Saturday, February 29, 2020
Monday, February 24, 2020
Sunday, February 23, 2020
UNESCO_World Heritage City Jaipur_विश्व विरासत परकोटे वाला जयपुर शहर_यूनेस्को
इस वर्ष के फरवरी महीने में संयुक्त राष्ट्र राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने जयपुर नगर के परकोटे को विश्व विरासत शहर का दर्जा दिया। जयपुर का परकोटा, विश्व धरोहर में शामिल भारत की 38 वीं विरासत है। अहमदाबाद के बाद जयपुर ऐसा दर्जा पाने वाला देश का दूसरा शहर है।
जुलाई 2019 में अजरबैजान के बाकू शहर में यूनेस्को की विश्व धरोहर समिति के 43वें सत्र में जयपुर को विश्व विरासत स्थल सूची में शामिल का निर्णय हुआ। इस फैसले पर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत दोनों ने ही ट्वीट करके इस फैसले का स्वागत किया। विश्व विरासत सूची में जुड़ने के लिए एक वर्ष में केवल एक ही स्थल पर विचार होता है जो कि एक सतत् प्रकिया है।यूनेस्को के साथ भागीदारी से भारत को अपनी समृद्ध मूर्त-अमूर्त सांस्कृतिक विरासतों को दुनिया के सामने लाने और उनके महत्व को बढ़ाने में सहायता मिली है। इससे, विदेशी पर्यटकों की आमद और खजाने में आमदनी दोनों में बढ़ोतरी हुई है।
वर्ष 1727 में सवाई जय सिंह द्वितीय ने परकोटे वाले नगर जयपुर की नींव रखी थी। मैदानी भाग में जयपुर को वास्तु पुरुष मंडल के आकार में बसाया गया। इससे पहले कछवाहा राजाओं की राजधानी आमेर था। जयपुर को योजनापूर्वक वैज्ञानिक पद्वति के आधार पर बसाया गया। जहां सभी सड़कें और गलियां सीधी रेखा में समकोण बनाती हुई एक-दूसरे को काटती हुई बढ़ती है। यहां की पारम्परिक नगर निर्माण कला और वास्तुशिल्प में किला, बाजार चौक और तालाब ये तीन स्थान प्रमुख थे।
परकोटे वाले जयपुर नगर की वैज्ञाानिक संकल्पना में शिल्पशास्त्री विद्याधर की मुख्य भूमिका थी। उनकी देखरेख में तैयार नक्शे पर ही चौरस आकार की सीधी सड़कें और गलियों वाला जयपुर नगर बसा। उस समय का गुलाबी रंग के कारण आज भी जयपुर गुलाबी नगर के नाम से प्रसिद्ध है। यहां आवास बनाने वाले सामंतों-व्यापारियों के लिए भवनों की ऊंचाई-निर्माण के तरीके में समरूपता और नगर योजना में राज्य के नियंत्रण को देखते हुए विद्याधर से पूर्व-अनुमति लेना अनिवार्य था। गिरधारी कृत "भोजसार" और कृष्ण भट्ट के "ईश्वरविलास महाकाव्यम" में विद्याधर और उनके कार्यों का उल्लेख है। जयपुर में आज भी अपने वास्तुकार की स्मृति में विद्याधर का रास्ता, विद्याधर काॅलोनी और विद्याधर जी का बाग है।
जयपुर की शहरी आयोजना में प्राचीन हिंदू, प्रारंभिक आधुनिक मुगल काल और पश्चिमी संस्कृतियों के विचारों का समावेश है। इसे वैदिक वास्तुकला में वर्णित व्याख्या के आधार पर ग्रिड योजना के अनुरूप बनाया गया था। परकोटे वाले शहर ने अपना पुराना रूप, नगर-प्राचीर से घिरे मध्य भाग में सुरक्षित रखा है। यहां सुन्दर-शानदार इमारतें और खुली-चौड़ी सड़कें हैं। परकोटा, जीवंत विरासत वाले जयपुर का एक अभिन्न भाग है।
यह बात जानकर किसी भी हैरानी होगी कि परकोटे की दीवार प्रतिरक्षा की बजाय नगर सीमा को तय करने और एक व्यवस्था को बनाने के लिए की गई थी। जयपुर में मुख्य सड़कें सार्वजनिक संपर्क साधन की भूमिका निभाती थी। जयपुर की बड़ी सड़कों और लंबे-चौड़े चौकों से गुजरने पर बाजार के बरामदों की स्तंभ-पंक्तियों से सड़क को एक व्यवस्थित रूप मिलता है। यहां भवनों के सड़क की ओर अभिमुख भाग अपने कलात्मक अलंकरणों की विपुलता से देखते ही बनती है। परकोटे में बने बुर्जनुमा दरवाजे, भीतर किसी महत्वपूर्ण भवन होने का संकेत देते हैं।
