Saturday, September 26, 2020

Najwa Zebian_Pain_नजवा जेबिनयन_दुख की कामना


 



उनके लिए कभी दुख की कामना न करो। तुम ऐसी परपीड़ा की इच्छा रखने वाले नहीं हो। अगर उन्होंने तुम्हें दुख दिया है तो अवश्य उनके भीतर दुख का वास होगा। उनके लिए दुख से मुक्ति की प्रार्थना करो। उन्हें इसकी ही सर्वाधिक आवश्यकता है।


-नजवा जेबिनयन, लेबनानी लेखिका

Thursday, September 24, 2020

Coward and Lazy persons are risky_Sardar Patel_Mahatma Gandhi_letter_कायर और ढीले आदमी_सरदार वल्लभभाई पटेल_महात्मा गांधी


 


कायर और ढीले आदमी समझदार हों तो भी मुझे उनसे प्रेम नहीं होता, क्योंकि वे मंझधार में नाव डूबानेवाले होते हैं।

-सरदार वल्लभभाई पटेल, महात्मा गांधी को 29 अक्तूबर 1933 को लिखे एक पत्र में



हम गुलाम इसलिए बने थे कि हम आपस में एक दूसरे के साथ लड़े, खतरे के समय हम लोगों ने एक दूसरे का साथ नहीं दिया था। हम छोटे-छोटे टुकड़े बनाकर बैठ गए और अपने-अपने संकुचित क्षेत्रों में, अपने स्वार्थों में पड़ गए। अपने संकुचित क्षेत्र में भले ही हमने कुछ सेवा भी की हो, लेकिन उससे हमको नुकसान ही हुआ और जब समय आया तो हम एक साथ खड़े न रह सके। 

-सरदार पटेल, जयपुर में संयुक्त राजस्थान का उद्घाटन के समय

Monday, September 21, 2020

Sardar Patel_Maniben Patel_Letters_सरदार वल्लभभाई पटेल_मणिबेन पटेल_पत्र


 


शारीरिक रोग की तुलना में मानसिक कष्ट कहीं अधिक विनाशकारी है। शारीरिक पीड़ा के लिए औषधि है, लेकिन मानसिक रोग के लिए कोई औषधि नहीं है। इसके लिए, कोई कुछ नहीं कर सकता। ईश्वर की इच्छा अनुसार ही घटनाएं होती हैं। यहां तक कि उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। 

-सरदार वल्लभभाई पटेल अहमदनगर किले के कारागार से अपनी बेटी मणिबेन को 16 मार्च, 1944 को लिखे एक पत्र में


Mental agony is much more disastrous than a physical ailment. For physical pain there is medicine, but there is no remedy for the mental ailment. So nobody can do anything about it. Whatever God wishes happens. Even a leaf won’t move without his wish.

-Sardar Vallabhbhai Patel to his daughter Maniben in a letter dated March 16, 1944, from Ahmednagar Fort prison

Sunday, September 20, 2020

Contribution of funds to rebuild Somnath Temple_Sardar Patel_सोमनाथ मंदिर के पुर्ननिर्माण के लिए धन देने की अपील_सरदार वल्लभभाई पटेल


 



मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि यह कार्य धन के अभाव में प्रभावित नहीं होगा लेकिन सौराष्ट्र की जनता को उनकी क्षमता के अनुरूप अपना अंशदान देना चाहिए। 


-सरदार पटेल की गुजरात में सोमनाथ मंदिर के पुर्ननिर्माण के लिए धन देने की अपील 

(स्त्रोतः 25 जनवरी 1949, हिंदुस्तान टाइम्स, पेज 28, कलेक्टेड वर्क्स ऑफ सरदार वल्लभभाई पटेल, मुख्य संपादकः पी एन चोपड़ा)

Let me assure you did the work would not suffer for want of money but the people of Saurashtra must contribute your mite.

