Saturday, November 30, 2019
Wednesday, November 27, 2019
Historical connection of Delhi and Rajathan_दिल्ली-राजस्थान का ऐतिहासिक नाता
दिल्ली से लेकर नई दिल्ली तक के निर्माण और उन्नयन में राजस्थान की उल्लेखनीय भूमिका रही है। यह बात इतिहास सम्मत है कि राजस्थान के पत्थर से लेकर आदमियों तक का दिल्ली के विकास में अप्रतिम योगदान रहा है। वह बात अलग है कि इस बात पर इतिहास में एक लंबा मौन ही पसरा है।
यह विश्वास किया जाता है कि दिल्ली के प्रथम मध्यकालीन नगर की स्थापना तोमरों ने की थी, जो ढिल्ली या ढिल्लिका कहलाती थी जबकि ज्ञात अभिलेखों में “ढिल्लिका“ का नाम सबसे पहले राजस्थान में बिजोलिया के 1170 ईस्वी के अभिलेख में आता है। जिसमें दिल्ली पर चौहानों के अधिकार किए जाने का उल्लेख है। राजा विग्रहराज चतुर्थ (1153-64) ने जो शाकंभरी (आज का सांभर जो कि अपनी नमक की झील के कारण प्रसिद्ध है) के चौहान वंश के बीसल देव के नाम से जाना जाता है, राज्य संभालने के तुरंत बाद शायद तोमरों से दिल्ली छीन ली थी।
उसके बाद जब पृथ्वीराज चौहान, जो कि राय पिथौरा के नाम से भी प्रसिद्ध थे, सिंहासन पर बैठे तो उन्होंने लाल कोट का विस्तार करते हुए एक विशाल किला बनाया। इस तरह, लाल कोट कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है बल्कि लाल कोट-रायपिथौरा ही दिल्ली का पहला ऐतिहासिक शहर है। इस किलेबंद बसावट की परिधि 3.6 किलोमीटर थी। चौहान शासन काल में इस किलेबंद इलाके का और अधिक फैलाव हुआ जो कि किला-राय पिथौरा बना। बिजोलिया के अभिलेख में उसके द्वारा दिल्ली पर अधिकार किए जाने का उल्लेख है।
“दिल्ली और उसका अंचल” पुस्तक के अनुसार, अनंगपाल को “पृथ्वीराज रासो“ में अभिलिखित भाट परम्परा के अनुसार दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। यह कहा जाता है कि उस (अनंगपाल) ने लाल कोट का निर्माण किया था जो कि दिल्ली का प्रथम सुविख्यात नियमित प्रतिरक्षात्मक प्रथम नगर के अभ्यन्तर के रूप में माना जा सकता है। वर्ष 1060 में लाल कोट का निर्माण हुआ। जबकि सैयद अहमद खान के अनुसार, किला राय पिथौरा वर्ष 1142 में और ए. कनिंघम के हिसाब से वर्ष 1180 में बना।
अंग्रेज इतिहासकार एच सी फांशवा ने अपनी पुस्तक “दिल्ली, पास्ट एंड प्रेजेन्ट” में लिखा है कि यह एक और आकस्मिक संयोग है कि दिल्ली में सबसे पुराने हिंदू किले का नाम लाल कोट था तो मुसलमानों (यानी मुगलों के) नवीनतम किले का नाम लाल किला है।
रायपिथौरा की दिल्ली के बारह दरवाजे थे, लेकिन तैमूरालंग ने अपनी आत्मकथा में इनकी संख्या दस बताई है। इनमें से कुछ बाहर की तरफ खुलते थे और कुछ भीतर की तरफ। इन दरवाजों को अब समय की लहर ने छिन्न-भिन्न कर दिया है। मुस्लिम और पठान काल की दिल्ली के जो दरवाजे मशहूर रहे, उनमें अजमेरी दरवाजा मशहूर है।
वर्ष ११९२ में तराइन की लड़ाई में चौहानों की हार के बाद दिल्ली में राज की जिम्मेदारी मुहम्मद गोरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने संभाली। ऐबक के समय में तोमरों और चौहानों के लाल कोट के भीतर बनाए सभी मन्दिरों को गिरा दिया और उनके पत्थरों को मुख्यतः कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद के लिए पुनः इस्तेमाल किया गया। कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार, इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में मुस्लिम शासन से पहले प्रचलित राजपूत मुद्रा “देहलीवाल“ कहलाती थी।