असल में परकोटे का नगर अलग-अलग तरह के व्यापार, कला और शिल्प से जुड़े समुदायों की बसावट के लिए बनाया गया था। यह बात आज भी साफ परिलक्षित होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस शहर ने आज तक अपने स्थानीय व्यापार, कुटीर उद्योग और सहकारी परंपराओं को कायम रखा है। यहां की मुख्य गलियों के साथ बने बाजारों, दुकानों, घरों और मंदिरों के सामने का हिस्सा एक-समान था। इन गलियों में एक पंक्ति के समान निर्मित गलियारे बीच में मिलते थे। जिससे बड़े सार्वजनिक चौराहों बनते थे, जो कि चौपड़ कहलाते थे।
परकोटे वाले नगर की मूल योजना में केवल चार आयताकार खंड थे। जहां आज महल, पुरानी बस्ती, तोपखाना देश और मोदीखाना-विश्वेश्वरजी का संयुक्त-खंड है। तब चौड़ा रास्ता, आज के जौहरी बाजार की तरह नहीं बनाया गया था। उल्लेखनीय है कि चौड़ा रास्ता के सामने करीब सभी महत्वपूर्ण मंदिर स्थित हैं। यहां बनी चार बाजारों की योजना के कारण जौहरी बाजार, सिरह देवरी बाजार, किशनपोल बाजार और गणगौरी बाजार कायम हुए। इन बाजारों के हर हिस्से में 162 दुकानें और किशनपोल बाजार में 144 दुकानें बनी थीं।
नगर के नौ आयातकार भूखण्डों या चैकड़ियों, जो कुबेर की नौ निधियों की प्रतीक है, में सात को नागरिकों के लिए-उनके आवासों, दुकानों और बाजारों, मंदिरों और मस्जिदों तथा उन कारखानों के लिए ही बनाया गया, जिनके कारण जयपुर की गिनती आगे चलकर भारत के प्रमुख औद्योगिकी केन्द्रों में हुई। परकोटे के अधिकतर भवन गुलाबी बलुए पत्थर से बने हैं, जिस कारण उनकी रंगछटा भी जयपुर को एक समष्टि-रूप नगर बना देती है। पत्थरों की खूब टिकाऊ गारे के साथ चिनाई की हुई होने की वजह से बाहर पलस्तर की जरूरत नहीं रही है। बाद में जो इमारतें ईटों से बनायी गयीं, उनके पलस्तर पर भी गुलाबी रंग का ही लेप है।
जयपुर में अनेक नगर-द्वार हैं और हर द्वार आकृति और सज्जा में दूसरे द्वारों से भिन्न है। जलेबी चौक, सबसे बड़ा चौक है। पुराने जमाने में यहां राजशाही कर की वसूली होती थी। यहां राज-शक्ति के प्रतीक स्वरूप खास दिनों में महाराजा की सवारी निकलती थी, सैनिक परेडें होती थीं और तमाशे-नाटक आयोजित होते थे। जब महाराजा की सवारी निकलती थी तो चौक में उत्सव-संगीत गूंजता था।
जलेबी चौक से प्रासाद की मुख्य इमारतों तक चार दरवाजे हैं। एक मुख्य इमारत दीवाने आम है, जो चारों ओर से खुले बहुस्तंभी मंडप जैसा है। उनके मध्य में स्थित सिंहासन पर बैठकर महाराजा जनता को दर्शन देता था। किसी शासक ने महल-परिसर की मूल योजना में कोई परिवर्तन नहीं किए। जबकि बाद के शासकों ने उसमें अपनी ईश्वरी डाट, जो दरबार के मंत्रियों का सदन था, इकमंजिले अस्तबल और रथशालाएं, मंत्रियों के लिए आवास, हवा महल और मुबारक महल बनवाए। उल्लेखनीय है कि इन इमारतों की ऊंचाई, रंग, अग्रभाग के आम स्वरूप और सड़क से दूरी को लेकर एक समान नियमों का पालन किया गया। यही कारण है कि जयपुर बिना किसी बाधा के एक बहुत बड़े व्यापारिक, औद्योगिक और प्रशासनिक केन्द्र में विकसित हो सका।
जयपुर की वेधशाला (जंतर-मंतर) को नगर की सबसे पुराने निर्माण में से एक है। यह देश नहीं दुनिया में ज्ञात खगोलीय वास्तुशिल्प का सबसे पहला नमूना है। यहां बने उपकरणों की सहायता से नगरों के अक्षांशों तथा देशांतरों का अनुमान, पंचांग की रचना, ग्रहण के समय का निर्धारण होता था। पंचांग की रचना, धार्मिक महत्व के साथ शासन की स्वतंत्रता और शक्ति का भी लक्षण था।
