Saturday, November 16, 2019

Delhi Visit of Swiss Traveler Antoine Louis Henry Polier_स्विस यात्री पोलियर की दिल्ली

16112019, दैनिक जागरण 






एंटोनी लुई हेनरी पोलियर (1741-95) 18 शताब्दी में हिंदुस्तान में अपना भाग्य आजमाने के लिए आने वाले अनेक साहसी यूरोपीयों में से एक था। स्विटज़रलैंड का रहने वाला पोलियर मूल रूप से प्रोटेस्टेंट था, जो कि दक्षिणी भारत में फ्रांसीसियों की हार के बाद अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी में शामिल हो गया। इस तरह, हिंदुस्तान में उसने पहले फ्रांसीसी और फिर अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ काम किया।  


वह वर्ष 1761 में वह कंपनी की इंजीनियरिंग शाखा से जुड़ा और  वर्ष 1767 में मेजर बन गया। कंपनी में आगे पदोन्नति के रास्ते अवरुद्ध होने पर वह वारेन हेस्टिंग्स (बंगाल का अंग्रेज गवर्नर-जनरल, 1773-84) के कहने पर अवध के नवाब शुजा-उद-दौला (1754-75) के दरबार में पहुंच गया। हेस्टिंग्स के दुश्मनों के कारण पोलियर को अवध छोड़कर दिल्ली में मुगल सम्राट की सेवा में शरण लेनी पड़ी।


यही कारण है कि पोलियर के माध्यम से तब की दिल्ली और अवध की प्रामाणिक जानकारी मिलती है। उल्लेखनीय है कि पोलियर ने हिंदुस्तान में आकर फारसी और हिंदी भी सीखी। पोलियर के फारसी पत्र भारतीय संदर्भ में उपनिवेशवाद और प्राच्यवाद पर रोशनी डालते हैं। इन पत्रों से तत्कालीन भारतीय समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति का पता चलता है। इतना ही नहीं, ये पत्र मुगल दौर में पनपी हिंद-फारस की संस्कृति की बनावट की जटिलताओं को सामने लाने के साथ ब्रिटिश प्राच्यविदों और प्रशासकों के जाति और धर्म की नई श्रेणियों में नए सिरे से परिभाषित करते हैं।


मुगल शासक शाह आलम द्वितीय (1759-1806) के वर्ष 1771 में इलाहाबाद के निर्वासित जीवन से दिल्ली वापिस आने के समय का पोलियर ने प्रामाणिक वर्णन किया है। उसने दिल्ली और अवध में 17-18 वीं शताब्दी के भारतीय लघु चित्रों के साथ-साथ फारसी और अन्य भारतीय पांडुलिपियों का शानदार संकलन जुटाया।


पोलियर दिल्ली के बदतर हालत पर लिखता है कि दिल्ली अब खंडहर और उबड़-खाबड़ का ढेर भर थी। हवेलियां जीर्ण-शीर्ण थी तो घनी नक्काशीदार छज्जों को रोहिल्ले बतौर जलावन लकड़ी के इस्तेमाल कर रहे थे। फैज़ बाज़ार और चांदनी चौक में नहरें गाद से भरी होने के कारण सूखी थीं। पोलियर ने दिल्ली की इस दुर्दशा के लिए नजीब उद-दौला को दोषी ठहराया। उसके अनुसार, उसने (नजीब) शहर में हर अपराध को अंजाम दिया था। नादिर शाह और अहमद शाह दुर्रानी की तबाही और लूट का मंजर तो कुछ समय बाद संभल गया था। जबकि रोहिल्लों के एक दशक से भी अधिक समय तक मचाई तबाही ने एक मुल्क को पूरी तरह बर्बाद कर दिया है। 


उल्लेखनीय है कि युसुफ़ज़ई पख्तून नजीब घुड़सवारों का एक सौदागर था। वह मुगल दरबार में घुड़सवार सेना के सेनापति के रूप में कार्यरत था। वर्ष 1757 में अहमद शाह के दिल्ली हमले के दौरान नजीब ने पाला बदल लिया। इस वजह से ईनाम के रूप में दुर्रानी ने जीत के बाद उसे मुगल बादशाह का मीर बक्शी नियुक्त किया। इस कारण नजीब दिल्ली का असली मालिक बन बैठा क्योंकि तब मुगल बादशाह नाम का ही शासक रह गया था।

कलिकंकर दत्त की "शाह आलम द्वितीय और ईस्ट इंडिया कंपनी" नामक पुस्तक भी पोलियर की दिल्ली के वर्णन से सहमत दिखती है। पुस्तक के अनुसार, जहां तक आंखे देख सकती है, खंडहर होती इमारतें, लंबी दीवारें, बड़ी मेहराबें और गुंबदों के हिस्से नजर आते हैं। उदासी की गहरी छाया के बिना इस शानदार और नामचीन शहर के खंडहरों को निहारा नहीं जा सकता है। वे नदी के किनारे कम से कम चौदह मील तक फैले हुए हैं। लाल पत्थर से बनी महान मस्जिद का काफी हद तक क्षरण हो चुका है। उसके करीब ही (चांदनी) चौक है, जो कि अब एक उजाड़ है। यहां तक कि (लाल) किला भी ऐसी ही हालत में है। जो कि पिछले सत्तर साल के दौर में तेजी से बदले हाकिमों के बाद वीरानी में जी रहा है।





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