दिल्ली के संदर्भ में पृथ्वीराज रासो एवं उसके कवि चंद (चंदरबरदायी) का विशेष महत्व है। चंदबरदायी दिल्लीश्वर पृथ्वीराज चौहान के समकालीन होने का तथ्य असंदिग्ध है। “पृथ्वीराज रासो“ एक विशाल प्रबंध काव्य है। हिंदी साहित्य में इसे पहला महाकाव्य होने का भी श्रेय प्राप्त है। चंद-कृत पृथ्वीराज रासो का संबंध दिल्ली के केंद्र से है। विक्रमी संवत् की बारहवीं शताब्दी से दिल्ली मंडल की अर्थात् योगिनीपुर, मिहिरावली, अरावली-उपत्यका-स्थित विभिन्न अंचलों और बांगड़ प्रदेश के विभिन्न स्थलों का जितना विशद और प्रत्यक्ष चित्रण इस ग्रंथ में है उतना अन्य किसी समकालीन हिंदी ग्रन्थ में नहीं मिलता। चंदरबरदायी के संबंध में प्रसिद्ध है कि वे दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के बाल सखा, परामर्शदाता एवं राजकवि थे। पृथ्वीराज के भाट कवि चंद ने उन्हें जोगिनीपुर नरेश, ढिल्लयपुर नरेश (दिल्लीश्वर) आदि के नाम से उल्लखित किया है। थरहर धर ढिल्लीपुर कंपिउ।
उल्लेखनीय है कि हिन्दी भाषा का आरंभिक रूप चंदरबरदाई के काव्य पृथ्वीराज रासो में मिलता है जो कि पृथ्वीराज चौहान के दरबार के राजकवि और बालसखा थे। ग्वालियर के तोमर राजदरबार में सम्मानित एक जैन कवि महाचंद ने अपने एक काव्यग्रंथ में लिखा है कि वह हरियाणा देश के दिल्ली नामक स्थान पर यह रचना कर रहा है।
यह बात कम जानी है कि आज की समूची लुटियन दिल्ली जिस जमीन पर खड़ी है, उस पर मुगलों के जमाने से जयपुर राजघराने का अधिकार था। जयपुर रियासत ने 1911 में कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित हुई नयी राजधानी के लिए जयसिंहपुरा और माधोगंज गावों की 314 एकड़ जमीन प्रदान की थी। पर यह सब इतनी आसानी से नहीं हुआ। जयपुर के तत्कालीन कछवाह नरेश माधो सिंह द्वितीय (1861-1922) के वकीलों और अंग्रेज अधिकारियों के मध्य काफी लिखत-पढ़त हुई। महाराजा जयपुर ने दिल्ली के जयसिंहपुरा और माधोगंज (आज की नई दिल्ली नगर पालिका परिषद का इलाका) में स्थित उनकी इमारतों और भूमियों का नई शाही (अंग्रेज) राजधानी के लिएअधिग्रहण न किया जाए, इस आशय की याचिकाएं दी थी।
18 जून 1912 को महाराजा जयपुर के वकील शारदा राम ने दिल्ली के डिप्टी कमिशनर को दी याचिका में लिखा कि राज जयपुर के पास दिल्ली तहसील में जयसिंह पुरा और माधोगंज में माफी (की जमीन) है, और ब्रिटिश हुकूमत ने राजधानी के लिए इसके अधिग्रहण का नोटिस भेजा है। राज की यह माफी बहुत पुरानी है और उनमें से एक की स्थापना महाराजा जयसिंह ने और दूसरे की महाराजा माधोसिंह ने की थी, जैसा कि मौजों के नाम से स्पष्ट है। राज जयपुर की स्मृति में छत्र, मंदिर, गुरूद्वारे, शिवाले और बाजार जैसे कई स्मारक हैं और राज ने माफी की जमीन का आवंटन इन तमाम संस्थाओं के खर्च निकालने के लिए किया है। मुगल सम्राटों के समय में जब दिल्ली राजधानी हुआ करती थी तो, राजा का एक बहुत बड़ा मकान था जो अब बर्बादी की हालत में है और राजा का यह दृढ़ संकल्प है कि दिल्ली को एक बार फिर ब्रिटिश भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी बनाए जाने के सम्मान में इसे बहुत शानदार और सुंदर बनाया जाए। इसलिए, विनती है कि इन संस्थाओं और पुराने अवशेषों को उनके साथ की जमीनों सहित अधिग्रहित न किया जाए और उन्हें राज के नियंत्रण और देखरेख में छोड़ दिया जाए। इसे (जयपुर महाराज को), (अंग्रेज) सरकार की योजनाओं के अनुसार राज की कीमत पर सरकार की इच्छानुसार मकान, कोठियां, सड़कें आदि बनाने पर कोई ऐतराज नहीं है और राज ऐसी कोई जमीन मुफ्त में देने में तैयार है, जिसकी जरूरत सरकार को अपनी खुद की सड़कें खोलने या बनाने के लिए हो सकती है। उल्लेखनीय है कि जयपुर नरेश माधो सिंह द्वितीय 1902 में ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्याभिशेक समारोह में इंगलैंड गए थे। अंग्रेजों की उन पर विशेष कृपादृष्टि का ही नतीजा था कि उन्हें 1903 में जीसीवीओ और 1911 में जीवीआई की सैन्य उपाधि दी गयी। इतना ही नहीं, 1904 में माधोसिंह को अंग्रेज भारतीय सेना में 13 राजपूत टुकड़ी का कर्नल और 1911 में मेजर जनरल का पद दिया गया।
नई दिल्ली के निर्माण के समय एडवर्ड लुटियन ने वॉइसरॉय हाउस (राश्ट्रपति भवन) और ऑफ़ इंडिया वार मेमोरियल (इंडिया गेट) को तो बेकर ने दोनों सचिवालयों और कॉउंसिल हाउस (संसद भवन) को पश्चिमी वास्तुकला की शास्त्रीय परंपरा के अनुरूप बनाया। पर इन भवनों में कुछ भारतीय तत्व भी समाहित किए, जिनमें मुख्य सामग्री के रूप में चमकदार पॉलिश और धौलपुर का लाल बलुआ पत्थर था। दिल्ली की कुतुब मीनार और हुमायूं के मकबरे में ऐेसे ही पत्थर के प्रयोग की अनुकृति का उदाहरण सामने था। लुटियन और बेकर ने विशिष्ट भारतीय (मूल रूप से राजस्थानी) रूप से “छज्जा“ अपनाया जो कि सूरज और बारिश दोनों से बचाव के रूप में ढाल का काम करता था। दो सचिवालय की इमारतें, नार्थ ब्लॉक और सॉउथ ब्लॉक, केंद्रीय धुरी के मार्ग, आज का राजपथ, के आमने-सामने खड़ी हैं। नॉर्थ ब्लॉक के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण लेख में लिखा है, जनता को स्वतंत्रता स्वतः ही नहीं प्राप्त होगी। जनता को स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए जागृत होना होगा। यह एक अधिकार है जिसे लेने के लिए स्वयं को काबिल बनाना पड़ता है।“
राजपथ पर इंडिया गेट के पीछे एक लंबी खाली छतरी है, जिसे लुटियन ने ही वर्ष 1936 में किंग जॉर्ज पंचम की स्मृति में लगने वाली एक प्रतिमा के लिए बनाया था। इस खाली छतरी पर प्रसिद्व साहित्यकार अज्ञेय ने लिखा है कि महापुरुषों की मूर्तियाँ बनती हैं, पर मूर्तियों से महापुरुष नहीं बनते। ब्रितानी शासकों, सेनानियों, अत्याचारियों तक की मूर्तियाँ हमें देखने को मिलती रहतीं तो हमारा केवल कोई अहित न होता बल्कि हम सुशिक्षित हो सकते। राजपथ में एक मूर्तिविहीन मंडप खड़ा रहे, उससे कुछ सिद्ध नहीं होता सिवा इसके कि उसके भावी कुर्सीनशीन के बारे में हल्का मजाक हो सके। उसके बदले एक पूरी सडक ऐसी होती जिसके दोनों ओर ये विस्थापित मूर्तियाँ सजी होतीं और उस सड़क को हम ‘ब्रितानी साम्राज्य वीथी’ या ‘औपनिवेशिक इतिहास मार्ग’ जैसा कुछ नाम दे देते, तो वह एक जीता-जागता इतिहास महाविद्यालय हो सकता। इतिहास को भुलाना चाह कर हम उसे मिटा तो सकते नहीं, उसकी प्रेरणा देने की शक्ति से अपने को वंचित कर लेते हैं। स्मृति में जीवन्त इतिहास ही प्रेरणा दे सकता है।"
