मुहाजिर है मगर हम एक दुनिया छोड़ आये है
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आये है
वुजू करने को जब भी बैठते है याद आता है कि हम उजलत में
जमुना का किनारा छोड़ आये है
तयम्मुम के लिए मिट्टी भला किस मुंह से हम ढूंढें
कि हम शफ्फाक़ गंगा का किनारा छोड़ आये है
हमें तारीख़ भी इक खान - ऐ- मुजरिम में रखेगी
गले मस्जिद से मिलता एक शिवाला छोड़ आये है
ये खुदगर्ज़ी का जज़्बा आज तक हमको रुलाता है
कि हम बेटे तो ले आ ये भतीजा छोड़ आये है
न जाने कितने चेहरों को धुंआ करके चले आये
न जाने कितनी आंखों को छलकता छोड़ आये है
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं
(मुनव्वर राना की मुहाजिरनामा में से कुछ अशआर)
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