Wednesday, July 30, 2014

महाराणा प्रताप-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला



मुसलमानों के शासनकाल में जिन वीरों ने अपने सर्वस्व का बलिदान करके अपनी जाति, धर्म, देश और स्वतंत्रता की रक्षा की, उनमें अधिक संख्या राजपूत वीरों की ही देख पड़ती है, जैसे मुसलमानों की दुर्दम शक्ति का प्रतिरोध करने कि लिए उन वीर राजपूतों की शक्ति-रेखा विधाता ने खींची हो। दैव के काल्पनिक क्रम के भीतर जितनी मात्रा में बहिजंगत को सत्य का प्रकाश मिलता है, उतनी ही मात्रा में आध्यात्मिक गौरव की उज्ज्वलता भी प्रस्फुटित होकर हमारी मानस-दृष्टि को आश्चर्यचकित और स्तब्ध कर देती है।

स्वतंत्रता की सिंहवाहिनी के इंगित मात्र से देश के बचे हुए राजपूत-कुल-तिलक-वीरों की आत्माहुति, जलती हुई चिताग्नि में अगणित राजपूत कुल-ललनाओं द्वारा उज्ज्वल सतीत्व रत्न की रक्षा तथा लगातार कई शताब्दियों तक ऐसे ही रक्तोष्ण शौर्य के प्रात्यहिक उदाहरण, इन सजीवमूर्ति सत्य घटनाओं के अनुशीलन से वर्तमान काल की शिरश्चरणविहान, जल्पना मूर्तियाँ भारत के अशान्त आकाश में तत्काल विलीन हो जाती हैं और उस जगह वह चिरन्तन सत्यमूर्ति ही आकर प्रतिष्ठित होती है। तब हमें मालूम हो जाता है कि जातीय जीवन में साँस किस जगह चल रही है। वास्तव में उन वीरों के अमर आदर्श की जड़ भारतीय आत्माओं के इतने गहन प्रदेश तक पहुँची हुई है कि वहाँ उस जातीय वृक्ष को उन्मूलित कर, इच्छानुसार किसी दूसरे पौधे की जड़ जमाना बिल्कुल असंभव, अदूरदर्शिता की ही परिचायक कहलाती है।
-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला (महाराणा प्रताप)

सत्‍य-हजारी प्रसाद द्विवेदी



सत्‍य के लिए किसी से भी नहीं डरना, गुरू से भी नहीं, लोक से भी नहीं .. मंत्र से भी नहीं.
-हजारी प्रसाद द्विवेदी, ‘बाणभट्ट की आत्‍मकथा’

Friday, July 25, 2014

गाँवो का देश (कविता)




त्याग की देवी को पद लिप्सा ? 
नेता प्रतिपक्ष के सवाल पर 
राजधानी के टीवी बौद्धिकों की चुप्पी 
कितनी भारी है !

उसके लिए हम सब 
उनके आभारी है 
टीवी-बौद्धिकता की 
बलिहारी है 

ईश, तुम इन्हें माफ़ करना 
ये नहीं जानते, 
क्या कर रहे हैं 
ये सिर्फ अपने मालिक को जानते हैं 
अपनी तनख़्वाह को मानते हैं 

बाकी क्या देश 
क्या देशवासी 
सब दकियानूसी बातें हैं 

इनकी बातें 
अच्छी लगे तो बजाए ताली 
नहीं तो बेशक दीजिए गाली 
चिंता की कोई बात नहीं 
गाली से भी 
टीआरपी बढ़ती है 

गरीब-गरीबों से भी 
टीवी शो का जलवा जमता है 
देश बेशक जले 
वैसे भी किसका कौन-सा देश 

दिल्ली से बाहर 
वैसे भी दूरदर्शन ही दिखता है 
दिल्ली के टीवी चैनल
अपनी छत से ही 
बारिश का हाल बताते हैं 

गांव में 'हम लोग' 
कहाँ 'बीच-बहस' में पड़ते है 
कौन जागता है, 
देर रात इनके लिए 
आखिर देश तो 
गाँवो में ही बसता है 

Saturday, July 19, 2014

Everywhere life (कहाँ-कहाँ नहीं मिली, जिंदगी)




