Friday, August 10, 2012

Krishn-Krishna-Lohia


गज को जब ग्राह ग्रस्यो, दुस्सासन चीर हरयो,
सभा बीच कृष्ण-कृष्ण द्रौपदी पुकारी ।
इतने में हरि आइ गये, बसनन आरूढ़ भये,
सूरदास द्वारे ठाढ़ो, आँधरो भिखारी ।
यह कृष्णा तो कृष्ण के ही लायक थी । महाभारत का नायक कृष्ण , नायिका कृष्णा । कृष्णा और कृष्ण का सम्बन्ध भी विश्व – साहित्य में बेमिसाल है । दोनों सखा – सखी ही क्यों रहे । कभी कुछ और दोनों में से किसीने होना चाहा ? क्या सखा – सखी का सम्बन्ध पूर्व रूप से मन की देन थी या उसमें कुरु – धुरी के निर्माण और फैलाव का अंश था ? जो हो , कृष्ण और कृष्णा का यह सम्बन्ध राधा और कृष्ण के सम्बन्ध से कम नहीं , लेकिन साहित्यकारों और भक्तों की नजर इस ओर कम पड़ी है । हो सकता है कि भारत की पूर्व – पश्चिम एकता के इस निर्माता को अपनी ही सीख के अनुसार केवल कर्म , न कि कर्मफल का अधिकारी होना पड़ा , शायद इसलिए कि यदि वह वस्य कर्मफल-हेतु बन जाता , तो इतना अनहोना निर्माता हो ही नहीं सकता था । उसने कभी लालच न की कि अपनी मथुरा को ही धुरी – केन्द्र बनाये , उसके लिए दूसरों का हस्तिनापुर ही अच्छा रहा । उसी तरह कृष्णा को भी सखी रूप में रखा , जिसे संसार अपनी कहता है , वैसी न बनाया । कौन जाने कृष्ण के लिए यह सहज था या इसमें भी उसका दिल दूखा था ।
कृष्णा अपने नाम के अनुरूप साँवली थी , महान सुन्दरी रही होगी । उसकी बुद्धि का तेज , उसकी चकित हरिणी आँखों में चमकता रहा होगा । महाभारत की नायिका कृष्णा है ।गोरी की अपेक्षा साँवला अधिक सजीव है । जो भी हो , इसी कृष्ण – कृष्णा सम्बन्ध का अनाड़ी हाथों फिर पुनर्जन्म हुआ। न रहा उसमें कर्मफल और कर्मफल हेतु त्याग । कृष्णा पांचाल यानी कनौज के इलाके की थी , संयुक्ता भी । धुरी – केन्द्र इन्द्रप्रस्थ का अनाड़ी राजा पृथ्वीराज अपने पुरखे कृष्ण के रास्ते न चल सका ।जिस पांचाली द्रौपदी के जरिये कुरु - धुरी की आधार - शिला रखी गयी , उसी पांचाली संयुक्ता के जरिये दिल्ली – कनौज की होड़ जो विदेशियों के सफल आक्रमणों का कारण बना । कभी – कभी लगता है कि व्यक्ति का तो नहीं लेकिन इतिहास का पुनर्जन्म होता है , कभी फीका कभी रँगीला । कहाँ द्रौपदी और कहाँ संयुक्ता , कहाँ कृष्ण और कहाँ पृथ्वीराज , यह सही है । फीका और मारात्मक पुनर्जन्म , लेकिन पुनर्जन्म तो है ही ।
कृष्ण की कुरु - धुरी के और भी रहस्य रहे होंगे । कृष्ण आदर्शवादी बहुरूप एकत्व का का निर्माता था । जहाँ तक मुझे मालूम है ,अभी तक भारत का निर्माण भौतिकवादी बहुरूप एकत्व के आधार पर कभी नहीं हुआ । चिर चमत्कार तो तब होगा जब आदर्शवाद और भौतिकवाद के मिलेजुले बहुरूप एकत्व के आधार पर भारत का निर्माण होगा । अभी तक तो कृष्ण का प्रयास ही सर्वाधिक माननीय मलूम होता है , चाहे अनुकरणीय राम का एकरूप एकत्व ही हो । कृष्ण की बहुरूपता में वह त्रिकाल – जीवन है जो औरों में नहीं ।
कृष्ण यादव-शिरोमणि था , केवल क्षत्रीय राजा ही नहीं , शायद क्षत्रीय उतना नहीं था , जितना अहीर । तभी तो अहीरिन राधा की जगह अडिग है ,क्षत्राणी द्रौपदी उसे हटा न पायी । विराट विश्व और त्रिकाल के उपयुक्त कृष्ण बहुरूप था ।
बेचारे कृष्ण ने इतनी नि:स्वार्थ मेहनत की , लेकिन जन-मन में राम ही आगे रहा है । सिर्फ बंगाल में ही मुर्दे – ” बोलो हरि , हरि बोल ” के उच्चारण से – अपनी आख़री यात्रा पर निकाले जाते हैं , नहीं तो कुछ दक्षिण को छोड़ कर सारे भारत में हिन्दू मुर्दे – ” राम नाम सत्य है ” के साथ ही ले जाये जाते हैं ।
