अपने दुखों से व्यथित होकर अकेला होने की बजाय दुखों को संघर्ष बनना उचित है। आखिर जो व्यक्ति सारे समाज की पीड़ाओं को अपने मन से लगाकर जीता है, वही बलवान बनता है। केवल अपनी पीड़ा के साथ जीना दुष्कर्म जो व्यक्ति को दुर्बल बनाता है जबकि सारे संसार की पीड़ाओं का हल खोजना सत्कर्म है जो व्यक्ति को शक्ति प्रदान करता है।
परिवर्तन तो समय का स्वभाव है।
किसी स्थान अथवा व्यक्ति की संगति के उपरांत भी कुछ भी सीखने की असमर्थता जड़ता की प्रतीक है।
जड़ता जीवन की गति को अवरूद्व करती है और मनुष्य की समस्त उर्जा का अंत।
उर्जा का अंत यानि शक्ति का शून्य में विलीन होना।
ऐसे में, शेष कुछ अशेष नहीं रह जाता, मनुष्य मात्र की देह का अवशेष रह जाता है।
आज तो मित्रता के भेष में मारीच और कालनेमि अधिक हैं, सो अपना स्वाध्याय ही सबसे उत्तम है।
समय और संतुलन दोनों को साधने में सुभीता होता है।
हम कोई गलती करते नहीं है, गलती हो जाती है। आखिर हम सब अपनी-अपनी को सबसे सही पहचानते हैं.
पहले था, बता के दिया
तो 'क्या' दान दिया!
अब है, अगर बताया नहीं
तो 'क्यों' दान दिया?
प्रेम कभी भी सरल प्रमेय नहीं होता!
सार्थक अनुभव_अपनी भाषा
प्रत्येक अनुभव सार्थक होने के लिए शब्द पाना चाहता है.
अर्थ विस्तार अपनी ही भाषा में उपयुक्त होता है.
अगर दूसरी भाषा से भी अर्थ गहराता है तो स्वागतयोग्य है पर अगर अर्थ की स्थान पर अनर्थ होता दिखे तो फिर ऐसा करना अपेक्षित नहीं.
वैसे गीता में कहा है कि स्वधर्म नहीं त्यागना चाहिए.
धर्म के बाह्य पक्ष नहीं आन्तरिक आयाम के लिए अंतिम पंक्ति लिखी थी. बाकि अंग्रेजी का भारत में भाषाई इतिहास ही वर्चस्व-संघर्ष का है.
इस बात से किसी को इंकार नहीं होगा.
जहाँ हम सहज अपनी भाषा में अपनी बात कह सकें मूल मर्म तो यही है.
भारत वर्ष में व्याकरण को 'उत्तरा विद्या' एवं छहों वेदांगों में प्रधान माना गया है।
अगर देखा जाएं तो फेसबुक पर सबसे ज्यादा मध्यम वर्ग की ही उपस्थिति है। ऐसे में इसी वर्ग में कुछ लोग अकारण अपनी खीझ और अकर्मण्यता को छिपाने के लिए शल्य भाव अपनाए हुए हैं।
अगर हम किसी के लिए भी अच्छा नहीं सोच-बोल सकते तो चुप तो रह ही सकते हैं। नहीं तो शेष को चुप कराने का काम कोरोना कर ही रहा है।
बाकी निगम बोध में सबकी यात्रा अकेले की ही है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी में लिख-पढ़ने वालों के लिए निगम बोध में अथाह भीड़ जुटती हैं, सो अगर कुछ योगदान दे सकते हैं तो सबसे बेहतर अन्यथा भयादोहन के वातावरण का निर्माण उचित नहीं है।
किसी बात का सटीक जवाब पता होने पर भी लाजवाब ढंग से चुप रहना मुश्किल है। पर ऐसे में चुप रहने का गुर सीखने पर एक वक्त बाद सवाल होने ही बंद हो जाते हैं।
जीवन में सीखना एक पारस्परिकता है, यही कारण है कि हम हमेशा एक दूसरे से सीखते हैं। हमारे जीवन में जिस क्षण यह प्रक्रिया थम जाती है, जीवन को पूर्ण विराम लग जाता है।
महामुनि थोरो ने कहीं "इरादेपूर्वक" जीने की बात कही है। जीवन के ध्येय के बारे में काफी लोग चिंतन-मंथन करते रहते हैं। ऐसा चिंतन-मंथन छोड़कर यदि वे जीने लग जाएं तो शायद समझ आ जाए कि जीना ही हमारा जीवन ध्येय है।
सुख धूम धाम से आता है, वाचाल कर देता है.
दुःख निशब्द आता है, अबोल कर देता है.
जीवन समुंदर है सो तूफान भी आएंगे, लहरें भी उठेंगी बस हौसला बनाए रखना ही अकेली कसौटी है।
मन अच्छा हो तो काम में भी मन लगता है, नहीं तो बस समय काटे नहीं कटता!
अकेलेपन में और ज्यादा घबराहट होती है, बात करने से ताकत तो मिलती है, अकेलापन भी दूर होता है।
भरोसा संबंध की मूल पूँजी है।
दुनिया की समस्या यह है कि समझ वाले संशय के शिकार हैं जबकि समस्त मूर्ख पूरे आत्मविश्वास में हैं.
मेरा सच कहना न जाने उसे कहानी क्यों लगता था?
यह बात मेरे लिए अनजानी थी और शायद उसका ऐसा करना जानबूझकर.
अंग्रेजी का प्यार
फ़िल्टर कॉफी की हिंदी प्रेम कहानियों में पता नहीं क्यों प्यार का सीन आते ही लड़का-लड़की "अंग्रेजी" में बतियाने लग जाते हैं!
मतलब सिर्फ देखो, सुनो मत.
समय तो अपनी गति पर ही चलता है!
उसकी अनदेखी करने वाला है भटकाव का शिकार होता है.
हर मुख अपने विशिष्ट भाव और अभिव्यक्ति से पूर्ण होता है.
उड़ जाएगा हंस अकेला.......
दुनिया से जाने वाले के स्वजन के पाँव के 'निशान', समय की रेत पर होते हैं और 'छाप', उसके प्रियजनों के मन पर.
वैसे हक़ीक़त तो यही है कि बाहर के संघर्ष, मन के संघर्षों से हमेशा भारी होते हैं.
तीन अ-कार...
आयु के घटने, अनुभव के बढ़ने का ही आनंद है!
जीवन का यही दुष्चक्र हैं, बिना चाल, बाजी नहीं जीती जाती!
तो हारी बाजी की हर चाल बेकार.
हम सब अमर हैं, जब तक हमारी कहानियां सुनाई जाएँगी...
जब अपना ही नहीं समझे तो पराए को समझाना क्या?
हम जीवन में जो होना-पाना चाहते हैं, जब उसमें से "चाहना" ही निकल जाती है तब केवल होना-पाना ही नहीं, कुछ गंवाने का दुख भी तिरोहित हो जाता है!
जो समझ आया उसे भाग्य की कृपा समझ समेट लिया. आप भी गौर कर सकते हैं...
आखिर ज्ञान पर किसी की बपौती तो है नहीं!
मुझे अपने बीते समय से कोई शिकायत नहीं. बस दुःख है तो केवल इस बात का कि मैंने गलत व्यक्तियों के लिए कितना समय व्यर्थ कर दिया!अगर स्व-विवेचना का ज्ञान हो तो फिर क्रोध का प्रश्न ही नहीं उठता?
बाकि तर्क से व्यक्ति अलग ही होता है, जुड़ता नहीं.
सो मीठे बोल तो हर हिसाब-लिहाज से अनमोल है.
हर किसी की प्रकृति और प्रवृत्ति भिन्न होती है, सो अंतर होना स्वाभाविक है. सभी से एक समान अपेक्षा अपेक्षित नहीं है.
जिंदगी में किसी को जीने के लिए समय का इंतज़ार नहीं करना पड़ता तो वही अधिकांश व्यक्ति समय की प्रतीक्षा में जीवन बिसरा देते हैं!
वश में रखने की अपेक्षा वश में रहना ज्यादा उचित है.
प्रेम ही संभव बनता है, असंभव को.
शरीर अन्दर ही अन्दर, किसी गहरी-अँधेरी गुहा में मौत से मिलने से पहले दो-चार हाथ करता है. अंत में, जब वह थक-हार कर पस्त हो जाता है तब कभी अनजाने तो कभी जान पाते हैं कि ऊपर चलने नहीं सबसे बिछुड़ने का का समय आ गया!
वक़्त है जो पता ही नहीं चलता कितना बीत गया, कितना रह गया!
जिंदगी में कई बार घाटे में रहना ज्यादा फायदेमंद होता है!
हमें जिस भाषा ने दृष्टि दी, हम उसमें कुछ ऐसा रचे जिससे दूसरे भी बेहतर लिखने के लिए प्रेरित हो. तभी लेखन की कोशिश सफल मानी जा सकती है.
मन का मैल, तन के रंग से भी काला ही नहीं वीभत्स होता है!
अगर आपके लिखे से कोई अन्य व्यक्ति स्वयं को जोड़ता है, यह बड़ी बात है.
सो, भविष्य में अगर इस जिम्मेदारी के बोध के साथ लिखे तो दोनों के लिए शुभ होगा.
आखिर गलत वर्तनी के कारण समूचे वाक्य सहित अर्थ का अनर्थ हो जाता है.
जीवन अनेक व्यक्तियों से बनने वाला जोड़ है, यह कोई अकेले व्यक्ति का शून्य नहीं है!
इस बात का हमेशा स्मरण बोध रहना चाहिए कि शून्य की ताकत, संख्या से मिलकर ही बढ़ती है.
जिंदगी में जिसके लिए कुछ "चुराना" चाहते हो, वही "चोर" निकलता है!
जीवन में सही जोड़ खोजने में सफल रहना हमेशा सुफल ही देता है.
हम सोचते हैं कि प्यार मर गया पर ऐसा होता कहाँ है!
वह तो मन के किसी कोने में दुबककर फिर समय आने पर दूर्वा बनकर मन के आँगन में फूट पड़ता है.
आखिर लिखे हुए शब्द की कसौटी तो पाठक ही होता है, सो अगर शब्दों ने किसी पाठक को उसके बचपन का रास्ता दिखाया मतलब लिखना सार्थक हुआ.
जिंदगी में दूसरे को अपना बनाने के फेर में कब आदमी खुद पीछे छूट जाता है यह समय बीतने पर ही पता चलता है!
पद से कद नहीं बल्कि कद से पद शोभा पता है, बाकि सहूलियत पसंद साथ देने के लिए तो दुनिया है ही!
किसी को पूरा पढ़ लो तो फिर पन्ना हो या जिल्द सब घुल जाता है, एक साथ-एक बार में पूरा ही. यानी सराबोर!
जिंदगी की शतरंज
हम कहीं पहुँच कर भी नहीं पहुँच पाते तो कहीं न पहुंचकर भी वही ही होते हैं!
जीवन में जीतने के लिए न तो आक्रामकता और न ही अहंभाव की जरुरत है। इसके विपरीत शांत चित्त से बड़ी सफलताएँ हासिल की जा सकती है। ऐसे में कमजोर माने जाने वाला व्यवहार ताकत है, जिसका कोई विरोध नहीं कर सकता।
सफलता को इसका अनुगमन करना ही है।प्रेम संबल देता है न कि निर्बलता. आखिर मन के संघर्ष से बाहर के संघर्ष हमेशा भारी होते हैं, सो जूझना ही नियति है, सो युद्धरत रहे!
भरोसा संबंध की मूल पूँजी है।
दुनिया की समस्या यह है कि समझ वाले संशय के शिकार हैं जबकि समस्त मूर्ख पूरे आत्मविश्वास में हैं.
मेरा सच कहना न जाने उसे कहानी क्यों लगता था?
यह बात मेरे लिए अनजानी थी और शायद उसका ऐसा करना जानबूझकर.
अंग्रेजी का प्यार
फ़िल्टर कॉफी की हिंदी प्रेम कहानियों में पता नहीं क्यों प्यार का सीन आते ही लड़का-लड़की "अंग्रेजी" में बतियाने लग जाते हैं!
मतलब सिर्फ देखो, सुनो मत.
समय तो अपनी गति पर ही चलता है!
उसकी अनदेखी करने वाला है भटकाव का शिकार होता है.
हर मुख अपने विशिष्ट भाव और अभिव्यक्ति से पूर्ण होता है.
उड़ जाएगा हंस अकेला.......
दुनिया से जाने वाले के स्वजन के पाँव के 'निशान', समय की रेत पर होते हैं और 'छाप', उसके प्रियजनों के मन पर.
वैसे हक़ीक़त तो यही है कि बाहर के संघर्ष, मन के संघर्षों से हमेशा भारी होते हैं.
तीन अ-कार...
आयु के घटने, अनुभव के बढ़ने का ही आनंद है!
जीवन का यही दुष्चक्र हैं, बिना चाल, बाजी नहीं जीती जाती!
तो हारी बाजी की हर चाल बेकार.
हम सब अमर हैं, जब तक हमारी कहानियां सुनाई जाएँगी...
जब अपना ही नहीं समझे तो पराए को समझाना क्या?
अपनी भाषा को सही लिखना संवाद की प्राथमिक चीज है, यह ज्ञान का नहीं व्यवहार का विषय है. अगर आप इस बात को नज़र अंदाज करते हैं तो दूसरे की आलोचना व्यर्थ है. कुछ लोग दूसरे की आलोचना में इतने आकुल हैं कि गलत भाषा और वर्तनी लिख कर अपने कुभाव को ही उजागर कर रहे हैं! जहर बुझे ही सही पर लिखो तो सही नहीं तो शब्द- समय व्यर्थ न करें!
गलती को इंगित करने वाले को गलती करने वाला कैसे लेता है, यह उसकी मन की भावभूमि और चिंतन पर निर्भर करता है. बाकि आलोचना के लिए आलोचना करने वाला सहानुभूति का ही पात्र है.
हम जीवन में जो होना-पाना चाहते हैं, जब उसमें से "चाहना" ही निकल जाती है तब केवल होना-पाना ही नहीं, कुछ गंवाने का दुख भी तिरोहित हो जाता है!
फिर जीवन प्रतिद्वंदी से सहज, सरल और समभाव वाला सखा बन जाता है.
जो समझ आया उसे भाग्य की कृपा समझ समेट लिया. आप भी गौर कर सकते हैं...
आखिर ज्ञान पर किसी की बपौती तो है नहीं!
मुझे अपने बीते समय से कोई शिकायत नहीं. बस दुःख है तो केवल इस बात का कि मैंने गलत व्यक्तियों के लिए कितना समय व्यर्थ कर दिया!अगर स्व-विवेचना का ज्ञान हो तो फिर क्रोध का प्रश्न ही नहीं उठता?
बाकि तर्क से व्यक्ति अलग ही होता है, जुड़ता नहीं.
सो मीठे बोल तो हर हिसाब-लिहाज से अनमोल है.
हर किसी की प्रकृति और प्रवृत्ति भिन्न होती है, सो अंतर होना स्वाभाविक है. सभी से एक समान अपेक्षा अपेक्षित नहीं है.
जिंदगी में किसी को जीने के लिए समय का इंतज़ार नहीं करना पड़ता तो वही अधिकांश व्यक्ति समय की प्रतीक्षा में जीवन बिसरा देते हैं!
वश में रखने की अपेक्षा वश में रहना ज्यादा उचित है.
प्रेम ही संभव बनता है, असंभव को.
शरीर अन्दर ही अन्दर, किसी गहरी-अँधेरी गुहा में मौत से मिलने से पहले दो-चार हाथ करता है. अंत में, जब वह थक-हार कर पस्त हो जाता है तब कभी अनजाने तो कभी जान पाते हैं कि ऊपर चलने नहीं सबसे बिछुड़ने का का समय आ गया!
वक़्त है जो पता ही नहीं चलता कितना बीत गया, कितना रह गया!
जिंदगी में कई बार घाटे में रहना ज्यादा फायदेमंद होता है!
हमें जिस भाषा ने दृष्टि दी, हम उसमें कुछ ऐसा रचे जिससे दूसरे भी बेहतर लिखने के लिए प्रेरित हो. तभी लेखन की कोशिश सफल मानी जा सकती है.
मन का मैल, तन के रंग से भी काला ही नहीं वीभत्स होता है!
अगर आपके लिखे से कोई अन्य व्यक्ति स्वयं को जोड़ता है, यह बड़ी बात है.
सो, भविष्य में अगर इस जिम्मेदारी के बोध के साथ लिखे तो दोनों के लिए शुभ होगा.
आखिर गलत वर्तनी के कारण समूचे वाक्य सहित अर्थ का अनर्थ हो जाता है.
जीवन अनेक व्यक्तियों से बनने वाला जोड़ है, यह कोई अकेले व्यक्ति का शून्य नहीं है!
इस बात का हमेशा स्मरण बोध रहना चाहिए कि शून्य की ताकत, संख्या से मिलकर ही बढ़ती है.
जिंदगी में जिसके लिए कुछ "चुराना" चाहते हो, वही "चोर" निकलता है!
जीवन में सही जोड़ खोजने में सफल रहना हमेशा सुफल ही देता है.
हम सोचते हैं कि प्यार मर गया पर ऐसा होता कहाँ है!
वह तो मन के किसी कोने में दुबककर फिर समय आने पर दूर्वा बनकर मन के आँगन में फूट पड़ता है.
आखिर लिखे हुए शब्द की कसौटी तो पाठक ही होता है, सो अगर शब्दों ने किसी पाठक को उसके बचपन का रास्ता दिखाया मतलब लिखना सार्थक हुआ.
जिंदगी में दूसरे को अपना बनाने के फेर में कब आदमी खुद पीछे छूट जाता है यह समय बीतने पर ही पता चलता है!
पद से कद नहीं बल्कि कद से पद शोभा पता है, बाकि सहूलियत पसंद साथ देने के लिए तो दुनिया है ही!
किसी को पूरा पढ़ लो तो फिर पन्ना हो या जिल्द सब घुल जाता है, एक साथ-एक बार में पूरा ही. यानी सराबोर!
जिंदगी की शतरंज
जीवन में मौन को ही अपना मोहरा बनाये, शह-मात के बाद तो बोलने को वैसे भी कुछ बचता ही नहीं है!
बाजी जो खत्म हो जाती है.
दूसरों के लिए रोशनी लाने का दावा करने वाले अक्सर अँधेरे में रहना पसंद करते हैं!
जीवन में जीतने के लिए न तो आक्रामकता और न ही अहंभाव की जरुरत है। इसके विपरीत शांत चित्त से बड़ी सफलताएँ हासिल की जा सकती है। ऐसे में कमजोर माने जाने वाला व्यवहार ताकत है, जिसका कोई विरोध नहीं कर सकता।
सफलता को इसका अनुगमन करना ही है।प्रेम संबल देता है न कि निर्बलता. आखिर मन के संघर्ष से बाहर के संघर्ष हमेशा भारी होते हैं, सो जूझना ही नियति है, सो युद्धरत रहे!
आखिर हिंदी वाला अपने घर परिवार का समय, अपनी उर्जा और साधन लगा कर ही कुछ रच पाता है, नहीं तो कुछ अधिक सकारात्मक माहौल नहीं है.
हमारी कसौटी तो संतान ही है, अगर हम उन्हें गढ़ने में सफल रहे तो अच्छे कुम्हार नहीं तो सब जतन बेकार।
हिन्दू होने की विस्मृति दूर होने पर आशा की जा सकती है कि आज की पीढ़ी अपनी
पुरखों की गलती का भी तर्पण करेगी.
थोड़े में पूरा डूबकर लिखा....पढ़े.
बाहर ठंड से सिकुड़ी जिंदगी ...
बाहर ठंड से सिकुड़ी जिंदगी ...
मनुष्य-प्रकृति का सहचर भाव...
गर के बीता कल, कुछ भूलने नहीं देता,
एक आज है इस कदर तन्हां, कुछ याद नहीं रहता !
यदि इतिहास लेखन का मुख्य उद्देश्य आने वाली पीढ़ियों को पुरानी पीढ़ियों के अनुभवों से शिक्षा देना है, पुरानी पीढ़ियों के कर्तृत्व और चिंतन के उदात्त व उज्ज्वल पक्ष को सामने लाना है तो साथ ही उनकी भूलों और दुर्बलताओं को समझाकर उन पर विजय पाने का संकल्प पैदा करना भी है।
गर के बीता कल, कुछ भूलने नहीं देता,
एक आज है इस कदर तन्हां, कुछ याद नहीं रहता !
जो भी कहा सो बिसरा गया,
अनकहा ही अंत तक याद रहा!
अनकहा ही अंत तक याद रहा!
मौन का संवाद, मृत्यु तक साथ देता है!
मैं तो अपने से ही लड़ रहा था,
लोग न जाने क्यों मेरे ही खिलाफ हो गए!
मैं तो अपने से ही लड़ रहा था,
लोग न जाने क्यों मेरे ही खिलाफ हो गए!
जिस देश में शिक्षक और पत्रकार पढना छोड दें उस देश का हाल भारत जैसा ही होगा..
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में "ईसाई चर्च" और पादरियों की क्या भूमिका रही है?
सर्द में ठहरी पानी की जिंदगी...मशीन से पानी बेचने वालों का ठिकाना (राजपुर रोड, तीरथराम हॉस्पिटल के सामने)
एक दिन जब जीवन नहीं रहेगा तब उसके होने और थोड़े होने की बात से अनजान होने का मतलब मालूम होगा! पर तब तक देर हो चुकी होगी, पुकारने से भला कौन लौटा है?
जातिवादी दृष्टि से संभव नहीं है, सर्वजन के विकास की परिकल्पना!
जीवन में
हर चीज का सार है
असर कुछ भी नहीं है
ऐसे में
अगर वह प्यार नहीं हो पाती है
तो फिर
कविता बन जाती है
असर कुछ भी नहीं है
ऐसे में
अगर वह प्यार नहीं हो पाती है
तो फिर
कविता बन जाती है
जिंदगी काले-सफ़ेद में बांटकर
देखने से ज्यादा रतौंदी कुछ नहीं!
देखने से ज्यादा रतौंदी कुछ नहीं!
अपना शौक शुरु करना चाहिए.
हमें जो अच्छा लगता है वो करना चाहिए.
ये बिना सोचे कि उससे क्या फायदा होगा.
बहुत सारे लोग, वो करते रहे जो उन्हें अच्छा लगता था.
रामानुजम से बेहतर किसका उदाहरण है जो सामान्य क्लर्क की नौकरी के साथ साथ गणित में लगे रहे क्योंकि गणित ही उनका पैशन था.
ऐसे कई उदाहरण होंगे......
किताबों का मजदूर. खरीदना एक बात है पर ढोकर उसे मंजिल तक पहुँचाना एक श्रम साध्य कार्य है...
अपन तो किताबों के कहार है,
सो किताब की मजदूरी का आनंद ही परमानन्द की अनुभूति है!अपन तो किताबों के कहार है, सो किताब की मजदूरी का आनंद ही परमानन्द की अनुभूति है!
१४-१५ सदी जब यूरोप में मुसलमान और ईसाई परस्पर क्रुसेड (धर्म युद्ध) में भिड़े थे, उस समय अरब-यूरोप ज्ञान-विज्ञानं को लेकर एक ही पायदान पर थे.
पर जब वर्ष 1439 में योहानेस गुटेनबर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस बनाया तब तुर्की के महजबी प्रमुख शैखुल इस्लाम ने इस नए आविष्कार के इस्तेमाल के खिलाफ फ़तवा ज़ारी करते ही गैर इस्लामिक करार दे दिया!
बस तब से तकनीक विरोधी मानसिकता का दौर जारी है...
‘एक विचार लो, उस विचार को अपना जीवन बना लो, उसके बारे में सोचो, उसके सपने देखो, उस विचार को जियो. - विवेकानंद
सो किताब की मजदूरी का आनंद ही परमानन्द की अनुभूति है!अपन तो किताबों के कहार है, सो किताब की मजदूरी का आनंद ही परमानन्द की अनुभूति है!
१४-१५ सदी जब यूरोप में मुसलमान और ईसाई परस्पर क्रुसेड (धर्म युद्ध) में भिड़े थे, उस समय अरब-यूरोप ज्ञान-विज्ञानं को लेकर एक ही पायदान पर थे.
पर जब वर्ष 1439 में योहानेस गुटेनबर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस बनाया तब तुर्की के महजबी प्रमुख शैखुल इस्लाम ने इस नए आविष्कार के इस्तेमाल के खिलाफ फ़तवा ज़ारी करते ही गैर इस्लामिक करार दे दिया!
बस तब से तकनीक विरोधी मानसिकता का दौर जारी है...