उल्लेखनीय है कि चंडीगढ़ की योजना बनाने वाला सुप्रसिद्व फ्रांसिसी वास्तु-विशेषज्ञ ला-कार्बूजिये (1952-1955) भी जयपुर से ही प्रेरित था। जयपुर की तरह चंडीगढ़ भी समान-सेक्टरों में विभाजित है। आज परकोटे वाला जयपुर अपने भीतर विरासत वाली अनेक बसावटों को लेकर परिवर्तन का आकांक्षी है। जो कि अपनी भौतिक विशेषताओं को कायम रखते हुए एक संपन्न आर्थिक केंद्र है। यूनेस्को में नामांकित संपत्ति की सीमाएं जयपुर के ऐतिहासिक परकोटे वाले शहर के साथ सटी हुई हैं। वर्ष 1727 में कच्छवाह वंश के राजपूत शासक सवाई जय सिंह इसकी स्थापना की थी। यह शहर मोटे तौर पर नौ आयताकार क्षेत्रों में विभाजित है। जहां सीधी सड़कें केवल समकोण पर एक-दूसरे को काटती हैं और कुल 709 हेक्टेयर क्षेत्र वाले शहर की सुरक्षा के लिए भीतर एक विशाल परकोटे वाली दीवार है।
इस परकोटे की दीवार ने शहर को घेरा हुआ है और विभिन्न दिशाओं से शहर में प्रवेश करने के लिए शहर के नौ-द्वार मौजूद हैं। इस परकोटे वाले शहर में अनेक प्रतिष्ठित स्मारक और मंदिर बने हुए हैं। यहां दो मुख्य उत्तर-दक्षिण धुरियां मिलती हैं, जिसके कारण तीन मुख्य सार्वजनिक चैराहें (बड़ी चौपड़, छोटी चौ पड़ और पूर्वी ओर रामगंज चौपड़) बनते हैं और पूर्व-पष्चिम धुरियां शहर के समग्र ग्रिड आइरन शहरी योजना को परिभाषित करती हैं। इसमें मुख्य अक्षीय गलियों के पार कुल 12 प्रमुख बाजार क्षेत्र हैं। इस नामांकित संपत्ति के मध्य का क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण स्थल और प्राकृतिक इलाके हैं, जिसे शहर की भू-योजना को दर्षाने के लिए संदर्भ बिंदुओं के रूप में प्रयोग किया गया। जिमसें उत्तर में गणेशगढ़, पूर्व में गलताजी की पहाड़ियाँ, पश्चिम में नाहरगढ़ और हथरोई तथा दक्षिण में शंकरगढ़ सम्मिलित है।
Saturday, February 22, 2020
Story of Gandhi's wife Kasturba_बापू की बा की कहानी_नलिन चौहान
22/02/2020, दैनिक जागरण |
दिल्ली में महात्मा गांधी के समाधि स्थल राजघाट पर अंकित उनके जीवन के अंतिम शब्द हे राम जगजाहिर है। पर राजधानी में नई दिल्ली में कस्तूरबा गांधी मार्ग, कस्तूरबा नगर विधानसभा क्षेत्र, यमुना-पार शाहदरा में कस्तूरबा नगर और किंग्सवे कैम्प में गांधी-कस्तूरबा कुटीर होने के बावजूद कम व्यक्तियों को ही कस्तूरबा गांधी के अंतिम शब्दों के बारे में पता है। शरीर छोड़ने से पहले बापू की ओर देखकर बा ने कहा था कि मैं अब जाती हूँ। हमने बहुत सुख भोगे, दुख भी भोगे। मेरे बाद रोना मत। मेरे मरने पर तो मिठाई खानी चाहिए। कहते-कहते बा के प्राण बापू की गोद में निकल गये।
वनमाला परीख और सुशीला नय्यर की पुस्तक "हमारी बा" में इस दुखद घटना का सजीव वर्णन है। उल्लेखनीय है कि आज ही के दिन, 22 फरवरी को वर्ष 1944 को पूना के आगा खान पैलेस में 74 वर्ष की आयु में कस्तूरबा का देहांत हुआ था।
गुजरात के काठियावाड़ के पोरबन्दर नगर में वर्ष 1869 के अप्रैल महीने में कस्तूरबा का जन्म हुआ था। गांधी से बा करीब छह महीने बड़ी थी। उनके पिता का नाम गोकुलदास मकनजी था और माता का नाम ब्रजकुंवर। उनकी सात की उम्र में छह साल के बापू के साथ सगाई हो गई थी और तेरह साल की उम्र में उनका विवाह हुआ।