कभी किसी मोड़ पर
दुबकी मिली
हरी घास की ओट में

कभी भीड़ भरे चौराहे पर
खड़ी दिखी
इंतज़ार भरे चेहरों में

कभी किसी नदी के घाट पर
बैठी दिखी
हिचकोले लेती लहरों में

कभी चाय के दुकान पर
बर्तन धोते
बचपन के हाथों में

कभी सड़क-किनारे पर
इंतज़ार करती
देहजीविकाओं की बेबसी में

कभी श्मशान के भीतर
पसरी मिली
निर्जीव मानव देह में

कितने रूप, कितने ठिकाने
कहाँ-कहाँ
नहीं मिली, जिंदगी

फोटो: अक्षय नागदे 

Friday, July 11, 2014

life as an act (जीवन एक स्वांग)



हमें जीवन में तेज रफ़्तार के कारण बहुधा रास्ते में किनारे पर खड़े लोग नज़र नहीं आते, ऐसे लगता है पर होता नहीं। 
हक़ीकत तो इस से दीगर होती है जो हमें नज़र आता है, हम उस पर ध्यान नहीं देते।
हम अपनी तेज़ रफ़्तार, दूसरों की अनदेखी और अपनी खुदगर्ज़ी के लिए के लिए खुद जिम्मेदार होते है। 
इस सबका जिम्मेदार किसी और को मानते हुए अपनी जिम्मेदारी से बचने का स्वांग रचते हैं।

Thursday, July 10, 2014

Army Postal Service (ए पी एस)



संदेशे आते हैं...... 

ए पी एस कोर की शुरूआत हालांकि 1856 से मानी जाती है, जब ए पी एस को सबसे पहले तीव्रगामी सेना के युद्धकालीन समेकित संगठन के तौर पर चालू किया गया था। ये सेना फारस की खाड़ी में बुशायर में सबसे पहले और बाद में कर्इ अन्य ऐसे मिशन पर भेजी गर्इ थी।
सेना डाक सेवा (ए पी एस) के दो प्रमुख प्रसिद्ध डाक केंद्रों की शुरूआत का रोचक इतिहास है। अगस्त 1945 में सहयोगी सैनिकों की जापान पर विजय के बाद भारतीय सेना डाक सेवा के रूप में विख्यात सेवा की शुरूआत की गर्इ और इससे मौजूदा 137 एफ पी ओ - क्षेत्रीय डाक घरों को बंद करने की भी प्रक्रिया शुरू हुर्इ।
सिकंदराबाद में 30 जून 1941 को गठित 56 एफ पी ओ जो कि एक मात्र अंतिम एफ पी ओ बचा था, अभी इसे बंद किया जाना था। जापान में इवाकूनी से ब्रिटिश कामनवेल्थ आकुपेशन फोर्स एयर बेस के लौटने के बाद भी इस एफ पी ओ को जारी रखा गया।
ए पी एस 1947 तक भारतीय सामान्य सेवा का अंग था, जिसे बंद करके सेना सर्विस कोर के साथ इसकी एक डाक शाखा के रूप में संबद्ध किया गया था। 24 अक्तूबर 1947 को इसे नया कोड सुरक्षा पता देकर नर्इ दिल्ली में डाक छांटने के नए आधार के लिए C/o 56 ए पी ओ के रूप में शुरू किया गया। इसका मकसद 20 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तानी हमलावरों के प्रवेश के फलस्वरूप पंजाब और जम्मू कश्मीर में सैनिकों की डाक ज़रूरतों को पूरा करना था।
पहली मार्च 1972 ए पी एस को एक स्वतंत्र कोर के रूप में स्थापित किया गया।
इसने उड़ते हुए हंस का प्रतीक चिन्ह अपनाया जिसे महाभारत सहित कर्इ भारतीय पौराणिक गाथाओं में संदेशवाहक के रूप में जाना जाता था। इसने अपने चिन्ह पर ध्येय रखा मेल मिलाप। हंस एक ऐसा शालीन पक्षी है जिसे शकित, साहस, गति और दुर्गम स्थानों तक पहुंचने की क्षमता के रूप में जाना जाता है। यह प्रतीक चिन्ह ए पी एस के लिए उपयुक्त है।
56 और 99 ए पी ओ नर्इ दिल्ली से बाहर काम कर रहे दो (1 सी बी पी ओ) और कोलकाता (2 सी बी पी ओ) केंद्रीय आधार डाक घर हैं जहां डाक छांटी जाती है। इन दोनों के द्वारा सशस्त्र सेनाओं की समूची डाक जरूरतों और कुछ अन्य सहायक अर्ध सैनिक संगठनों की ऐसी जरूरतों को भारत के भीतर पूरा किया जाता है।

columbus (नए विश्व की खोज)




स्थापित पथ से विचलन नई सम्भावनाओं के अनन्त मार्ग प्रशस्त करता है, जैसे कोलंबस भारत जाने को निकला था और पहुंच गया अमेरिका............

