Wednesday, November 27, 2019

Historical connection of Delhi and Rajathan_दिल्ली-राजस्थान का ऐतिहासिक नाता








दिल्ली से लेकर नई दिल्ली तक के निर्माण और उन्नयन में राजस्थान की उल्लेखनीय भूमिका रही है। यह बात इतिहास सम्मत है कि राजस्थान के पत्थर से लेकर आदमियों तक का दिल्ली के विकास में अप्रतिम योगदान रहा है। वह बात अलग है कि इस बात पर इतिहास में एक लंबा मौन ही पसरा है।


यह विश्वास किया जाता है कि दिल्ली के प्रथम मध्यकालीन नगर की स्थापना तोमरों ने की थी, जो ढिल्ली या ढिल्लिका कहलाती थी जबकि ज्ञात अभिलेखों में “ढिल्लिका“ का नाम सबसे पहले राजस्थान में बिजोलिया के 1170 ईस्वी के अभिलेख में आता है। जिसमें दिल्ली पर चौहानों के अधिकार किए जाने का उल्लेख है। राजा विग्रहराज चतुर्थ (1153-64) ने जो शाकंभरी (आज का सांभर जो कि अपनी नमक की झील के कारण प्रसिद्ध है) के चौहान वंश के बीसल देव के नाम से जाना जाता है, राज्य संभालने के तुरंत बाद शायद तोमरों से दिल्ली छीन ली थी।


उसके बाद जब पृथ्वीराज चौहान, जो कि राय पिथौरा के नाम से भी प्रसिद्ध थे, सिंहासन पर बैठे तो उन्होंने लाल कोट का विस्तार करते हुए एक विशाल किला बनाया। इस तरह, लाल कोट कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है बल्कि लाल कोट-रायपिथौरा ही दिल्ली का पहला ऐतिहासिक शहर है। इस किलेबंद बसावट की परिधि 3.6 किलोमीटर थी। चौहान शासन काल में इस किलेबंद इलाके का और अधिक फैलाव हुआ जो कि किला-राय पिथौरा बना। बिजोलिया के अभिलेख में उसके द्वारा दिल्ली पर अधिकार किए जाने का उल्लेख है।


“दिल्ली और उसका अंचल” पुस्तक के अनुसार, अनंगपाल को “पृथ्वीराज रासो“ में अभिलिखित भाट परम्परा के अनुसार दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। यह कहा जाता है कि उस (अनंगपाल) ने लाल कोट का निर्माण किया था जो कि दिल्ली का प्रथम सुविख्यात नियमित प्रतिरक्षात्मक प्रथम नगर के अभ्यन्तर के रूप में माना जा सकता है। वर्ष 1060 में लाल कोट का निर्माण हुआ। जबकि सैयद अहमद खान के अनुसार, किला राय पिथौरा वर्ष 1142 में और ए. कनिंघम के हिसाब से वर्ष 1180 में बना।


अंग्रेज इतिहासकार एच सी फांशवा ने अपनी पुस्तक “दिल्ली, पास्ट एंड प्रेजेन्ट” में लिखा है कि यह एक और आकस्मिक संयोग है कि दिल्ली में सबसे पुराने हिंदू किले का नाम लाल कोट था तो मुसलमानों (यानी मुगलों के) नवीनतम किले का नाम लाल किला है।
रायपिथौरा की दिल्ली के बारह दरवाजे थे, लेकिन तैमूरालंग ने अपनी आत्मकथा में इनकी संख्या दस बताई है। इनमें से कुछ बाहर की तरफ खुलते थे और कुछ भीतर की तरफ। इन दरवाजों को अब समय की लहर ने छिन्न-भिन्न कर दिया है। मुस्लिम और पठान काल की दिल्ली के जो दरवाजे मशहूर रहे, उनमें अजमेरी दरवाजा मशहूर है।