लुटियन दिल्ली की मुख्य भवनों में से एक “जयपुर हाउस“ को वास्तुकार-बंधु चार्ल्स जी. ब्लॉमफील्ड और फ्रांसिस बी. ब्लोमफील्ड डिजाइन किया। वर्ष 1936 में केंद्रीय गुंबद के साथ “तितली के आकार वाला यह भवन“ जयपुर महाराजा सवाई मान सिंह द्वितीय के निवास के हिसाब से बनाया गया था। इसे लुटियन की सेंट्रल हेक्सागोन की एक अवधारणा की कल्पना के आधार तैयार किया गया। आज यहाँ पर राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय है। इसी तरह, नयी दिल्ली में इंडिया गेट के घेरे में जयपुर हाउस के साथ “बीकानेर हॉउस“ महाराजा गंगा सिंह के शासनकाल में बना। तत्कालीन राजकुमार और ब्रितानी राजपरिवार इस भवन को विद्वानों की अपेक्षा सैनिकों की तरह खूबसूरत मानते थे। चैंबर ऑफ़ प्रिंसेज के चांसलर के रूप में गंगा सिंह रियासतों और ब्रितानी हुकूमत के बीच संबंधों की बेहतरी के लिए काफी मेहनत की। उन्होंने इस भवन को बनाने के जिम्मेदारी पहले लुटियन और फिर बाद में ब्लॉमफील्ड को दी। जयपुर हाउस से पहले बने इस भवन में सफेद चूने से ढकी ईटों का प्रयोग किया गया। इस भवन को देखने पर राजपूती पंरपरा की वास्तु शैली तो नहीं दिखती पर फिर भी दूर से इमारत के शीर्ष पर बनी छतरियां साफ नजर आती है। आजादी से पहले बीकानेर हाउस रियासतों के राजकुमारों की बैठकों का साक्षी रहा है। जहां पर देश विभाजन, चैंबर ऑफ़ प्रिसेज के विघटन और आजाद भारत में रियासतों के स्थान जैसे उलझे हुए विषयों पर विचार-विमर्श हुआ। वर्ष 1950 में प्रसिद्ध सितार वादक रवि शंकर ने बीकानेर महाराजा से यहां कुछ कमरे देने का अनुरोध किया था। रवि शंकर यहां पर एक अंतरराष्ट्रीय संगीत केंद्र खोलना चाहते थे पर किसी कारणवश यह योजना फलीभूत नहीं हुई।
अरावली पर्वतमाला और दिल्ली का अटूट नाता
महान भारतीय जल-विभाजक अरावली, अरब सागर सिस्टम तथा पश्चिमी राजस्थान के अपवाह क्षेत्र को यमुना नदी द्वारा (जिसका जलस्त्रोत चंबल, बानगंगा, कुंवारी तथा सिंधु आदि नदियां हैं) गंगा सिस्टम से अलग करती है। इसमें चंबल सिस्टम शायद यमुना से भी पुराना है, क्योंकि टर्शियरी और होलोसीन कालों में यह सिंधु सिस्टम का एक हिस्सा हुआ करता था। गंगा डेल्टा के अवतलन के कारण तथा बाद में अरावली-दिल्ली धुरी क्षेत्र के उभार के कारण यमुना के प्रवाह मार्ग में परिवर्तन होने लगा, वह गंगा की सहायक नदी बन गई तथा मध्यक्षेत्रीय अग्रभाग में प्रवाहमान चंबल और अन्य नदियों के अपवाह क्षेत्र का इसने अपहरण कर लिया। सरस्वती नदी तंत्र का 1800 ईसा पूर्व परित्याग करने के बाद पूर्ववर्ती बहने वाली यमुना अपने प्रवाह मार्ग को तीव्र गति से परिवर्तित करती हुई पूर्व दिशा में ही बहती रही।
