कभी-कभी मैं सोचती हूं, मेरे हमसफ़र
तुम खिला दोगे मेरे होने के अहसास को,
पंहुचा दोगे सरे बुलंदियों तक मेरे वजूद को,
कभी-कभी मैं सोचती हूं, मेरे हमसफ़र
कितना अधूरा होता, जिंदगी का सफ़र
कितना तन्हां होती, मैं सिर्फ एक सिफ़र
कभी-कभी मैं सोचती हूं, मेरे हमसफ़र
तेरे होने-न-होने की कशमकश के मायने
मायने होते मेरे मगर, तू कहता कुछ अगर
कभी-कभी मैं सोचती हूं, मेरे हमसफ़र
तुम्हारे बिना दिन थोड़े और रात अधूरी होती
शब्द कमतर होकर थोड़े और बेमतलब बात होती
कभी-कभी मैं सोचती हूं, मेरे हमसफ़र
सोचती क्या मैं, तेरे बिना कुछ अगर
भरकर भी खाली रहती, तू न मिलता अगर
कभी-कभी मैं सोचती हूं, मेरे हमसफ़र
मेरे बिना तेरा वजूद, कितना अधूरा होता
होता बेशक तू ही पर कितना अधूरा होता
कभी-कभी मैं सोचती हूं, मेरे हमसफ़र
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