-Sardar Patel Sardar Patel‘s appeal for funds to rebuild Somnath temple 25 January 1949, Hindustan Times
(Source: Collected Work of Sardar Vallabhbhai Patel, Chief Editor: PN Chopra, page 28)


Thursday, September 17, 2020

Hyderabad Police Action_Operation Polo_September 17_1948_हैदराबाद का सैनिक अभियान पोलो_17 सितंबर 1948

 

Rajasthan Patrika, 17/09/2020






वर्ष 1971 में पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी के ढाका में भारतीय लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्मसमर्पण की घटना आधुनिक भारत के इतिहास में एक मील का पत्थर है।


आज से 72 बरस पहले, 17 सितंबर 1948 को भी हैदराबाद में आत्मसमर्पण की एक ऐसी ही घटना हुई थी। जहां हैदराबाद रियासत के सैनिक कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अहमद एल एडरूज ने भारतीय थल सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जयंतो नाथ चौधरी के सामने सिकंदराबाद में अपने हथियार डाले थे। इस तरह, हैदराबाद का भारतीय संघ में एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ।


इस सैन्य कार्रवाई का आधार हैदराबाद में उत्पन्न नकारात्मक परिस्थितियां थीं, जिसके मूल में निजाम मीर उस्मान अली खान की स्वतंत्र शासक बनने की इच्छा थी। इसी कारण निजाम 15 अगस्त, 1947 के बाद से हैदराबाद के भारतीय संघ में विलय को येन-प्रकारेण टालता रहा। जबकि दूसरी तरफ, उसने पाकिस्तान और संयुक्त राष्ट्र से संपर्क करके एक स्वतंत्र मुस्लिम राज्य के रूप में हैदराबाद की स्थापना के प्रयास किए। वह भी तब जब हैदराबाद राज्य की 85 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दू थी।


भारतीय सेना के हैदराबाद पुलिस एक्शन का कूट नाम आपरेशन पोलो था। यह नाम उस समय देश में सर्वाधिक पोलो मैदान, हैदराबाद-सिकन्दराबाद में होने के कारण रखा गया था। इस सैन्य अभियान 13 सितंबर सुबह चार बजे से लेकर 17 सितंबर 1948 को शाम पांच बजे तक करीब साढ़े चार दिनों तक चला। भारतीय सेना की इस कार्रवाई में 42 सैनिक शहीद हुए और 97 घायल हुए। जबकि निजाम की सेना के 490 सैनिक मारे गए, 122 घायल हुए, वही 2727 रजाकार मारे गए, 102 घायल हुए और 3364 को धर पकड़ा गया।


तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल ने हैदराबाद में सैन्य कार्रवाई की आवश्यकता पर संविधान सभा में कहा था कि "हैदराबाद में ऐसी ताकतें काम कर रही हैं जिन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि हैदराबाद और भारतीय संघ के बीच कोई समझौता न होने दिया जाय। रजाकारों द्वारा चलाये जाने वाले हिंसा के इस उत्तेजक आन्दोलन में राज्य के भीतर 71 गांवों पर हमले किये गये हैं, 140 आक्रमण हमारे भूभाग पर किये गये हैं, 325 आदमी मारे गये हैं, 12 रेलगाड़ियों पर हमले हुए हैं तथा डेढ़ करोड़ की सम्पति लूटी गई है। हम ऐसे अत्याचारों और नृशंस कृत्यों को बिना किसी रोकटोक के जारी नहीं रहने दे सकते।"


उल्लेखनीय है कि हैदराबाद में वर्ष 1926 में बना मजलिस-इ-इत्तेहाद-उल-मुसलमीन एक धर्मान्ध मुस्लिम संगठन था। इसके नेता कासिम रिजवी रजाकारों का सैन्य दल बनाकर निजाम के समर्थन में मुसलमानों को एक करने और हिन्दुओं के धार्मिक उत्पीड़न में सक्रिय था।


Sunday, September 6, 2020

Happiness_Self_प्रसन्नता_स्व


 


प्रसन्नता कोई सुदूर की वस्तु नहीं है। वह न तो प्रसिद्धि में निहित है और न ही लोकप्रियता में। जब आप जीवन को प्रतिबद्धता के साथ बिताते हैं, तब आपका मन विशाल ब्रह्मांड के समान प्रसन्नता से भरने लगता है। यह स्वयं के प्रति ईमानदार होने और जहां है, वहीं से जीवन जीने सरीखा है। 

-दाइसाकू इकेदा 

Thursday, September 3, 2020

Nasirabad_Ajmer_Rajasthan_1857_नसीराबाद से बजा था बिगुल, राजस्थान में 1857 की पहली जंगे आजादी का_Sujas_August_2020