गांधी ने कस्तूरबा के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि मुझे ऐसा लगता है कि कस्तूरबा के प्रति जनता के आकर्षण का मूल कारण स्वयं को मुझमें विलीन करने की क्षमता थी। मैंने कभी इस आत्म-त्याग के लिए आग्रह नहीं था। लेकिन जैसे-जैसे मेरे सार्वजनिक जीवन का विस्तार हुआ, मेरी पत्नी के व्यक्तित्व में परिवर्तन आया और उसने आगे बढ़कर स्वयं को मेरे काम में खपा दिया। समय के बीतने के साथ मेरा जीवन और जनता की सेवा एकाकार हो गई। उसने धीरे-धीरे स्वयं को मुझमें समाहित कर दिया। शायद भारत की धरती, एक पत्नी में इस गुण के होने को सबसे अधिक पसंद करती है। मेरे लिए उसकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण यही है।
दिल्ली का कस्तूरबा कुटीर
किंग्सवे कैम्प में गांधी-कस्तूरबा कुटीर की कहानी भी सामान्य जनमानस की स्मृति से ओझल ही है। गांधी अपने दिल्ली प्रवास के दौरान इसी परिसर में रुकते थे। कस्तूरबा अपने बेटे देवदास सहित दूसरे सदस्यों के साथ यहां एक लंबी अवधि तक रही। वर्ष 1938 में बा के बीमार होने पर बापू ने सुशीला, जो कि तब डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही थी, को दिल्ली में तार भेजकर उन्हें बा ईलाज के लिए वर्धा आने का अनुरोध किया।
पर इसी बीच बा खुद ही रेल से दिल्ली आ गई। बा का साथ उनका बेटा देवदास गांधी भी थे। सुशीला, बा की चिकित्सा-जांच के लिए एक दिन में दो से तीन बार देखने जाती थी। "कस्तूरबा" पुस्तक में बा से दिल्ली में अपनी मुलाकात का वर्णन करते हुए सुशीला लिखती है कि कि बा ने उन्हें कहा कि वे उनके साथ कुछ दिन रहना चाहती है। तुम मुझे सुबह-शाम प्रार्थना गाकर सुनाना तो मुझे लगेगा कि मैं सेवाग्राम के आश्रम में ही हूँ। उसके बाद सुशीला उन्हें अस्पताल से अपने कमरे ले आई। देवदास गांधी के घर में रहने के बाद बा की सेहत में सुधार हुआ।
बापू के प्रेम पत्र
बापू ने दिल्ली में बा के स्वास्थ्य का हाल-चाल पूछने के लिए तार भेजा। वे रोज बा को प्रेम पत्र लिखते थे जो कि सुशीला के मेडिकल काॅलेज के पते पर आते थे। सुशीला बताती है कि जब मैं ये पत्र लेकर उनके पास जाती थी तो उनका (बा)चेहरा खिल उठता था। वे पहले इन पत्रों को पढ़ती थी और फिर उन्हें अपने तकिए के नीचे रख देती थी। उसके बाद चश्मा पहनकर पत्रों को अनेक बार शब्द दर शब्द बांचती थी। सुशीला का मानना था कि उन्हें इस बारे में कोई संदेह नहीं था कि इन पत्रों ने उनके शीघ्रता से स्वस्थ होने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जब वे पूरी तरह ठीक हो गई तो देवदास गांधी अपने पूरे परिवार के साथ बा को सेवाग्राम छोड़कर आए।
हरिजन सेवक संघ
हरिजन सेवक संघ का मुख्यालय दिल्ली के किंग्सवे कैंप में है। यह परिसर के भीतर वाल्मीकि भवन था, जहां एक कमरे वाले आश्रम से गांधी ने अपनी गतिविधियां चलाई। गांधी बिरला हाउस में स्थानांतरित करने से पहले इसी के करीब बने "कस्तूरबा कुटीर", जहाँ कस्तूरबा भी अपने बच्चों के साथ रही, में अप्रैल 1946 और जून 1947 तक रहे।
उल्लेखनीय है कि दिल्ली के किंग्सवे कैंप में हरिजन सेवक संघ की स्थापना के बाद यह स्थान एक तरह से महात्मा गांधी का ठहरने का स्थान बन गया था। वर्श 1932 में महात्मा गांधी और डॉ भीमराव अंबेडकर के बीच हुए पूना पैक्ट के परिणामस्वरूप गांधी ने हरिजन सेवक संघ की नींव रखी थी। आरंभ में इसे "नेशनल एंटी अनटचेबिलिटी लीग" नाम दिया गया था। वर्ष 1934 में इस संस्था को "हरिजन सेवक संघ" के नाम से पंजीकृत किया गया। यह एक कम जानी बात है कि इसके संविधान, नियमों और विनियमों को स्वयं महात्मा गांधी ने अपनी हस्तलिपि से अंतिम रूप देते हुए ठीक किया था। इस संस्था का लक्ष्य समाज से अस्पृश्यता को मिटाने और उससे प्रभावित व्यक्तियों को समाज की मुख्य धारा में लाना था।