प्रचारवादी महजबों के प्रसार में भाषा एक हथियार के रूप में इस्तेमाल की गई है. देश के पूर्वोत्तर राज्यों में वनवासी समाज की अपनी भाषा-बोली को किस तरह से मिशनरियों और चर्च ने ईसाईयत के नाम पर समाप्त कर दिया, इसका एक जीवंत उदाहरण है.
‘एक विचार लो, उस विचार को अपना जीवन बना लो, उसके बारे में सोचो, उसके सपने देखो, उस विचार को जियो. - विवेकानंद
In real life Perfection is always a mirage...
बीता समय बेताल की तरह कंधे पर लटका रहता हैं...
रात के घुप्प अँधेरे में भूत नहीं अपने डर और अविश्वास ही मूर्त रूप में सामने आते हैं.
जीवन से बड़ा शिक्षक कोई नहीं.
जीवन में कही होने और कही न होने में कुछ तो हमेशा छूटता ही है, ऐसे में जहाँ है, उसी पल को पूरी तरह से जीना ही असली जिंदगी है.
प्रेम और घृणा, दो पहलू हैं. अतिरेकता में ऐसा होता है पर जीवन दर्द से बड़ा है. अगर ऐसा न हो तो जीवन हार जाए. सो, जीवन के सकारात्मक पक्ष पर ध्यान केंद्रित करना अधिक श्रेयस्कर है.
जीवन में दुख के साथी, सुख के समय अलग होते नहीं हैं, अलग कर दिए जाते हैं!
उस अतीत और भविष्य का कोई महत्व नहीं जिसका सम्बन्ध वर्तमान से नहीं।
देहरी देह की, मन की गुहा!
मन की पीड़ा देह पर 'नील' की तरह छा जाती है.
शेष के लिए वह एक 'रंग' मात्र है !
नकारा गया प्यार, मृत्यु शैय्या तक स्मरण रहता है.
जबकि जिसे आप पा लेते हैं, उसके उपस्थिति बोध का भी विस्मरण हो जाता है!
यह नियति है या विरोधाभास पता नहीं शायद इसीलिए इसे दैव योग कहना तर्क की सधी-सधाई दुनिया से निकल कर अनुलोम-विलोम, उबड़-खाबड़ और दो-जमा-दो पांच होने की असली जिंदगी को जीने के अनुभव को नकारना है.
प्रतिदिन का दुख, दुख नहीं बल्कि के परिस्थिति की निरंतरता है. अगर दुख लम्बा है तो दुख बनेगा नहीं तो साधारण स्थिति, जिसके साथ हम रहना सीख लेते हैं.
शब्द अपने, भाव पराए
जीवन में अनेक बार ऐसे प्रसंग होते हैं कि हम कुछ करना चाहते हैं पर अकारण ही उसे छोड़ देते हैं.
अब यह अनिर्णय है या अकर्मण्यता, यह तो समय देवता ही जाने!
अनुपस्थिति में भी उपस्थित है, कोई न होते हुए भी हमेशा बना रहता है!
जीवन में कभी भी शल्य भाव से त्रस्त नहीं होना चाहिए.
बहुधा समय गलती को सही और होशियारी को मूर्खता साबित कर देता है, बस जरुरत होती है बीती बातों को ध्यान से समझने की समय के साथ!
बतरस की तरह कलम रसभरी हो तो मन ही क्या कागज़ भी खिल जाता है. बाकि किताबों की तो अपनी खुशबू होती ही है, बस उसे महसूस करने की संवेदना होनी चाहिए.
पुरानी दिल्ली में नई सड़क, नई दिल्ली में पुराना किला!
चाणक्य से शिक्षा मित्र तक...
संकट में समाज सहित शिष्यों को धर्म का स्मरण बोध करवाने वाले गुरु चाणक्य के देश में संकट में पड़े गुरुजन धर्मांतरण की धमकी दे रहे हैं...
इच्छाओं का घट, रीत जाता है तो जल छलक जाता है, जीवन बीत जाता है.
जीवन से बड़ा शिक्षक कोई नहीं.
जीवन में कही होने और कही न होने में कुछ तो हमेशा छूटता ही है, ऐसे में जहाँ है, उसी पल को पूरी तरह से जीना ही असली जिंदगी है.
प्रेम और घृणा, दो पहलू हैं. अतिरेकता में ऐसा होता है पर जीवन दर्द से बड़ा है. अगर ऐसा न हो तो जीवन हार जाए. सो, जीवन के सकारात्मक पक्ष पर ध्यान केंद्रित करना अधिक श्रेयस्कर है.
जीवन में दुख के साथी, सुख के समय अलग होते नहीं हैं, अलग कर दिए जाते हैं!
उस अतीत और भविष्य का कोई महत्व नहीं जिसका सम्बन्ध वर्तमान से नहीं।
देहरी देह की, मन की गुहा!
मन की पीड़ा देह पर 'नील' की तरह छा जाती है.
शेष के लिए वह एक 'रंग' मात्र है !
नकारा गया प्यार, मृत्यु शैय्या तक स्मरण रहता है.
जबकि जिसे आप पा लेते हैं, उसके उपस्थिति बोध का भी विस्मरण हो जाता है!
यह नियति है या विरोधाभास पता नहीं शायद इसीलिए इसे दैव योग कहना तर्क की सधी-सधाई दुनिया से निकल कर अनुलोम-विलोम, उबड़-खाबड़ और दो-जमा-दो पांच होने की असली जिंदगी को जीने के अनुभव को नकारना है.
प्रतिदिन का दुख, दुख नहीं बल्कि के परिस्थिति की निरंतरता है. अगर दुख लम्बा है तो दुख बनेगा नहीं तो साधारण स्थिति, जिसके साथ हम रहना सीख लेते हैं.
शब्द अपने, भाव पराए
जीवन में अनेक बार ऐसे प्रसंग होते हैं कि हम कुछ करना चाहते हैं पर अकारण ही उसे छोड़ देते हैं.
अब यह अनिर्णय है या अकर्मण्यता, यह तो समय देवता ही जाने!
अनुपस्थिति में भी उपस्थित है, कोई न होते हुए भी हमेशा बना रहता है!
जीवन में कभी भी शल्य भाव से त्रस्त नहीं होना चाहिए.
बहुधा समय गलती को सही और होशियारी को मूर्खता साबित कर देता है, बस जरुरत होती है बीती बातों को ध्यान से समझने की समय के साथ!
बतरस की तरह कलम रसभरी हो तो मन ही क्या कागज़ भी खिल जाता है. बाकि किताबों की तो अपनी खुशबू होती ही है, बस उसे महसूस करने की संवेदना होनी चाहिए.
पुरानी दिल्ली में नई सड़क, नई दिल्ली में पुराना किला!
चाणक्य से शिक्षा मित्र तक...
संकट में समाज सहित शिष्यों को धर्म का स्मरण बोध करवाने वाले गुरु चाणक्य के देश में संकट में पड़े गुरुजन धर्मांतरण की धमकी दे रहे हैं...
इच्छाओं का घट, रीत जाता है तो जल छलक जाता है, जीवन बीत जाता है.
घट में कुछ रिक्तता रहे तो भी मन की प्यास पूरी मिटाने में सक्षम होता है.
सो, जीवन की रिक्तता ही उसे पूर्णता की ओर प्रेरित करती है, कुछ न होने से कुछ होने की दिशा में.
सिद्ध बनना है या प्रसिद्ध?
यह तो स्वयं ही निश्चित करना होता है!
स्वयंसिद्ध...
यहाँ भी कुछ ऐसी ही हालत है, अब तो अंग्रेजी के अख़बार मुझे भी लिखने को कह रहे हैं बस कब तक टलता है यही देखना है! हिंदी वाले पैसे देकर नहीं राजी, जो देते हैं, उससे तो किताब तक नहीं खरीदी जा सकती।
हिंदी की नहीं, हिंदी के लालाओं की सामग्री पर पैसे न खर्च करने की आदत।
असमान होते हुए भी "समान" तत्व तो एक जैसा ही है, अब अच्छा है या नहीं यह तो दीगर बात है।
गुरु की साध शिष्यों पर ही फलती है...
प्यार में ठुकराए जाने से उपजने वाली घृणा का मूल अपमान में होता है, जो अंधी-हिंसा उपजाता है।
कोई डूबने के लिए पीता है तो कोई डुबाने के लिए पिलाता है।
अखबार की कतरन के बजाय किताब का पन्ना ही उम्रदराज़ होता है।
बाहर के शोर से ज्यादा मन का शोर विचलित करता है।
ज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं. खुशबू किसी के पास भी रहें, महकती है, महकाती है.
सिद्ध बनना है या प्रसिद्ध?
यह तो स्वयं ही निश्चित करना होता है!
स्वयंसिद्ध...
बेलगाम भोग सुरसा का मुख है,
राजस्थानी की एक कहावत जो कि हिंदी कुछ ऐसे होगी, "अगर कोई चरित्र का धनी है है तो फिर बाकि धन बेकार है।"
सो अपने व्यक्तिगत आचरण के लिए व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार है।
वैसे विषय कोई भी हो अगर सभी को एक ही दृष्टि से देखने और अपने ही मनोकूल निष्कर्ष निकालने से बचे तो आकलन संतुलित और बात गहरी होती है।
यहाँ भी कुछ ऐसी ही हालत है, अब तो अंग्रेजी के अख़बार मुझे भी लिखने को कह रहे हैं बस कब तक टलता है यही देखना है! हिंदी वाले पैसे देकर नहीं राजी, जो देते हैं, उससे तो किताब तक नहीं खरीदी जा सकती।
हिंदी की नहीं, हिंदी के लालाओं की सामग्री पर पैसे न खर्च करने की आदत।
महानगर, वह भी जो देश की राजधानी हो, में भदेस होने के अवसर गिने-चुने ही मिलते हैं। दिल्ली से अपने देस न जाने से अपनी बोली से भी भी नाता टूटा है सो कुछ भीतर भी बिखरा है।
बेशक उसकी आवाज़ बाहर किसी ने नहीं सुनी।
बेशक उसकी आवाज़ बाहर किसी ने नहीं सुनी।
हिंदी आती नहीं, अंग्रेजी जानते नहीं!
हर बार जब भी कोई सीधी-सी बात, सहजता से कहने की कोशिश करता हूँ
और उलझ जाता हूँ, सुलझाने की कोशिश में, सुलझना तो दूर सीधी बात, उलझ जाती है
प्रतिकूल समय व्यक्ति के असली चेहरा और नकाब को उघाड़ देता है।
प्यार में ठुकराए जाने से उपजने वाली घृणा का मूल अपमान में होता है, जो अंधी-हिंसा उपजाता है।
कोई डूबने के लिए पीता है तो कोई डुबाने के लिए पिलाता है।
अखबार की कतरन के बजाय किताब का पन्ना ही उम्रदराज़ होता है।
बाहर के शोर से ज्यादा मन का शोर विचलित करता है।
ज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं. खुशबू किसी के पास भी रहें, महकती है, महकाती है.
जीवन में जो उम्मीद के काबिल भी नहीं, उनकी आलोचना का भी कोई अर्थ नहीं!
यह कैसे जीवन मूल्य हैं, जो जीवन में विपरीत हालत से जूझने की बजाए मौत की तरफ धकेलते हैं!
जल में रहकर मीन प्यासी! पेड़ और पानी का गुणधर्म ही पर-उपकार है, वेद की एक पुरानी ऋचा है, "मैं नहीं तू ही..."
पिता-बेटी का संबंध ही सबसे अलग होता है, अपरिभाष्य!
नदी और नारी जब सीमा लांघती हैं तो फिर कोई सीमा नहीं रह जाती है।
जिंदगी के खेल में बाकि सब खेल पीछे छूट जाते है!
तलवार से कलम को साधना बेहतर है...
ऐसे ही अपने प्रति ईमानदार होना ही असली कसौटी है, दूसरों के प्रति नहीं. बोलकर बुनना हरेक के बस में नहीं, स्वयं में गुनना जरुरी है।
छूत के रोग से भला कोई कैसे अछूता रहा सकता है!
लिखना ही कसौटी है, भीतर का मैल निकल जाता है, बाहर की चमक बढ़ जाती है.
कोई प्रेरित होकर लिखता है तो कोई मेरे जैसे मन का बोझ उतारने के लिए।
सो कैसे भी लिखो वह गौण है, महत्व का है तो बस लेखन।
किसी के आने या ना आने या किसी के होने या न होने या किसी को पुरस्कार मिलने या न मिलने से आयोजन की अर्थवत्ता प्रभावित नहीं होनी चाहिए।
अपनी प्रिय किताब के रचियता के साथ होने का अपना ही अनिर्वचनीय सुख है।
चुनाव का नहीं जीवन का प्रसंग है...
शेर अकेला ही होता है फिर भी राजा होता है. बाकि तो रेवड़ होती है.
बेटी तो अन्नपूर्णा होती है, उसके हाथ की रोटी, रोटी न होकर प्रसाद है जो तन-मन दोनों से परिपूर्ण कर देती है।
जिंदगी में न आने वाले का इंतज़ार ख़त्म नहीं होता तो जो होता है उस पर नज़र नहीं जाती।
यह कैसे जीवन मूल्य हैं, जो जीवन में विपरीत हालत से जूझने की बजाए मौत की तरफ धकेलते हैं!
जल में रहकर मीन प्यासी! पेड़ और पानी का गुणधर्म ही पर-उपकार है, वेद की एक पुरानी ऋचा है, "मैं नहीं तू ही..."
पिता-बेटी का संबंध ही सबसे अलग होता है, अपरिभाष्य!
नदी और नारी जब सीमा लांघती हैं तो फिर कोई सीमा नहीं रह जाती है।
निगाहें आकाश की ओर और पैर जमीन पर तो समझो मंजिल दूर नहीं!
राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों (कविता) में कहे तो "कदम कुछ तेज करो साथियों!"
जिंदगी के खेल में बाकि सब खेल पीछे छूट जाते है!
तलवार से कलम को साधना बेहतर है...
ऐसे ही अपने प्रति ईमानदार होना ही असली कसौटी है, दूसरों के प्रति नहीं. बोलकर बुनना हरेक के बस में नहीं, स्वयं में गुनना जरुरी है।
छूत के रोग से भला कोई कैसे अछूता रहा सकता है!
लिखना ही कसौटी है, भीतर का मैल निकल जाता है, बाहर की चमक बढ़ जाती है.
कोई प्रेरित होकर लिखता है तो कोई मेरे जैसे मन का बोझ उतारने के लिए।
सो कैसे भी लिखो वह गौण है, महत्व का है तो बस लेखन।
परिवर्तन अच्छे से ख़राब के लिए हो या फिर ख़राब से अच्छे की ओर हमेशा कष्टकारी होता है।
किसी के आने या ना आने या किसी के होने या न होने या किसी को पुरस्कार मिलने या न मिलने से आयोजन की अर्थवत्ता प्रभावित नहीं होनी चाहिए।
व्यक्ति के जीवन का युवा समय हमेशा आकर्षित करता है इतना ही नहीं कठिन समय में जूझने की ताकत देता है।
अपनी प्रिय किताब के रचियता के साथ होने का अपना ही अनिर्वचनीय सुख है।
चुनाव का नहीं जीवन का प्रसंग है...
शेर अकेला ही होता है फिर भी राजा होता है. बाकि तो रेवड़ होती है.
अपनी जड़ की ओर जाना हमेशा पल्लवित और पुष्पित करता है.
बतरस बरसा, भीगा नेह से देह तक.
बेटी तो अन्नपूर्णा होती है, उसके हाथ की रोटी, रोटी न होकर प्रसाद है जो तन-मन दोनों से परिपूर्ण कर देती है।
जिंदगी में न आने वाले का इंतज़ार ख़त्म नहीं होता तो जो होता है उस पर नज़र नहीं जाती।
पर उपदेश कुशल बहुतरे. यहाँ एक विवाह की चुनौती में ही जीवन पूरा हो जाता है शेष तो वैसे ही अशेष है.
आज का जीना ही सच है बाकि तो ऊपर बढने के लिए जीना खोजते रहो.
जब सब कुछ ही बिगड़ा हो तो उसका ही आनंद लेना चाहिए, उसी में से सुथरी राह निकलती है...
जन्मदिन
जीवन घटने और अनुभव बढ़ने की बधाई...
जीवन में साथ केवल दुख देता है, सुख तो अच्छे समय के साथ निकल जाता है।
विवाह 'करने' और विवाह 'होने' में अंतर है!
यही अंतर डर और भरोसे को, अंधेरे और उजाले की राह को निश्चित करता है।
जिंदगी में मोहब्बत तो एक ही होती है,
उसके बाद तो बस अमानत में खयानत है।
जो मिला सुख के नाम पर बीत गया, जो नहीं मिला दुख के नाम पर आज भी साथ है।
प्रभाव को बढ़ाना और अभाव को हटाना, यह मनुष्य की प्रकृति है।
जीवन भ्रम में ही बेहतर बीत जाता है वरना वास्तविकता तो सही में कष्टदायक है।
बड़ी नौकरी से रिटायर होने वाला बाप नौकरी के लिए संघर्षरत अपने के लिए क्या कुछ नहीं करता!
यहाँ तक कि अपनी उम्र भर की पूरी साख और सम्मान को भी दांव पर लगा देता है।
काश, बेटा अपने बाप की विवशता-डर को समझ पाता।
नहीं, हक़ीक़त की जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं होता उल्टे बेटा बाप को ही अपनी विफलता का जन्मदाता समझता है।
"मैं अब जीवन को तलाशता नहीं हूँ। जो वस्तु मेरे लिए बनी हैं, वे मेरी तरफ ही आएंगी। मुझे कभी भी उन चीजों को हासिल करने के लिए जबरन खींचने या स्वयं को बदलने की जरूरत नहीं होगी।"
-बिली चपाता
यहाँ तो एक जन्म ही सध तो गनीमत!
उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में
नूरशम-ए-हरम हो या हो दिया सोमनाथ का
- मीर तक़ी मीर
उसकी आंखों से नींद को देश निकाला मिला था।
उसे देखने वाले ने अलग देश जो बसा लिया था।।
-पीड़ा जो दर्द देती है तो पवित्र भी करती है।
-जीने के लिए किताब की अलग से भला क्या जरूरत?
जिंदगी खुद ही एक किताब है!
-देह से नेह तक!
-प्यार में विपरीत स्थितियों में भी हौंसला न हारने पर जादू भी होता है। आखिर कायनात भी हमेशा सच्चे मन वाले का साथ देती है।
-सही में जनता का मन जान लेने वाला नायक ही असली जननायक होता है।
-किताबों की सोहबत से बड़ी कोई संगत नहीं।
-अपने से और अपने में खुश रहना ही असली सुख है बाकी तो भ्रम है, जो ना चक्कर में पड़े वही बेहतर।
-अगर दीन का नाता है तो फिर धरती का भी तो बनता है...
-पीड़ा और पीड़ा के भोग में अंतर होता है। केवल पीड़ा होना पीड़ा का भोग नहीं है और पीड़ा का भोग करते हुए पीड़ा की प्रतीति अनिवार्य भी नहीं है ।
-गुरुत्व को कभी भार न बनने देने वाले गुरु कम को ही मिलते हैं!
जीवन में जहां मन केवल मुश्किलों को देखता है, वहीं प्यार को उनके समाधान का रास्ता पता होता है।
-रूमी
-अपेक्षा ही दुख का मूल हैं। फिर चाहे व्यक्ति से हो या समाज से।
-धर्म तो शाश्वत है, संहिता तो संप्रदाय की होती है। और संप्रदाय की एक किताब, एक पैगंबर, एक आचार, एक पहनावा, एक सोच होती है। शब्द के गलत अनुवाद और अर्थ के अनर्थ ने अनेक वितंडाओं को जन्म दिया है। संप्रदाय, पाखण्ड का ही एक प्रतिरूप हो सकता है, खासकर उस संप्रदाय के घेरे से बाहर के व्यक्तियों के लिए।
-किसी भी व्यक्ति की सफलता के पीछे पत्नी-परिवार के त्याग और समर्पण की अनदेखी नहीं की जा सकती है।
आखिर उजाला, अंधेरे को ही चीर कर होता है।
-भारतीय परिधान फिर वह साड़ी हो सूट हो या धोती-कुर्ता, उसकी अपनी भव्यता है, व्यक्तित्व को अलग से निखार देता है।
-किसी संवेदनशील के असमय चले जाने से समय की घड़ी सही में भारी होती है।
-हर बार साथ रहते हुए भी प्यार को कहना ही क्यों जरूरी होता है?
-संसार में दो ही जीवित देवता हैं, माँ और पिता। शेष माया है।
-सफेदी भी गुरुता का प्रतीक हो गयी है।
-लेखन का रस धीरे-धीरे ही गहरा बनता है। सो, नियमित लिखना ही जरूरी है।
-वन में जूझने की क्षमता मनोदशा, बाह्य परिवेश दोनों पर निर्भर करती है। कभी लड़ने के सिवा कोई विकल्प नहीं होने से अधिक स्पष्टता और एकाग्रता रहती है। जबकि विकल्प का होना संशय और भटकाव को जन्म देता है।
-मेरे बदन के पसीने, माथे की सिलवटों को मत देख।
आरजू कर उस हौंसले की, जो नज़र नहीं आता।।
-सार्वजनिक जीवन में सफलता प्राप्त करने वाले व्यक्तियों में से कम का ही पारिवारिक जीवन सहज-सफल रहता है।
-धरती पर दो ही जिंदा देवता है, माँ-पिता बाकी सब आसमानी फरेब है।
-कई बार भ्रम में जीना बेहतर होता है!
-अपुन तो कहार है, जो पालकी में बैठेगा, उसे मंजिल तक ले जाने का कर्म ही बदा है भाग्य में, सो राम रची राखा।
-गहे हाथों में हाथ!
मानव शरीर का सबसे ईमानदार हिस्सा हैं, हाथ।
आखिर वे ज़िंदादिल आँखों और चेहरे की तरह झूठा नहीं दिखते।
-नक्शे पर रास्ते का पता हो तो मंजिल तक पहुँचने की संभावना शत-प्रतिशत रहती है
-व्यक्ति को जीवन में मुश्किल दौर में टूटने की जगह बांस की तरह झुककर बुरा दौर बीतने पर दोबारा अपनी स्थिति में पहुंचने का गुण विकसित करना चाहिए। जैसे बांस न केवल हर तनाव को झेल जाता है बल्कि तनाव को ही अपनी शक्ति बना कर दोबारा उतनी ही गति से ऊपर उठता है।
-आत्मरति में डूबा कृतघ्न समाज!
भारतीय सेना नहीं तो कम से कम बाढ़ को ही याद रखता!
-जीवन में किसी दूसरे से अपनी तुलना करना इसलिए बेमानी होता है, जो आप कर सकते हैं, कोई दूसरा नहीं कर सकता न ही सोच सकता है।
-पश्चिम के व्याकरण से भारत की समस्या कैसे सुलझेगी?
-हम शिक्षा सीखते हैं जबकि ज्ञन अर्जित करना पड़ता है....
-होने और न होने की अति में ही जीवन बीत जाता है क्योंकि हम उसे अपनी कसौटी पर नहीं बल्कि दूसरों की अपेक्षा पर जीते हैं। मर्म में दूसरों से अपनी उपेक्षा का भाव जो होता है।
-आहत तो दोस्त ही होते हैं।
-तीर्थ बाहर नहीं मन के भीतर ही जाना होता है पर बस वही नहीं हो पाता!
-अरे क्या संयोग है, मेरे माथे पर भी एक चोट का निशान है जो मेरी मौसी के मुझे ननिहाल में सीढ़ियों से गिराने और फिर केरोसीन में कपड़ा जलाकर उसे घाव पर लगाने से हुआ था। यह घाव का निशान आज भी मेरे माथे पर हैं।
-अच्छे मन वालों की साथ ईश्वर भी अच्छा ही करता है, बस बारिश से पहले कभी-कभी घना अंधेरा छा जाता है। काले बादल छटेगे और जीवन में इंद्रधनुष निकेलगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
-हम अपनी कसौटी खुद है।
सो अपने को कस लो, तो अपनी उम्मीद पर खुद पूरी खरी उतरोगी।
सोच कर लग जाओ, सो पा लोगी।
-हर मन में एक कोना वीरान होता है, शायद होना भी चाहिए तभी हम खुद से बात कर पाते हैं, नहीं तो वैसे ही चारों तरफ भीड़-शोर का ज़ोर है।
-बेटी के लिए पिता ही ऊंचाईं का पैमाना होता है।
सो, बेटी के लिए नट की तरह तनी रस्सी पर चलना सच में कितना आनंदकारी है!