 




देश में वर्ष 1857 को हुए पहले स्वतंत्रता संग्राम का राजस्थान में शंखनाद नसीराबाद से हुआ। तब राजपूताना का बहुत कम भाग अंग्रेजों के सीधे प्रशासन में था। उस समय राजपूताने का अंग्रेजी प्रशासन उत्तर पश्चिम प्रदेश के लेफ्टिनेन्ट गर्वनर के अधीन था और यहां शान्ति कायम रखने का दायित्व राजस्थान के एजीसी का था। इनमें तीन महत्पपूर्ण सैनिक चैकियां थीं-अजमेर, नसीराबाद और नीमच।



जब 1857 में राजपूताने में क्रांति शुरू हुई तब राजस्थान का एजेन्ट टू गवर्नर जनरल (एजीजी) जार्ज सेंट पैट्रिक लारेन्स था। उसके अधीन कई पोलिटिकल एजेन्ट थे जो बड़ी बड़ी रियासतों में नियुक्त थे। यहां छह सैनिक छावनियां थीं नसीराबाद, अजमेर, देवली, खैरवाड़ा, ऐरनपुरा और नीमच। इन सभी छह छावनियों में अंग्रेजी पलटनें थीं। परन्तु इनमें से अधिकांश सैनिक भारतीय थे। 


अजमेर से 16 मील की दूरी पर नसीराबाद छावनी में दो रेजीमेंट, बंगाल नेटिव इन्फेंट्री 15 एवं 30 तथा फर्स्ट बॉम्बे केवेलरी और पैदल तोपखाना बैटरी तैनात थी। नसीराबाद से केवल 60 मील दूर देवली छावनी में कोटा दस्ता तैनात था, जिसमें इंडियन केवेलरी की एक रेजीमेन्ट और इन्फेंट्री थी। भारतीय सैनिकों, घुड़सवार और पैदल सैनिकों की एक रेजीमेन्ट नीमच में थी जो नसीराबाद से 120 मील दूर था। अजमेर से सौ मील दूर एरिनपुरा में जोधपुर रियासत के अनियमित सैनिकों की पूरी पलटन तैनात थी जिसकी व्यवस्था जोधपुर रियासत के हाथों में थी। मेवाड़ में उदयपुर से पचास मील दूर खैरवाड़ा में अंग्रेज अधिकारियों के नियंत्रण में भील पलटन थी। मेरों (रावतों की मेरवाड़ा बटालियन) की एक अन्य पलटन ब्यावर में तैनात थी। जयपुर पोलिटिकल एजेन्ट के रक्षक भारतीय सैनिक ही थे। परन्तु जब इस संग्राम का आरम्भ हुआ तो राजस्थान में अंग्रेज सैनिक अधिक नहीं थे इसलिए एक प्रकार से अंग्रेजों की स्थिति बड़ी भयावह अवश्य थी।


जब 19 मई, 1857 में मेरठ में होने वाली क्रांति की सूचना राजस्थान पहुंची उस समय एजीजी जनरल लारेन्स आबू में था। उसने तुरन्त ही सम्बन्धित अधिकारियों को सूचित किया और बतलाया कि उन्हें क्या सावधानी रखनी चाहिए। अजमेर की सुरक्षा के लिए उसने 21 मई, 1857 को दीसा से एक ब्रिगेड नसीराबाद मंगवाई। यह स्थान सबसे निकट था और यहीं पर यूरोपीय सैनिक थे। उसने सभी राजपूताना के शासकों के नाम एक घोषणा पत्र जारी किया कि सारे शासक अपने राज्य की सीमा के अन्दर शांति बनाये रखें। उनके राज्य से होकर जो कोई विद्रोही लोग निकलें उनको पकड़े। इस घोषणा पत्र से सर्वोच्चता के प्रति निष्ठावान रहने तथा सैनिक सहायता के लिए उद्यत रहने के लिए सूचित भी किया गया था।


सुरेन्द्रनाथ सेन ने अपनी पुस्तक "1857 का स्वतंत्रता संग्राम" में लिखा है कि 1857 में राजपूताना के राजा अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान बने रहे। फिर भी राजपूताना को अपने हिस्से की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। विद्रोह हो जाने पर अंग्रेजों की मुख्य चिंता अजमेर की सुरक्षा को लेकर थी। 