आज 20 एकड़ के परिसर में गांधी आश्रम, बस्ती, लाला हंस राज गुप्ता औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान सहित लड़कों-लड़कियों के लिए एक आवासीय विद्यालय भी है। अब हरिजन सेवक संघ के किंग्सवे कैंप स्थित गांधी आश्रम के मुख्यालय को केन्द्रीय संस्कृति मंत्रालय ने गांधीवादी विरासत स्थल के रूप में सूचीबद्ध है। गांधी-कस्तूरबा के विभिन्न अवसरों पर यहां लंबा समय बिताने के कारण यह स्थान एक तीर्थ के समान है।
Sunday, February 16, 2020
Gandhi on Kasturba Gandhi_wife_महात्मा गांधी कस्तूरबा गांधी पर
मेरी पत्नी के प्रति अपनी भावना का वर्णन यदि मैं कर सकूँ, तो ही हिन्दू धर्म के प्रति अपनी भावना का वर्णन मैं कर सकता हूँ। मेरी पत्नी मेरे अंतर को जिस प्रकार हिलाती है, उस प्रकार दुनिया की दूसरी कोई भी स्त्री उसे नहीं हिला सकती। उसके लिए ममता के एक अटूट बन्धन की भावना दिन-रात मेरे अंतर में जाग्रत रहती है।
–महात्मा गांधी, अपनी पत्नी कस्तूरबा गांधी पर
Saturday, February 15, 2020
Address of Ghalib in his letters_गालिब के खतों में बल्लीमाराँ का पता
पूछते हैं वो के गालिब कौन है?
कोई बतलाओ के हम बतलाएं क्या?
आज हिंदुस्तान में एक आम समझ के हिसाब से उर्दू और गालिब एक ही सिक्के के दो है। पर हकीकत इससे बहुत जुदा है। मिर्जा असदुल्ला बेग गालिब अपने आपको फारसी का कवि मानते रहे। इन कवियों की परम्परा अमीर खुसरो से प्रारम्भ होती है। गालिब भी इसी परम्परा के थे। उल्लेखनीय है कि कई शतियों तक हमारे देश में हजारों परिवारों के लिए फारसी केवल शासन की भाषा ही नहीं थी। इन परिवारों ने उसे सांस्कृतिक भाषा के रूप में भी स्वीकार किया था। जो मुसलमान विदेशों से आए थे उनकी सबकी मातृभाषा फारसी नहीं थी। जो विदेशी मुस्लिम राजवंश दिल्ली की गद्दी पर बैठे उनमें से अधिकांश फारसी नहीं बोलते थे। फिर भी फारसी का प्रभाव दिन पर दिन बढ़ता गया।
इसी पृष्ठभूमि में गालिब के मित्रों ने यह सुझाव रखा था कि वे उर्दू में भी लिखें, जिससे साधारण जनता उनकी रचनाओं से लाभ उठा सकें। इस प्रकार के सुझाव के सम्बन्ध में आरम्भ में गालिब का विचार था-मैं उर्दू में अपना कमाल क्या जाहिर कर सकता हूँ। उसमें गुंजाइश इबारत आराई (अलंकरण की) कहां है? बहुत होगा तो ये होगा के मेरा उर्दू बनिस्बत औरों के उर्दू के फसीह होगा। खैर, बहरहाल कुछ करूंगा और उर्दू में अपना जोरे कलम दिखाऊंगा। ये विचार गालिब ने वर्ष 1858 में मुंशी शिवनारायण को लिखे गए पत्र में व्यक्त किए थे।
एक तरह से, गालिब के गद्य का स्वरूप उनके पत्रों में देखा जा सकता है। ये पत्र एक समय में एक व्यक्ति को नहीं लिखे गए। गालिब की ओर से जिन लोगों को पत्र लिखे गए हैं, उनमें से अधिकांश व्यक्ति साहित्यिक हैं, किन्तु उनकी रुचियों में समानता नहीं है, उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी भिन्न है और उन लोगों के साथ गालिब का सम्बन्ध भी एक जैसा नहीं है। उनका जीवन दिल्ली के अन्तिम मुगल बादशाह और बड़े-बड़े सामन्तों के साथ व्यतीत हुआ था। उन्होंने जब उर्दू में लिखा शुरू किया तो एक नई शैली को जन्म दिया।
उन्नीसवीं शती के पांचवे दशक से गालिब हिन्दी में (गालिब अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले तक उर्दू के लिए हिन्दी शब्द का ही प्रयोग करते रहे) पत्र लिखने लगे। इससे पहले वे फारसी में ही पत्र लिखा करते थे। सम्भवतः उनका अन्तिम पत्र वर्ष 1868 का है। 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के बाद उन्होंने फारसी लिखना बहुत कम कर दिया था।