-जिंदगी में लोग ही "हुकुम-हजूरी" करके हुकूमत बना देते हैं, गुलामी बाहर से नहीं भीतर से ही उपजती है। सो अपने दोष का दूसरे को अकारण जिम्मेदार ठहराना सर्वथा अनुचित है।
-जीवन में जूझने की क्षमता मनोदशा, बाह्य परिवेश दोनों पर निर्भर करती है। कभी लड़ने के सिवा कोई विकल्प नहीं होने से अधिक स्पष्टता और एकाग्रता रहती है। जबकि विकल्प का होना संशय और भटकाव को जन्म देता है।
-हमें दूसरे व्यक्तियों की संकुचित धारणा को स्वयं को परिभाषित करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
-सुख-दुख में समभाव रखना ही प्रज्ञवान व्यक्ति की पहचान है। बस जीवन में बस अभाव को स्वभाव नहीं बनने देना चाहिए।
-मन को जो सही लगे कई बार वह गलत भी होता है, फिर भी मन की करने से अफसोस नहीं रहता। दूसरे बेशक शिकायत करें पर खुद को कोई शिकायत नहीं रहती।
-किसी के दूर जाने के बाद याद क्यों पास आने लगती है...
-गुजर गईं रातें, ये भी गुजरेंगे!
-कभी यूं भी आ, बिना याद!
-जिंदगी और मौत तो तयशुदा है, बस ''मैं कौन" को जानना ही पहेली है!
-जीवन में कुछ भी 'बनना' मुश्किल नहीं है, बस मुश्किल है तो 'होना' ।
-मंजिल नहीं लक्ष्य ऊंचा होता है, मंजिल पर पहुंचाना होता है और लक्ष्य को प्राप्त करना होता है। बाकी कदमों के तले तो जमीन होती है जो अगर खिसक जाएँ तो मंजिल तो दूर आदमी भी अपने बूते खड़ा नहीं रह पाता है।
-पिता के मन आकाश पर लहराया
बेटी की सफलता का परचम!
-बेटी की सफलता की खुशबू घर-आँगन के साथ पड़ोस को भी महका देती है।
पिता का मान ही नहीं अभिमान होती है बेटियाँ, सो आज दसवीं की परीक्षा में पिता का नाम रोशन करने वाली सभी बेटियों को मन से आशीष।
-चिंता, चिता समान है। नश्वर जीवन में अमरता मृगतृष्णा है। शेष नियति है सो श्री राम और सीता जी को भी ज्ञान था की स्वर्ण मृग नहीं होता पर होनी को कौन टाल सका है! होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा।।
-सुख-दुख जीवन के दो पहलू है, सो अच्छे को ध्यान में रखना चाहिए और सोचना यह चाहिए कि भगवान भी किसी बड़े लक्ष्य के लिए तैयार कर रहा है।
-आज के दुख का कारण ही कल के सुख का आधार बनता है।
-संतान पर मां की छाँव, वृक्ष से भी बड़ी होती है।
-सवाल मौजूं हैं कि आने वाली जिंदगी में हारने और मौत के खौफ की वजह से आज भी कब बीतकर कल बन जाता है। बाकी हारी हुई जिंदगी कब मौत की चिता पर सुला देती है, पता ही नहीं चलता।
-जिंदगी एक रंगमंच है पर रंगमंच ही जिंदगी नहीं है...
- सच में, अंदाज़ा नहीं था कि इतने व्यक्तियों का संबल साथ है। अब जीवन की नयी उड़ान में और भी हौंसला रहेगा।
-घर तो बेटी से ही बनता है फिर अपना हो या पराया। बिना बेटी तो वह मकान होता है।
-मन का बोझ उतरने पर जीवन कितना सरल हो जाता है!
-भाग न बांचे कोय!
वैसे समय की मार से कोई नहीं बचता!
-हास, परिहास और उपहास तीन शब्द हैं और उनके तीन भिन्न अर्थ हैं सो एक-दूसरे से अलग कैसे हो सकते हैं या किए जा सकते हैं।
-समय, स्थान-संबंध-स्नेह सब बदल देता है। ऐसे में मनुष्य कैसे सापेक्ष रह सकता है।
यह ऐसा ही भ्रम है जैसे पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है पर स्थिर होने का आभास देती है। ऐसे ही परिवर्तनशील समय में हम स्वयं को अपरिवर्तित मानते हैं।
-आपके चाहने वाले व्यक्तियों को काफी कुछ सीखने को मिलेगा। मुझे आपके मेरे प्रति स्नेह-भरोसे पर गर्व है। मेरा तो यही मानना है कि सीखने की योग्यता जिसने सीख ली समझो लांघ गया लंका। नहीं तो बस समुद्र किनारे संशय में जीवन बीत ही जाता है
-सच्चाई तो यह है कि जितना हम दूसरों के बारे में सोचते है कि वे हमारे बारे में क्या सोचते हैं, उतना तो हम स्वयं अपने बारे में नहीं सोचते है।
-सफलता कोई अकस्मात मिलने वाली वस्तु नहीं है।
वह तो कठिन परिश्रम, सतत अभ्यास, शिक्षा, अध्ययन, बलिदान के साथ सबसे अधिक अपने कार्य या सीखने की प्रक्रिया के प्रति एकनिष्ट प्रेम का जोड़ है।
-पेले, विश्व-प्रसिद्ध फुटबॉल खिलाड़ी
-सफलता की खुशी में मन के साथ-साथ मुख के स्मित मुस्कान उसका सौन्दर्य दुगना कर देती है। मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है, श्रम साध्य सुखद-परिणाम का असली श्रेय परिवार को जाता है।
-साधारण को उलझाना सामान्य है।
जबकि उलझन को सरल नहीं बल्कि सहज बनाना ही रचनात्मकता है।
-हम कितना ही अपरिवर्तित रहना चाहे पर समय कहाँ रहने देता है।
-परिवर्तन, जीवन का अभिन्न अंग है।
जो हम कल थे, वह आज नहीं होते और आज हैं वह कल नहीं होंगे!
तो फिर ऐसे में भला किसी दूसरे से अपरिवर्तित रहने की अपेक्षा क्यों?
जड़ पत्थर को भी समय की रस्सी गिस-गिसकर एक सरीखा नहीं रहने देती तो फिर मनुष्य तो हाड़-मांस का शरीर है।
व्यक्ति, प्यार और समय कब एक रहते हैं फिर भी उनसे ऐसा कुछ मांगना बेमानी है।
सो किसी शायर की जुबान में खत्म करूँ तो
"मेरे महबूब, मुझ से पहले जैसी मोहब्बत न मांग!"
-हर सुबह तय करता हूँ, नहीं याद करूंगा रात तक
हर-बार तलाश में, रास्ता गुम हो जाता है तुझ तक
-हर किताब की खुशबू का अपना नशा है, बस नशा करना आना चाहिए!
-दुनिया में उगते सूरज को देखना भी एक तरह का 'अनुभव' है जो देह को देहांतर तक ले जाता है, बस अगर सध जाएँ तो।
नहीं तो सूरज, संसार और समझ बस नासमझी है।
-उदासी और अकेलेपन को रात का घना अंधेरा और गहरा देता है।
-घूंघट स्वत: है सो स्वयं (स्वकीया) से है तो परदा दूसरे से यानि परकीय है। बात वही है, लिहाज अपनों का तो शरम दूसरों से होती है। जैसे जौहर की प्रथा किसी की थोपी हुई नहीं थी। राजपूताना में बर्बर मुस्लिम आक्रमणकारियों के हाथों अपमानित होने और गुलाम बनाए जाने से मृत्यु का आलिंगन करने वाली वीरांगनाओ का संदर्भ आज के समय में आईएसआईएस के हाथो यजिदी महिलाओं के हश्र से समझा जा सकता है। चित्तौड़ में मुग़ल अकबर की जीत के पहले साठ हज़ार राजपूत महिलाओं ने जौहर किया था।इतिहास से हम यही सीखते हैं कि हम उससे कुछ नहीं सीखते!
-जीवन में कोई प्रयास बेकार नहीं होता है। कथित कचरा 'खाद' का काम करता है, जीवन में आगे फलने-फूलने के लिए!
-घर पर अपना नाम-नंबर, शादी के निमंत्रण पत्र-लिफाफे से लेकर हस्ताक्षर तक अँग्रेजी में डूबे 'हिन्दी समाज' का हिस्सा ही है, ग़ालिब और उनकी हवेली! सो, अचरज कैसा?
-जीवन में पथभ्रष्ट हुए तो चिंता नहीं बस लक्ष्य भ्रष्ट नहीं होने चाहिए।
-पत्नी न हो तो दिमाग अवचेतन रूप से उसी से जुड़ा रहता है!
फिर भी पता नहीं क्यों पत्नियों को किसे के, खास कर पति के उनकी चिंता न करने की बात का एहसास रहता है!
-माँ की वास्तविक उत्तराधिकारी बेटी ही होती है। वंश परंपरा से लेकर संस्कार प्रदान करने की परंपरा तक।
-जीवन में माँ-बेटे का प्यार सहज और शाश्वत है।
-जिंदगी आंकड़ों का जोड़ न होकर मन-उमंग की कहानी है।
-ग़लतफहमी में पैदा होने वाले सवाल जवाब की बजाए खुद के लिए फंदा भी बनाते हैं। बाकी जब सोच ही भ्रमित होगी तो फिर रिश्ता कैसे मजबूत होगा भला!
-एक प्यार भरा स्पर्श सारे तनाव को समाप्त कर देता है।
-प्रकृति प्रदत्त वरदान को भौतिकता पर मापना व्यर्थ है, कुछ नहीं सभी स्त्रियाँ विपरीत भावना और आचरण को स्वत: ही भाँप लेती है।
-जीने के लिए तो दुनिया तो छोटों की ही बढ़िया है, बड़े होने के बाद तो गुना-भाग है।
-जीवन में जो 'छूट' जाता है, वह 'स्मृति' से मिटता नहीं!
जो जीवन में यथार्थ होता है वह मन में बसता नहीं।
न होने और होने की यह स्थिति 'दुविधा' है या अंतर का द्वैत भाव यह समझ पाना 'अबूझ' पहेली है।
-जब भीतर से सब खोखला हो जाता है तो खूबसूरत कुछ नहीं रहता।
-बिना मन का तार छूए, संगीत नहीं बनता, शोर होता है।
-सब तोल मोल का बोल है, सो जिसकी वजह से तोल कर मिले तो बोलेंगे नहीं तो गूंगे बन जाएंगे, बिना सिक्कों की खनक के। अब कौन से खबर और कौन सी पत्रकारिता?
सब सेटिंग है, चवन्नी चोर और भड़ुवे दोनों की !
-बदलते रंग चाहे इंद्रधनुष के हो या इंसान के उसको निहारना ही चाहिए। बोलने से तो रंग में भंग हो जाता है। पूरा सच नहीं जानना चाहिए, अगर जान भी जाओ तो फिर मौन साधने में ही सबका हित है।
-किसी भी व्यक्ति को अपने 'खूबसूरत' होने का अहसास ही होना स्वयं के भीतर जाने की पहली शर्त है। आखिर तीर्थ कही बाहर नहीं बल्कि अपने भीतर जाना ही होता है।
साहस हमेशा मुखर नहीं होता है। कभी-कभार, साहस पूरे दिन की कानाफूसी के अंत में एक शांतचित्त आवाज भी होता है, सो 'मैं कल फिर से प्रयास करूंगी।"
-मैरी ऐनी राडमाचर
(बिछुड़ गए संगी-साथियों से भी कुछ अच्छा पढ़ने को मिल जाता है, समय कैसा भी हो, मित्रता कालजयी होती है)
-विफलता एक परिघटना है, व्यक्ति की पहचान नहीं!
-असहमति से सहमत होना, असहमत होने वालों के लिए ही मुश्किल होता है।
हैरानी की बात यह है कि उसके लिए भी वे दूसरों को ही जिम्मेदार मानते हैं।
शायद यही जरूरत है बाहर से भीतर जाने की और देखने की। खैर इसके लिए तो हर इंसान को आयु-अनुभव के साथ स्वमेव ही सिद्ध करना होता है।
"आप ही तोल, आप ही बाट, आप ही तराजू और आप ही तोलनहार!"
-कहानी कहने में तो बचपन जिंदा रहता है, नहीं तो असली में तो जिंदगी बूढ़ा-ही रही है।
बीता समय और छूटे हुए साथी शेष जीवन में आस से ज्यादा निराश ही करते हैं।
अज्ञेय के शब्दों में, "अरे यायावर रहेगा याद"!
-स्वभाव से अधिक यह मानवीय नियति है, प्रारब्ध है तो अंत भी साथ ही बदा है।
शिखर पर पहुँचने के बाद बस नीचे की गहराई ही भयाक्रांत होती है। शायद इसलिए भी क्योंकि फिर ऊपर तो कोई संभावना बचती नहीं सो नीचे ही नज़र जाती है। अर्थशास्त्र में एक सिद्धांत भी है, ह्रास का नियम। जीवन में एक अधिकतम ऊंचाई के बाद प्रकृति स्वाभाविक रूप व्यक्ति को नीचे ही लाती है।
-जिंदगी में हर मौसम को बादल होते देखा है
हर रंग के इंसान को धुंआ बनते देखा है।।
अच्छे ईमान वालों को बेईमान होते देखा है,
दौड़ती जिंदगी को अचानक बोझ बनते देखा है।।
पर चाहत पूरी होती कहाँ है, जिंदगी में,
अभी तक तो यही सिला मिला है हर किसी से।
-इस कदर प्यार से मत देख मुझे,
तेरी नर्म आँखों के साये में,
धूप भी चाँदनी सी नज़र आती है।
-देखने और नज़र उठाकर देखने में फ़र्क होता है!
-बीज समय से ही फलता है, सो समय की प्रतीक्षा ही फल का परिणाम देता है।
-खुली आँखों से सोया समाज, कब जागेगा?
सब खत्म हो जाने के बाद तो रोने वाला भी नहीं होगा!
रोने के लिए "रुदालियां" भी 'भाड़े' पर मंगवानी होगी क्योंकि दुख प्रकट करने के लिए कोई स्वजन तो बचेगा नहीं!
ऐतिहासिक सत्य है कि विदेशी यूनानी आक्रमणकारी सिकंदर के बाद ही भारतीय रंगमंच में नाटक दुखांत होने लगे अन्यथा पहले भारतीय नाटकों का अंत सुखांत ही होता था।
आखिर हरे-सफ़ेद-भगवा की रतौंदी से ग्रसित धृतराष्ट्र का अंधापन कही फिर इंद्रप्रस्थ को भारी न पड़े।
-आज जागी आँखों में जाएंगी सारी रतियां...!
-आखिर खुली आँखों से सोया समाज, कब जागेगा?
सब खत्म हो जाने के बाद तो रोने वाला भी नहीं होगा!
घर "घुसेड़ा" बनकर मरने से तो खुले में रहकर मारना बेहतर।
-अगर आपको अपने रास्ते और मंजिल का सही पता होता है तो आप कभी भी पीछे पलटकर नहीं देखते।
-संवेदना होना ही मनुष्य होने की पहली निशानी है। संवेदनायुक्त व्यक्ति ही विचार कर सकता है। विचार को जीवन में आचार-व्यवहार में उतारने से ही संपूर्णता होती है। अन्यथा कविता-कहानी-उपन्यास बेहतर लिखने वालों का सार्वजनिक जीवन उतना ही पाखंड-व्यभिचार और दोगलेपन से परिपूर्ण होता है। आज ऐसे प्रगतिशील लिक्काड़ों की कमी नहीं है।
-बेटियाँ, कब बड़ी हो जाती है पता ही नहीं चलता।
शायद हम ही जल्दी बुढ़ाने लग जाते हैं जिसका पता बेटी को देखकर चलता है।
पिता का आईना जो होती है बेटियाँ।
किताब हमारे भीतर बर्फ की मानिंद जम चुके समुंदर के लिए हथोड़े होनी चाहिए।
-फ्रैंक काफ्का
-दर्द होता ही है अनमोल।
मोल तो सुख-खुशी का होता है।
दुख-गम तो मानो आदमी को माँजते हैं, आने वाले सुनहरे कल के लिए।
-तुम्हारे चक्कर में, मैं भी क्या-क्या लिख जाता हूँ। एकदम प्रति-संसार है मेरे लिए, तुम्हारी दुनिया।
-भाई, मैं कबाब में हड्डी क्यों? फिर तुम भी विवाह के लिए कोई बिना बौद्धिकता वाली कोई अनाथ युवती देखो, ताकि तुम्हारे साथ उसका भी उद्धार हो।
-देह से नेह तक और नेह से देह तक। इस सनातन परंपरा का निर्वहन ही संस्कृति है।
देह से नेह उपजता है और नेह से देह का विस्तार होता है। तभी जीवन भविष्य की ओर अग्रसर होता है। यही सनातन सत्य है।
दो बराबर के पत्थरों से ही आग निकलती है। सो एक समान भाव जरूरी है।
-आप स्वयं में सिद्ध है तो आपके समक्ष मार्ग भी है। आपको बस कदम बढ़ाकर प्रशस्त होना है। ऐसे में खुद सीखने वाला विद्यार्थी साथ-साथ चल सकता है।
-वैसे भी मित्रता में समभाव होता है, गुरूभाव नहीं।
-नियमित लेखन से स्वयंसिद्धता प्राप्त हो जाती है। फिर जब कोई गलती होगी ही नहीं तो सुधार कैसा?
-स्वस्थ शरीर ही सभी सुखों का मूल हैं।
-कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो बूढ़े हो जाते हैं पर बड़े नहीं होते।
-दुनिया में हर व्यक्ति एक काम ऐसा कर सकता है, जो कोई और नहीं कर सकता। हमें अपने अवगुण का पता हो तो फिर उसे ही गुण में ढालना आसान होता है। किसी में केवल गुण ही हो ऐसा तो होता नहीं।
-संतान ही माता-पिता के सपनों में रंग भरते हैं...
-ईश्वर सम-विचार के व्यक्तियों का मेल ऐसे ही करवाता है.
-कुछ अपने शहर के बारे में लिखना शुरू करें तो हमारा ज्ञान भी बढ़ेगा! चाहे थोड़ा-थोड़ा ही सही, बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है.
-जीवन में कोशिश ही अंतर पैदा करती है वर्ना सोचते तो सब है पर करता कोई बिरला ही है.
-परस्पर संवाद गुणकारी होता है नहीं तो वाद-विवाद से तो अलगाव ही होता है.
-चित्रों के साथ कुछ शब्द, मणिकांचन योग होता!
-चाक को कितना ही घूमा ले, अगर घड़ा गोल नहीं बना तो सब बेकार।
-मानो मत जानो!
-सही कहा आपने श्रद्धा और आस्था के कोई मायने नहीं होते बाकि तर्क कुतर्क से आदमी बिखरते ही हैं, जुड़ते नहीं।
-घोर आपत्तिजनक। बिना सहमति, सहकार स्वीकार्य नहीं होता। सो, मात्र चेतावनी पर्याप्त नहीं।
-क्या आपने अजमेर की गलियों-चौबारों के बारे में लेखन को विराम दे दिया? इस छत पर दिखते खुले नीले आकाश और मोहल्ले पर एक टिप्पणी तो बनती ही है। अपने शहर के साथ जीते हुए उससे बतियाना न भूले, इसी बहाने चार और भी जुट जाएंगे।
-आखिर लिखने वाले की कसौटी तो पाठक ही है। आलोचक के चक्कर में तो पूरा साहित्य ही घनचक्कर बन गया है। जब मैं इंडिया टूड़े में काम करता था तब वहाँ समीक्षा के लिए सबसे ज्यादा कविता, कहानी और उपन्यास की किताबे आती थी। जब हमें अपने लिए उनमें से पढ़ने के लिए किताब लेने के लिए कहा जाता था तब कोई भी इन किताबों को मुफ्त में भी घर ले जाने को राजी नहीं होता था।
-आपको मराठी सीखने का गुरुमंत्र देना होगा! बहुत दिन से मन के एक कोने में यह इच्छा दबी हुई थी। थोड़ा बता देंगे तो अच्छा होगा, बाकी अभ्यास के लिए बंदा हाजिर है ही। मेरी इच्छा शिवाजी के उत्तर कालीन मराठा समाज के विषय में कुछ लिखने की है, सो मूल स्रोत के लिए मराठी कम से कम पढ़नी आ गयी फिर तो रस निकाल लूँगा। अभी कुछ समय पहले "मस्तानी के बिना भी था बाजीराव" शीर्षक से पेशवा परंपरा पर एक लेख लिखा था। उसको ही आगे बढ़ाने का विचार हैं सो आपसे अनुरोध किया।
-ऐसा कुछ नहीं है, बस दिलजले हैं सो दिल के जख्मों को ही कागज़ पर उतार देते हैं। स्याही की जगह खून है और कलम की जगह कटु अनुभव। ऐसा न करें तो जीना ही दुश्वार हो जाएँ। फिर हम तो पालकी के कहार हैं, पालकी में कौन बैठा है न तो जानने की इच्छा है न अधिकार। हमें तो ढोना हैं, दूसरे के रूप में अपने को। सो उसे ही आनंद का स्वरूप दे दिया है वैसे अपना पाप ढोना ज्यादा मुश्किल होता है! वह किया नहीं सो यह कहते हुए चल रहे हैं "हाथी-घोड़ा-पालकी, जै कन्हैया लाल की"।
-आप जैसे सुधिजन के सानिध्य में मेरे जैसे अकिंचन का भी भला हो जाए, ऐसी ही कामना है।
-दोनों जगह सच्चाई को उजागर करने वाले 'भीतरी' विभीषण की परंपरा के हैं। एक के गलत से दूसरे का गलत सही नहीं हो जाता।
-कपड़े तो क्या रंग भी निरपेक्ष होता है पर हर चीज़ का एक तकाजा है। आपको अच्छा लगे वही सबको लगे यह जरूरी नहीं और जो दूसरों का विचार हो, आप उससे सहमत हो यह भी आवश्यक नहीं।
-यह कैसी पॉलिटिक्स है कामरेड?
देश में संख्या बल वाले दलित-महिला आखिर पोलित ब्यूरो में हाशिये पर क्यो हैं?
-निर्मल वर्मा का उपन्यास है, "अंतिम अरण्य" मौका लगे तो देखना, मृत्यु का इतना विषाद-सूक्ष्म विश्लेषण है कि उसका भय-कातर भाव कहीं तिरोहित हो जाता है। एक नया पक्ष उद्घाटित होता है असीम ऊर्जा-उजाले का।
-आखिर में, अपना रक्त ही तो मुक्ति देता है, नहीं तो देह-मुक्त तो हम कब के हो जाते हैं।
-हम सब अपने अनुभव से ही सीखते हैं बस दूसरे से तो यह निश्चित करते हैं कि हम ही अकेले नहीं है जिंदगी की इस लड़ाई मे सो एक मोर्चा और सही!
-"सृजन ही मुक्त करता है", मुक्ति का तो पता नहीं पर जमीन से पाँव उखड़ने नहीं देता, यह जानता हूँ अपने अनुभव से।
-लिखते रहों, यही सद्गति का एकमेव उपाय है।
-पिता-पुत्री का नाता ही कुछ ऐसा है।
-एक बोलना सिखाती है तो दूसरी बोलने के लायक बनती है। कर्जा तो दोनों का है, एक देह का दूसरा नेह का।
-हिन्दी माँ हैं, सो जितना ऋण उतार सकें वही बेहतर नहीं तो ऊपर तो बस खुला आकाश है।
-जब हम होते हैं तो नहीं होते और जब हम नहीं होते तो वही होते है। होने और न होने के बीच भी न का ही अंतर है।
-न पड़ोसी न ईश्वर, हम स्वयं अपनी ही निगाह की निगरानी में होते हैं।
-बुरे सपने को सपना ही नहीं मानना चाहिए।
-ईश्वर एक मार्ग अवरुद्ध करता हैं तो कई नए द्वार खोल देता है।
-बस अश्रुगलित नेत्र धुंधलेपन के कारण देख नहीं पाते हैं।
-"हमे तो कुछ हासिल नही चाहा हुआ" तो फिर जीवन के गणित में कुछ घटने की एवज में हमारी दोस्ती को ही हासिल मानकर जोड़ ले।
-खुले में लघु शंका करने वाला सेना पर शंका पैदा कर रहा है! आखिर सतीत्व पर सवालिया निशान तो वेश्या ही लगाती है?
-रतौंदी रोगियों से रंग की पहचान की उम्मीद बेमानी है!