अरावली पर्वतमाला एक वक्रीय तलवार की तरह है तथा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा में इस क्षेत्र की सर्वप्रमुख भू-आकृतिक संरचना के रूप में विस्तृत है। यह श्रृंखला समान चौड़ाई वाली नहीं है तथा यह गुजरात के पालनपुर से दिल्ली तक 692 किलोमीटर लंबी है। अरावली श्रृंखला के सबसे भव्य और सर्वाधिक प्रखर हिस्से मेवाड़ और मेरवाड़ा क्षेत्र के पहाड़ों के हैं जहां ये अटूट श्रृंखला के रूप में मौजूद हैं। अजमेर के बाद ये टूटी-फूटी पहाड़ियों के रूप में देखे जा सकते हैं। इस क्षेत्र में इनकी दिशा उत्तर पूर्ववर्ती उभार के रूप में सांभर झील के पश्चिम से होते हुए क्रमशः जयपुर, सीकर तथा अलवर से खेतड़ी तक जाती है। खेतड़ी में यह अलग-थलग पहाड़ियों के रूप में जमीन की सतह में विलीन होने लगती हैं और इसी रूप में इन्हें दिल्ली तक देखा जा सकता है।
Sunday, November 24, 2019
Temporary Capital of British_Civil Lines_अंग्रेजों की अस्थायी राजधानी सिविल लाइंस
23112019_ दैनिक जागरण |
वर्ष 1857 में देश की आजादी की पहली लड़ाई में भारतीयों की हार के बाद दिल्ली अंग्रेजी राज के गुस्से और विध्वंस की गवाह बनी। उसके बाद, अंग्रेजों ने अपनी सेना और प्रशासन में कार्यरत गोरों के लिए शाहजहांनाबाद के बाहर घर, कार्यालय, चर्च और बाजार बनाए। इस तरह, गोरों की आबादी शाहजहांनाबाद के परकोटे की दीवार से बाहर बस गई और सिविल लाइंस का नया इलाका दिल्ली के नक्शे में उभरकर सामने आया।
तब नई दिल्ली को अपनी खूबसूरत-विशाल इमारतों के दुनिया के नक्शे पर उभरने में दो दशकों की दूरी थी। जॉर्ज पंचम की घोषणा (वर्ष 1911) और राजधानी के रूप में नई दिल्ली के बसने में बीस बरस (वर्ष 1931) का समय लगा।
अंग्रेजों की राजधानी नई दिल्ली को बनाने के काम को उत्तरी दिल्ली यानी सिविल लाइंस से पूरा किया गया। इस इलाके को अस्थायी राजधानी के रूप में स्थापित किया गया। दिल्ली के राजधानी बनने के बाद, अस्थायी राजधानी (उत्तरी दिल्ली) में 500 एकड़ क्षेत्र जोड़कर उसकी देखभाल का जिम्मा "नोटिफाइड एरिया कमेटी" और प्रस्तावित नई दिल्ली को बनाने का जिम्मा "इंपीरियल दिल्ली कमेटी" को दिया गया। इंपीरियल सिटी, जिसे अब नई दिल्ली कहा जाता है, का जब तक निर्माण नहीं हो गया और कब्जा करने के लिए तैयार नहीं हो गई तब तक के लिए पुरानी दिल्ली के उत्तर की ओर एक अस्थायी राजधानी बनाई गई। इस अस्थायी राजधानी के भवनों का निर्माण रिज पहाड़ी के दोनों ओर किया गया।
अंग्रेज सरकार के आसन के दिल्ली स्थानांतरित होने के शीघ्र बाद, इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल का सत्र मेटकाफ हाउस (आज के चंदगीराम अखाड़ा के समीप) में हुआ, जहां से इसका स्थान बाद में पुराना सचिवालय स्थानांतरित कर दिया गया।
वर्ष 1912 में मुख्य भवन पुराना सचिवालय, जहां आज की विधानसभा है, पुराने चंद्रावल गांव के स्थल पर बना है। यही पर 1914-1926 तक केंद्रीय विधानमंडल ने बैठकें की और काम किया। तिमारपुर, चंद्रावल, वजीराबाद गांवों की जमीनों का अस्थायी सरकारी कार्यालयों के निर्माण के लिए वर्ष 1912 में अधिग्रहण किया गया। इसी तरह, मैटकाफ हाउस का अधिग्रहण कांउसिल चैम्बर, सचिवालय को कार्यालयों, प्रेस और काउंसिल के सदस्यों के घरों के उपयोग के लिए किया गया।1920-1926 की अवधि में मैटकाफ हाउस केन्द्रीय विधान मंडल की कांउसिल ऑफ़ स्टेट का गवाह रहा।