गालिब के पत्र हिन्दी और उर्दू की मिली-जुली सम्पत्ति है। गालिब ने लिखा है कि मैंने वो अन्दाजे तहरीर (लिखने का ढंग) ईजाद किया है (निकाला है) के मुरासिले (पत्र) को मुकालिमा (बातचीत) बना दिया है। हजार कोस से बजबाने कलम (लेखनी की जिह्वा) से बातें किया करो। हिज्र (वियोग) में विसाल (मिलन) के मजे लिया करो।
दिल्ली में अपनी रिहायश के बारे में 12 मार्च 1852 को लिखे एक खत में गालिब लिखते हैं, मैं काले साहब के मकान से उठा आया हूँ। बल्लीमारों के महल्ले में एक हवेली किराए को लेकर उसमें रहता हूँ। वहां का मेरा रहना तखफीफे (किराए की कमी) किराए के वास्ते न था। सिर्फ काले साहब की मुहब्बत से रहता था वास्ते इत्तला के तुमको लिखा है, अगर चे मेरे खत पर हाजत मकान के निशान की नहीं है, दर देहली ब असदुल्लाह ब रसद (पहुंचे) काफी है, मगर अब लाल कुआं न लिखा करो, मुहल्ले बल्लीमाराँ लिखा करो।
एक दूसरे खत में वे लिखते हैं, हाँ साहब, ये तुमने और बाबू साहब ने क्या समझा है, के मेरे खत के सरनामे पर इमली के मुहल्ले का पता लिखते हो। मैं बल्लीमारों में रहता हूँ। इमली का मुहल्ला यहां से बेमुबालिगा (निसन्देह) आध कोस है। वो तो डाक के हरकारे मुझको जानते हैं, वर्ना खत हिरजा (व्यर्थ) फिरा करे। आगे काले साहब के मकान में रहता था, अब बल्लीमामाराँ हूँ किराए की हवेली में रहता हूँ। इमली का मुहल्ला कहां और मैं कहां? गौरतलब है कि एक जमाने में बल्लीमारान को बेहतरीन नाविकों के लिए जाना जाता था इसीलिए इसका नाम बल्लीमारान पड़ा यानी बल्ली मारने वाले।
इसी तरह, 5 दिसम्बर 1857 के खत में गालिब बताते हैं कि और मैं जिस शहर में हूँ, उसका नाम भी दिल्ली और उस मुहल्ले का नाम बल्लीमारों का मुहल्ला है, लेकिन एक दोस्त उस जनम के दोस्तों में से नहीं पाया जाता! वल्लाह! ढूँढने को मुसलमान इस शहर में नहीं मिलता! क्या अमीर क्या गरीब, क्या अहले (दस्तकार) हिर्फा। अगर कुछ हैं, तो बाहर के हैं। हुनूद (हिन्दू) अलबत्ता कुछ आबाद हो गए हैं। अब पूछो के तू क्यों कर मसकने (पुराना निवास स्थान) कदीम में बैठा रहा। साहबे बन्दा, मैं हकीम मुहम्मद हसन खां मरहूम (स्वर्गीय) के मकान में नौ दस बरस से किराए को रहता हूँ और यहां करीब क्या बल्के दीवार ब दीवार हैं घर हकीमों के, और वौ नौकर हैं राजा नरेन्द्रसिंघ बहादुर वाली (पटियाला नरेश) ए-पटियाला के। राजा ने साहबाने आलीशान से अहद (वचन) ले लिया था के बरवक़्त (दिल्ली के विध्वंस के बाद) गारते देहली ये लोग बच रहें। राजा के सिपाही आ बैठे और ये कूचा महफूज रहा, वरना मैं कहाँ और ये शहर कहाँ?
Thursday, February 13, 2020
Radio_Theodor W Adorno_German Philosopher_रेडियो_ओडरोर डब्ल्यू एडोर्नो_दार्शनिक
Theodor W Adorno |
जब भी हम रेडियो चालू करते हैं, तो होने वाली घटनाओं की एक निश्चित अभिव्यक्ति होती है। रेडियो ‘हमसे बात करता है’, भले ही हम किसी की न सुनें।
-ओडरोर डब्ल्यू एडोर्नो, रेडियो के जादू पर, आज विश्व रेडियो दिवस है
(एडोर्नो की गिनती दूसरे विश्व युद्ध के बाद के जर्मनी में सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक और सामाजिक आलोचकों में होती है)
Whenever we turn on the radio, the phenomena that ensue have a certain expression.The radio ‘talks to us’, even though we listen to no-one”.
