Saturday, November 2, 2019

Punjabi people_after partition of country_delhi_शरणार्थी नहीं, पुरुषार्थी पंजाबी

दैनिक जागरण, 02112019







वर्ष 1947 में देश को आजादी के साथ बंटवारे का भी दर्द सहना पड़ा। देश का भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन के कारण विशाल और अभूतपूर्व सामूहिक आप्रवास के दृश्य देखने में आए। वर्ष 1946 में पाकिस्तानी प्रदेशों से हिन्दुओं के आने का तांता संख्या में निरंतर बढ़ता गया और 1947 के मध्य में उसने धारा की जगह उफनती बाढ़ का रूप ले लिया। 


दिल्ली में आकर बसने वाले विस्थापितों के अंतर्गत सबसे अधिक संख्या 17 प्रतिशत पश्चिमी पाकिस्तान के लाहौर नगर से आने वालों की थी। कुछ अन्य पाकिस्तानी नगरों का अनुपात इस प्रकार थाः रावलपिंडी-आठ प्रतिशत, मुल्तान-77 प्रतिशत, शाहपुर-56 प्रतिशत, गुजरांवाला-54 प्रतिशत, लायलपुर-51 प्रतिशत, स्यालकोट-39 प्रतिशत और पेशावर-30 प्रतिशत। इससे यह साफ हो जाता है कि दिल्ली में पाकिस्तानी पंजाब सूबे से सबसे अधिक शरणार्थी आए।


प्रसिद्ध उपन्यास 'तमस' के लेखक भीष्म साहनी अपनी आत्मकथा "आज के अतीत" में लिखते हैं कि दिल्ली शहर, शरणार्थियों से अटा पड़ा था। जहां जाओ, जिस ओर जाओ, शरणार्थी घूमते-फिरते मिलेंगे, सभी किसी-न-किसी तलाश में। बाहर से आने वाले दुखी थे, पर अक्सर वे अपना रोना नहीं रोते थे। शायद इस आशावादिता का एक कारण यह भी रहा हो कि ये शरणार्थी मुख्यतः पंजाब से आए थे, और इस देश के लम्बे इतिहास में पंजाब सदा ही उथल-पुथल का इलाका रहा है, अमन-चैन उसके नसीब में नहीं रहा। हजारों वर्ष का इतिहास उथल-पुथल का ही इतिहास रहा है। उसका कुछ तो असर पंजाबियों की मानसिकता पर रहा होगा। कुछ ही समय बाद शरणार्थी शब्द इन बेघर लोगों को अखरने लगा था। हम शरणार्थी शब्द इन बेघर लोगों को अखरने लगा था। हम शरणार्थी नहीं हैं, हम पुरुषार्थी हैं, वे कहते।


दिल्ली आए शरणार्थियों को तीन मुख्य शिविरों में रखा गया। इनमें किंग्जवे कैम्प, सबसे बड़ा शिविर था जिसमें लगभग तीन लाख शरणार्थी रह रहे थे। तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने चार मई 1948 को  प्रधानमंत्री  जवाहर लाल नेहरू को लिखे एक पत्र में स्वीकार किया कि हम पाकिस्तान से आये हुए हिन्दुओं को और सिखों को अभी तक फिर से बसा नहीं पाए हैं। "एक जिन्दगी काफी नहीं" पुस्तक में मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर लिखते हैं कि वे (महात्मा गांधी) दिल्ली में होते थे तो बिड़ला हाउस के बगीचे में प्रतिदिन एक प्रार्थना सभा को संबोधित किया करते थे। इन प्रार्थना सभाओं में पाकिस्तान से आए पंजाबी ज्यादा होते थे।


वर्ष 1951 की जनगणना में राजधानी में जनसंख्या वृद्धि का मुख्य कारण लगभग पांच लाख  शरणार्थियों  का आगमन था। इस प्रकार आने वालों की संख्या ने अन्य प्रांतों से आ बसने वाले लोगों की संख्या को नगण्य बना दिया। इन शरणाथियों में बहुसंख्यक दिल्ली के शहरी क्षेत्रों में ही बस गए।


इन शरणार्थियों की विशाल आबादी को बसाने के लिए तब के केंद्रीय पुर्नवास मंत्रालय ने दिल्ली के बाहरी क्षेत्र की परिधि में अनेक काॅलोनियां बनाई। विस्थापित परिवारों को इन रिफ्यूजी में बसाया गया, जिनके नाम राष्ट्रीय नेताओं के नाम पर रखे गए। जैसे लक्ष्मी नगर, नौराजी नगर, पटेल नगर, सरोजिनी नगर और रंजीत नगर।


प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक रस्किन बाॅन्ड अपनी आत्मकथा "लोन फाॅक्स डांसिंग" में लिखते हैं कि हम तब की नई दिल्ली के सबसे दूसरे किनारे यानी नजफगढ़ रोड़ पर राजौरी गार्डन नामक एक शरणार्थी काॅलोनी में रह रहे थे। यह 1959 का समय था जब राजौरी गार्डन में पश्चिमी पंजाब के हिस्सों से उजड़कर आए हिंदू और सिख शरणार्थियों के बनाए छोटे घर भर थे। यह कोई कहने की बात नहीं है कि यहां कोई गार्डन नहीं था।


यही कारण था कि वर्ष 1951-61 की दो जनगणनाओं के बीच की अवधि में पश्चिमी दिल्ली के घनत्व का सबसे तेज गति से विकास रहा, जिसके बाद शाहदरा और दक्षिण दिल्ली का स्थान था। पश्चिम दिल्ली में जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार पांच गुनी से भी अधिक थी जबकि शाहदरा के लिए यह तीन गुनी और दक्षिण दिल्ली के लिए दुगुनी से अधिक थी।


इस पंजाबी आबादी का प्रभाव दिल्ली के भाषायी स्वरूप पर भी देखने को मिला। वर्ष 1961 की जनगणना में 316672 व्यक्तियों ने पंजाबी को अपनी मातृभाषा बताया। जबकि हिंदी को मातृभाषा बताने वाले व्यक्तियों ने तीन मुख्य अन्य भाषाओं के अंतर्गत पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी को घोषित किया।




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