Communal composition in Early British Delhi_अंग्रेजों की दिल्ली में सांप्रदायिक तानाबाना
20072019, दैनिक जागरण
भारत में एक विदेशी राज होने के नाते अंग्रेज शासकों ने दिल्ली में सभी समुदायों में संतुलन बनाए रखने में ही भलाई समझी। अंग्रेजों ने इसके लिए अवसर के हिसाब से साम-दाम-दंड-भेद सभी तरह के उपाय किए। वर्ष 1807 में शहर में जोर-शोर से एक रथयात्रा जुलूस को प्रायोजित करने वाले एक जैन बैंकर के विरुद्ध प्रदर्शनों को लेकर तनाव व्याप्त था। जे काये की पुस्तक "लाइफ ऑफ़ सी मेटकाॅफ" में चार्ल्स मेटकाॅफ ने इस घटना का उल्लेख करते हुए बताया है कि अगर नागरिक प्रशासन ने समय पर सेना को तैनात नहीं किया होता तो दंगा होता। वर्ष 1816 और 1834 में जैनियों और हिंदुओं के मध्य तनाव होने के कारण ऐसे जुलूसों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 1837 में मजिस्ट्रेट लिंडसे ने ताजियों की पारंपरिक घोषणा को बदलकर शियाओं के पक्ष में कर दिया। शियाओं से दोगुना संख्या में सुन्नियों ने इस फैसले के खिलाफ थॉमस मेटकाॅफ को अपील की, जिसने उसे निरस्त कर दिया। वर्ष 1853 और 1855 में रेसिडेंट ने ईद और रामलीला उत्सव के दौरान संभावित संघर्ष को टालने के लिए सेना के जवानों को तैनात किया था।
मुगलों ने दिल्ली में ऐसे संघर्षों को न्यूनतम रखने के लिए एक रास्ता खोजा हुआ था। उन्होंने चांदनी चौक को अपने जुलूसों के लिए ही सुरक्षित किया हुआ था। रामलीला का जुलूस पारंपरिक रूप से मोरी गेट से होते हुए निगमबोध घाट, उत्तर दिशा में लालकिले के रास्ते को छोड़ते हुए, तक निकलता था। मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के जमाने में मुगलों ने गाय के वध को प्रतिबंधित करते हुए हिंदुओं की भावनाओं को आहत न करने का रास्ता अपनाया था। यही कारण है कि वर्ष 1852 में बहादुरशाह ने ऊंट की और उनके दरबारियों ने बकरियों की बलि दी थी। जबकि इसके उलट वर्ष 1853 में थॉमस मेटकाॅफ ने त्यौहारों पर गोवध करने की अनुमति का एक निर्णय दिया। बहादुरशाह और शहर के हकीम असानुल्लाह खान इस फैसले से नाखुश थे।
"दिल्ली बिटविन टू एम्पायर्स" पुस्तक के अनुसार, 1857 की आजादी की पहली लड़ाई के ठीक पहले, आर.ई. एगर्टन ने एक हिंदू बाहुल्य बस्ती में मुस्लिम कसाइयों को गोवध की अनुमति दे दी। इस निर्णय के विरुद्ध हिंदू दुकानदारों ने तीन दिन तक हड़ताल रखी जब तक यह फैसला निरस्त नहीं किया गया। उल्लेखनीय है कि गोमांस की खपत का एक बड़ा केंद्र अंग्रेज छावनियां थी, जहां पर गोरे सैन्य अधिकारी और सैनिकों को भोजन के रूप में गोमांस परोसा जाता था। वर्ष 1885 में एक स्थानीय अखबार मुफीद-ए-हिंद ने दो मुसलमानों की गलियों से गोमांस ले जाने के कारण हिंदू दुकानदारों को नाराज करने की बात की आलोचना की और एक सांप्रदायिक दंगे की आशंका जाहिर की।
इतना ही नहीं, आज के दिल्ली क्लॉथ मिल्स (डीसीएम) के पहले अध्यक्ष और हिंदू काॅलेज के संस्थापक श्रीकृष्ण दास गुड़वाले ने वर्ष 1885 में उस परंपरा को भी समाप्त कर दिया, जिसके तहत वर्ष 1860 के बाद शहर के मुसलमान ईद उल फितर के बाद गुड़वाले के महालदार बाग में "तार मेला" मनाते थे। गुड़वाले परिवार ने वर्ष 1858 में महालदार बाग खरीदा था। गुड़वाले का कहना था कि वे नहीं चाहते कि वहां पर गोमांस पकाया जाए। शायद यह उनके व्यक्तित्व पर आर्यसमाज का प्रभाव का परिणाम था।
वर्ष 1885 में अंग्रेज डिप्टी कमिशनर ने अगले बरस मुहर्रम और रामलीला के एक साथ पड़ने के कारण स्थानीय हिंदू और मुसलमानों से बातचीत से इंतजाम किए। 1887 में बुलाकी दास ने अपने अखबार "सफिर-ए-हिंद" में शाहआलम का फरमान छापा, जिसमें गोवध पर पाबंदी लगाने की बात थी।
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