-शराब के नशे से मुक्त करके किताब का नशा चढ़ा सकें तो बेहतर होगा।
-हर नियम का अपवाद होता है पर अगर अपवाद ही नियम हो जाएँ तो फिर तो रब ही रखवाला है।
-जिंदगी के अनजान रास्ते लेकर वही जाते है, जहां आखिर में हमें पहुँचना होता है। हम बेशक मंजिल से बेखबर हो।
-वेश्या, सतीत्व का तो चोर, वस्तु के स्वामी होने का दावा हमेशा करते हैं।
-कहारों को पालकी में बैठने वालों के वजन से मतलब होता है न की उनसे।
वहीं पालकी में बैठे व्यक्ति को कहारों से कोई सरोकार नहीं होता।
उन्हें तो बस मंजिल तक पहुँचने की गति का भास होता है, पहुंचाने वाले का आभास नहीं।
आखिर रेल में भी कितने यात्री इंजिन को देखते हैं या उसके बारे में जानने की कोशिश करते हैं।
-रतौंदी के शिकार दो पैर वाले, अब एक बैसाखी के सहारे जग-जीतने का दावा कर रहे हैं!
- जीवन में आगे स्मरण बोध को पाथेय बनने दें।
-बेटी, पिता का अभिमान है, स्वयंसिद्ध संतान है।
-हिन्दी माँ है, सो अच्छी है, बुरी है इस सोच से परे हैं।
-आज फ़ेसबुक पर एक पोस्ट देखकर लगा कि जातिवादी सोच वाली संकुचित व्यक्ति ज्योतिष में पूरा दखल रखते हैं, सो भविष्यवादी आकाशवाणी चिपका रहे हैं।
-तन के घाव तो समय के साथ भर जाते है पर मन के घाव रह-रह कर हरे होते रहते हैं।
-भाई, मैं तो अभी भी नित्य प्रति पढ़ता हूँ, कम से कम 30-50 पेज। लिखता हूँ, 15 दिन में 1200-1500 शब्द। अभी भी एक कुशल गृहिणी की तरह, खर्च कम है और बचत ज्यादा!
-मेरा रास्ता ऐसा आसान नहीं, मुझे प्रतीक्षा करनी होगी।
-उमंग-तरंग तो मन में होती है, आयु तो बस पड़ाव है।
-संगीतमय सुबह का सिलसिला सच में स्वर्गिक आनंद है।
-जिंदगी में इश्क़ सबको होता है, किसी को मिल जाता है, किसी का छूट जाता है।
-इश्क़ में तो डूबकर ही जाना होता है, मझदार का तो विकल्प ही नहीं होता। इश्क़ तेरा-मेरा का फर्क नहीं करता।
-मुंह की कालिमा तो पानी-साबुन से धोकर मिट जाती है पर मन का मैल तो चिता पर देह के साथ ही मिटता है।
-जिसका अपना घर बसा नहीं या बस कर उजड़ गया या फिर दूसरे का बसा-बसाया घर उजाड़कर अपना बसेरा बनाने वाली महिलाएं ही सार्वजनिक जीवन में स्त्री मुक्ति और महिला अधिकार के आंदोलनों में आगे नज़र आती है।
-वैसे तो आभार अपने प्रति ही होता है, सम-विचार व्यक्तियों से जुड़ने का। स्वगत स्वयं के लिए और स्वागत अन्य का।
-पुस्तक के खरीददार के मनोविज्ञान के साथ उसका बाजार से संबंध और अर्थशास्त्र का कोण जुड़ा होता है, बाकी हिन्दी साहित्य की वर्तमान दशा-दिशा पर इस अंतर्दृष्टि से कम ही सोचा गया है।
-किताबों का साथ एक ऐसा सुख देता है, जिसका वर्णन करना गूंगे से गुड़ खाने के स्वाद को पूछने जैसा है।
-साड़ी और तुम! क्षणिकता के भावावेग में उतावलापन उचित नहीं होता। अपने मूल स्वभाव-चरित्र को बनाए रखना ही सही होता है।
-वतन के लिए तन न्यौछावर किया जाता है, तन के लिए वतन नीलाम नहीं किया जाता!
-धंधेबाज की बाजी धंधे से ही जुड़ी होती है, धंधा जारी रहना ही कसौटी है उसके लिए। सुबह से शाम तक तंत्र से पैसा उगाएँ और रात में क्रांति को लेकर टकराएँ! घर में पत्नी का ठिकाना नहीं पड़ोसन को घर दिलाने की उड़ेधबुन, आचरण-व्यवहार में अंतर से अधिक कुछ नहीं।
मैंने तुम्हें वह सब चीजें भी सौंप दी, जिनके बारे में मुझे भी संशय था कि वे सब मेरे ही पास थीं।
-मिरांडा जुलाई
-हौसले के साथ जीना ही तो जिंदगी है!
मुझे भविष्य का पता नहीं पर फिर भी मैं हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहता हूँ।
-फुयूमी सोरयो
-जहाँ में जो मिले, उसे मुकम्मल बना लेना चाहिए!
मुकम्मल मान लेने और मुकम्मल बना लेने में जमीन-आसमान कर फर्क है।
मानना एक-तरफा होता है जबकि बनाना परस्पर।
जीवन को साधारण बनकर ही जीने की कोशिश करनी चाहिए, असाधारण जीवन हर किसी के बस का नहीं होता और खैर दुनियावी मामले में दुख देता है सो अलग।
-अगर जीवन में कभी भी स्वयं को गलत दिशा में पाओ तो उस रास्ते को छोड़ दो।
-मैंने तो सहज ही मानव मन की प्रकृति के अनुरूप लिखा था. राजस्थान के अपने ननिहाल के गांव में जब अंधेरे में अकेले निकलते थे तो 'कोई है?'
डर से अधिक अपने-से किसी और की उपस्थिति का आभास, विश्वास को दृढ़ करता था.
-जहाँ में जो मिले, उसे मुकम्मल बना लेना चाहिए!
अगर कोई संकट है तो वह मेरे लिए हो। मेरे बच्चों के जीवन में शांति रहे।
-थॉमस पेन
-यादें आदमी ही नहीं वक्त को भी 'ठहरा' देती है।
-जीवन संतुलन का दूसरा नाम है।
-सहृदय हो पर दूसरों को अपनी अवमानना न करने दें।
-भरोसा करें पर धोखा न खाएं।
-अपने में संतुष्ट रहते हुए भी स्वयं को उन्नत करने के लिए तत्पर रहें।
-बचपन के किसी 'बड़े' को अपनी अधेड़ उम्र में मिलने के अवसर को टालना, अपने बचपन में लौटने से वंचित होना होता है।
-कहीं अगर वह 'बड़ा' ईश्वर के घर निकल जाएँ तो उसके साथ बचपन का दरवाजा हमेशा के लिए बंद हो जाता है।
-फिर रह जाता है, अकेलापन, पश्चाताप और जीवन के बेमानी होने का अहसास!
-सो, समय रहते 'बड़े' से मिलकर अपने बचपन में लौटने की कोशिश को टालना नहीं चाहिए।
-बाकी जीवन है तो कट ही जाता है, बिना अपराधबोध के बीते जो ज्यादा अच्छा।
-वैसे भी तन के कष्ट से मन का कष्ट अधिक भारी होता है।
-संस्कार, मूल्य और बुद्धिमता किसी हाट मोल नहीं मिलती।
-हर आदमी अपना सबसे अच्छा जज है, हम किसी दूसरे पर फतवा नहीं दे सकते! मेरा आशय भी यही था कि अपना आकलन तुम ही सबसे बेहतर कर सकते हो।
हर रचनात्मक व्यक्ति में पागलपन का अंश तो होता ही है, जो उसे सामान्य से असामान्य और फिर अति सामान्य तक ले जाता है।
श्री अरविंद के अपनी पत्नी मृणालनी के नाम पत्र पुस्तक में कुछ ऐसी ही बात व्यक्त की है।
अब समझे पागलों की भी एक 'बस्ती' (इंतज़ार हुसैन वाली) है!
-बीते हुए वक्त का मौजूदा घड़ी पर कोई अख़्तियार नहीं होता है।
-मन को जो सही लगे कई बार वह गलत भी होता है, फिर भी मन की करने से अफसोस नहीं रहता। दूसरे बेशक शिकायत करें पर खुद को कोई शिकायत नहीं रहती।
-वैसे मेरी अँग्रेजी पर मुझे ही भरोसा नहीं है!
-समय के अनवरत प्रवाह का प्रतीक है, माँ-बेटे का संबंध।
-कभी मैंने परीक्षा के लिए इतिहास नहीं पढ़ा बस अपने आनंद के लिए पढ़ा। जो मतलब के लिए पढ़ा वह भाप बनकर उड़ गया और जो मन से गुना वह ही नमक बनकर मन में रह गया।
-भाई, खोजने से भगवान मिल जाते हैं, सो यह तो इतिहास है जो बिखरा हुआ है, यत्र-तत्र-सर्वत्र! बस सहेजने वाला चाहिए, प्राण प्रतिष्ठा तो जन-जनार्दन कर ही देता है। शर्त इतनी भर है कि आप रतौंदी से ग्रसित नहीं होने चाहिए।
-चेहरे पर दस्तक देती उम्र का पता चलता है, धीरे से जिंदगी का एक सफा खुलता है।
-आखिर लिखने वाले की अंतिम कसौटी तो पाठक ही होते हैं बाकी तो बस भ्रम है।
-दो विपरीत ध्रुवों का भी गठजोड़ ही चुंबक के समान स्थायी होता है।
-विवाह का एक लक्ष्य एक समान सोचना नहीं बल्कि एक जैसा सोचना है।
-जीवन में आगे बढ़ते रहने का मतलब भूलना कतई नहीं है।
-वह तो बस दुखी होने की बजाए खुशी को चुनने भर का प्रतीक है।
-शत्रु तो देह मात्र को ही कष्ट देते हैं, मित्र तो आत्मा को लहू-लुहान कर देते हैं।
-बात निकलेगी तो दूर तलाक जाएंगी, चचा ग़ालिब कह गए हैं।
भला होना ज्यादा रोचक है!
-टोनी मॉरिसन
-माँ, शिक्षित थी, साक्षर नहीं सो इतना सहज कर गई!
-व्यक्ति विशेष से हट सकते है, उसे हटा सकते हैं। पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण दुख के भाव से निवृत होकर मन की शांति को प्राप्त करना है। ऐसे में, 'व्यक्ति' से ज्यादा जरूरी 'भाव' से मुक्ति है।
-अपने लोगो से जुड़े रहने का लालच ही अभी बनाए हुये है।
-मनुष्य की स्थिति, स्वभाव नहीं हो सकता है।
-जब स्कूल में कोर्स में किताब पढ़ते थे तो रस नहीं आता था, अब नीरस जिंदगी से बचने के लिए किताब में रस खोजते हैं।
-अर्थपूर्ण मौन, अर्थहीन शब्दों से हमेशा बेहतर है।
-जीवन के इंद्रधनुष के रंग को साफ देखने के लिए सूरज और बारिश दोनों की समान जरूरत होती है।
-दुनिया के कहने से ज्यादा अपने सपने को पूरा करने पर यकीन करना चाहिए।
-जीवन में शक्ति के आवेग से अधिक निरंतरता का महत्व है।
-जब तक सीखते रहते हैं, तब तक जिन्दा रहते हैं नहीं तो बस बुत रह जाते हैं, बिना आत्मा के!
-शब्दों से परे है, मित्रता। शब्दातीत।
-जिंदगी में अचानक कुछ नहीं होता! जो कि इंसान बहुत ही बेखबर है।
-दिल की आवाज़ तो बिना वाई-फ़ाई के बिना ही 'हाई' होती है।
-'मित्रता दर्शन और कला के समान अनावश्यक है। मित्रता स्वयं में बेमानी होते हुए भी अस्तित्व के महत्व को मूल्य प्रदान करने वाले तत्वों में से एक है। "
- सी.एस. लुईस, द फोर लव्स
-बेल आसमान में कितनी ही ऊपर भले क्यों न चली जाएँ, जड़े तो धरती की भीतर ही समाई होती है। बाकी हर नियम का अपवाद होता है, सो अपवाद को न याद रखते हुए अच्छाई के नियम पर अपना भरोसा रखना चाहिए।
-मेरा बेटा ही मेरी बात सुनता है पर करता अपने मन की है। जो उसे सही लगता है।
सो समाज में भी जिसको अगुवाई करनी है, उसे अपना खुद का उदाहरण सामने रखना होगा।
सिर्फ आप कह रहे हैं, वह काफी नहीं है।
समाज और सभा को 'राजनीति' से ज्यादा 'सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक' समस्याओ' के निदान पर ध्यान देना होगा।
जैसे लड़कियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार।
अगर लड़की को यह मिल गया तो वह पति सहित परिवार चला लेगी।
नहीं तो लड़को की हालत आप ज्यादा अच्छी से जानते हों।
-रोशनी से सबका ही भला होता है, फिर ज्ञान का प्रकाश तो किसी में कोई अंतर नहीं करता!
-बुद्ध ने कहा है, अप्पों दीपो भाव, अपना दीपक स्वयं बनो। मतलब खुद का रास्ता, खुद ही बनाना है और तय करना है। अगर आप व्यक्ति के रूप में अच्छे हैं तो पिता भी, पुत्र भी, पति भी, भाई भी सभी भूमिकायों में बेहतर होंगे। साथ ही समाज का भी एक प्रेरक तत्व होंगे, नहीं तो बस "नेतागिरी" से समाज टूटता है, जुड़ता नहीं। आज राजनीति जोड़ने की बजाएँ तोड़ने का काम कर रही है, फिर चाहे वह समाज की हो या देश की।
-आप अपने शौक का मनपसंद काम करते हुए थकते नहीं हो। सो, बिना थके-रूके करते जाते हो, अपनी ही प्रेरणा से।
-नौकरी तो आजीविका के लिए है, जीवन के लिए है, लिखना।
-जिसको झेलना पड़े, वह रिश्ता कैसा ?
-मन की जिजीविषा सब पर भारी है।
-जिंदगी में हम दोस्त चुनते हैं, दुश्मन हमें चुने-चुनाएं मिलते हैं।
-जहर चाहे चासनी में डूबोेकर दिया जाएँ, मौत ही मिलती है। ऐसे ही, दवा पीने में भले ही कड़वी हो पर देती फायदा ही है। सो, यही फर्क है मार्क्सवाद और राष्ट्रवाद में।
-काम करो और निरंतर प्रयासरत रहते हुए जीवन में बेहतर करों।
जीवन की अच्छी बातों को स्मरण पाथेय बनने दो।
-पिता का मान होती है, बेटी।
-कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
... क्योंकि सपना है अभी भी!
यह पंक्तियाँ धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कविता 'क्योंकि सपना है अभी भी ' की है। बाकी देखा जाएँ तो "सपनों का कोई सौदा नहीं होता" अगर होता तो उसका कोई मोल नहीं होता क्योंकि वह अनमोल होता है।
-संस्कृति, अजर-अमर होती है, प्रतीक भी।
क्षण-भंगुर तो देह है, पुण्य भी करती है और पाप भी करवाती है।
आत्मा सच है, चिरंतन है सो देह के गुणगान पर इतना ज़ोर क्यों?
फिर यह तो संतन को क्या सीकरी से काम का देश है, सत्ता से पुरस्कार-तिरस्कार से कला को नापना ही तो उसकी अंतरनिहित कलुषता का सार्वजनिकीकरण है।
दोस्ती करों या दुश्मनी, निभाओ पूरे धर्म से।
किसी की मौत के बाद उसमें सब अच्छा ही देखना और कहना, हमारे समाज के दोगलेपन का परिचायक है। मानो मरने के बाद शैतान भी देवता हो जाता है और आपका विरोधी सबसे बड़ा हितैषी!
आखिर कथित 'नेहरूवादी मॉडल' भी तो सोवियत संघ की ही नकल था, मूल ढांचा तो वहाँ ढह गया अब यहाँ उसकी शव-साधना बची है।
शव साधक बंदरिया की तरह मरे बच्चे को छाती से चिपकाए विधवा विलाप कर रहे हैं।
-नहीं समझ पाएँ तो ज्यादा अच्छा। समझ जाते तो फिर लिख नहीं पाते।
-सफर में साथी खूबसूरत और दिल को सुकून देने वाला हो तो समय का पता ही नहीं चलता।
-सीखना एक कभी न समाप्त होने वाली प्रक्रिया है जो जीवन में नए क्षितिज खोजने में सबल बनाती है।
-जीवन में एक लक्ष्य निश्चित करके उसे साकार करने के लिए अपनी क्षमता, कौशल और परिश्रम का प्रयोग करने से स्वत: ही उपलब्धियां हासिल होती है।
-यह सोचने वाली बात है कि समाज में 'क्रांति' करने या लाने के 'क्षणिक' आवेश का भाव जीवन की 'क्षणिकता' का 'आत्मा हत्या' जैसे अतिरेकता वाले निर्णय तक कैसे पहुँच जाता है। यह कैसा मनोविज्ञान है, डटकर मोर्चा लेने का या फिर आगे बढ़कर-निर्णायक रूप से पीछे हटने का!
-जीवन की धड़कनों से शब्दों की गिनती अधिक है।
-जब आपके मन की बात कोई और हूबहू लिख दें तो फिर ऐसे में आप लिखने के प्रपंच से बच जाते हैं। ऐसे में, आप शब्दों को 'जाया' करने से बच जाते हो।
-समय, सूत्रधार बनकर अपने चाक पर कृति गढ़ ही देता है।
-शेष, निमित्त-साधन तो भौतिक उपादान है।
-संसार है सो भार है, अधिभार है और साभार है।
-बाकी आईआईएमसी तो हीरों की खान हैं, कौन सा हीरा कब कोहिनूर बनकर तख्त-ताज में जुड़ता-जमता है वो तो बस कर्मों की गति-फेर हैं।
-बाकी कुछ कहूँगा तो बाकी संगी-साथी नाराज़ होंगे।
-आपने तो 'कह' ही दिया है, सो "हाथी के पाँव में सबका पाँव"।
-जब व्यक्ति अपने को नीचा दिखने वाले व्यक्तियों पर ध्यान न देकर स्वयं पर भरोसा बनाए रखता हैं और अपने को कमतर आँकने वाले दूसरे सभी व्यक्तियों को मुस्कुराहट के साथ दरकिनार कर देता है तो ऐसे में उसकी सफलता सबसे बड़ा 'प्रतिशोध' है।
-स्वयं को सही साबित करने के लिए दूसरे को गलत बताना जरूरी नहीं है।
-पुस्तक मेला तो आनंद का उत्सव है, शब्दों का जमघट, मोर्चा कैसा ?
-पथ तो अनजाना और अनाम ही होता है। हाँ, पंथ जाना और नाम वाला होता है।
-अपने लोग होते हैं तो एक ताकत रहती है।
-दोगले जब रक्त शुद्धता की दुहाई देने लग जाएँ तो गुस्सा कम और तरस ज्यादा आता है।
-बेटी, पिता का खुला-स्वाभाविक प्रेम और बेटा अव्यक्त-अविरल स्नेह का प्रतीक होता है।
-जब कर्म और वचन में दुराव हो जाता है तो शब्द अपना अर्थ खो देते हैं।
-परस्पर संवाद गुणकारी होता है नहीं तो वाद-विवाद से तो अलगाव ही होता है।
-हम सब एक अव्यक्त बंधन में बंधे हैं, सो वैसे ही रहे तो बेहतर!
-सफलता का दर्द नहीं दिखता, रिसते घाव छिप जाते हैं।
-रास्ता जो मंजिल तक पहुंचा दे, वही असल है।
-दर्द, जीवन में सुखों की क्षणिकता को पहचाने की दृष्टि देता है।
-बाहर रहो या घर में 'बजना' तो है ही। अपनो में रहे या गैरों में !
-जीवन में तिल-गुड़ की मिठास हो...उसे पचा सकें, ऐसी प्रयास हो!
(मतलब श्रम करें और तनाव मुक्त रहें ताकि 'शुगर' न हो)
-अच्छे स्वास्थ्य की कामना के साथ मकर सक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएँ।
-प्रेम अनंत और प्रेम भावना अनन्या है।
-आज दोपहर में बीबीसी हिन्दी की वेबसाइट पर "खिचड़ी" पर यह लेख पढ़ा था, अब घर में बाजरे-तिल-मोठ की तिल के तेल के साथ बनी "खिचड़ी" खाने को मिल गयी।
सो, अनायास ही आज अपने ननिहाल-नानी-माँ की याद आ गई।
इसी को कहते हैं जो पढ़ोगे सो पाओगे !
अब तक तो गुना था, आज स्वाद भी ले लिया।
-पुस्तक मेले में जाकर व्यक्ति अपने में ऊर्जा से सराबोर हो जाता है। ऐसे में समय कहाँ बीतता है, पता ही नहीं चलता। बाकी मित्रों से मिलने का सुखद संयोग तो है ही, फिर चाहे वे पीछे से मिले या आगे तपाक से।
-अब तो कोई मन से रोता भी कहाँ है, सब रूदाली जो हो गए हैं।
-साँप को केसर युक्त मीठा दूध पिलाने से भी विष भरा डंक ही मिलेगा। अब कुछ और प्रतिफल मिलने की अपेक्षा भ्रम से अधिक कुछ नहीं सो भ्रम हमें न रहे तो भी बेहतर!
-ईश्वर शब्दों का चुनने का अवसर विरलों को देता है। शब्दों के साथ अपनी सार्थकता साबित करने का।
-गुरु तो ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है, उस पर चलना तो स्वयं होता है।
-जीवन में व्यर्थ कुछ नहीं होता, पुराना ही खाद बनकर नए आने वाले कल के रूप में कोपल बनकर फूटता है।
-रतौंदी रोग से ग्रसित तत्कालीन पुस्तकों में अब तो सुधार हो, समय की मांग है!
-चलते रहना ही एकमात्र चुनौती है !
- मजबूरी को क्षमता का नाम वह भी महज़ पेट की मजबूरी...दो बीघा जमीन से मालदा की मजबूरी से ज्यादा कुछ नहीं।
-भीरु लड़की के स्थान पर वीर माँ जीजाबाई की जरूरत है!
-सच्चाई किसी की मोहताज नहीं, बस रोशनी में आने में देरी की जिम्मेदारी उसकी नहीं!
-सच, अपच होता है, झूठ कहाँ पच जाता है, पता ही नहीं चलता!
-हिंदुस्तान के की माँ, बहन, बेटी, पत्नी और प्रेमिका के अपने शहीद के याद में बहने वाले आँसू कब बहने बंद होंगे।
-एक परिवार में काम करने वाले और सबकी सुनने-ध्यान रखने वाले बेटे की सार्वजनिक रूप से आलोचना और बिगड़ैल लड़के की दबे-छिपे आलोचना, नहीं बुराई भी ऐसे ताकि उसे बुरा न लगे!
-अब संयुक्त परिवार की ऐसी परंपरा से भारत कब उबरेगा।
-स्त्री ही काम की है, पुरुष तो जड़ से ही बेकार है।
-जीवन में परिवार ही मूल का उत्स है।
-कलेंडर के बदलने के साथ जीवन में भी पात्र और घटनाओ के रूप-अर्थ भी बदल जाते है।
-पिता का "मातृत्व" सर्वाधिक सहज-स्वाभाविक रूप से "भोजन" के रूप में परिलक्षित होता है।
- दुनिया का सबसे सुंदर और स्थायी साथ, बिटिया का।
-जीवन में माँ की रिक्तता, एक स्थायी दुख है। इस दुख की तिक्तता हर क्षण जीवन की क्षणभंगुरता के भाव को जागृत रखती है।
-जीवन में प्यार हमेशा दर्द से बड़ा होता है, तभी प्यार जीतता है और जीवन चलता रहता है। नहीं तो अगर दर्द जीत जाएँ तो जीवन का अंत हो जाए।
-सुख नहीं, ख्याति नहीं, केवल विरोध पाकर बढ़ते रहो।
-जीवन में सरकार और नौकरी से कहीं ज्यादा जरूरी साथी है।
-जीवन में रास्ते तो अनेक हैं पर यात्रा तो एक ही है।
-बुद्धि के बिना राग-विराग का ज्ञान संभव नहीं होता है।
-स्मृतियों का गाँव या गाँव की स्मृति !