-Theodor W Adorno, on the magic of radio as today is World Radio Day
(Adorno was one of the most important philosophers and social critics in Germany after World War II)
जब भी हम रेडियो चालू करते हैं, तो होने वाली घटनाओं की एक निश्चित अभिव्यक्ति होती है। रेडियो ‘हमसे बात करता है’, भले ही हम किसी की न सुनें। -ओडरोर डब्ल्यू एडोर्नो, रेडियो के जादू पर, आज विश्व रेडियो दिवस है
(एडोर्नो की गिनती दूसरे विश्व युद्ध के बाद के जर्मनी में सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक और सामाजिक आलोचकों में होती है)
Wednesday, February 12, 2020
Anna Akhmatova_Russian poet_अन्ना अखमतोवा
किसी पराये आकाश ने मुझे नहीं बचाया,
किसी अजनबी के हाथों ने मेरे चेहरे को ओट नहीं दी।
मैं जनसाधारण का चश्मदीद गवाह था,
उस वक़्त, उस जगह जीवित बचा अकेला व्यक्ति।
-अन्ना अखमतोवा (1889-1966), रूस की कवियत्री
No foreign sky protected me,no stranger’s wing shielded my face.I stand as witness to the common lot,survivor of that time, that place.-Anna Akhmatova, Russian poet
(1889-1966)
Tuesday, February 11, 2020
William Martin_Do not ask your children to strive_विलियम मार्टिन की कविता_डू नाॅट आस्क यूअर चिल्ड्रन टू स्ट्राइव
कभी भी अपने बच्चों को
असाधारण जिंदगी जीने के लिए न कहें
चाहे ऐसी जिदंगी की खोज
कितनी भी तारीफ के लायक क्यों न लगें
वह मूर्खता के रास्ते से ज्यादा कुछ भी नहीं
इसकी बजाय उन्हें साधारण जिंदगी के
आश्चर्य और चमत्कार खोजने में मददगार बनें
उन्हें टमाटर, सेब और नाशपातियों को
खाने का तरीका बताएं
उन्हें पालतू जानवरों और अपनों की मौत पर
रोने का ढंग सिखाएं
उन्हें एक हाथ को थामने से
दिल को होने वाली खुशी के बारे में बताएं
उनके लिए साधारण जिदंगी को जीवंत बनाएं
असाधारणता अपनी चिंता खुद कर लेगी।
विलियम मार्टिन की कविता "डू नाॅट आस्क यूअर चिल्ड्रन टू स्ट्राइव"
के अनुवाद की एक अकिंचन कोशिश
Saturday, February 8, 2020
Political party symbols in Delhi Assembly Elections_दिल्ली के चुनावी दंगल के दलीय चिन्हों का लेखाजोखा
Wednesday, February 5, 2020
Monday, February 3, 2020
Saturday, February 1, 2020
Mahatma Gandhi and Sardar Patel_Two sides of same coin_एक दूसरे के पूरक थे, गांधी और पटेल
मेरा दिल भरा हुआ है। क्या कहूं क्या न कहूं ? जबान चलती नहीं है। आज का अवसर भारतवर्ष के लिए सब से बड़े दुख, शोक और शर्म का अवसर है।
पिछले चन्द दिनों से उनका दिल खट्टा हो गया था और आप जानते हैं कि आखिर उन्होंने उपवास भी किया। उपवास में चले गए होते, तो अच्छा होता। इस समय पर ही उनको जाना था। आज वह भगवान के मंदिर पहुंच गए!