ऐसे में, अजमेर तो बच गया लेकिन कुछ दूर नसीराबाद में अंग्रेजी राज के विरुद्व विद्रोह हुआ। यहां बंगाल सिपाहियों की दो रेजीमेन्ट और फर्स्ट बॉम्बे कैवलरी रेजीमेंट तैनात थी। मई 1857 में जब हड्डी मिले आटे की कहानियां नसीराबाद भी पहुंची तो भारतीय सिपाहियों में रोष भर गया। इसके अलावा यह अफवाह भी थी कि दीसा से एक यूरोपीय फौज देसी सिपाहियों को निहत्था करने आ रही है। इस समाचार ने अंग्रेज सत्ता विरोधी भावना को और अधिक भड़का दिया। नसीराबाद की स्थिति बद से बदतर होने लगी।






भारतीय सैनिकों में यह अफवाह फैल गई, विशेषकर अंग्रेजी पलटनों में और तोपखाना टुकड़ी में, कि कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी लगी हुई है, जिनको बन्दूकों में रखने से पहले मुंह से काटना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि नसीराबाद में 10 मई 1857 में हुए मेरठ विप्लव का प्रभाव 15 वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के माध्यम से आया था। इस इन्फैंट्री की एक टुकड़ी 1 मई 1857 में अजमेर के शस्त्रागार की रक्षा कर रही थी जो मेरठ से ही प्रशिक्षित होकर आई थी।


एजीजी. के अजमेर में स्थित 15वीं बंगाल इन्फैन्ट्री को अविश्वास के कारण नसीराबाद भेज दिया था, जिसके कारण सैनिकों में असंतोष उत्पन्न हो गया। वहीं, अंग्रेजों ने फर्स्ट बम्बई लांसर्स के सैनिकों से नसीराबाद में गश्त लगवाने के साथ बारुद भरी तोपें तैयार करवाने के कारण सैनिकों में असंतोष पनपा। इन सब तथ्यों ने पहले से एकत्र बारूद के ढेरी में आग सुलगाने का काम किया।


इसका परिणाम 28 मई को नसीराबाद की दो पैदल टुकड़ियों के रेजीमेन्टों के अंग्रेजों के विरुद्व हथियार उठाने के रूप में सामने आया। उल्लेखनीय है किवर्ष 1818 में अंग्रेजों ने मराठा सरदार दौलतराव सिन्धिया से एक सन्धि करके अजमेर प्राप्त किया था। उसके बाद ही नसीराबाद में एक अंग्रेज सैनिक छावनी बनाई गई थी। 


यहां आजादी का परचम लहराने की पहल 15 वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के सैनिकों ने की। इन सैनिकों ने नसीराबाद के अंग्रेज बंगलों तथा सार्वजनिक भवनों को लूट लिया और उनमें आग लगा दी। यहां तक कि फर्स्ट बॉम्बे कैवलरी दल ने भी अपने अंग्रेज अधिकारियों से सहयोग नहीं किया और भारतीय सैनिकों के विरुद्ध कोई कार्रवाई करने से इन्कार कर दिया। जबकि इस दल के सिपाहियों ने यूरोपीय महिलाओं और बच्चों की उस समय सुरक्षा व्यवस्था की जब वे ब्यावर की ओर जा रहे थे। दो अंग्रेज अधिकारी मारे गये और तीन घायल हो गये।


अंग्रेज लेखक इल्तुदूस थामस प्रिचार्ड ने पुस्तक "म्यूटिनीज इन राजपूताना" (1860) में लिखा है कि नसीराबाद के सिपाहियों ने जब विद्रोह किया तब बम्बई की घुड़सवार सवार-सेना ने उनसे युद्व करने से इंकार कर दिया। उसके हिसाब से दोनों में पहले से कोई समझौता हो चुका था। बंबई की सेना में अवध के सिपाही भी थे लेकिन वे उसका एक हिस्सा ही थे। उसमें गैर-हिन्दुस्तानी भी थे और उन्होंने हिन्दुस्तानियों की सहायता की।


इस प्रकार, नसीराबाद स्वतन्त्रता सेनानियों के हाथ में चला गया। दूसरे दिन आजादी के सिपाहियों ने नसीराबाद छावनी को लूट दिल्ली का मार्ग लिया।