-पुरानी पुस्तकों की खुशबू बीते समय में ले जाती है। एक यही शौक है, सो जो पूरा हो जाएँ, कम है।
-सही है, जै रामजी की तो फिर भी यदाकदा सुनाई दे जाता है तो कानों को अखरता नहीं बाकि लाल सलाम का रास्ता-वास्ता तो दक्षिणी दिल्ली के लाल-किले में ही भटक-भटका हुआ है. वह बात अलग है कि समय की सुई ऐसे अटकी हुई है कि देर-सवेर कुछ सुनाई दे जाता है और गोरी के प्रेम में चहुँओर एक ही फ्रेम-तस्वीर देखने की रतौंदी सरीखा कानों वाले रोग में भी सब लाल सुनाई देता है।
-निज अभियक्ति में समूहिक पीड़ा को स्वर देना असाधारण बात है।
-प्रतिभा को तो मान्यता समाज और आम जन देते हैं, शेष तो सत्ता की गुलामी है।
-ज्ञान का ताप, भौतिक शीत को भी शांत कर देता है।
-स्थान-समय से परे प्रेम।
-अस्वीकृति ही आशीर्वाद है।
-समय के साथ अर्थ, व्याख्या और सन्दर्भ सब परिवर्तित हो जाता है. कनाट प्लेस में रहते हुए मैंने कभी पिज़्ज़ा या बर्गर नहीं खाया पर शादी के बाद पहली बार पत्नी के लिए अब संतान की खातिर में न केवल वह जाता हूँ बल्कि खाता भी हूँ सो समय के साथ अर्थ, व्याख्या और सन्दर्भ सब परिवर्तित हो जाता है।
-सपना और सच्चाई में हमेशा जमीन और आसमान का अंतर होता है, खैर सपने देखना कब मना है, कौन से पैसे लगने हैं! यहाँ सोचने और उसको साकार करने की कसौटी है।
-यह बचपन ही असली जीवन है बाद में तो बस...
-दुख की फांस थोड़ी भी रह जाएँ तो बड़ी दुखदाई होती है, सुख का क्या है? वह तो आता है चला जाता है।
-निगमबोध की चिता पर न तो शब्द, न भक्त कोई साथ नहीं लेटता. बाज़ार और भीड़ दूंढ लेती है फिर कोई नया चेहरा चमकाने को अपना वजूद-अहंकार.
-जीवन में कई बार हारने से ज्यादा किससे हारे, वह बात मन को ज्यादा कचोटती है.
-अज्ञानता ही तो सीखने की इच्छा पैदा नहीं होने देती...
-कुछ बारिश को महसूस करते हैं तो कुछ उसमें भीग जाते हैं.
-पर जिन्हें अंग्रेजी आती नही, हिंदी जानते नहीं उनका क्या करें?
प्यार में फेर में पड़ने वाला दरसल अपनी जिंदगी के गुमशुदा पलों को खोज रहा होता है. सो, प्यार की जकड़न में पड़ने वाला अपने चाहने वाले के बारे में सोचकर दुखी होता है. यह अच्छी यादों वाले एक कमरे में दोबारा घुसने सरीखा होता है, जहाँ आप एक लम्बे अरसे से नहीं गए होते हो.
-हारुकी मुराकामी
-जीवन में कई बार अनजाने रास्तों के जोखिम को उठाने की बजाए सुरक्षित यात्रा करते हुए मंजिल तक पहुंचना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है.
-जिंदगी में साथी छोड़ा नहीं जाता बल्कि छूट जाता है.
-उसकी लोगों को किताब के सफे की तरह पढ़ने की शफ़ा, एक नियामत भी थी और एक शाप भी.
-वास्तविक गुरु, संख्याबल में अधिक शिष्यों वाला न होकर सर्वाधिक शिष्यों को गुरु बनाने की पात्रता प्रदान करने वाला होता है.
-किसी भी सयुंक्त परिवार के बाह्य वैभव की धुरी एक व्यक्ति की परिवार के भीतर सर्वकालिक उपस्थिति होती है जो सार्वजनिक में नज़र नहीं आती है। उसके महत्व का ज्ञान और उपस्थिति का भान, व्यक्ति के न रहने पर ही होता है।
लखटकिया वकील न हो तो कमर खटिया को लग जाती है पर इंसाफ का इंतज़ार ही रहता है!
और बस मिलती है
तारीख पर तारीख!
-ऑस्कर वाइल्ड, द पिक्चर ऑफ डोराएन ग्रे
-भूमि का असर है या फिर बस नाम का ही शर है।
-दलाल खुद को दलाल कहे तो इसका यह मतलब नहीं है कि दुनिया उसे दलाल से कुछ और मान लेगी!
-आखिर अगर किसी ने देह-जीविकाओं के मोहल्ले में मकान ले लिया और शाम को अपने यहाँ किसी को आने का न्योता दिया तो फिर आने वाला अपने साथ बोतल ही लाएगा भजन करने वाला मंजीरा तो नहीं।
-अब ऐसे में, कौन असली कसूरवार हैं, यह तो यक्ष प्रश्न है?
-आखिर निसंग से ज्यादा संगत का असर होता है।
-ब्लॉग तो पार्किंग लौट है, लिख पर उस पर जमा कर लीजिये. बाकि एक डायरी रखे जो समझ में आये, लिख डाले, संपादन-विवेचना तो बाद की बात है. अरे, संजीदगी को मारिये गोली, बस लिखना शुरू कर दे, जो आपको पसंद हो, सोचिये आप ही विद्वान है और बच्चों के लिए लिख रही है. जब छपने लगेगी तो अपने आप विश्वास हो जायेगा. बाकि ब्लॉग तो है ही, लिखकर उस पर डाल दीजिये. बढ़िया, आप ऑनलाइन दिखी तो सोचा राम-राम कर ली जाएं.
-जीवन है तो ऊपर-नीचे तो होता ही है, सो घबराना कैसा ?
-आज की आपाधापी भरे जीवन में संवाद के आधुनिक साधन स्मार्ट फ़ोन से लेकर फेसबुक और ट्विटर तक ने भूगोल की दूरी को बेशक कम कर दिया है पर आपसी मेल-जोल और शारीरिक अनुपस्थिति को बढ़ा दिया है. वह ननिहाल में बड़ों के पैर छूना और गलबाहियों से आशीर्वाद पाना मानो ब्लैक एंड वाइट ज़माने की देवानंद-दिलीप कुमार की फिल्मों का होना हो गया है. आज के रंगीन दौर में चमकीलापन तो है पर जीवन की चमक और उसका रस मानो कमतर हो गया है. खैर, अपने घर-आँगन के इतिहास को अपनी संतान से साँझा करने और उनमें उसकी समझ पैदा करने का गुरुतर दायित्व हमारा ही है. सो, उस दिशा में यह एक पहल दूसरों के लिए भी दीये का काम करेंगी यही आशा है. दुनिया के चमकदार रोशनी में अपने गांव-खेत-चौबारे का अँधेरा भी दूर हो इसके लिए शहर से उन तक जाने वाले रास्तों की समझ का दिशा-बोध होना जरूरी है.
-इसके होने से ही खेत के दरवाजे के कोने में बनी समाधि पर अगरबत्ती-धूप की उपस्थिति ही चिर निद्रा में सोये पुरखों से नयी पीढ़ी का तार जुड़ेगा. यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि शहर में तो न अब खेत हैं, न समाधि बनाने की परंपरा सो हमारी किस्मत में तो बिजली के शवगृह में राख होकर मैली यमुना में तिरोहित होना बदा है.
-और फिर एक योग्य-मेधावी संतान तो जीवंत प्रमाण है. सो, शंका कैसी.
-पता नहीं हिंदी साहित्य का स्त्रीवादी विमर्श आदमी-औरत को लेकर "आजादी", "अंतर", "अंतर्विरोध" जैसे जुमलों की चौखट से कब बाहर निकलेगा. जब शादी से पहले शारीरिक संबंध, विवाह पूर्व सहजीवन, विवाहेत्तर संबंध का जीवन जीने और उसे ही प्रगतिशील लेखन का मापदंड बनाने वाली महिलाओं को ही साहित्य के शीर्ष पर देखना सचमुच समाज की सोच और उसके साहित्य से संबंध मन को प्रश्नाकुल बना देता है. फिर लगा कि घर में अपनी माँ, बहिन, पत्नी और बेटी को लेकर ऐसा कभी क्यों नहीं लगा, शायद परिवार के कारण.
-विश्वास सबसे बड़ी पूंजी होती है, अपनी भी और औरों की भी. बस होने और न होने में महीन से रेखा ही होती है, विश्वास में वह दिखती नहीं और अविश्वास में उसके सिवाय कुछ और नहीं दिखता.
-कुंडली तो कोई भी बांच सकता है, भाग्य कैसे बांचेगा !
-सिवाए चंद चोट के निशान और ग्लानि के कुछ हासिल नहीं, वहीँ नया रास्ता और जुदा मंजिल इंतज़ार में है कि कोई आएं तो सही जिसे बांहों में ले सकें. तो अब तो संभाले खुद को और दूसरे को उसके लिए छोड़ दे.
''पिछले दस वर्षों से हमारे देश में 2774 नए नगर-उपनगर वजूद में आ गए हैं!''
— (''डाउन टु अर्थ'' अक्टूबर 2014)
-आग तो बराबर के दो पत्थरों के रगड़ने से ही निकलती है, जैसे यज्ञ में लकड़ी-कुशा के माध्यम से अग्नि प्रज्वलित की जाती है।
-दो टके की नौकरी में बच्चों के बचपन का साथ छूट जाता है और जब होश आता है तो बचपन को दोबारा जीने के अनुपम अवसर को गंवाने के अहसास के अलावा कुछ नहीं होता. शायद इसीलिए विलियम वर्ड्सवर्थ ने कहा था कि हर बच्चा, आदमी का अपना ही प्रतिरूप होता है.
-दिनकर की प्रसिद्ध पंक्ति है, समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।
-मन दांए जाना चाहता है तो तन बाएं जाता है.
-फिर भी हम कहते है कि हम जीवन जी रहे हैं जबकि सच होता नहीं है. असल बात तो यह होती है कि जीवन हमको बिता रहा होता है.
जब तक असलियत से हम दो-चार होते हैं, जीवन बीत चुका होता है!
-ज्ञान का आयु और अध्ययन की अपेक्षा अनुभव से संबंध है.
निष्ठा, धैर्य और उम्मीद...
सो मन को मनाये रखे... ऐसे में विश्वास को कायम रखते हुए, खुद को टिकाए रखना ही तो असली चुनौती है. वह बात अलग है कि रात हमेशा लम्बी लगती है और दिन के उजाले थोड़े !
-फेस बुक पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बिना (माँ की) गाली के अपने माँ-पिता के साये में परिवार के साथ उनके ही घर में रह रहे हैं.
-हर रोज़ बिना नागा, बिना किसी डे को मनाने की फूहड़ता से बचते हुए.
-सो उम्मीद कायम रहने के लिए, अंधेरे में दिया-बाती और तेल नहीं चुकना चाहिए.
-प्रकृति के नियम बाँधते हैं
मीठे फल-विष एक डाल
सहज-कुटिल व्यक्ति एक ताल
पीड़ा और गहरे सुख एक जाल।
और वहीं
प्रकृति के नियम
उन्हें विलग भी रखते हैं।
डाल, ताल, जाल से सुर बन गया और अंत में गद्य की गरिमा.
सो अब इस नंगे सच के बाद कुछ बोलने की बात बेमानी है.
(सलमान खान के अंगरक्षक पुलिस कांस्टेबल की फटेहाली में हुई असमय-मौत की दर्दनाक कहानी पढ़ने के बाद)
फिर इस प्यार के क्या मायने?
और अगर यह है तो
फिर केवल यही प्यार क्यों?
तुम्हारी देह का एक हिस्सा
स्याह अंधेरे में था उस पार,
पार्क तक देखने को
सिर्फ एक खिड़की थी
दिन-सारा, बंद ही बीत गया
केवल एक खिड़की थी
जो रात बार जगी-खुली रही
तुम्हारी देह का एक हिस्सा
स्याह अंधेरे में था उस पार,
पार्क तक देखने को
सिर्फ एक खिड़की थी दिन-सारा,
बंद ही बीत गया केवल एक खिड़की थी
जो रात बार जगी-खुली रही
चित्र की अवस्था का ज्ञान तो बनाने वाले के मन और अंगुलियों को पता होगा, दूर से निहारने वाले को तो आकर्षण ही खींचता हैं और काम से बड़ा तो जीवन का कोई आकर्षण नहीं !
हिम्मंत न हार, आएंगी मंजिल आख़िरकार.
कैसी शर्म, कैसा घबराना !
घर में पुस्तके, जीवित देवता है.
कफ़न कोई देता नहीं है, उसे तो जुटाना पड़ता है.
ग्रीनपीस
क्या अरब देशों में भी ग्रीन (हरियाली) पीस (शांति) हैं ?
अगर नहीं तो भारत से सीधे वही जाना चाहिए क्योंकि वहां हरियाली और शांति की सबसे ज्यादा जरुरत है.
-इंसान पहचानने में तो तुम पारखी थे ही अब सलीके-से सटने की बात को भी खूबसूरती से कहने में माहिर हो गए हो. भाई, मैं तो आज से तुम्हारा मुरीद हो गया हूँ.
-सत्य तो ही वास्तविक होता है, उद्घाटित तो असत्य को करना पड़ता है. फिर सत्ता चाहे कैसी भी क्यों न हो उसका मूल चरित्र ही छिपाना होता है, सुभाषचन्द्र बोस से जुडी सूचना का मामला इसका उपयुक्त उदहारण है.
जीवन तो रपटीली राहों से बनकर ही आगे बढ़ता है, लीक से हटकर ही इतिहास बनता है.
राज होगा तो राजा होंगे, राजा होगा तो दरबार, दरबार तो दरबारी, दरबारी तो षड्यंत्र, षड्यंत्र तो युद्ध और युद्ध तो छली, दुत्कारी और दुख तो महिलाएं ही पाएंगी और बचने के लिए पुरुष साका तो स्त्री जौहर करेंगी.
दुष्चक्र का चक्र कहाँ, कैसे रुकेगा, यही सनातन धर्म की खोज है.
-अब तो उनके लिए ही जाना जरुरी है, हम तो बीत ही गए हैं, थोड़ा-थोड़ा उनमे ही जीकर जीने की सार्थकता पाई जा सकती है.
-सही में, मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए हैं, याद दिलाने के लिए शुक्रिया. जीवन की आपाधापी में जरुरी चीजे छूट जाती है और गैर जरुरी चीजे समय बीता देती है.
फिर भी सरक-सरक, जा पंहुचा लकीर-लकीर.
हम तो अंधे हैं सो अनुमान पर ही जीते है पर फिर भी आंख वालों सीे तलाश में रहते हैं.
मन से या मजबूरी से !
यहाँ तो मन के नेह से ज्यादा मजबूरी का ही नाता लगता है
पत्रकारों को नहीं मानेंगे तो छपेंगे कैसे और बाबुओं के बिना मदद मिलेंगी कैसे?-मिर्जा ग़ालिब ने भारतीय काव्य परंपरा में 'गम' को जोड़ा जैसे कभी यूनानियों ने भारतीय नाटकों में दुखांत को जोड़ा था.
अपनी व्यर्थता को पहचान सकना ही जिंदगी का असली सबक है.
जीवन में समय का करीने से इंतज़ार और फिर सफलता मिलने पर समय का सही उपयोग और कायदे से अपनों का सहयोग यही सूत्र वाक्य होना चाहिए .
धैर्य, केवल प्रतीक्षा करने की क्षमता न होकर प्रतीक्षा की घड़ियों में संतुलित व्यवहार को बनाये रखना है. जीवन में मिली एक छोटी सी विफलता का अर्थ असफलता कतई नहीं है. इसका वास्तविक मर्म तो यह है कि आपकी परीक्षा थी और उसमें हतोत्साहित नहीं हुए.
भाषा का संयम और मर्यादा रहे तो सन्देश अधिक सार्थक होगा.
नेपाल भूकंप की त्रासदी को लेकर अभी तक सफ़ेद कबूतर और मोमबत्ती वाले नहीं आएं और न ही स्त्रीवादी विमर्श वाली महिलाएं दिखी हैं.
भोजपुरी-मैथिल का तड़का लगाकर, देस का होने का भ्रम देने वाले उत्तरी बिहार की त्रासदी को शायद देख नहीं पा रहे हैं.
इन सबकी अनुपस्थिति में बौद्धिक चैनल उनके बिना विधवा स्त्री की सूनी मांग-सा लग रहा है.
आखिर हम लोग बहस कैसे करेंगे?-पर जाकर लगा कि आजकल कितना सतही हो गया है, हम सबका ज्ञान ! पता नहीं किस तरफ जाएंगे हम सब. अरे, मैं तो स्वयं ही सीखने में लगा हूं, सीखना तो दोतरफ़ा चीज़ है, तबले पर संगत जैसा, जिसके लिए दो व्यक्ति जरुरी है. ऐसा कुछ नहीं है, जब तक सीखते रहते हैं, तब तक जिन्दा रहते हैं नहीं तो बस बुत रह जाते हैं, बिना आत्मा के.
वो तो तुम थे जिसने उसे संवार दिया
मंगलसूत्र कारक है तो विवाह कारण, अब तो सहजीवन का भी विकल्प है, जब तक जी चाहे रहो नहीं तो दोनों अपने-अपने रास्ते! (२० तमिल महिलाओं के मंगलसूत्र पहनना छोड़ने की घटना पर)
अभी एक पोस्ट पढ़ी तो पता लगा कि सावन के अंधे को सब हरा ही हरा क्यों नज़र आता है, खैर दिल्ली के 'राष्ट्रीय' मीडिया के रतौंदी तो जग जाहिर है.
कल ही बंगलूर में मिले, एक टीवी पत्रकार बता रहे थे कि कैसे एक राष्ट्रीय 'पढ़ा लिखा' चैनल आधारहीन आरोप को लेकर स्टोरी बनाने पर जोर दे रहा था. जिसके लिए उन्होंने साफ़ मना कर दिया और ज्यादा जोर देने पर दिल्ली से ही हवाई स्टोरी करने का सुझाव दिया.
ऐसे में, हरियाली के अंधों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है !
मीडिया आम आदमी की घर में छतरी से झांके तो आबरू खतरे में और जब आम आदमी मीडिया का चरित्र आंके तो तू कौन!
लोकतंत्र का चौथा खम्बा या अंतिम विद्रूपता !
मैं देर करता नहीं, देर हो जाती है...
तालिबान ने बामियान में विश्व भर में बलुआ पत्थर की बुद्ध की सबसे ऊंची मूर्ति को विस्फोटक से नष्ट करने के बाद नौ गायों का वध किया था.
सोच, स्मृति या समझ या कोई पुराना दर्द!
जो रह-रह कर उठता है और पैदा होते हैं नए विवाद.
गोरी जसोदा तो श्याम कैसे सांवला ?
चाहता हूँ किसी के दुख का कारण नहीं बनूं पर अकारण अपनों के ही दुख का निमित्त बन जाता हूँ...
हिंदी के कितने लिखाड़, अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते हैं!
आदतन या कभी अटपटा लगा ही नहीं.
जब आज में उम्मीद लायक कुछ न लगे तो कल की ही उम्मीद बचती है...
सफलता की कहानी तो सिर्फ सन्देश देती है पर असफलता की कहानी, सफलता के सबक देती है.
अनुशासन के लिए उठाया गया कष्ट, पश्चाताप की पीड़ा से लाख गुना बेहतर है.
हम बहुधा दूसरों के साथ अतिशय सदाशयता बरतने, कुछ हद तक दिखाने के फेर में, के चक्कर में जाने-अनजाने अपनों की अनदेखी कर देते हैं. जिसका नतीजा अपनों से बिछुड़ने, अलग होने या छिटक जाने के रूप में सामने आता है. और हमें जब तक इस बात का अहसास होता है तो समय अपनी गति पकड़ चुका होता है, हम कही पीछे रह जाते है.
अकेले अपनी जिंदगी में.
दिल तो होते ही हैं, टूटने के लिए. अगर टूटा दिल संभल भी जाएं तो भी वह पुराने वाला नहीं होता है क्योंकि खलिश तो रह ही जाती है.
परीक्षा, परिस्थिति की नहीं व्यक्ति की जीवटता की होती है...
विशेषण की आवश्यकता किसे पड़ती है ?
कुछ समझे तो बताये !
३५ वर्षों में पहली बार दिल्ली में 'दिल्ली वाला न होने' का अहसास हुआ.
अभी-अभी मोबाइल फ़ोन पर एक चुनावी मेसेज आया, जिसे सुनकर लगा कि देश की राजधानी में केवल बिहारी-पुरबिया ही वोटर रहते हैं!
बाकि की तो दरकार ही नहीं है, न आदमी की न उनके वोट की.
धर्म, भाषा के नाम पर ही खंडित होते समाज में अब इलाके-प्रदेश के नाम पर भेद.
न जाने कैसा समाज रचेंगे अब देश के कर्णधार !
दूसरों का हल्कापन झलक जाता है, अपनी गुरु गंभीरता में
आखिर मीडिया के मठाधीश अपने संस्थानों की सत्ता से लड़ने का साहस क्यों नहीं जुटा पाते?
अपने यहाँ तो पत्रकारों के वेतन आयोग पर चुप्पी साध लेते हैं और राजनीति में भगीरथ बनने का आव्हान करते हैं!
मतबल
हम्माम में कोई सिर्फ अकेला नहीं है.
छोटा सपना और बड़ा लक्ष्य ही मार्ग प्रशस्त करते हैं.
पहले को स्त्रोत ने ज्ञानी बनाया है और दूसरे को ट्रांसस्क्रिप्ट ने.
अब पाकिस्तान से गुजरात कोई नयी जियारत का शुरू होने के ब्रेकिंग न्यूज़ ही देखनी बची है.
वैसे इंडियन एक्सप्रेस ही था, जिसने खबर ब्रेक की थी कि जनरल वी.के. सिंह के समय में भारतीय सेना की टुकड़ी 'दिल्ली' की ओर रवाना हो गयी थी.
पुरानी कहावत है, जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि. अब इसमें पत्रकार को भी सम्मिलित कर लेना चाहिए वैसे भी अब बिना पत्रकार यानि अख़बार के साहित्यकार को भी कौन जान रहा है ?
तभी तो साहित्यकार को भी पत्रकार को 'बुद्धिजीवी' की जमात में शामिल करना पड़ा है.
प्रगति का आकाशवाणी चैनल
पता लगा है कि बिहार के गाँवों में भी 'क्रिसमस' बड़ी धूम धाम से मनाया गया और देशप्रेमियों ने अपने बच्चों को 'लाल' टोपा पहनाया.
बताने वालों का कहना है, यह खबर एकदम पक्की है क्योंकि इस चैनल में 'गिरजे' का पैसा है, लाल की रिश्तेदारी है और वाम का आभारी है.
साला, यह "पॉलिटिक्स" तो हिंदी को मार रही है!
बड़े बौद्धिक पत्रकारों के लिए "अखबारों और टीवी चैनलों" में 'आम' श्रमजीवी पत्रकारों को वेज बोर्ड के अनुसार वेतन मिलने का मुद्दा 'बहस' और 'प्राइम टाइम' लायक क्यों नहीं लगता ! दिखता नहीं या देखना नहीं चाहते, रिसर्च की कमी है या "विभीषण" ग्रंथि से ग्रसित मानसिकता?
दिल्ली की गलियों में.....
एक दिल था जो धड़कना ही भूल गया
नहीं पता था दिल के कोने में फांस कोई बस गई,
मैं ही अकेला था सो खुद को भूल गया
बोलने की बजाए करना उचित, बखान की बजाए दृश्यमान परिणाम सही, वायदे की बजाए साबित करना बेहतर.
जीवन में कई बार की गयी गलतियाँ, सही मंजिल तक पहुंचा देती है
जिंदगी बीत जाती है, मौत के मुहाने जागता है आदमी.
उसने चाहने का आभास देते हुए भुला दिया, एक वह था कि चाहकर भी भूला नहीं सका ...
-किसी के अतीत को खुद उसकी मुँहजुबानी सुनना दर्दनाक भी हो सकता है, ऐसा सोचा नहीं था.
-आपके कुछ कर पाने के लगन को दुनिया पहचान लेती है, आख़िरकार.
(मेरे प्रस्तावित उपन्यास की पहली पंक्ति)
-मौत सबको बराबरी पर ला देती है।
-मन के संघर्ष से बाहर के संघर्ष ज्यादा भारी हैं।
-प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं होती वैसे कई बार हम अपनी ही राय को महत्व नहीं देते। जैसे हमारी संतान हमारे लिए बच्चा ही रहती है चाहे वह विवाह योग्य हो जाएँ, वह तो बाहर वाले ही आपको ध्यान दिलाते है कि अब उनकी शादी की उम्र हो गयी है।
-महात्मा गांधी को जिंदा तो उनके आलोचकों ने ही रखा है, जबकि उनके नाम पर सत्ता-सुख भोगने वाले ही वास्तविक गांधी-हंता है। शरीर से उनका देहांत तो एक दिन ही हुआ था पर उनके नाम पर दुकान चलाने वाले तो रोज़ उनका जनाजा निकालते है, अपने कथित स्वार्थ और लालच के कारण। गांधी इसलिए नहीं बड़े थे कि उन्होंने क्या कहा, क्या किया! वे इसलिए बड़े थे और आज भी उतने प्रासंगिक है क्योंकि उन्होंने जो कहा, किया उसे जिया भी। जबकि आज के सार्वजनिक जीवन में मनसा-वाचा-कर्मणा के भाव का ही अभाव है। सो, अभाव से महाभाव कैसे जागृत हो सकता है ?