वर्ष ११९२ में तराइन की लड़ाई में चौहानों की हार के बाद दिल्ली में राज की जिम्मेदारी मुहम्मद गोरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने संभाली। ऐबक के समय में तोमरों और चौहानों के लाल कोट के भीतर बनाए सभी मन्दिरों को गिरा दिया और उनके पत्थरों को मुख्यतः कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद के लिए पुनः इस्तेमाल किया गया। कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार, इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में मुस्लिम शासन से पहले प्रचलित राजपूत मुद्रा “देहलीवाल“ कहलाती थी।
दिल्ली के संदर्भ में पृथ्वीराज रासो एवं उसके कवि चंद (चंदरबरदायी) का विशेष महत्व है। चंदबरदायी दिल्लीश्वर पृथ्वीराज चौहान के समकालीन होने का तथ्य असंदिग्ध है। “पृथ्वीराज रासो“ एक विशाल प्रबंध काव्य है। हिंदी साहित्य में इसे पहला महाकाव्य होने का भी श्रेय प्राप्त है। चंद-कृत पृथ्वीराज रासो का संबंध दिल्ली के केंद्र से है। विक्रमी संवत् की बारहवीं शताब्दी से दिल्ली मंडल की अर्थात् योगिनीपुर, मिहिरावली, अरावली-उपत्यका-स्थित विभिन्न अंचलों और बांगड़ प्रदेश के विभिन्न स्थलों का जितना विशद और प्रत्यक्ष चित्रण इस ग्रंथ में है उतना अन्य किसी समकालीन हिंदी ग्रन्थ में नहीं मिलता। चंदरबरदायी के संबंध में प्रसिद्ध है कि वे दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के बाल सखा, परामर्शदाता एवं राजकवि थे। पृथ्वीराज के भाट कवि चंद ने उन्हें जोगिनीपुर नरेश, ढिल्लयपुर नरेश (दिल्लीश्वर) आदि के नाम से उल्लखित किया है। थरहर धर ढिल्लीपुर कंपिउ।


उल्लेखनीय है कि हिन्दी भाषा का आरंभिक रूप चंदरबरदाई के काव्य पृथ्वीराज रासो में मिलता है जो कि पृथ्वीराज चौहान के दरबार के राजकवि और बालसखा थे। ग्वालियर के तोमर राजदरबार में सम्मानित एक जैन कवि महाचंद ने अपने एक काव्यग्रंथ में लिखा है कि वह हरियाणा देश के दिल्ली नामक स्थान पर यह रचना कर रहा है।


यह बात कम जानी है कि आज की समूची लुटियन दिल्ली जिस जमीन पर खड़ी है, उस पर मुगलों के जमाने से जयपुर राजघराने का अधिकार था। जयपुर रियासत ने 1911 में कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित हुई नयी राजधानी के लिए जयसिंहपुरा और माधोगंज गावों की 314 एकड़ जमीन प्रदान की थी। पर यह सब इतनी आसानी से नहीं हुआ। जयपुर के तत्कालीन कछवाह नरेश माधो सिंह द्वितीय (1861-1922) के वकीलों और अंग्रेज अधिकारियों के मध्य काफी लिखत-पढ़त हुई। महाराजा जयपुर ने दिल्ली के जयसिंहपुरा और माधोगंज (आज की नई दिल्ली नगर पालिका परिषद का इलाका) में स्थित उनकी इमारतों और भूमियों का नई शाही (अंग्रेज) राजधानी के लिएअधिग्रहण न किया जाए, इस आशय की याचिकाएं दी थी।





18 जून 1912 को महाराजा जयपुर के वकील शारदा राम ने दिल्ली के डिप्टी कमिशनर को दी याचिका में लिखा कि राज जयपुर के पास दिल्ली तहसील में जयसिंह पुरा और माधोगंज में माफी (की जमीन) है, और ब्रिटिश हुकूमत ने राजधानी के लिए इसके अधिग्रहण का नोटिस भेजा है। राज की यह माफी बहुत पुरानी है और उनमें से एक की स्थापना महाराजा जयसिंह ने और दूसरे की महाराजा माधोसिंह ने की थी, जैसा कि मौजों के नाम से स्पष्ट है। राज जयपुर की स्मृति में छत्र, मंदिर, गुरूद्वारे, शिवाले और बाजार जैसे कई स्मारक हैं और राज ने माफी की जमीन का आवंटन इन तमाम संस्थाओं के खर्च निकालने के लिए किया है। मुगल सम्राटों के समय में जब दिल्ली राजधानी हुआ करती थी तो, राजा का एक बहुत बड़ा मकान था जो अब बर्बादी की हालत में है और राजा का यह दृढ़ संकल्प है कि दिल्ली को एक बार फिर ब्रिटिश भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी बनाए जाने के सम्मान में इसे बहुत शानदार और सुंदर बनाया जाए। इसलिए, विनती है कि इन संस्थाओं और पुराने अवशेषों को उनके साथ की जमीनों सहित अधिग्रहित न किया जाए और उन्हें राज के नियंत्रण और देखरेख में छोड़ दिया जाए। इसे (जयपुर महाराज को), (अंग्रेज) सरकार की योजनाओं के अनुसार राज की कीमत पर सरकार की इच्छानुसार मकान, कोठियां, सड़कें आदि बनाने पर कोई ऐतराज नहीं है और राज ऐसी कोई जमीन मुफ्त में देने में तैयार है, जिसकी जरूरत सरकार को अपनी खुद की सड़कें खोलने या बनाने के लिए हो सकती है।  उल्लेखनीय है कि जयपुर नरेश माधो सिंह द्वितीय 1902 में ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्याभिशेक समारोह में इंगलैंड गए थे। अंग्रेजों की उन पर विशेष कृपादृष्टि का ही नतीजा था कि उन्हें 1903 में जीसीवीओ और 1911 में जीवीआई की सैन्य उपाधि दी गयी। इतना ही नहीं, 1904 में माधोसिंह को अंग्रेज भारतीय सेना में 13 राजपूत टुकड़ी का कर्नल और 1911 में मेजर जनरल का पद दिया गया।  