वर्ष 1911 में दिल्ली राजधानी बनने के बाद पहले मुख्य आयुक्त की नियुक्ति हुई और उसे पुलिस महानिरीक्षक की शक्तियां और कार्य भी सौंपे गए। दिल्ली शहर में कोतवाली, सब्जी मंडी और पहाड़गंज तीन बड़े पुलिस थाने थे जबकि सिविल लाइन्स में रिजर्व पुलिस बल, सशस्त्र रिजर्व पुलिस बल और नए रंगरूटों के रहने के लिए विशाल पुलिस बैरकें थीं। राजनिवास के दूसरी तरफ ओल्ड पुलिस लाइन आज भी मौजूद है।
अंग्रेज़ वॉयसरॉय लार्ड हार्डिंग मार्च, 1912 के अंत में अपने पूरे लाव लश्कर के साथ दिल्ली पहुंचा था। वर्ष 1911 में दिल्ली राजधानी स्थानांतरित होने पर दिल्ली विश्वविद्यालय का पुराना वाइसरीगल लॉज, वायसराय का निवास बना। प्रथम विश्व युद्ध से लेकर करीब एक दशक तक वायसराय इस स्थान पर रहा जब तक रायसीना पहाड़ी पर लुटियन निर्मित उनका नया आवास बना। आज के सिविल लाइन्स के पास उत्तरी दिल्ली में पुराना वाइसरीगल लॉज अभी भी है, जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर का कार्यालय है।
उल्लेखनीय है कि दिल्ली के राजधानी बनने के राजनीतिक फैसले का यहां के नागरिकों को दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) की स्थापना के रूप में फायदा मिला। वर्ष 1922 में एक आवासीय शिक्षण विश्वविद्यालय के रूप में डीयू स्थापित हुआ। डॉ हरिसिंह गौर उसके पहले कुलपति नियुक्त हुए जो कि चार साल (1922-26) कुलपति के पद पर रहे। जब डीयू अस्तित्व में आया, तब दिल्ली में केवल तीन कॉलेज-सेंट स्टीफन, हिंदू और रामजस कॉलेज-थे। वर्ष 1924-25 में डीयू के पहले अकादमिक सत्र में परीक्षाए हुई, जिसका परिणाम संतोषजनक रहा।
Saturday, November 16, 2019
Delhi Visit of Swiss Traveler Antoine Louis Henry Polier_स्विस यात्री पोलियर की दिल्ली
Saturday, November 9, 2019
History of Mapping of India_हिंदुस्तानी मानचित्रों की अनवरत यात्रा
Saturday, November 2, 2019
Punjabi people_after partition of country_delhi_शरणार्थी नहीं, पुरुषार्थी पंजाबी
दैनिक जागरण, 02112019 |
वर्ष 1947 में देश को आजादी के साथ बंटवारे का भी दर्द सहना पड़ा। देश का भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन के कारण विशाल और अभूतपूर्व सामूहिक आप्रवास के दृश्य देखने में आए। वर्ष 1946 में पाकिस्तानी प्रदेशों से हिन्दुओं के आने का तांता संख्या में निरंतर बढ़ता गया और 1947 के मध्य में उसने धारा की जगह उफनती बाढ़ का रूप ले लिया।
दिल्ली में आकर बसने वाले विस्थापितों के अंतर्गत सबसे अधिक संख्या 17 प्रतिशत पश्चिमी पाकिस्तान के लाहौर नगर से आने वालों की थी। कुछ अन्य पाकिस्तानी नगरों का अनुपात इस प्रकार थाः रावलपिंडी-आठ प्रतिशत, मुल्तान-77 प्रतिशत, शाहपुर-56 प्रतिशत, गुजरांवाला-54 प्रतिशत, लायलपुर-51 प्रतिशत, स्यालकोट-39 प्रतिशत और पेशावर-30 प्रतिशत। इससे यह साफ हो जाता है कि दिल्ली में पाकिस्तानी पंजाब सूबे से सबसे अधिक शरणार्थी आए।