-गुलाब के आगे भी पतझर को कोई रोक नहीं सकता...चाहे-अनचाहे!
-जो काम खुद न कर पाओ तो जो आपसे बेहतर करें, उसे सहयोग देने की ख़ुशी अलग है।
-अकादमिक महाभारत में विजय प्राप्त करने के लिए, मोर्चे इतने हैं कि लड़ने वाले कम है।
-सिगरेट, मांस और शराब से दूसरों को जलाने के बजाए अपने ज्ञान से मजबूर कर दो। नाभि से ऊपर उठो बाकी नीचे के लिए तो दुनिया पड़ी है।
-जीवन में निजता के स्तर पर कौन कितने पानी में हैं, वह स्वयं अपना बेहतर न्यायधीश है। सत्ता के आगे कुलपति, पत्रकार, कलाकार सहित लेखक सभी को शीश नवाते देखा सो शल्य भाव से अधिक कृष्ण भाव से जीवन प्रेरित हो यही अभीष्ट होना चाहिए।
-जीवन भर सत्ता का रस छकने के बाद भी दूसरों को छकाने से बाज़ नहीं आते, सेवानिवृत नौकर हो या शाह !
-जीवन कम हो रहा है, अनुभव भले ही बढ़ रहा हो!
-जीवन में चक्रव्यूह सभी के है, पर पहला द्वार तोड़ने के बाद ही आगे का रास्ता तय होता है।
-समय-व्यक्ति-अर्थ भी अपनी गति के साथ अपनी युति बदल लेते हैं।
="मेरे प्रिय बेटे, अपने जीवन में केवल एक बार प्यार करने वाले व्यक्ति, वास्तव में खोखले लोग होते हैं। जिसे अपनी वफादारी और उनकी निष्ठा कहते हैं, मैं उसे परंपरा की काहिली या कल्पना की कमी कहता हूं। भावनात्मक जीवन के लिए निष्ठा, प्रज्ञावान जीवन के लिए निरंतरता के समान है-स्पष्ट रूप से असफलताओं की स्वीकारोक्ति। निष्ठा! मैं किसी दिन इसका विश्लेषण करूंगा। इसके भीतर संपत्ति के प्रति आसक्ति है। ऐसी अनेक वस्तुएं हैं, जिन्हें हम छोड़ सकते हैं, अगर हमें इस बात का डर न हो कि दूसरे उन वस्तुओं को ले सकते हैं। लेकिन मैं आपको रोकना नहीं चाहता। अपनी कहानी के साथ आगे बढ़ो। "
-मुझे बचपन से ही इतिहास पढ़ने की ललक रही है और आज भी मैं अपने को इसका विद्यार्थी ही मानता हूँ, लेखक नहीं। इधर-उधर से पढ़कर, मैं तो बस भानुमती का कुनबा जोड़ देता हूँ। लिखते तो दूसरे हैं, जो मुझ जैसों का ज्ञान-अभिवर्धन हो जाता है तथा फिर नए सिरे से और पढ़ने की चुनौती मिलती है।
-जब घड़ा पानी से पूरा भरा हो, तो उसे बांटना ही बुद्धिमानी है।
-निज अभियक्ति में समूहिक पीड़ा को स्वर देना असाधारण बात है।
-अरे गिरमिटिया, साहेब कब से हो गए बाबू !
-भीड़ में अकेला आदमी, फिर भी अंगार-सा राख में चमकता आदमी।
-लगता है जीवन "फ़ाइल-फीते" में ही बीत जाएंगा! आएं थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास.
अच्छी संगत में कोई सफर लंबा नहीं है.
-इस बार एक पार्टी में टिकट बॅटवारे ने राजनीति की चौसर के सारे खाने असली रंग मैं दिखा दिए.
-हैरानी की बात है कि लोग खुद को तो बदलने को तैयार नहीं और दूसरों से बदलाव की उम्मीद रखते हैं। जब तक खुद नकारात्मक सोच और एकलखोरी की बुरी आदत से बाहर नहीं आएंगे तब तक भगवान भी इनका कुछ नहीं कर सकता।
-प्रयास करने से ही परिणाम फलीभूत होते हैं।
-कहीं पहुँचकर भी हम वहीं अटक जाते हैं, जहां से चले होते हैं। कहीं से निकालकर भी हम वहाँ नहीं पहुँच पाते, जहां पहुँच चुके होते हैं।
-दूध से लेकर मकान के भाड़े के सच से कहाँ तक भागा जा सकता है. यह तो नश्तर में भाले की तरह चुभते हैं.
-चोरी-छिपे पीछे से वार करने वाला, सामने आकर खुले में लड़ने वाले से हज़ार गुना अधिक खतरनाक-जानलेवा होता है।
-तू धरती, मैं फाग रे...
-दोगलों के शब्द ही नहीं चेहरे भी जुदा होते हैं, बोले का मोल नहीं होता तो तस्वीर बदरंग होती है।
-शौक से ही तो दुश्मन डरता है !
-बड़का बोल बोलने वालों के मन से आखिर बामन-बनिया-ठाकुर-भूमिहार की बात जाती क्यों नहीं? बाकी भी कोई पीछे हो ऐसा नहीं है !
-आखिर हम सब भी तो पिता का ही विस्तार है।
-लेखक का अंतिम लक्ष्य पाठक ही होता है, सो उसकी बात अंतिम सत्य. सर माथे !
-भूखे को भोजन और भर-पेट को स्वाद की तलाश रहती है, सो एक भूखे को तो अपनी भूख मिटाने के सिवा किसकी याद रहेगी! ऐसे में उससे भोजन के मेनू सहित जुड़ी विषय सामग्री पढ़ने की उम्मीद बेमानी है।
-हम जब तक जिंदा होते हैं, झूठ को जीते हैं और सच तो मरना ही होता है।
-सहना मरना है।
-राजनीतिक नेताओं की प्रदीक्षणा करके व्यवस्था में मक्खन-मलाई जीमने वाले और पद पर काबिज होने के बाद यानि मतलब निकल जाने पर उनमें ही कमियाँ बताने लग जाते हैं। यह कुछ ऐसा ही है कि भूख से बिलबिला रहा श्वान रोटी मिलने पर, रोटी डालने वाले पर ही भौकने लग जाता है।
-ईर्ष्या की भावना, किसी के मन में भी हो प्रेम को जला देती है...
-हमारा पढ़ा लिखा तबका अपने पलायन के लिए बेहतर शब्द गढ़ लेता है.
-असहमति के लिए भी सहमत होना जरुरी है. नहीं तो किताब वाले पंथों में तो असहमति से सहमत होने का भी विकल्प नहीं है, बस है तो तख़्त या तख्ता.
- प्रिय व्यक्तियों का शुभ तो अपना भी शुभ है।
-जिंदगी में खाली जेब के कारण दिल के टूटने से बड़ी विफलता कुछ नहीं...
-तुम्हें कुछ व्यक्ति केवल इस कारण से अस्वीकृत कर देंगे क्योंकि तुम्हारी उपस्थिति ही उन्हें अपने आलोचना लगती है। ऐसे में, अपने काम पर चुपचाप-लगातार लगे रहो।
-जब स्कूल में कोर्स में किताब पढ़ते थे तो रस नहीं आता था, अब नीरस जिंदगी से बचने के लिए किताब में रस खोजते हैं.
-कृतज्ञता का भाव ही जीवन की जड़ों से जोड़े रखता है और उसकी ऊष्मा ही नयी हरीतिमा का मार्ग प्रशस्त करती है।
-जीवन गुरू है और कठिनाईयां पाठ।
-रात भर चलता रहा नींद की सड़क पर सुबह के सूरज तक पहुँचने के लिए...
-क्षणभंगुरता सुख की हो या दुख की, अस्थायी ही हैं, सो कैसा बौराना और क्या घबराना !
-आने वाले समय का रास्ता, बीते हुये समय से होकर ही निकलता है।
-कुछ तो लोग कहेंगे !
-दुनिया में कभी भी समस्या वजूद से नहीं बल्कि सोच से होती है।
-कई मौकों पर चुप्पी ही मनुष्य का सबसे कारगर जवाब होती है।
-असली तो थोड़ी भी पी, नशा पूरा हुआ जिंदगी का।
-मराठे भी स्वधर्म से च्युत व्यक्तियों को अपने में आत्मसात करने में सफल न हुए। शिवाजी ने जरूर परिस्थिति वश मुस्लिम बने बंधुओं को वापिस परावर्तित किया पर अपहरण स्त्री-किशोरियों और बच्चियों को अपनी मूल धारा में समाहित नहीं कर सकें।
-बोलने और चुप्पी का तनाव ही कलाकारों को जिलाए रखता है...
-जड़ पर प्रहार करो, शाखाएं स्वयं ढह जाएंगी।
-प्यार को कहना ही क्यों जरुरी होता है ?
-मन-प्रीत ही पीड़ा देते हैं।
-अरे, ऐसा कुछ नहीं, सरकारी नौकरी की बोरियत से बचने के लिए सहारा है ब्लॉग. वह कहते है न कि एक बार पत्रकारिता कर ली तो उसका वायरस मरता नहीं. सो, सरकारी नौकरी के पहले का रोग के पाला हुआ है. जब तक पढ़ो नहीं नीद नहीं आती और लिखो नहीं तो चैन नहीं मिलता. बस यही एक हुनर है सो लोहे को रोज़ पीटता हूं, ताकि शब्दों से स्नेह-मित्रता बनी रही.
-एक दिन जाए, शहर से भी दोस्ती हो जाएगी और रास्ते भी खुल जाएंगे, मंजिल तक पहुँचने के. दिशा तय हो तो फिर मंजिल तो टुकड़ों में ही हासिल होती है. अप्पो दीपो भव, अपना दीपक स्वयं बने, बुद्ध का प्रसिद्ध वाक्य है. फिर भी मुझ से को अपेक्षा होगी, मैं प्रस्तुत हूँ.
-प्रभु तुम चन्दन हम पानी, ईश्वर के अंश हम सभी में है, बस उसे पहचाने की देर है, जीवन सहज-स्फूर्तिदायक-सकारात्मक लगने लगता है.सो, प्रभु इच्छा मानकर श्री गणेश कर डालिए. सरस्वती मुश्किल से कृपा करती है..
-मन कुलांचें मारता है तो बुद्धि उसे नियंत्रित करती है अगर बुद्धि ही बौरा गयी तो फिर तो क्या कहने. मैं हूँ, सो सोचता हूँ और गर सोचता हूँ तो मैं हूँ.
-मधुर मुस्कान, लगता है बेहतर मुस्कुराने का मुकाबला है. सो, दोनों अव्वल हैं.
-कजरी-काल, पता नहीं क्या करेगा धमाल!
-अब राधे माँ को ही ले, नंगे से तो भगवान भी डरता है और भगवान से डरे भक्त, आसरा खोजते हैं, सो ऐसे लोग उनके डर का फायदा उठाते हैं...
-अच्छे दोस्तों का कुछ तो असर होगा, दो बराबर के पत्थर से ही आग निकलती है.
-आग अपने भीतर ही जला ले तो काफी है, दुनिया तो दूसरे से बदले की आग में पहले से ही जल रही है. उसे तो जल की जरुरत है, जलने से बचने के लिए.
-अब तो गुस्से को खुद ही अपने अन्दर पीने और उसका कलम से भरपूर जवाब ही बेहतर है.
-माँ की पावन स्मृति को सादर नमन. बाकि माँ जाती कहाँ है, वह तो हमारे मन-तन में प्राणपण जीवित होती है. बस जरुरत होती है तो उसके पुनीत स्मरण बोध की.
-मन से भीरु और तन से कमजोर व्यक्ति ही दूसरों खासकर अपने मातहतों को धमकाकर अपनी कुंठा निकालता है.
-टुकड़ा-टुकड़ा जिंदगी जुड़कर ही सार्थक होती है, नहीं तो बिखर जाती है.
-स्वर्ग में मंत्री से बेहतर नर्क में राजा रहना है, कम से कम प्रोटोकाल तो राजा का मिलेगा.
-जिंदगी में कोशिश की कशिश को कम नहीं होने देना चाहिए.
-दुख लिखने वाली गाड़ी का एक्स्सिलैटर है, जो उसकी रफ़्तार को बढ़ा देता है, सुख तो सेफ ड्राइविंग है तो सुरक्षित पहुंचने के फेर में समान दूरी को बनाये रखता है.
-आजकल वैसे भी मंडी में मंदी है....
-मांजना क्या है, जीवन ही मथ रहा है, जैसे-जैसे मथेगा, वैसे वैसे कुछ निकलेगा, थोड़ा जहर और थोड़ा अमृत.
-लिखना बना रहना चाहिए, स्मृतियों के वातायन से ताकि दूसरों के मन की बंद खिड़कियाँ भी धड़ाम से खुल जाए, बहुत यादें, दर्द, ख़ुशी, अनचाही तमन्नाएं और भूली-बिसरी ख्वाहिशें निकल आएंगी ...
-पिछली पीढ़ी से हमारी अगली पीढ़ी का नाता ही टूट गया है. हमारा अपना बचपन ननिहाल की ड्योडी से लेकर दादा के घर की चौखट तक पसरा हुआ, आज भी हमारी आँखों के सामने से गुज़र जाता है. यह एक मूक फिल्म की तरह है, जिसमे दृश्य तो हैं पर आवाज़ गायब है.
-जिंदगी में मजबूरी को अपनी खूबी में बदलने का हुनर ही मंजिल तक पहुंचता है.
-झूठ झर जाता है, पेड़ से सूखे पत्ते की तरह...
-प्यार, घर की चार-दिवारी में ही रहे तो बेहतर अगर मनी-प्लांट की तरह घर की दिवार-दहलीज़ को पार कर जाएं तो सिवाय रुसवाई-बदनामी-अकेलेपन के कुछ नहीं मिलता. हमारी विषय वासना का प्रतीक है, मनी-प्लांट. घर से ज्यादा बाहर झाँकने की सनक.
-मां तो मां है, उस जैसा कोई नहीं. संतान की पहली गुरु. मांएं, शिक्षित होती है, साक्षर बेशक न हो. जीवन से बड़ा कोई प्रणामपत्र नहीं.
-हार की बजाए जीत की बात करना ही बेहतर है क्योंकि नकारात्मक बातें उल्टा माहौल ही बनाती है. आखिर आग तो चकमक के दो बराबर के पत्थरों को रगड़ने से ही पैदा होती है.
-अगले पल का भरोसा नहीं होता सो उसमें जीने के हसरत नहीं रखनी चाहिए। ऐसे में मौजूदा पल में ही जीना बेहतर होता है।
-अगर जीवन में प्रेम नहीं हो तो क्या भला कुंडली में कैसे मिलेगा ?
-पाटलिपुत्र की लड़ाई में बिहारी बाबू 'शल्य' की भूमिका में है, लगता है कौरवों ने कुछ ज्यादा ही आवभगत कर दी है.
-वक़्त निकल जाता है, न चिट्टी आती है न सन्देश और न वह. रह जाता है बस इंतज़ार याद भर करने का.
-जीवन में आगे बढ़ने के बाद चाहकर भी पीछे लौटना नहीं होता. फिर चाहे वह बचपन हो या यादों का घर बस चाहना रह जाती है जो चिता के साथ ही जलती है.
-हम अपने छोटे से जीवन में न जाने क्यों बड़े से अभिमान को छोड़ नहीं पाते हैं और जब सांसे थोड़ी सी रह जाती है तो फिर पछताते हैं.
-किसी का हरदर्द बने बिना 'दर्द' समझ नहीं आता है।
-आज दुख है, कल सुख था. तो है, था हो जाता है और था है बन जाता है. सो, घबराना कैसा ! समय परिवर्तनशील है सो तुम क्यों जड़ होना चाहती हो ? व्यामोह से निकलो, जो हो गया बीत गया. सो काहे परेशान होना, आगे-बढकर पीछे को मुड़कर मत देखो!
-समय सभी को स्थिर कर देता है, जवानी में उतावलापन स्वाभाविक है.
-आज बेटी के साथ सेल्फी वाला समाज से पूछना लाजमी बनता है कि आखिर बेटियों की गलतियाँ माफी के योग्य क्यों नहीं हो पाती हैं?
-आरंभ के बिना अंत कैसा ?
-चुपचाप अपने काम में लगे रहना ही दुनिया के शोर का सबसे अच्छा जवाब है.
-वैसे बोलना ही कौन-सा जरुरी है? सर्वोतम तो मौन है !
-लिखना भी तपस्या की तरह है, अगर छोटी-सी चीज़ का भी व्यवधान आ गया तो मानो सब कुछ स्थगित. विचार भी इत्र की तरह है, अगर उड़ गया तो खुशबू तो फैला देंगा पर अगर डिब्बी में बंद कर दिया तो आगे भी काम देगा.
-तंबाकू-खैनी खाने वाले, योग की खूबी तुम क्या जानो बाबू!
-प्यार टूटता है तो कोई पैमाना नहीं होता, हाथ छूटता है तो कोई पास नहीं होता.
-एकाकीपन ही सबसे भरोसेमंद साथी है, जो कभी धोखा नहीं देता.
-प्यार लीक पर नहीं चलता, वह तो अपना रास्ता खुद ही बनाता है, सो नक्शे का क्या काम ?
-कितने गांव उजड़ कर नक़्शे से मिट गए, इसका कोई हिसाब नहीं.
-जिंदगी मे शब्दों के मायने व्याकरण से कहीं जुदा होते हैं।
-मैंने तो प्राथमिकता को ही रेखांकित किया है, बाकि जैसे आदिवासियों के विस्थापन की पीड़ा है वैसे ही किसी को मंदिर टूटने की. कुछ को मस्जिद टूटने की भी!आँखों से हर रंग को देखने का अभ्यास होना चाहिए न कि रतौंदी रोग से ग्रसित होना चाहिए.
-सुन्दरता और बुद्धि का मणिकांचन योग दुर्लभ ही होता है.
-हम विद्वान नहीं है, तो उनसे जुड़ जाओ कुछ असर स्वयं पर भी होगा. स्वाभाविक रूप से सकारात्मक.
-हमारे यहाँ शब्द को ब्रह्म इसीलिए कहा गया है, यह हम पर है कि हम भाषा-संवाद की शक्ति जगाते हैं या बस यूँ ही उसे निरर्थक कर देते हैं. फिजिक्स में कहा भी गया है कि ध्वनि नष्ट नहीं होती और वह ब्रह्माण्ड में विचरती है.
-जो जितना अपना आँचल पसार ले, झोली तो झुक कर ही समेटनी होती है, अर्जुन ने समेटी तो गुरु से भी दो कदम आगे बढ़ गया और अश्वथामा नहीं झुक पाया तो आज भी श्रापित विचर रहा है. ज्ञान अर्जन की भी पात्रता अर्जित करनी पड़ती है, ब्राह्मणों ने विद्या को साधा सो श्रेष्ठ हुए, त्यागा तो आज सबके सामने हैं.
-हा, नौकरी भी गुलामी है, जैसे मर्जी कर लो।सो उसमे मजा लेना ही ठीक है। बाकी हरि इच्छा !
-अपना मन सही हो, तो सही लोग मिलते हैं और सही होता है, बाकि से प्रभावित न होना चाहिए और न अब होता हूँ.
-घर तो नर से नहीं नारायणी से ही चलता है,
-कविता तो भावावेग में ही लिखी जाती है, सोचकर तो गद्यात्मक ही लिखना होता है.
-अब तो आयु ही घट रही है, अनुभव तो दिन प्रतिदिन युवा हो रहा है.
-यही तीन चरण है, सूचना जुटाने, एकत्रित करने और उसे स्वरुप प्रदान करने के. फिर तो बस लिखना ही है.
-हाँ, विषय के अंतिंम रूप से तय होना जरुरी है, आखिर कील पर ही तो लट्टू घूमेगा, रस्सी और घुमाने वाला तो बाद की बात है.
-अरे, अगर हम जीवन से जुड़े है तो बोले या लिखे उसमें प्राण तत्व होगा जो किसी को भी प्रभावित करेंगा नहीं तो बेमानी है शब्द बिना अनुभव के. कहने से ज्यादा करना और करने से ज्यादा उसे जीना ही चुनौती है नहीं तो हर कोई गाँधी न बन जाए.
-ज्ञान तो अपार है, हम जितना अपनी अंजलि में ले सके, वह हमारी सामर्थ्य भी है और सीमा भी.
-आज तो तुमने गुलज़ार-नुमा लिखा है, बढ़िया. इसे बनाये रखो. जल्द ही संदूक साफ भी हो जाएगा और स्मृति को भी सहज लेगा.
-लिखना भी तपस्या की तरह है, अगर छोटी-सी चीज़ का भी व्यवधान आ गया तो मानो सब कुछ स्थगित. विचार भी इत्र की तरह है, अगर उड़ गया तो खुशबू तो फैला देंगा पर अगर डिब्बी में बंद कर दिया तो आगे भी कम देगा.
- जब विचार आये उतर लो क्योंकि अगर समय निकल गया तो भूल ही जाओंगे.
-रोज़ लोटे को मांजने से अभ्यास भी बना रहेगा और चमक भी.
-अनुभव ले लिए तो उसका लिपिबद्ध होना मुश्किल नहीं है पर अकस्मात आये विचार को तो फौरन लिखना ही अंतिम उपाय हैं. सो क्षण को कैद करना भी जरुरी है
-मन को भाने की ही माया है, बाकि तो भ्रम है.
-प्रेम का प्रस्टुफन, स्वयमेव सबकुछ कर देता है. बीज फूटता है तो फल भी देता है, सो समय की प्रतीक्षा कीजिए.
-मुझे भी बहुत कुछ 'सुनना' है, तुमसे !
-घर में बेटियां कब बड़ी हो जाती है, पता ही नहीं चलता, मानो कल कि ही बात हो.-वफा का चलन कहाँ रहा अब, सो ऐसा ही होता है अब।
-श्रेष्ठता, काल-समय-स्थिति और सबसे बढ़कर उसके परिणाम से मापी जाती है।
-कई बार शीशा, चेहरे की जगह चरित्र दिखा देता है.
-भारत का इतिहास भी पश्चिम के उपकरणों से खोजना पड़ रहा है, यहाँ तो बस बकचोदी हो रही है, साहित्य के नाम पर मार्क्स-मदिरा और अब उत्तर -आधुनिकता. आधुनिक तो हुए नहीं. नथ उतारी नहीं और बाप बन गए, वाह ! ईसा मसीह की औलाद है, सो बिना बाप ही पैदा हो गए.
-रात के रतजगों की अपनी राम-कहानी है.
-किसी ने कहा है कि मन के गुबार को किसी के साथ साँझा कर लेना चाहिए.
-काम पूरा होने के खुशी सबसे-जुदा होती है, सब सुखों से अलग जैसे बारिश के बाद अचानक बादलों से निकली धूप.
-सपने का स्पर्श, खुली आँखों से झूठ हो जाता है...
-हम कुछ संबंधों को इच्छा होने पर भी नहीं बदल पाते और कुछ संबंध हमें न चाहते हुए भी बदल देते हैं.
-आग तो बराबर के दो पत्थरों के रगड़ने से ही निकलती है, जैसे यज्ञ में लकड़ी-कुशा के माध्यम से अग्नि प्रज्वलित की जाती है।
-बूंद-बूंद से ही गागर भरता है। अपनी यत्र-तत्र की गयी टिप्पणियों को भी एक स्थान पर संग्रहीत करके रखो। आगे क्या पता काम ही आ जाये। मैं तो अपने ब्लॉग में ड्राफ्ट में जोड़ लेता हूँ, यहाँ तक की यह वार्तालाप भी, जितना काम कर लगता है।
-विचार तो अनायास ही निकलते है, सोच कर तो हम बस अपने पूर्वाग्रह ही परोसते हैं ।
-सही कहा, एक किताब वाले महजब के उलट कोई शंकराचार्य, आपको अहिन्दू नहीं घोषित कर सकता।
- बेघर-बेवतनी, किसी भी अति तक ले जाती है।
-मैं तो बस पानी के किनारे से ही पत्थर मारने की कोशिश करता हूँ, पत्थर का नसीब, पानी की सतह पर जितने कुलांचे भर ले।
-देश में आज योग का आतंक है और आतंक का योग है.
-लाख टके का सवाल है कि दूसरों के घर को तो बसा देंगे पर अपने घर का बियाबान कैसे दूर होगा ?
-योग का धर्म स्वस्थ जीवन देना है, आतंक का धर्म जीवन लेना है, अब स्वयं तय करें कि आप किस ओर हैं.