बंगाल के इतना तो नहीं , फिर भी उड़ीसा और असम में कृष्ण का स्थान अच्छा है। कहना मुशकिल है कि राम और कृष्ण में कौन उन्नीस , कौन बीस है । सबसे आश्चर्य की बात है कि स्वयं ब्रज के चारों ओर की भूमि के लोग भी वहाँ एक – दूसरे को ‘ जैरामजी ” से नमस्ते करते हैं। सड़क चलते अनजान लोगों को भी यह ” जैरामजी ” बड़ा मीठा लगता है , शायद एक कारण यह भी हो ।
राम त्रेता के मीठे , शान्त और सुसंस्कृत युग का देव है । कृष्ण पके , जटिल , तीखे और प्रखर बुद्धि युग का देव है । राम गम्य है। कृष्ण अगम्य है । कृष्ण ने इतनी अधिक मेहनत की उसके वंशज उसे अपना अंतिम आदर्श बनाने से घबड़ाते हैं , यदि बनाते भी हैं तो उसके मित्रभेद और कूटनीति की नकल करते हैं , उसका अथक निस्व उनके लिए असाध्य रहता है । इसीलिए कृष्ण हिन्दुस्तान में कर्म का देव न बन सका ।
कृष्ण ने कर्म राम से ज्यादा किये हैं । कितने सन्धि और विग्रह और प्रदेशों के आपसी सम्बन्धों के धागे उसे पलटने पड़ते थे ।यह बड़ी मेहनत और बड़ा पराक्रम था। इसके यह मतलब नहीं की प्रदेशों के आपसी सम्बन्धों में में कृष्णनीति अब भी चलायी जए । कृष्ण जो पूर्व – पश्चिम की एकता दे गया, उसी के साथ – साथ उस नीति का औचित्य भी खतम हो गया । बच गया कृष्ण का मन और उसकी वाणी । और बच गया राम का कर्म । अभी तक हिन्दुस्तानी इन दोनों का समन्वय नहीं कर पाये हैं । करें , तो राम के कर्म में भी परिवर्तन आये । राम रोऊ है , इतना कि मर्यादा भंग होती है ।
कृष्ण कभी रोता नहीं । आँखें जरूर डबडबाती हैं उसकी, कुछ मौकों पर , जैसे जब किसी सखी या नारी को दुष्ट लोग नंगा करने की कोशिश करते हैं । कैसे मन और वाणी थे उस कृष्ण के । अब भी तब की गोपियाँ और जो चाहें वे ,उसकी वाणी और मुरली की तान सुन कर रस विभोर हो सकते हैं और अपने चमड़े के बाहर उछल सकते हैं । साथ ही कर्म-संग के त्याग , सुख-दुख,शीत-उष्ण,जय-पराजय के समत्व के योग और सब भूतों में एक अव्यव भाव का सुरीला दर्शन ,उसकी वाणी में सुन सकते हैं ।संसार में एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया ।
वाणी की देवी द्रौपदी से कृष्ण का सम्बन्ध कैसा था । क्या सखा – सखी का सम्बन्ध स्वयं एक अन्तिम सीढ़ी और असीम मैदान है , जिसके बाद और किसी सीढ़ी और मैदान की जरूरत नहीं ? कृष्ण छलिया जरूर था, लेकिन कृष्णा से उसने कभी छल न किया । शायद वचन – बद्ध था , इसलिए । जब कभी कृष्णा ने उसे याद किया , वह आया । स्त्री – पुरुष की किसलय – मित्रता को , आजकल के वैज्ञानिक , अवरुद्ध रसिकता के नाम से पुकारते हैं । यह अवरोध सामाजिक या मन के आन्तरिक कारणों से हो सकता है ।
पाँचों पाण्डव कृष्ण के भाई थे और द्रौपदी कुरु – पांचाल संधि की आधार- शिला थी ।अवरोध के सभी कारण मौजूद थे । फिर भी , हो सकता है कि कृष्ण को अपनी चित्तप्रवृत्तियों का कभी विरोध न करना पड़ा हो । यह उसके लिए सहज और अन्तिम सम्बन्ध था अगर यह सही है , तो कृष्ण – कृष्णा के सखा – सखी सम्बन्ध के ब्योरे पर दुनिया में विश्वास होना चाहिए और तफ़सील से , जिससे से स्त्री – पुरुष सम्बन्ध का एक नया कमरा खुल सके । अगर राधा की छटा निराली है , तो कृष्ण की घटा भी । छटा में तुष्टिप्रदान रस है , घटा में उत्कंठा-प्रधान कर्त्तव्य ।
( ” जन ” , १९५८ जुलाई से )

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