Sunday, July 6, 2014

Connection (परिचय, पैरवी, पैसे)





कभी-कभी लगता है कि दुनिया में परिचय, पैरवी, पैसे के बिना मानो सब व्यर्थ है..............

Latin translation of kuran (क़ुरान का लैटिन अनुवाद )



क़ुरान शरीफ़ का सबसे पहला अनुवाद लैटिन भाषा में हुआ था जिसे सन 1143 में ईसाई भिक्षुओं रॉबर्टस रोटैनेसस और हरमेनस डलमाटा ने किया था. 
इसका उद्देश्य था-ईसाइयों के शत्रुओं के बारे में समझ पैदा करना. ये अनुवाद 1543 में प्रकाशित हुआ.

Saturday, July 5, 2014

remembrance everlast (यादें रह जाती हैं)






मन के आईने में तो शीशे के टुकड़े, यादें बनकर गड़े रह जाते हैं, जिनका समय के साथ दर्द बेशक चला जाए पर निशान रह जाते हैं..................................

Friday, July 4, 2014

Classic work (क्लासिक रचना)

 


क्लासिक रचना की यही पहचान है, सुख हो या दुख तत्काल आपकी यादों की बोतल में से तुरंत जिन्न की तरह बाहर आ जाती है।

Wednesday, July 2, 2014

British connection of kamathipura (अंग्रेज़ों की देन कमाठीपुरा)




एशिया की सबसे बड़ी देह मंडियों में से एक मुंबई के कमाठीपुरा की शुरुआत 150 साल पहले अंग्रेज़ो के उपनिवेशवादी राज में अंग्रेज़ सैनिकों की शरीर की भूख को मिटाने वाली एक 'ऐशगाह' के रूप में हुई थी.
और आज भी 14 तंग गंदी और गंदी गलियों की एक भूलभूलैया कमाठीपुरा, एशिया का मशहूर, बड़ा और पुराना रेडलाइट इलाका है.
19वीं शताब्दी में अंग्रेज़ सैनिकों के लिए पूरे भारत में बाकायदा अनेक वेश्यालय खोले गए. देश भर के दूर दराज़ के गांवों से ग़रीब गुरबा परिवारों की सुन्दर और जवान लड़कियों को इन वेश्यालयों को लाया जाता था. इस जिस्मानी सौदे के सारे लेन-देन का कम अंग्रेज़ सेना ही संभालती थी, यहाँ तक कि सेना ही 'उनकी' क़ीमत तय करती थी.
वर्ष 1864 के बाद मुंबई के आसपास करीब आठ बस्तियों में 500 से वेश्याएं रहती थी जबकि आज उनमें से केवल दो बस्तियां ही रह गयी है, जिसमें कमाठीपुरा सबसे बड़ी थी. हालांकि आज भी वही रवायत कायम है.
साल 1890 में हिंसक ग्राहकों से बचाने के लिए पुलिस ने स्त्रियों के लिए वेश्यालय की खिड़कियों और दरवाजों पर सलाखें लगवा दी थीं. कई महिलाएं आज भी अंग्रेज़ों के बनाए इन 'पिंजरों' में रहतीं और काम करती हैं.

way to ligtht (रोशनी-अँधेरा)





सितारा बनने का रास्ता अँधेरे से होकर ही निकलता है.............

Draupadi-Mahabharat (द्रौपदी चीरहरण-महाभारत)






आज भला एक महिला की इज़्ज़त उतारने की बात कहने वाले की जान कैसे ली जा सकती हैं ? वह बात अलग है कि हमारे देश में ही स्त्री के वस्त्र के हरण पर पूरा महाभारत हो गया था..... 

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...