-अहिंदू होने पर भी आप सवाल पूछ सकते हो पर आवाज़ उठाने पर तस्लीमा को तो बेवतन ही होना पड़ा!
-संबंध समय के नहीं, विश्वास के आधार पर जीवित रहते हैंl
-एक का प्रगतिशीलता के नाम पर दोगलापन तो दूसरे का जान की सलामती के लिए मौन !
-जीवन में अपनी मर्जी कहाँ चलती है ?
-यहां तो कोख को ही कब्र बना दिया जाता है, बाहर आने का मौका ही नहीं मिलता.
-जब तक सीखते रहते हैं, तब तक जिन्दा रहते हैं नहीं तो बस बुत रह जाते हैं, बिना आत्मा के
-मुझे हमेशा से पता था, मैं आखिरकार यही रास्ता चुनूँगा। पर कल तक यह नहीं पता था कि आज ही मेरा आखिरी दिन होगा।
-जीवन में कुछ व्यक्ति अपने भाग्य की प्रबलता के कारण सफल होते हैं तो कुछ अपनी जिजीविषा से सफलता प्राप्त करते हैं।
-मैं कभी हारता नहीं...मैं जीतता हूँ या फिर मैं सीखता हूँ।
-बचपन की ही कहानी है, जवानी तो कपूर है जो उड़ जानी है और बुढ़ापा ख़त्म न होने वाली जिंदगानी है.
-नदी-स्त्री समानधर्मा हैं, दोनों अपने आसपास जीवन बसाती चलती है. नदी किनारों को स्पंदित करती है हरियाली से तो स्त्री घर-परिवार-पुरुष को पूर्णता प्रदान करती हैं. तिस पर पुरुष पहाड़ की तरह खड़ा रहता है, अकेले पत्थर बनकर अपने उजाड़-औघड़ वेश में परिवेश में !
-जिंदगी में अक्सर भरोसा ही मौत का कारण बनता है !
-शब्दों में हथियारों से ज्यादा ताकत होती है.
-विकल्प के अभाव में विरोध अपनी धार खो देता है.
-जाति का कीड़ा तो सब में है बस बाकियों को बिहार में भी कुलबुलाता दिखता है...
-समय के साथ जमता दही है, दूध तो फट जाता है. जमे दही की तरह ज्यादा इंतज़ार दोनों का मजा-बेमजा कर देता है.
-जातीय अस्मिता देश से जुड़ी है जबकि जातिगत सोच दिनकर को बिहार से बाहर बिहारी और बिहार में भूमिहार तक सीमित कर देती है! यही जातिगत दुराग्रह का काला पक्ष है.
-बेटा बड़ा हो रहा है और मां का संबल बन रहा है, इससे बेहतर बात क्या हो सकती है. अब बेटा गर्मियों के शिविर में अकेले कमरा बन्द करके खुद तैयार होकर जाने लगा है. जबकि दो दिन पहले तक स्कूल के लिए उसे तैयार करना पड़ता था. बढ़ते हुए बेटों को देखना भी एक अनिर्वचनीय सुख है.
-भाव को कुभाव नहीं बनने देना चाहिए! नहीं तो उसका दुष्प्रभाव समूचे व्यक्तित्व पर पड़ता है. नहीं तो धीरे-धीरे वह स्वभाव बन जाता है.
-बीती हुई यादों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ना ही जिंदगी है.
-बाज़ार की अंधी दौड़ में स्कूल-अस्पताल के जिंदगी की पटरी से उतरने का खामियाजा पूरा समाज संवेदनहीनता और मूल्यों के बेमानी होने के रूप में चुका रहा है. जहां शिक्षक और डॉक्टर का वजूद भी टकसाल के खोटे-सिक्के से ज्यादा कुछ नहीं रह गया है.
-हमें गर्व है. कम से कम हम से कोई तो जगा है वर्ना हम सब तो जग कर भी सोने का प्रहसन कर रहे हैं. ईश्वर आपको बल और संबल दोनों प्रदान करें, यही करबद्ध प्रार्थना है.
-असली गुरु तो जीवन ही है और उसकी शिक्षा सर्वोपरि है.
-पत्रकारिता पढऩे लायक नहीं होती और साहित्य पढ़ा नहीं जाता।
-आज के प्रचार के दौर में शहरी-समाज खासकर मध्यम वर्ग की रूचि काम करने से अधिक यकीन उसके प्रचार और उसके विज्ञापन में हैं।-कभी कभी मृत्यु, मुक्त भी करती है.
-जो भी काम करो, दिल से करो। काम अपने आप सही होगा।
-आज शोर-गुल में मन से मानसरोवर (तिब्बत राष्ट्र) का प्रश्न कहीं पीछे छूट-सा गया लगता है!
-सरकार का एक साल!
-संसार में जब हम आंखों से देखकर अपनी आंखे मोड़ लेते हैं तो कितना खोखला महसूस करते हैं !
-लेखकों से उनके परिवार आख़िरकार निराश ही हो जाते हैं।
-सोशल मीडिया का आंदोलन भी मीडिया की ही प्रतिछाया है. जैसे हर मीडिया ग्रुप यानि मठ की 'रंग दृष्टि' है जिसके माध्यम से ही वह मीडिया विशेष अपने दर्शको/पाठकों को चुनिन्दा ढंग से सूचना देता है. जैसे एक प्रगतिशीलता का परचम थामने का दावा करने वाले चैनल लाल रंग की लाली में इतना डूबा हुआ है कि उसे लाल रंग में कभी कुछ गलत लगता ही नहीं. वैसे भी नीरा राडिया प्रकरण के बाद कौन-सी पत्रकारिता बची है, लाख ट्के का सवाल यही है.
-सबकी जिंदगी में उदासी का एक दौर आता है, जैसे आता है वैसे चला भी जाता है.
-अपना तो जन्म किसान परिवार में हुआ वहीँ ननिहाल के कारण स्वभाव में लोहापन आया. गलती से जीवनयापन के लिए शब्दों का सिलबट्टा घिसना बदा था. उतना ही बस होता तो ठीक रहता पर विधि का विधान सत्ता के गलियारे तक ले आया. अब यहाँ तो कुल जमा निचोड़ का ही काम है, जो जैसे जितना निचोड़ ले समय, धन या अवसर. सो अब अपने मतलब का मैं भी छांट लेता हूँ, सत्व वैसे भी थोड़ा होता है. थोड़ा ही सुन्दर है वर्ना बाकि तो अतिचार है.
-मेरा तो अध्ययन आधारित सीमित ज्ञान है, सूत्र-पुराण सहित महाभारत का मैंने सहज परायण किया है, अध्ययन नहीं. बाकि तो सीखा मैदान में जूझते हुए जाना. व्यवस्थित तरीके से तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया. भविष्य में अवसर मिला तो पढ़ने की कोशिश करूंगा, फिलहाल तो पढ़ने का समय मिल जाए तो वह ही गनीमत.
-वैसे भी भगवा, संन्यास के साथ मिटटी का भी प्रतीक है ! कफ़न कोई देता नहीं है, उसे तो जुटाना पड़ता है. सो मिट्टी है, मिट्टी में जाना है.
-समय का अपना शास्त्र है, दर्शन तो विचार का और क्षत्रिय का व्यवहार प्रतिनिधि है, रही बात धूनी की तो वह तो राजस्थान में गांव में है ही सो कोई बुरा विचार नहीं है. उसे भी आजमाया जा सकता है.
-समय, हमें बर्बाद कर रहा है और हम है कि उसे आबाद करने में लगे हैं.
-जीवन में कई बार अनजाने में कुछ ऐसी ग़लतियाँ हो जाती हैं, जो आयुपर्यंत माफ़ी माँगने के बावजूद माफ़ नहीं हो पातीं।
-इंसान पहचानने में तो तुम पारखी थे ही अब सलीके-से सटने की बात को भी खूबसूरती से कहने में माहिर हो गए हो. भाई, मैं तो आज से तुम्हारा मुरीद हो गया हूँ.
-चलो, बहुत दिनों का धूल-झंकाड़ झड़ गया, नहीं तो नई बहु ने मानो दिमाग ही कुंद कर दिया था.
-आजकल मजबूरी में जुदा नहीं, एक रहना पड़ता है यानि बावफ़ा!-शुरू में तो तुक बना दिया बाद में लगा की अर्थ खो जायेगा सो अंत को छेड़ा नहीं, ज्यों का त्यों धर दिया.
-सुना था कि शहर सच बोलने की सजा देता है, आज देख भी लिया.
-अगर यह सच नहीं तो
-झोंक में क्या लिख जाते हो, लिखने वाले को भी नहीं होता है पता !
-तस्वीर में तुम रोशन थी
-मैंने तो बस मन के दर्द को कागज़ पर उतार दिया, वो तो तुम थे जिसने उसे संवार दिया.
-दर्द से ही भांवरे पड़ी थी मेरी,सो घूमता ही रहा एक कील थी गढ़ी मन में, सो लट्टू मेरा घूमता रहा
-दो पत्थर एक से हो तो आग तो पैदा हो ही जाती है बस रगड़ने की देर है
-अब कुछ दिवस, वह मौन रहेगी कुछ दिवस उसकी वाणी, मौन के लिए मुखर होगी समय की गति चलायमान है। मेरी कामना, दो अनुरक्त नेत्रों की!
-इसके लिए तो लगता है, अपने पूरे तुणीर के तीर चलाने पड़ेगे
-हां, अवश्य. पर जो कविता दिमाग लगाने की बजाए दिल से अनुदित हो जाती है, सहज-अनायास वह ज्यादा सार्थक होती है. नहीं तो दिमाग से तो गद्य नुमा अनुवाद मशीनी लगता है.
-वैसे, यह भी एक बड़ा काम है, पुराने को सहेज कर नए रूप में प्रस्तुत करना
-कोशिश जारी है, पूर्णता को प्राप्त करने की !
-जब मैं एक कुत्ता था, तब मैं दूर से आदमियों को तकता था, उन पर भौंकना हमेशा मुश्किल था, वह भी तब जब आप उनकी जमात के न हो !
-जो मन तो छू जाती है तो मानो अंगुलियाँ अपने आप चलने लगती है जैसे मंदिर की आरती में बजती घंटियाँ .
-मेरा हुनर था तो तुम्हारा काइयांपन वह बात अलग है कि काव्य में कवित्त और प्रेमी में प्रेम कभी स्पंदित न हुआ !
-बन्धु भी और धन्यवाद् भी, एक शब्द में दो की समाई नहीं!
-एक कवि से शब्दों में, "मैं तुम्हारे ध्यान में हूं" यही पर्याप्त है, शेष हरि इच्छा !
-अदभुत चित्र, शीर्षक होना चाहिए, केलि के बाद युगल !
-जीवन में कभी भी जल्दबाजी मत करो. हमेशा अपना श्रेष्ठ देने की कोशिश करो और शेष छोड़ दो. अगर कर्म अर्थपूर्ण है तो वह स्वत: ही अपनी अर्थवत्ता को प्राप्त होगा.
-संतुलन तो जीवन का मर्म है, सो बेहतर यही है की उसे बनाये रखे.
-डूबकर ही उतरना होता है.
-हमें दूसरे व्यक्तियों की संकुचित धारणा को स्वयं को परिभाषित करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए.
-भला जब पितर ही काईयाँ-हरामी हो तो व्यक्ति-परिवार-देश का भला कैसे होगा?
-व्यक्ति का चरित्र, उसकी परिस्थितियों की तुलना में हमेशा शक्तिशाली होना चाहिए.
-एक छोटे-से बीज को पता होता की बढ़ने के लिए, उसे कीचड़ में गिरना होगा, अंधेरे में घिरना होगा और प्रकाश तक पहुँचने के लिए संघर्ष करना होगा.
-दुनिया जले कई बार, राहें खुले हज़ार,
-इतिहास को क्यों उठाना, अभी तो अपने बोझ को उतारने की मजबूरी है !
-लिखे हुए शब्द को पढने का सलीका शिक्षा से और लिखने का हुनर जिंदगी के दर्द से ही मिलता है...
-मनका फेरने की बजाय मन को फेरना चाहिए...
-जिंदगी में मन की हो तो अच्छी, न हो तो और भी सच्ची.
-हम सब वही घिस्सामारी कर रहे हैं, सो घबराना कैसा ?
-अगर समझो तो बिना इज्जत तो पूरी जिंदगी भी थोड़ी है
-कल्पनाओं के संसार में वास्तविकता का समावेश कैसे संभव है ?
-देखा अंधेरे का तीर, एक अंधा-एक फ़क़ीर.
-एक भूख तन की होती है और एक मन की. तन की भूख मिट कर शांत हो जाती है तो मन की भूख मिट कर भी अशांत रहती है, भीतर तक.
-रोजी-रोटी घर तो छूटवा ही देती है, मन से कौन छोड़ना चाहता है, अपना देस !
-आखिर कटु अनुभव से ही जल्दी जुडाव होता है, बनाकर लिखना तो बस समय जाया करना है
-एक चुम्बक की शक्ति होती है अपनी माटी में, जो दूर से भी खीच लेती है, चाहे-अनचाहे !
-जी, कॉलेज तक तो गर्मियां तो ननिहाल में ही बीतती थी, अब दिल्ली छोड़ती ही नहीं सो फेरा ही नहीं लग पाता. नौकरी-परिवार का घेरा है ही ऐसा कि निकलने ही नहीं देता. फिर भी एक भावनात्मक लगाव तो रहता ही है अपने 'देस' से सो वह तो है ही.
-लिखने वाली की कसौटी पढ़ने वाला ही होता है, पढ़ने वाले को अच्छा लगा तो लिखना सार्थक हुआ.
-साहित्यकार, पत्रकारों-सरकारी बाबुओं को 'कलाकार' क्यों कर मानते हैं ?
-सब समय का चक्र है, कभी ऊपर कभी नीचे
-कोई किसी का मोहताज़ नहीं होता बस अपने स्वयं के मोह को तजने की जरुरत है, सो बस भविष्य में व्यामोह से बचो, यही ईश्वर से प्रार्थना है.
-अपनों की बेरूखी, दुश्मनों की तरफ धकेल देती है. और अंजाम तो दोनों के लिए ठीक नहीं होते!
-एक दुस्वप्न समझ कर बिसरा दे, नए संकल्प के साथ अपने परिवार से जुड़कर उसमे ही सुख पाएं, बाहर तो बस मृगतृष्णा है, उस से ज्यादा कुछ नही.
-जीवन में आयु के एक पड़ाव के बाद अपने कार्य में निरंतरता, मन में स्थायित्व, छोटों से सम्मान और स्वजनों की निष्ठा ही रूचिकर रह जाता है.
-ज्यादातर छिनाल हो गयी, कुछ मजबूरी में कुछ तन की दूरी से.
-मैंने तो बस मन के दर्द को कागज़ पर उतार दिया,
-साँप-नेवला एक होने लगे तो पानी तो किनारा छोड़ेगा ही, सो हो रहा है.…
-माटी है, माटी हो जाना है.
-मंगलसूत्र तो सही है पर विवाहित पति को भी तो छोड़ देना चाहिए, आखिर गुलामी का मूल तो विवाह ही है.
-दिल से और दिमाग से लिखने में यही फर्क होता है, दिल से लिखी बात सीधे दिल को चीरते हुए घुसती है जबकि दिमाग वाली बात, आदमी को जबर्दस्ती क़त्ल करने सरीखी लगती है
-वीभत्स सत्य
सांवले रंग से इतना लगाव क्यों?
-जीवन में कभी भी जल्दबाजी मत करो. हमेशा अपना श्रेष्ठ देने की कोशिश करो और शेष छोड़ दो. अगर कर्म अर्थपूर्ण है तो वह स्वत: ही अपनी अर्थवत्ता को प्राप्त होगा.
-भय के दो मायने हैं, सबकुछ भूलकर निकल भागो या फिर सब चुनौतियों का सामना करके आगे बढ़ो, मर्जी अपनी है जो मतलब निकालें.
-व्यक्ति की परख तो पैदा करनी होगी.
-कुछ खुशियाँ माँ ही दे सकती हैं...
-कई बार पुरानी यादें और खुशबू जिंदगी में नया रंग भर देती है...
-जीवन में सटीकता और सतर्कता का सातत्य कायम रहे, ईश्वर से यही प्रार्थना है!
-पृथिवी में दो ही जीवित देवता हैं, माँ-पिता. बस बाकि तो भरम है.
-असली शुद्ध देसी घी, शुद्ध देसी घी, देसी घी.
पर फिर किस मुंह से राजनीतिकों को ज्ञान देते है ?
-पेरिस में पत्रकारों के हत्याकांड की 'लाल' परिभाषा "असहमति की सजा"!
-जीवन में आगे बढ़ने के लिए बहुधा मन को साधकर थामे रखना पड़ता है.
-गुजरात के समुद्र तट पर पाकिस्तान की ओर से आ रही नौका को लेकर 'इंडियन एक्सप्रेस' और 'इंडिया टुडे' का 'दिव्य ज्ञान' भिन्न हैं.
-गुजरात के समुद्र तट पर मोमबत्ती जलाने वालों के साथ अमन के कबूतर उड़ाने वालों को भेजना चाहिए ताकि वे अगले साल भारत में रिलीज़ होने वाले पाक-कैलेंडर की तस्वीरें जुटा सकें.
-तुम भी सब को भुला दो, जैसे वे तुम्हे भुलाने का भ्रम जता रहे हैं...रास्ते पर दूसरों को देखने की अपेक्षा मंजिल पर निगाह बनाए रखो
-राम सेतु निर्माण में गिलहरी का अकिंचन योगदान...
-अस्पर्श्यता ग्रसित वैचारिकी...कितनी अपंग, कितनी एकाकी!
-हम भी अपने देश से कभी दूर नहीं जाना चाहते थे पर यह सेहर का कशिश जो हमको एडवांस के फेर में यहाँ खींच लाया, अब खेंच रहे हैं, रिक्शा.
-उसे देख यादों की सिलवटे माथे पर आ गईं,
-आपकी प्रत्येक इच्छा की एक अंतिम परिणति है...
-शक्तिशाली व्यक्ति दूसरों को नीचा गिराने की अपेक्षा उन्हें ऊपर उठाते हैं...
-देह, नेह का ओढ़ना चाहती है और नज़र है कि ढके शरीर को उघाड़ना चाहती है. शरीर और संसार का यह विरोधाभास कैसे सम हो यही यक्ष प्रश्न है ?
-नंगों के बीच में लंगोट का क्या काम ?
-कोई भी सपना पूरा नहीं हुआ, एक पूरी जिंदगी बेमतलब ही चली गयी...
आज का जीना ही सच है बाकि तो ऊपर बढने के लिए जीना खोजते रहो.
जब सब कुछ ही बिगड़ा हो तो उसका ही आनंद लेना चाहिए, उसी में से सुथरी राह निकलती है...
जन्मदिन
जीवन घटने और अनुभव बढ़ने की बधाई...
जीवन में साथ केवल दुख देता है, सुख तो अच्छे समय के साथ निकल जाता है।
विवाह 'करने' और विवाह 'होने' में अंतर है!
यही अंतर डर और भरोसे को, अंधेरे और उजाले की राह को निश्चित करता है।
जिंदगी में मोहब्बत तो एक ही होती है,
उसके बाद तो बस अमानत में खयानत है।
जो मिला सुख के नाम पर बीत गया, जो नहीं मिला दुख के नाम पर आज भी साथ है।
प्रभाव को बढ़ाना और अभाव को हटाना, यह मनुष्य की प्रकृति है।
जीवन में एक साध ही सध जाएँ तो समझे कि भाव सागर पार हुए।
वेदना ही विद्रोह का कारक बनती है, वह बात जुदा है कि संघर्ष क्षणिक होता है और समन्वय स्थायी। वैसे भी नाश से रचना अधिक कठिन होता है। सो, विद्रोह से निकला क्या यह भी महत्वपूर्ण है।
पुरानी जड़ में से ही नयी कोंपले निकलेगी।जीवन भ्रम में ही बेहतर बीत जाता है वरना वास्तविकता तो सही में कष्टदायक है।
बड़ी नौकरी से रिटायर होने वाला बाप नौकरी के लिए संघर्षरत अपने के लिए क्या कुछ नहीं करता!
यहाँ तक कि अपनी उम्र भर की पूरी साख और सम्मान को भी दांव पर लगा देता है।
काश, बेटा अपने बाप की विवशता-डर को समझ पाता।
नहीं, हक़ीक़त की जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं होता उल्टे बेटा बाप को ही अपनी विफलता का जन्मदाता समझता है।
"मैं अब जीवन को तलाशता नहीं हूँ। जो वस्तु मेरे लिए बनी हैं, वे मेरी तरफ ही आएंगी। मुझे कभी भी उन चीजों को हासिल करने के लिए जबरन खींचने या स्वयं को बदलने की जरूरत नहीं होगी।"
-बिली चपाता
यहाँ तो एक जन्म ही सध तो गनीमत!
उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में
नूरशम-ए-हरम हो या हो दिया सोमनाथ का
- मीर तक़ी मीर
उसकी आंखों से नींद को देश निकाला मिला था।
उसे देखने वाले ने अलग देश जो बसा लिया था।।
-पीड़ा जो दर्द देती है तो पवित्र भी करती है।
-जीने के लिए किताब की अलग से भला क्या जरूरत?
जिंदगी खुद ही एक किताब है!
-देह से नेह तक!
सच में ऐसा होता कहाँ है?
-प्यार में विपरीत स्थितियों में भी हौंसला न हारने पर जादू भी होता है। आखिर कायनात भी हमेशा सच्चे मन वाले का साथ देती है।
-सही में जनता का मन जान लेने वाला नायक ही असली जननायक होता है।
-किताबों की सोहबत से बड़ी कोई संगत नहीं।
-अपने से और अपने में खुश रहना ही असली सुख है बाकी तो भ्रम है, जो ना चक्कर में पड़े वही बेहतर।
-अगर दीन का नाता है तो फिर धरती का भी तो बनता है...
-पीड़ा और पीड़ा के भोग में अंतर होता है। केवल पीड़ा होना पीड़ा का भोग नहीं है और पीड़ा का भोग करते हुए पीड़ा की प्रतीति अनिवार्य भी नहीं है ।
-गुरुत्व को कभी भार न बनने देने वाले गुरु कम को ही मिलते हैं!
जीवन में जहां मन केवल मुश्किलों को देखता है, वहीं प्यार को उनके समाधान का रास्ता पता होता है।
-रूमी
-अपेक्षा ही दुख का मूल हैं। फिर चाहे व्यक्ति से हो या समाज से।
जीवन में अपवाद होता है पर इसके लिए अपवाद को जीवन नहीं बनाया जा सकता।
-शमशेर बहादुर की कविता की पंक्ति है,
-शमशेर बहादुर की कविता की पंक्ति है,
"बात बोलेगी, हम नहीं। भेद खोलेगी बात ही।"
अध्ययन स्वान्त: सुखाए होता है, सो उसमें "बढ़का" बोलने की कोई बात नहीं।
वैसे भी, पढ़ना बोलने की तमीज देता है यानि चुप रहने का सलीका।
-धर्म तो शाश्वत है, संहिता तो संप्रदाय की होती है। और संप्रदाय की एक किताब, एक पैगंबर, एक आचार, एक पहनावा, एक सोच होती है। शब्द के गलत अनुवाद और अर्थ के अनर्थ ने अनेक वितंडाओं को जन्म दिया है। संप्रदाय, पाखण्ड का ही एक प्रतिरूप हो सकता है, खासकर उस संप्रदाय के घेरे से बाहर के व्यक्तियों के लिए।
आखिर उजाला, अंधेरे को ही चीर कर होता है।
-भारतीय परिधान फिर वह साड़ी हो सूट हो या धोती-कुर्ता, उसकी अपनी भव्यता है, व्यक्तित्व को अलग से निखार देता है।
-किसी संवेदनशील के असमय चले जाने से समय की घड़ी सही में भारी होती है।
-हर बार साथ रहते हुए भी प्यार को कहना ही क्यों जरूरी होता है?
-संसार में दो ही जीवित देवता हैं, माँ और पिता। शेष माया है।
-सफेदी भी गुरुता का प्रतीक हो गयी है।
-लेखन का रस धीरे-धीरे ही गहरा बनता है। सो, नियमित लिखना ही जरूरी है।
-वन में जूझने की क्षमता मनोदशा, बाह्य परिवेश दोनों पर निर्भर करती है। कभी लड़ने के सिवा कोई विकल्प नहीं होने से अधिक स्पष्टता और एकाग्रता रहती है। जबकि विकल्प का होना संशय और भटकाव को जन्म देता है।
आरजू कर उस हौंसले की, जो नज़र नहीं आता।।
-सार्वजनिक जीवन में सफलता प्राप्त करने वाले व्यक्तियों में से कम का ही पारिवारिक जीवन सहज-सफल रहता है।
-धरती पर दो ही जिंदा देवता है, माँ-पिता बाकी सब आसमानी फरेब है।
-कई बार भ्रम में जीना बेहतर होता है!