नई दिल्ली के निर्माण के समय एडवर्ड लुटियन ने वॉइसरॉय हाउस (राश्ट्रपति भवन) और ऑफ़ इंडिया वार मेमोरियल (इंडिया गेट) को तो बेकर ने दोनों सचिवालयों और कॉउंसिल हाउस (संसद भवन) को पश्चिमी वास्तुकला की शास्त्रीय परंपरा के अनुरूप बनाया। पर इन भवनों में कुछ भारतीय तत्व भी समाहित किए, जिनमें मुख्य सामग्री के रूप में चमकदार पॉलिश और धौलपुर का लाल बलुआ पत्थर था। दिल्ली की कुतुब मीनार और हुमायूं के मकबरे में ऐेसे ही पत्थर के प्रयोग की अनुकृति का उदाहरण सामने था। लुटियन और बेकर ने विशिष्ट भारतीय (मूल रूप से राजस्थानी) रूप से “छज्जा“ अपनाया जो कि सूरज और बारिश दोनों से बचाव के रूप में ढाल का काम करता था। दो सचिवालय की इमारतें, नार्थ ब्लॉक और सॉउथ ब्लॉक, केंद्रीय धुरी के मार्ग, आज का राजपथ, के आमने-सामने खड़ी हैं। नॉर्थ ब्लॉक के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण लेख में लिखा है, जनता को स्वतंत्रता स्वतः ही नहीं प्राप्त होगी। जनता को स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए जागृत होना होगा। यह एक अधिकार है जिसे लेने के लिए स्वयं को काबिल बनाना पड़ता है।“


राजपथ पर इंडिया गेट के पीछे एक लंबी खाली छतरी है, जिसे लुटियन ने ही वर्ष 1936 में किंग जॉर्ज पंचम की स्मृति में लगने वाली एक प्रतिमा के लिए बनाया था। इस खाली छतरी पर प्रसिद्व साहित्यकार अज्ञेय ने लिखा है कि महापुरुषों की मूर्तियाँ बनती हैं, पर मूर्तियों से महापुरुष नहीं बनते। ब्रितानी शासकों, सेनानियों, अत्याचारियों तक की मूर्तियाँ हमें देखने को मिलती रहतीं तो हमारा केवल कोई अहित न होता बल्कि हम सुशिक्षित हो सकते। राजपथ में एक मूर्तिविहीन मंडप खड़ा रहे, उससे कुछ सिद्ध नहीं होता सिवा इसके कि उसके भावी कुर्सीनशीन के बारे में हल्का मजाक हो सके। उसके बदले एक पूरी सडक ऐसी होती जिसके दोनों ओर ये विस्थापित मूर्तियाँ सजी होतीं और उस सड़क को हम ‘ब्रितानी साम्राज्य वीथी’ या ‘औपनिवेशिक इतिहास मार्ग’ जैसा कुछ नाम दे देते, तो वह एक जीता-जागता इतिहास महाविद्यालय हो सकता। इतिहास को भुलाना चाह कर हम उसे मिटा तो सकते नहीं, उसकी प्रेरणा देने की शक्ति से अपने को वंचित कर लेते हैं। स्मृति में जीवन्त इतिहास ही प्रेरणा दे सकता है।"


