रहण की प्रक्रिया दिल्ली के सुनियोजित विकास के लिए प्रारंभ की गई थी, न कि किसी विशिष्ट परियोजना के लिए। तत्पश्चात, कुल अधिग्रहीत भूमि में से, भूमि के कुछ भाग में अरावली जैव विविधता उद्यान का विकास करने का निर्णय लिया गया था।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने टी.एन. गोदावर्मन बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में 1995 की रिट यिचका (सी) सं. 202 की विभिन्न आई ए में दिनांक 29 और 30 अक्तूबर 2002 और 16 दिसम्बर 2002 के अपने आदेश द्वारा समूची अरावली खंला में सभी खनन कार्यकलापों को प्रतिबंधित और निषिद्ध किया है। दोबारा उच्चतम न्यायालय ने दिनांक 08.10.2009 के अपने आदेश द्वारा कतिपय शर्तों सहित, अरावली पहाड़ी क्षेत्र में कतिपय क्षेत्रों में खनन कार्य अनुमत किया था। उन शर्तों में से एक शर्त यह थी कि खनन प्रचालन, वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के अंर्तगत पूर्व अनुमोदन और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के अंर्तगत स्वीकृति सहित आवश्यक मंजूरियां प्राप्त करने के बाद प्रारम्भ किए जा सकते थे। अरावली पहाड़ी क्षेत्र के संबंध में एक नीति लाने की कोई आवश्यकता नहीं है और केंद्र सरकार की उसके लिए कोई योजना नहीं है।
दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के अनुसार, उसने 692.00 एकड़ की कुल अपेक्षित भूमि में से अरावली जैव विविधता पार्क के विकास के लिए 689.35 एकड़ भूमि अधिग्रहीत की है। दिल्ली में अरावली जैव विविधता पार्क के लिए शेष 2.65 एकड़ भूमि सहित भूमि का अधिग्रहण भूमि और भवन विभाग, दिल्ली सरकार द्वारा वर्तमान अधिनियम, नियम और नीतियों के अनुसार किया जाता है।
केंद्र सरकार ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत दिनांक 7 मई, 1992 की अधिसूचना द्वारा अरावली रेंज के विनिर्दिष्ट क्षेत्रों में पर्यावरणीय अवक्रमण करने वाली कुछ प्रक्रियाओं और प्रचालनों पर रोक लगा दी थी। बाद में केंद्र सरकार ने दिनांक 29 नवंबर, 1999 को अधिसूचना द्वारा इस क्षेत्र में पर्यावरण गुणवत्ता की सुरक्षा और सुधार के लिए उपाय करने हेतु इसे प्रदत्त अधिकारों को संबिंधत राज्यों हरियाणा और राजस्थान को सौंप दिया था।
उपर्युक्त अधिसूचना में संबंधित राज्य सरकार के पर्यावरण विभाग के सचिव की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के उल्लंघनों पर आवश्यक कार्रवाई करने के लिए संबंधित (हरियाणा में गुड़गांव और राजस्थान में अलवर) जिला अधिकारी की अध्यक्षता में मॉनीटिरंग समिति का गठन करने का प्रावधान है। राज्य सरकारों से पर्यावरण सरोकारों को शामिल करते हुए इस क्षेत्र का विकास करने और भविष्य में भू-उपयोग के लिए मास्टर प्लान तैयार करने की अपेक्षा भी की गई थी।
No comments:
Post a Comment