देश के पहले उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने यह बात 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में गांधी जी की हत्या के एकदम बाद हुई एक सार्वजनिक सभा में जन साधारण को संबोधित करते हुए कही। ऐसी शोक की घड़ी में भी आत्मसंयम का परिचय देते हुए उन्होंने कहा कि यह बड़े दुख का, बड़े दर्द का समय है, लेकिन यह गुस्से का समय नहीं है। क्योंकि अगर हम इस वक्त गुस्सा करें, तो यह सबक उन्होंने हमको जिन्दगी भर सिखाया, उसे हम भूल जायेंगे! और कहा जायेगा कि उनके जीवन में तो हमने उनकी बात नहीं मानी, उनकी मृत्यु के बाद भी हमने नहीं माना। हम पर यह धब्बा लगेगा। तो मेरी प्रार्थनाा है कि कितना भी दर्द हो, कितना भी दुख हो, कितना भी गुस्सा आए, लेकिन गुस्सा रोककर अपने पर काबू रखिए। अपने जीवन में उन्होंने हमें जो कुछ सिखाया, आज उसी की परीक्षा का समय है। बहुत शान्ति से, बहुत अदब से, बहुत विनय से एक दूसरे के साथ मिलकर हमें मजबूती से पैर जमीन पर रखकर खड़ा रहना है।
सरदार पटेल ने हिंदुस्तान के सार्वजनिक जीवन में गांधी की सर्वव्यापी उपस्थिति के अभाव को रेखांकित करते हुए कहा कि उनका एक सहारा था और हिन्दुस्तान को वह बहुत बड़ा सहारा था। हमको को जीवन भर उन्हीं का सहारा था। आज वह चला गया! वह चला तो गया, लेकिन हर रोज, हर मिनिट वह हमारी आंखों के सामने रहेगा! हमारे हृदय के सामने रहेगा! क्योंकि जो चीज वह हमको दे गया है, वह तो कभी हमारे पास से जाएगी नहीं! आप जानते हैं कि हमारे ऊपर जो बोझ पड़ रहा है, वह इतना भारी है कि करीब-करीब हमारी कमर टूट जाएगी।
उस दुखद घड़ी में भी एक उत्तम नेता के दुर्लभ गुण का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने आशावादिता का दृष्टिकोण रखते हुए कहा कि कल चार बजे उनकी मिट्टी तो भस्म हो जाएगी, लेकिन उनकी आत्मा तो अब भी हमारे बीच में है। अभी भी वह हमें देख रही है कि हम लोग क्या कर रहे हैं। वह तो अमर है। मैं उम्मीद करता हूँ और हम सब ईश्वर से यह प्रार्थना करेंगे कि जो काम वह हमारे ऊपर बाकी छोड़ गए हैं, उसे पूरा करने में हम कामयाब हों। मैं यह भी उम्मीद करता हूँ कि इस कठिन समय में भी हम पस्त नहीं हो जाएंगे, हम नहिम्मत भी नहीं हो जाएंगे।
फिर 2 फरवरी 1948 को रामलीला मैदान में गांधीजी की शोकसभा में सरदार पटेल के मन की पीड़ा फूट पड़ी। उन्होंने गांधी के साथ स्वयं के अभिन्न जुड़ाव और राष्ट्रीय जीवन में उनके प्रतिम योगदान को बताते हुए कहा कि जब से गांधीजी हिन्दुस्तान में आए तब से, या जब मैंने जाहिर जीवन शुरु किया तब से, मैं उनके साथ रहा हूँ । अगर वे हिंदुस्तान न आए होते, तो मैं कहां जाता और क्या करता, उसका जब मैं ख्याल करता हूँ तो एक हैरानी-सी होती है।
महात्मा गांधी ने कारागार से लिखे एक पत्र में सरदार पटेल के बारे में लिखा था कि मेरी कठिनाई यह है कि तुम मेरे साथ नहीं हो इसलिए मैं एकलव्य बनने का प्रयास कर रहा हूँ कि जिसने द्रोणाचार्य की अस्वीकृति के बाद अपने समक्ष द्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिमा रखकर तीरदांजी सीखी थी। मैं उसी तरह, तुम्हारी छवि का स्मरण करते हुए अपने प्रश्न उसके समक्ष रखता हूँ।
उसी शोकाकुल पटेल ने गांधी स्मृति को लेकर रामलीला मैदान में कहा कि तीन दिन से मैं सोच रहा हूँ कि गांधीजी ने मेरे जीवन में कितना पलटा किया और इसी तरह से लाखों आदमियों के जीवन को उन्होंने किस तरह से पलटा? यदि वह हिन्दुस्तान में न आए होते तो राष्ट्र कहां जाता? हिन्दुस्तान कहां होता? सदियों से हम गिरे हुए थे। वह हमें उठाकर कहां तक ले आए? उन्होंने हमें आजाद बनाया। उनके हिंदुस्तान आने के बाद क्या-क्या हुआ और किस तरह से उन्होंने हमें उठाया, कितनी दफा किस-किस प्रकार की तकलीफें उन्होंने उठाई, कितनी दफे वह जेलखाने में गए और कितनी दफे उपवास किया, यह सब आज ख्याल आता है। कितने धीरज से, कितनी शान्ति से वह तकलीफें उठाते रहे, और आखिर आजादी के सब दरवाजे पार कर हमें उन्होंने आजादी दिलवाई।
Subscribe to:
Posts (Atom)
First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान
कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...