Saturday, March 16, 2019

sarai in india_भारत में सराय की समृद्ध परंपरा

दैनिक जागरण, 16/03/2019 





भारत में यात्रियों के लिए आश्रय की अवधारणा नई नहीं है। ऐतिहासिक अभिलेखों और पुस्तकों में धर्मशाला, विहार, सराय और मुसाफिरखाना जैसे शब्दों का उल्लेख है। इन प्रतिष्ठानों ने सभी पर्यटकों-चाहे वे तीर्थयात्री, विद्वान, व्यापारी या साहसी व्यक्ति कोई भी हो-को आश्रय प्रदान किया। भारतीय संस्कृति में हमेशा से विभिन्न रूपों आश्रय देने की एक महत्वपूर्ण सामाजिक परंपरा थी, जिसके माध्यम से सर्वसाधारण जन को भी सेवा प्रदान की जाती थी।


मोतीचन्द्र की पुस्तक "सार्थवाह" के अनुसार, प्राचीन भारत में सड़कों पर यात्रियों के आराम के लिए धर्मशालाएं होती थी। अंग और मगध के वे नागरिक, जो एक राज्य से दूसरे राज्य में बराबर यात्रा करते थे, उन राज्यों के सीमान्त पर बनी हुई एक सभा में ठहरते थे। रात में मौज से शराब, कबाब और मछलियां उड़ाते थे तथा सवेरा होते ही वे अपनी गाड़ियों कसकर यात्रा के लिए निकल पड़ते थे। उपर्युक्त विवरण से यह पता चलता है कि सभा का रूप मुगल युग की सराय जैसा था।


"धम्मपद अठ्ठकथा" के अनुसार, ऐसा पता चलता है कि तक्षशिला के बाहर एक सभा थी, जिसमें नगर के फाटकों के बंद हो जाने पर भी यात्री ठहर सकते थे। यात्रियों के आराम के लिए सड़कों के किनारे कुओं और तालाबों का प्रबन्ध रहता था। एक तरह से कहा जा सकता है कि भारत में यात्रा के मध्य आश्रय प्रदान करने की अवधारणा को संस्थागत बनाने वालों में सर्वप्रथम बौद्ध भिक्षु ही थे। भारत के समूचे दक्षिण पश्चिमी क्षेत्र में यत्र-तत्र बिखरे हुए गुफा मंदिरों में पूजा और प्रार्थना के लिए चैत्य और विहार (मठ) दोनों थे। ये भिक्षु आबादी वाले कस्बों और गाँवों से दूर रहने के बावजूद भी यात्रियों और तीर्थयात्रियों की जरूरतों के बारे में सजग थे। इसी का परिणाम था कि इन मठों में उन्हें आश्रय और भोजन दोनों मिलता था। यह याद रखना दिलचस्प है कि ये मठ प्राचीन व्यापार मार्गों पर क्षेत्र के महत्वपूर्ण तीर्थ केंद्रों के बीच में ही स्थित थे।
"शब्दों का सफर" नामक तीन खंडों वाली पुस्तक के लेखक अजित वडनेकर के अनुसार, फारसी में कारवां सराय शब्द भी इस्तेमाल होता है जिसका मतलब है राजमार्गों पर बने विश्रामस्थल। प्राचीनकाल से ही राहगीरों की सुविधा के लिए शासन की तरफ से प्रमुख मार्गों पर विश्रामस्थल बनवाए जाते थे जहां कुछ समय सुस्ताने के बाद राहगीर आगे का सफर तय करते थे। गौरतलब है कि पुराने जमाने में अधिकांश यात्राएं पैदल या घोड़ों की पीठ पर तय की जाती थीं। सराय शब्द में मूलतः आश्रय का भाव है। ईरानी संस्कृति में सराय की अर्थवत्ता में महल भी शामिल है। मुस्लिम शासन के दौरान सराय शब्द का इस्तेमाल उत्तर भारत में खूब बढ़ा। सराय के धर्मशाला वाले अर्थ में इसका खूब विस्तार हुआ। देश भर में कई आबादियां बिखरी पड़ी हैं जिनके नाम के साथ-साथ सराय शब्द लगाता है। 


मुगलों के पड़ाव या डेरे के तौर पर बसी आबादी को मुगलसराय नाम से जाना जाता है। जाहिर है कभी यहां सराय नाम की इमारत जरूर रही होगी। शेख सराय और बेर सराय, जैसे नामों से यह साफ है। यहां तक कि दिल्ली के एक उपनगरीय रेलवे स्टेशन का नाम सराय रोहिल्ला है। जहां से आजकल राजस्थान की ओर जाने वाले रेलगाड़ियां चलती है।

"दिल्ली तेरा इतिहास निराला" पुस्तक में "सराय की प्रत्यय" वाले दिल्ली के गांवों के नाम सहित उनकी बसावट के इतिहास की रोचक ढंग से विस्तृत जानकारी दी गई है। ऐसे ही कुछ गांवों के नाम हैं, कानू सराय, लाडो सराय, नेब सराय, कटवाड़िया सराय, जिया सराय, दादो सराय, तोत सराय, शाहजी सराय, गांव बुआ सराय, यूसुफसराय, सरबन सराय, गटटू सराय, सराय कबीरुद्दीन, सूरा सराय और हमीद सराय। जैसे दरख्त नेब यानी नीम के पेड़ के कारण नेब सराय तो तोते के नाम पर तोत सराय पड़ा। वहीं गांव बुआ सराय पर बसे आज के मस्जिद मोठ इलाके की मस्जिद मोठ की दाल की भरपूर फसल होने के कारण मशहूर हुई। मालवीय नगर में विजय मंडल के उत्तर पश्चिम में लगभग 500 मीटर की दूरी पर कालू सराय नामक एक छोटा गांव भी है। 


"दिल्ली और उसका अंचल" पुस्तक के अनुसार, वर्तमान दिल्ली करनाल रोड से सब्जी मंडी को जोड़ने वाली सड़क पर एक सराय थी जो गुड़ की सराय कहलाती थी और जिसे बाद के मुगल काल में बनवाया गया था। इसके तीन प्रवेश द्वारों से, जिनके दोनों छोरों पर मेहराबी दरवाजे हैं, पुरानी ग्रांड ट्रंक रोड गुजरती थी। यह ज्यादातर ईटों से निर्मित है यद्द्पि उसकी परत में बलुआ पत्थर का भी इस्तेमाल हुआ है। ये द्वार जैसा कि उनके दोनों प्रवेश द्वार पर एक-एक अभिलेख से पता चलता है कि नाजिर महलदार खां ने 1728-29 में बनवाए थे।


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