प्रसिद्ध उपन्यास 'तमस' के लेखक भीष्म साहनी अपनी आत्मकथा "आज के अतीत" में लिखते हैं कि दिल्ली शहर, शरणार्थियों से अटा पड़ा था। जहां जाओ, जिस ओर जाओ, शरणार्थी घूमते-फिरते मिलेंगे, सभी किसी-न-किसी तलाश में। बाहर से आने वाले दुखी थे, पर अक्सर वे अपना रोना नहीं रोते थे। शायद इस आशावादिता का एक कारण यह भी रहा हो कि ये शरणार्थी मुख्यतः पंजाब से आए थे, और इस देश के लम्बे इतिहास में पंजाब सदा ही उथल-पुथल का इलाका रहा है, अमन-चैन उसके नसीब में नहीं रहा। हजारों वर्ष का इतिहास उथल-पुथल का ही इतिहास रहा है। उसका कुछ तो असर पंजाबियों की मानसिकता पर रहा होगा। कुछ ही समय बाद शरणार्थी शब्द इन बेघर लोगों को अखरने लगा था। हम शरणार्थी शब्द इन बेघर लोगों को अखरने लगा था। हम शरणार्थी नहीं हैं, हम पुरुषार्थी हैं, वे कहते।
दिल्ली आए शरणार्थियों को तीन मुख्य शिविरों में रखा गया। इनमें किंग्जवे कैम्प, सबसे बड़ा शिविर था जिसमें लगभग तीन लाख शरणार्थी रह रहे थे। तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने चार मई 1948 को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को लिखे एक पत्र में स्वीकार किया कि हम पाकिस्तान से आये हुए हिन्दुओं को और सिखों को अभी तक फिर से बसा नहीं पाए हैं। "एक जिन्दगी काफी नहीं" पुस्तक में मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर लिखते हैं कि वे (महात्मा गांधी) दिल्ली में होते थे तो बिड़ला हाउस के बगीचे में प्रतिदिन एक प्रार्थना सभा को संबोधित किया करते थे। इन प्रार्थना सभाओं में पाकिस्तान से आए पंजाबी ज्यादा होते थे।
वर्ष 1951 की जनगणना में राजधानी में जनसंख्या वृद्धि का मुख्य कारण लगभग पांच लाख शरणार्थियों का आगमन था। इस प्रकार आने वालों की संख्या ने अन्य प्रांतों से आ बसने वाले लोगों की संख्या को नगण्य बना दिया। इन शरणाथियों में बहुसंख्यक दिल्ली के शहरी क्षेत्रों में ही बस गए।
इन शरणार्थियों की विशाल आबादी को बसाने के लिए तब के केंद्रीय पुर्नवास मंत्रालय ने दिल्ली के बाहरी क्षेत्र की परिधि में अनेक काॅलोनियां बनाई। विस्थापित परिवारों को इन रिफ्यूजी में बसाया गया, जिनके नाम राष्ट्रीय नेताओं के नाम पर रखे गए। जैसे लक्ष्मी नगर, नौराजी नगर, पटेल नगर, सरोजिनी नगर और रंजीत नगर।
प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक रस्किन बाॅन्ड अपनी आत्मकथा "लोन फाॅक्स डांसिंग" में लिखते हैं कि हम तब की नई दिल्ली के सबसे दूसरे किनारे यानी नजफगढ़ रोड़ पर राजौरी गार्डन नामक एक शरणार्थी काॅलोनी में रह रहे थे। यह 1959 का समय था जब राजौरी गार्डन में पश्चिमी पंजाब के हिस्सों से उजड़कर आए हिंदू और सिख शरणार्थियों के बनाए छोटे घर भर थे। यह कोई कहने की बात नहीं है कि यहां कोई गार्डन नहीं था।
यही कारण था कि वर्ष 1951-61 की दो जनगणनाओं के बीच की अवधि में पश्चिमी दिल्ली के घनत्व का सबसे तेज गति से विकास रहा, जिसके बाद शाहदरा और दक्षिण दिल्ली का स्थान था। पश्चिम दिल्ली में जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार पांच गुनी से भी अधिक थी जबकि शाहदरा के लिए यह तीन गुनी और दक्षिण दिल्ली के लिए दुगुनी से अधिक थी।
इस पंजाबी आबादी का प्रभाव दिल्ली के भाषायी स्वरूप पर भी देखने को मिला। वर्ष 1961 की जनगणना में 316672 व्यक्तियों ने पंजाबी को अपनी मातृभाषा बताया। जबकि हिंदी को मातृभाषा बताने वाले व्यक्तियों ने तीन मुख्य अन्य भाषाओं के अंतर्गत पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी को घोषित किया।
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