लुटियन दिल्ली की मुख्य भवनों में से एक “जयपुर हाउस“ को वास्तुकार-बंधु चार्ल्स जी. ब्लॉमफील्ड और फ्रांसिस बी. ब्लोमफील्ड डिजाइन किया। वर्ष 1936 में केंद्रीय गुंबद के साथ “तितली के आकार वाला यह भवन“ जयपुर महाराजा सवाई मान सिंह द्वितीय के निवास के हिसाब से बनाया गया था। इसे लुटियन की सेंट्रल हेक्सागोन की एक अवधारणा की कल्पना के आधार तैयार किया गया। आज यहाँ पर राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय है। इसी तरह, नयी दिल्ली में इंडिया गेट के घेरे में जयपुर हाउस के साथ “बीकानेर हॉउस“ महाराजा गंगा सिंह के शासनकाल में बना। तत्कालीन राजकुमार और ब्रितानी राजपरिवार इस भवन को विद्वानों की अपेक्षा सैनिकों की तरह खूबसूरत मानते थे। चैंबर ऑफ़ प्रिंसेज के चांसलर के रूप में गंगा सिंह रियासतों और ब्रितानी हुकूमत के बीच संबंधों की बेहतरी के लिए काफी मेहनत की। उन्होंने इस भवन को बनाने के जिम्मेदारी पहले लुटियन और फिर बाद में ब्लॉमफील्ड को दी। जयपुर हाउस से पहले बने इस भवन में सफेद चूने से ढकी ईटों का प्रयोग किया गया। इस भवन को देखने पर राजपूती पंरपरा की वास्तु शैली तो नहीं दिखती पर फिर भी दूर से इमारत के शीर्ष पर बनी छतरियां साफ नजर आती है। आजादी से पहले बीकानेर हाउस रियासतों के राजकुमारों की बैठकों का साक्षी रहा है। जहां पर देश विभाजन, चैंबर ऑफ़ प्रिसेज के विघटन और आजाद भारत में रियासतों के स्थान जैसे उलझे हुए विषयों पर विचार-विमर्श हुआ। वर्ष 1950 में प्रसिद्ध सितार वादक रवि शंकर ने बीकानेर महाराजा से यहां कुछ कमरे देने का अनुरोध किया था। रवि शंकर यहां पर एक अंतरराष्ट्रीय संगीत केंद्र खोलना चाहते थे पर किसी कारणवश यह योजना फलीभूत नहीं हुई।



अरावली पर्वतमाला और दिल्ली का अटूट नाता
महान भारतीय जल-विभाजक अरावली, अरब सागर सिस्टम तथा पश्चिमी राजस्थान के अपवाह क्षेत्र को यमुना नदी द्वारा (जिसका जलस्त्रोत चंबल, बानगंगा, कुंवारी तथा सिंधु आदि नदियां हैं) गंगा सिस्टम से अलग करती है। इसमें चंबल सिस्टम शायद यमुना से भी पुराना है, क्योंकि टर्शियरी और होलोसीन कालों में यह सिंधु सिस्टम का एक हिस्सा हुआ करता था। गंगा डेल्टा के अवतलन के कारण तथा बाद में अरावली-दिल्ली धुरी क्षेत्र के उभार के कारण यमुना के प्रवाह मार्ग में परिवर्तन होने लगा, वह गंगा की सहायक नदी बन गई तथा मध्यक्षेत्रीय अग्रभाग में प्रवाहमान चंबल और अन्य नदियों के अपवाह क्षेत्र का इसने अपहरण कर लिया। सरस्वती नदी तंत्र का 1800 ईसा पूर्व परित्याग करने के बाद पूर्ववर्ती बहने वाली यमुना अपने प्रवाह मार्ग को तीव्र गति से परिवर्तित करती हुई पूर्व दिशा में ही बहती रही।


अरावली पर्वतमाला एक वक्रीय तलवार की तरह है तथा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा में इस क्षेत्र की सर्वप्रमुख भू-आकृतिक संरचना के रूप में विस्तृत है। यह श्रृंखला समान चौड़ाई वाली नहीं है तथा यह गुजरात के पालनपुर से दिल्ली तक 692 किलोमीटर लंबी है। अरावली श्रृंखला के सबसे भव्य और सर्वाधिक प्रखर हिस्से मेवाड़ और मेरवाड़ा क्षेत्र के पहाड़ों के हैं जहां ये अटूट श्रृंखला के रूप में मौजूद हैं। अजमेर के बाद ये टूटी-फूटी पहाड़ियों के रूप में देखे जा सकते हैं। इस क्षेत्र में इनकी दिशा उत्तर पूर्ववर्ती उभार के रूप में सांभर झील के पश्चिम से होते हुए क्रमशः जयपुर, सीकर तथा अलवर से खेतड़ी तक जाती है। खेतड़ी में यह अलग-थलग पहाड़ियों के रूप में जमीन की सतह में विलीन होने लगती हैं और इसी रूप में इन्हें दिल्ली तक देखा जा सकता है।



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