इतिहासकार सुंदरलाल अपनी प्रसिद्व पुस्तक "भारत में अंगरेजी राज" (द्वितीय खंड) में लिखते है कि देसी सिपाहियों के नेता दिल्ली सम्राट के नाम पर नगर के शासन का प्रबंध करके खजाना, हथियार और कई हजार सिपाहियों को साथ लेकर दिल्ली की ओर चल दिए।


इन आजादी के दीवाने सैनिकों का पीछा मारवाड़ के एक हजार प्यादी सेना ने किया जिसका नेतृत्व अजमेर का असिसटेन्ट कमिशनर लेफ्टिनेन्ट वाल्टर और मारवाड़ का असिस्टेंट जनरल तथा लेफ्टिनेन्ट हीथकोट और एन्साईन बुड कर रहे थे। लेकिन पीछा करने वाली सेना को कोई सफलता नहीं मिली। प्रिचार्ड के अनुसार, विद्रोही सिपाहियों से लड़ने के लिए जब जोधपुर और जयपुर दरबारों के दस्ते आये (अंग्रेजों के नेतृत्व में राजस्थान में रहने वाली देशी पलटनों से ये भिन्न थे), तब उन्होंने लड़ने से इंकार कर दिया। उन्होंने इस बात को छिपाया नहीं कि उनकी सहानुभूति विद्रोहियों के साथ है क्योंकि उन्हें ऐसा विश्वास हो गया था कि ब्रिटिश लोग उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहे थे।


जिस असाधारण तेजी से आज़ादी की सिपाही दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे इसका एक कारण नसीराबाद की विद्रोह पूर्ण घटना भी थी। डब्ल्यू. कार्नेल, जो उस समय अजमेर में सुरक्षा का सैन्य अधिकारी था जब अजमेर पर आक्रमक कार्रवाई की गयी थी, अंदर-बाहर के खतरों के बावजूद दिन रात जागते हुए तेजी से आगे बढ़ रहा था। उस समय वह काफी हताश भी था। उसने जोधपुर के महाराजा द्वारा भेजी गई विशाल सेना को भी अजमेर में रहने की अनुमति नहीं दी। उस समय अजमेर-मेरवाड़ा का कमिशनर कर्नल सी. जे. डिक्सन था। 




जबकि दूसरी तरफ, अजमेर की स्थिति का लाभ न उठाकर आज़ादी के सिपाहियों की सेना तेजी से दिल्ली की ओर बढ़ती ही चली गयी। जबकि अंग्रेज अजमेर की हर कीमत पर रक्षा करने को तत्पर थे क्योंकि वह राजपूताने के केन्द्र में स्थित था तथा सामरिक दृष्टि से भी उसकी स्थिति काफी महत्वपूर्ण थी। यदि वह स्वतंत्रता सेनानियों के हाथ में चला जाता तो अंग्रेज हितों को भारी आघात लग सकता था क्योंकि अजमेर में भारी शस्त्रागार, खजाना और अपार सम्पदा मौजूद थी। यही कारण है कि स्वयं जार्ज लारेंस किले की मरम्मत करवाने तथा छह माह की रसद इक्ट्ठा करने में प्रयत्नशील रहा। इस प्रकार के प्रबन्ध से अजमेर क्रांति की लपटों से बचाया जा सका।

प्रसिद्ध हिंदी लेखक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक "सन् सत्तावन की राज्य क्रांति" में लिखा है कि राजस्थान की जनता का हदय अंग्रेजों से लड़ने वाली देश की शेष जनता के साथ था। अपने सामन्तों और अंग्रेज शासकों के संयुक्त मोर्चे के कारण वह अपनी भावनाओं को भले सक्रिय रूप से बड़े पैमाने पर प्रकट न कर सकी हो किन्तु उसकी भावनाओं के बारे में सन्देह नहीं हो सकता। 

वहीँ प्रिचार्ड ने राजस्थान के सामन्त-शासकों के बारे में लिखा है कि वे अपने कर्तव्य-पथ पर अडिग रहे अर्थात् अपनी जनता के प्रति विश्वासघात करके अंग्रेजों का साथ देते रहे। लेकिन उसने स्वीकार किया है कि अनेक सामन्त अपने सिपाहियों और प्रजा पर नियन्त्रण न रख सके। इन्होंने अपनी सेनाएं अंग्रेजों की सेवा के लिए भेजीं लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर उन्होंने विद्रोहियों से लड़ना अस्वीकार कर दिया।

"राजस्थान में स्वतन्त्रता संग्राम" पुस्तक में बी एल पानगड़िया लिखते है कि विद्रोही अगर दिल्ली की बजाय अजमेर जाकर वहां के शस्त्रागार पर अधिकार कर लेते और प्रशासन हाथ में ले लेते तो राजपूताने की रियासतों में विद्रोह को भारी बल मिलता और उस पर नियन्त्रण पाना अंग्रेजी सल्ननत के लिए आसान न होता। पर देश के भाग्य में तो अभी गुलामी ही बदी थी।



अंग्रेज जासूसों की जुबानी, नसीराबाद सेना की कहानी

जासूसों के खुतूत-और दिल्ली हार गई नामक पुस्तक में अंग्रेजों के भेदियों के विवरण महत्वपूर्ण जानकारी मिलती हैं। पुस्तक में नसीराबाद की भारतीय टुकड़ी के बारे में 27 अगस्त 1857 को गौरीशंकर की टिप्पणी है, ’’सूचना मिली है कि जनरल बख्त खां का डिवीजन और नसीराबाद की सेना भी नजफगढ़ प्रस्थान करने वाली है। नांगली के निवासी ने इस युद्व में विद्रोहियों की अधिक सहायता की और उनमें कुछ ने विद्रोही सिपाहियों के साथ युद्व में भाग लिया।‘‘ फिर 16-17 जून 1857 की प्रविष्टि से पता चलता है कि नसीराबाद की फौज एक लाइट फील्ड बैट्री के साथ 19 तारीख को दिल्ली पहुंचने वाली है। जबकि 27 जून 1857 के इंदराज बताता है कि आज सुबह नसीराबाद की सेना ने मिर्जा मुगल से निवेदन किया है कि शहर में उपस्थित सभी सेना को चाहिए कि वे शहर से बाहर निकल कर अंग्रेजी कैंप पर आक्रमण कर दें अन्यथा वे स्वयं वह शहर में आकर डेरा लगा लेगी। विद्रोही रेजीमेंटों में अब कुछ ही पुराने सिपाही रह गए हैं, परंतु सेना के अफसर अभी तक उनका वेतन वसूल कर रहे हैं। नसीराबाद की सेना अपने वेतन की मांग कर रही है।


28 जून 1857 को जासूस अमीचंद की खबर है कि नसीराबाद की सेना अभी तक (दिल्ली के) अजमेरी दरवाजे के बाहर बैठी हुई है, झज्जर के पैदल सेना के एक सौ सिपाही आज विद्रोहियों से आ मिले हैं। जबकि 5 जुलाई 1857 की प्रविष्टि बताती है कि एक सूचना ये भी है कि अंग्रेजों की सहायता के लिए फिरोजपुर से ग्यारह लाख रुपए का खजाना पहुंचने वाला है। अतः रोहिलखंड और नसीराबाद की विद्रोही सेना ने ये सुनकर अलीपुर कूच करने का फैसला किया है ताकि वहां पहुंचकर फिरोजपुर से आने वाले रकम को लूट लें और अंबाला जाने वाले बीमार अंग्रेजों को मार डालें। 20 वीं न्यू इंफैंट्री को नवाब अबदुल्लाह के बिग्रेड से निकालकर नसीराबाद ब्रिगेड में शामिल कर दिया गया है। रोहिलखंड और नसीराबाद की सेनाओं ने कमांडर-इन-चीफ के परामर्श पर कार्य करते हुए आपस में समझौता कर लिया है। इनका संकल्प है कि महु और नीमच सेना के आ जाने के बाद अंग्रेज मोर्चों पर एक जानतोड़ आक्रमण किया जाए। रोहिलखंड और नसीराबाद की सेनाएं अजमेरी दरवाजे और दिल्ली के बीच डेरा डाले हैं। न्यू इंफैंट्री की 60 वीं रेजीमेंट पुराने किले में हैं और 20 वीं न्यू इंफैंट्री लाहौरी दरवाजे के निकट ठहरी है।




First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...