-अपुन तो कहार है, जो पालकी में बैठेगा, उसे मंजिल तक ले जाने का कर्म ही बदा है भाग्य में, सो राम रची राखा।
-गहे हाथों में हाथ!
मानव शरीर का सबसे ईमानदार हिस्सा हैं, हाथ।
आखिर वे ज़िंदादिल आँखों और चेहरे की तरह झूठा नहीं दिखते।
-नक्शे पर रास्ते का पता हो तो मंजिल तक पहुँचने की संभावना शत-प्रतिशत रहती है
-व्यक्ति को जीवन में मुश्किल दौर में टूटने की जगह बांस की तरह झुककर बुरा दौर बीतने पर दोबारा अपनी स्थिति में पहुंचने का गुण विकसित करना चाहिए। जैसे बांस न केवल हर तनाव को झेल जाता है बल्कि तनाव को ही अपनी शक्ति बना कर दोबारा उतनी ही गति से ऊपर उठता है।
भारतीय सेना नहीं तो कम से कम बाढ़ को ही याद रखता!
-जीवन में किसी दूसरे से अपनी तुलना करना इसलिए बेमानी होता है, जो आप कर सकते हैं, कोई दूसरा नहीं कर सकता न ही सोच सकता है।
-पश्चिम के व्याकरण से भारत की समस्या कैसे सुलझेगी?
आदम के घुटने से मादा के निकलने की ताकीद करने वाले ओल्ड टेस्टामेंट (बाइबिल का पुराना विचार) के विचारों से प्रेरित नकलची भारतीय मेधा यह कब समझेगी?
अज्ञानता से भरा अशिष्ट व्यवहार समझदार की पहचान नहीं होता।
एक पुराणी संस्कृत कथा का सार है कि बिना-सोचे समझे नक़ल करने वाला बन्दर या तो अपने मालिक (राजा) की नाक काटेगा या अपनी!
-धर्म और महजब में अंतर है, कोई हिन्दू को अहिंदू नहीं बता सकता जबकि सामी महजब से वापसी का कोई रास्ता नहीं और अगर वापिस गए तो मौत मुंह बाएँ खड़ी है।
-हम शिक्षा सीखते हैं जबकि ज्ञन अर्जित करना पड़ता है....
-होने और न होने की अति में ही जीवन बीत जाता है क्योंकि हम उसे अपनी कसौटी पर नहीं बल्कि दूसरों की अपेक्षा पर जीते हैं। मर्म में दूसरों से अपनी उपेक्षा का भाव जो होता है।
मतलब हम जब अपनी तरह से अपने लिए जिंदगी जीते हैं तो सहज और सरल होते हैं। किसी के प्रति जवाबदेह नहीं कोई गलत समझे जाने का बोझ नहीं। इसके उलट जब हम दूसरों के लिए, उनको सही दिखने, लगने और समझ में आने के हिसाब से आचरण करने लगते हैं तो सब गड़बड़ाने लगता है।
संस्कृत में पढ़ी एक पुरानी सूक्ति का स्मरण हो आया, "जीवन में मन, वचन और कर्म में एकरूपता होनी चाहिए।" जहां यह संतुलन बिगड़ा वही व्यक्ति, समाज और देश सभी असंतुलित हो जाते हैं।
-आग से बचने के लिए सबसे पहले खुद आग के घेरे से बाहर निकलना होगा तभी आप दूसरे के लिए कुछ कर सकते हो! इसी तरह से अपनी मनोवैज्ञानिक समस्या से उबरने के लिए खुद को दूसरे की नज़र से देखने की बजाए अपनी नज़र से देखना शुरू करों। अपने पसंदीदा काम या अपने फैसले की इज्जत करते हुए उस पर डटे रहने का माद्दा जुटाओ और फिर काम हो या संबंध उसे अंजाम तक पहुंचाने तक आराम से मत बैठो।
-तीर्थ बाहर नहीं मन के भीतर ही जाना होता है पर बस वही नहीं हो पाता!
-अरे क्या संयोग है, मेरे माथे पर भी एक चोट का निशान है जो मेरी मौसी के मुझे ननिहाल में सीढ़ियों से गिराने और फिर केरोसीन में कपड़ा जलाकर उसे घाव पर लगाने से हुआ था। यह घाव का निशान आज भी मेरे माथे पर हैं।
-सब कुछ जल्दी के चक्कर में सब कुछ जल्दी ही चुक जाता है, फिर चाहे प्रेम हो या विवाह का संबंध।
-सीखते रहने से आप जवान बने रहते हो।
-हम अपनी कसौटी खुद है।
सो अपने को कस लो, तो अपनी उम्मीद पर खुद पूरी खरी उतरोगी।
सोच कर लग जाओ, सो पा लोगी।
-हर मन में एक कोना वीरान होता है, शायद होना भी चाहिए तभी हम खुद से बात कर पाते हैं, नहीं तो वैसे ही चारों तरफ भीड़-शोर का ज़ोर है।
-बेटी के लिए पिता ही ऊंचाईं का पैमाना होता है।
सो, बेटी के लिए नट की तरह तनी रस्सी पर चलना सच में कितना आनंदकारी है!
-कई बार किसी का मन से लिखा सीधा अपने मन में उतर जाता है।
वहीं जीवन में अपना लिखा, दूसरे को इतना उद्वेलित कर देता है कि पढ़ने वाली, लिखने वाले को ही, जीवन से ही निकाल देती है।
सच में, सच के कितने रूप होते हैं, सुख मिलता है, दुख देता है।
अनचाहे सुख और अकारण दुःख का कारण आखिर नियति बनाती है, नहीं तो आदमी की इतनी औकात कहाँ?
अगर उसके बस में हो तो गुना-भाग न कर ले पर जीवन सामान्य गणित के सिद्धांतों की लक्ष्मण रेखा में कहाँ बंधा है भला?
-जिंदगी में लोग ही "हुकुम-हजूरी" करके हुकूमत बना देते हैं, गुलामी बाहर से नहीं भीतर से ही उपजती है। सो अपने दोष का दूसरे को अकारण जिम्मेदार ठहराना सर्वथा अनुचित है।
-जिंदगी न किसी के आने का इंतज़ार करती है और न ही किसी के जाने के बाद ठहरती है। हर कोई अकेला आया है, अकेला जाएंगा सो लकीर के फकीर न बने तो ही बेहतर।
-हमें दूसरे व्यक्तियों की संकुचित धारणा को स्वयं को परिभाषित करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
-सुख-दुख में समभाव रखना ही प्रज्ञवान व्यक्ति की पहचान है। बस जीवन में बस अभाव को स्वभाव नहीं बनने देना चाहिए।
-मन को जो सही लगे कई बार वह गलत भी होता है, फिर भी मन की करने से अफसोस नहीं रहता। दूसरे बेशक शिकायत करें पर खुद को कोई शिकायत नहीं रहती।
-किसी के दूर जाने के बाद याद क्यों पास आने लगती है...
-गुजर गईं रातें, ये भी गुजरेंगे!
-कभी यूं भी आ, बिना याद!
-जिंदगी और मौत तो तयशुदा है, बस ''मैं कौन" को जानना ही पहेली है!
-जीवन में कुछ भी 'बनना' मुश्किल नहीं है, बस मुश्किल है तो 'होना' ।
-मंजिल नहीं लक्ष्य ऊंचा होता है, मंजिल पर पहुंचाना होता है और लक्ष्य को प्राप्त करना होता है। बाकी कदमों के तले तो जमीन होती है जो अगर खिसक जाएँ तो मंजिल तो दूर आदमी भी अपने बूते खड़ा नहीं रह पाता है।
-पिता के मन आकाश पर लहराया
बेटी की सफलता का परचम!
-बेटी की सफलता की खुशबू घर-आँगन के साथ पड़ोस को भी महका देती है।
पिता का मान ही नहीं अभिमान होती है बेटियाँ, सो आज दसवीं की परीक्षा में पिता का नाम रोशन करने वाली सभी बेटियों को मन से आशीष।
-चिंता, चिता समान है। नश्वर जीवन में अमरता मृगतृष्णा है। शेष नियति है सो श्री राम और सीता जी को भी ज्ञान था की स्वर्ण मृग नहीं होता पर होनी को कौन टाल सका है! होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा।।
-सुख-दुख जीवन के दो पहलू है, सो अच्छे को ध्यान में रखना चाहिए और सोचना यह चाहिए कि भगवान भी किसी बड़े लक्ष्य के लिए तैयार कर रहा है।
-आज के दुख का कारण ही कल के सुख का आधार बनता है।
-संतान पर मां की छाँव, वृक्ष से भी बड़ी होती है।
-सवाल मौजूं हैं कि आने वाली जिंदगी में हारने और मौत के खौफ की वजह से आज भी कब बीतकर कल बन जाता है। बाकी हारी हुई जिंदगी कब मौत की चिता पर सुला देती है, पता ही नहीं चलता।
-जिंदगी एक रंगमंच है पर रंगमंच ही जिंदगी नहीं है...
- सच में, अंदाज़ा नहीं था कि इतने व्यक्तियों का संबल साथ है। अब जीवन की नयी उड़ान में और भी हौंसला रहेगा।
-घर तो बेटी से ही बनता है फिर अपना हो या पराया। बिना बेटी तो वह मकान होता है।
-मन का बोझ उतरने पर जीवन कितना सरल हो जाता है!
-भाग न बांचे कोय!
वैसे समय की मार से कोई नहीं बचता!
-हास, परिहास और उपहास तीन शब्द हैं और उनके तीन भिन्न अर्थ हैं सो एक-दूसरे से अलग कैसे हो सकते हैं या किए जा सकते हैं।
-समय, स्थान-संबंध-स्नेह सब बदल देता है। ऐसे में मनुष्य कैसे सापेक्ष रह सकता है।
यह ऐसा ही भ्रम है जैसे पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है पर स्थिर होने का आभास देती है। ऐसे ही परिवर्तनशील समय में हम स्वयं को अपरिवर्तित मानते हैं।
-आपके चाहने वाले व्यक्तियों को काफी कुछ सीखने को मिलेगा। मुझे आपके मेरे प्रति स्नेह-भरोसे पर गर्व है। मेरा तो यही मानना है कि सीखने की योग्यता जिसने सीख ली समझो लांघ गया लंका। नहीं तो बस समुद्र किनारे संशय में जीवन बीत ही जाता है
-सच्चाई तो यह है कि जितना हम दूसरों के बारे में सोचते है कि वे हमारे बारे में क्या सोचते हैं, उतना तो हम स्वयं अपने बारे में नहीं सोचते है।
-सफलता कोई अकस्मात मिलने वाली वस्तु नहीं है।
वह तो कठिन परिश्रम, सतत अभ्यास, शिक्षा, अध्ययन, बलिदान के साथ सबसे अधिक अपने कार्य या सीखने की प्रक्रिया के प्रति एकनिष्ट प्रेम का जोड़ है।
-पेले, विश्व-प्रसिद्ध फुटबॉल खिलाड़ी
-सफलता की खुशी में मन के साथ-साथ मुख के स्मित मुस्कान उसका सौन्दर्य दुगना कर देती है। मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है, श्रम साध्य सुखद-परिणाम का असली श्रेय परिवार को जाता है।
-साधारण को उलझाना सामान्य है।
जबकि उलझन को सरल नहीं बल्कि सहज बनाना ही रचनात्मकता है।
-हम कितना ही अपरिवर्तित रहना चाहे पर समय कहाँ रहने देता है।
-परिवर्तन, जीवन का अभिन्न अंग है।
जो हम कल थे, वह आज नहीं होते और आज हैं वह कल नहीं होंगे!
तो फिर ऐसे में भला किसी दूसरे से अपरिवर्तित रहने की अपेक्षा क्यों?
जड़ पत्थर को भी समय की रस्सी गिस-गिसकर एक सरीखा नहीं रहने देती तो फिर मनुष्य तो हाड़-मांस का शरीर है।
व्यक्ति, प्यार और समय कब एक रहते हैं फिर भी उनसे ऐसा कुछ मांगना बेमानी है।
सो किसी शायर की जुबान में खत्म करूँ तो
"मेरे महबूब, मुझ से पहले जैसी मोहब्बत न मांग!"
-हर सुबह तय करता हूँ, नहीं याद करूंगा रात तक
हर-बार तलाश में, रास्ता गुम हो जाता है तुझ तक
-हर किताब की खुशबू का अपना नशा है, बस नशा करना आना चाहिए!
-दुनिया में उगते सूरज को देखना भी एक तरह का 'अनुभव' है जो देह को देहांतर तक ले जाता है, बस अगर सध जाएँ तो।
नहीं तो सूरज, संसार और समझ बस नासमझी है।
-उदासी और अकेलेपन को रात का घना अंधेरा और गहरा देता है।
-घूंघट स्वत: है सो स्वयं (स्वकीया) से है तो परदा दूसरे से यानि परकीय है। बात वही है, लिहाज अपनों का तो शरम दूसरों से होती है। जैसे जौहर की प्रथा किसी की थोपी हुई नहीं थी। राजपूताना में बर्बर मुस्लिम आक्रमणकारियों के हाथों अपमानित होने और गुलाम बनाए जाने से मृत्यु का आलिंगन करने वाली वीरांगनाओ का संदर्भ आज के समय में आईएसआईएस के हाथो यजिदी महिलाओं के हश्र से समझा जा सकता है। चित्तौड़ में मुग़ल अकबर की जीत के पहले साठ हज़ार राजपूत महिलाओं ने जौहर किया था।इतिहास से हम यही सीखते हैं कि हम उससे कुछ नहीं सीखते!
-जीवन में कोई प्रयास बेकार नहीं होता है। कथित कचरा 'खाद' का काम करता है, जीवन में आगे फलने-फूलने के लिए!
-घर पर अपना नाम-नंबर, शादी के निमंत्रण पत्र-लिफाफे से लेकर हस्ताक्षर तक अँग्रेजी में डूबे 'हिन्दी समाज' का हिस्सा ही है, ग़ालिब और उनकी हवेली! सो, अचरज कैसा?
-जीवन में पथभ्रष्ट हुए तो चिंता नहीं बस लक्ष्य भ्रष्ट नहीं होने चाहिए।
-पत्नी न हो तो दिमाग अवचेतन रूप से उसी से जुड़ा रहता है!
फिर भी पता नहीं क्यों पत्नियों को किसे के, खास कर पति के उनकी चिंता न करने की बात का एहसास रहता है!
-माँ की वास्तविक उत्तराधिकारी बेटी ही होती है। वंश परंपरा से लेकर संस्कार प्रदान करने की परंपरा तक।
-जीवन में माँ-बेटे का प्यार सहज और शाश्वत है।
-जिंदगी आंकड़ों का जोड़ न होकर मन-उमंग की कहानी है।
-ग़लतफहमी में पैदा होने वाले सवाल जवाब की बजाए खुद के लिए फंदा भी बनाते हैं। बाकी जब सोच ही भ्रमित होगी तो फिर रिश्ता कैसे मजबूत होगा भला!
-एक प्यार भरा स्पर्श सारे तनाव को समाप्त कर देता है।
-प्रकृति प्रदत्त वरदान को भौतिकता पर मापना व्यर्थ है, कुछ नहीं सभी स्त्रियाँ विपरीत भावना और आचरण को स्वत: ही भाँप लेती है।
-जीने के लिए तो दुनिया तो छोटों की ही बढ़िया है, बड़े होने के बाद तो गुना-भाग है।
-जीवन में जो 'छूट' जाता है, वह 'स्मृति' से मिटता नहीं!
जो जीवन में यथार्थ होता है वह मन में बसता नहीं।
न होने और होने की यह स्थिति 'दुविधा' है या अंतर का द्वैत भाव यह समझ पाना 'अबूझ' पहेली है।
-जब भीतर से सब खोखला हो जाता है तो खूबसूरत कुछ नहीं रहता।
-बिना मन का तार छूए, संगीत नहीं बनता, शोर होता है।
-सब तोल मोल का बोल है, सो जिसकी वजह से तोल कर मिले तो बोलेंगे नहीं तो गूंगे बन जाएंगे, बिना सिक्कों की खनक के। अब कौन से खबर और कौन सी पत्रकारिता?
सब सेटिंग है, चवन्नी चोर और भड़ुवे दोनों की !
-बदलते रंग चाहे इंद्रधनुष के हो या इंसान के उसको निहारना ही चाहिए। बोलने से तो रंग में भंग हो जाता है। पूरा सच नहीं जानना चाहिए, अगर जान भी जाओ तो फिर मौन साधने में ही सबका हित है।
-किसी भी व्यक्ति को अपने 'खूबसूरत' होने का अहसास ही होना स्वयं के भीतर जाने की पहली शर्त है। आखिर तीर्थ कही बाहर नहीं बल्कि अपने भीतर जाना ही होता है।
साहस हमेशा मुखर नहीं होता है। कभी-कभार, साहस पूरे दिन की कानाफूसी के अंत में एक शांतचित्त आवाज भी होता है, सो 'मैं कल फिर से प्रयास करूंगी।"
-मैरी ऐनी राडमाचर
(बिछुड़ गए संगी-साथियों से भी कुछ अच्छा पढ़ने को मिल जाता है, समय कैसा भी हो, मित्रता कालजयी होती है)
-विफलता एक परिघटना है, व्यक्ति की पहचान नहीं!
-असहमति से सहमत होना, असहमत होने वालों के लिए ही मुश्किल होता है।
हैरानी की बात यह है कि उसके लिए भी वे दूसरों को ही जिम्मेदार मानते हैं।
शायद यही जरूरत है बाहर से भीतर जाने की और देखने की। खैर इसके लिए तो हर इंसान को आयु-अनुभव के साथ स्वमेव ही सिद्ध करना होता है।
"आप ही तोल, आप ही बाट, आप ही तराजू और आप ही तोलनहार!"
-कहानी कहने में तो बचपन जिंदा रहता है, नहीं तो असली में तो जिंदगी बूढ़ा-ही रही है।
बीता समय और छूटे हुए साथी शेष जीवन में आस से ज्यादा निराश ही करते हैं।
अज्ञेय के शब्दों में, "अरे यायावर रहेगा याद"!
-स्वभाव से अधिक यह मानवीय नियति है, प्रारब्ध है तो अंत भी साथ ही बदा है।
शिखर पर पहुँचने के बाद बस नीचे की गहराई ही भयाक्रांत होती है। शायद इसलिए भी क्योंकि फिर ऊपर तो कोई संभावना बचती नहीं सो नीचे ही नज़र जाती है। अर्थशास्त्र में एक सिद्धांत भी है, ह्रास का नियम। जीवन में एक अधिकतम ऊंचाई के बाद प्रकृति स्वाभाविक रूप व्यक्ति को नीचे ही लाती है।
-जिंदगी में हर मौसम को बादल होते देखा है
हर रंग के इंसान को धुंआ बनते देखा है।।
अच्छे ईमान वालों को बेईमान होते देखा है,
दौड़ती जिंदगी को अचानक बोझ बनते देखा है।।
पर चाहत पूरी होती कहाँ है, जिंदगी में,
अभी तक तो यही सिला मिला है हर किसी से।
-इस कदर प्यार से मत देख मुझे,
तेरी नर्म आँखों के साये में,
धूप भी चाँदनी सी नज़र आती है।
-देखने और नज़र उठाकर देखने में फ़र्क होता है!
-बीज समय से ही फलता है, सो समय की प्रतीक्षा ही फल का परिणाम देता है।
-खुली आँखों से सोया समाज, कब जागेगा?
सब खत्म हो जाने के बाद तो रोने वाला भी नहीं होगा!
रोने के लिए "रुदालियां" भी 'भाड़े' पर मंगवानी होगी क्योंकि दुख प्रकट करने के लिए कोई स्वजन तो बचेगा नहीं!
ऐतिहासिक सत्य है कि विदेशी यूनानी आक्रमणकारी सिकंदर के बाद ही भारतीय रंगमंच में नाटक दुखांत होने लगे अन्यथा पहले भारतीय नाटकों का अंत सुखांत ही होता था।
आखिर हरे-सफ़ेद-भगवा की रतौंदी से ग्रसित धृतराष्ट्र का अंधापन कही फिर इंद्रप्रस्थ को भारी न पड़े।
-आज जागी आँखों में जाएंगी सारी रतियां...!
-आखिर खुली आँखों से सोया समाज, कब जागेगा?
सब खत्म हो जाने के बाद तो रोने वाला भी नहीं होगा!
घर "घुसेड़ा" बनकर मरने से तो खुले में रहकर मारना बेहतर।
-अगर आपको अपने रास्ते और मंजिल का सही पता होता है तो आप कभी भी पीछे पलटकर नहीं देखते।
-संवेदना होना ही मनुष्य होने की पहली निशानी है। संवेदनायुक्त व्यक्ति ही विचार कर सकता है। विचार को जीवन में आचार-व्यवहार में उतारने से ही संपूर्णता होती है। अन्यथा कविता-कहानी-उपन्यास बेहतर लिखने वालों का सार्वजनिक जीवन उतना ही पाखंड-व्यभिचार और दोगलेपन से परिपूर्ण होता है। आज ऐसे प्रगतिशील लिक्काड़ों की कमी नहीं है।
-बेटियाँ, कब बड़ी हो जाती है पता ही नहीं चलता।
शायद हम ही जल्दी बुढ़ाने लग जाते हैं जिसका पता बेटी को देखकर चलता है।
पिता का आईना जो होती है बेटियाँ।
किताब हमारे भीतर बर्फ की मानिंद जम चुके समुंदर के लिए हथोड़े होनी चाहिए।
-फ्रैंक काफ्का
-दर्द होता ही है अनमोल।
मोल तो सुख-खुशी का होता है।
दुख-गम तो मानो आदमी को माँजते हैं, आने वाले सुनहरे कल के लिए।
-तुम्हारे चक्कर में, मैं भी क्या-क्या लिख जाता हूँ। एकदम प्रति-संसार है मेरे लिए, तुम्हारी दुनिया।
-भाई, मैं कबाब में हड्डी क्यों? फिर तुम भी विवाह के लिए कोई बिना बौद्धिकता वाली कोई अनाथ युवती देखो, ताकि तुम्हारे साथ उसका भी उद्धार हो।
-देह से नेह तक और नेह से देह तक। इस सनातन परंपरा का निर्वहन ही संस्कृति है।
देह से नेह उपजता है और नेह से देह का विस्तार होता है। तभी जीवन भविष्य की ओर अग्रसर होता है। यही सनातन सत्य है।
दो बराबर के पत्थरों से ही आग निकलती है। सो एक समान भाव जरूरी है।
-आप स्वयं में सिद्ध है तो आपके समक्ष मार्ग भी है। आपको बस कदम बढ़ाकर प्रशस्त होना है। ऐसे में खुद सीखने वाला विद्यार्थी साथ-साथ चल सकता है।
-वैसे भी मित्रता में समभाव होता है, गुरूभाव नहीं।
-नियमित लेखन से स्वयंसिद्धता प्राप्त हो जाती है। फिर जब कोई गलती होगी ही नहीं तो सुधार कैसा?
-स्वस्थ शरीर ही सभी सुखों का मूल हैं।
-कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो बूढ़े हो जाते हैं पर बड़े नहीं होते।
-दुनिया में हर व्यक्ति एक काम ऐसा कर सकता है, जो कोई और नहीं कर सकता। हमें अपने अवगुण का पता हो तो फिर उसे ही गुण में ढालना आसान होता है। किसी में केवल गुण ही हो ऐसा तो होता नहीं।
-संतान ही माता-पिता के सपनों में रंग भरते हैं...
-ईश्वर सम-विचार के व्यक्तियों का मेल ऐसे ही करवाता है.
-कुछ अपने शहर के बारे में लिखना शुरू करें तो हमारा ज्ञान भी बढ़ेगा! चाहे थोड़ा-थोड़ा ही सही, बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है.
-जीवन में कोशिश ही अंतर पैदा करती है वर्ना सोचते तो सब है पर करता कोई बिरला ही है.
-परस्पर संवाद गुणकारी होता है नहीं तो वाद-विवाद से तो अलगाव ही होता है.
-चित्रों के साथ कुछ शब्द, मणिकांचन योग होता!
-चाक को कितना ही घूमा ले, अगर घड़ा गोल नहीं बना तो सब बेकार।
-मानो मत जानो!
-सही कहा आपने श्रद्धा और आस्था के कोई मायने नहीं होते बाकि तर्क कुतर्क से आदमी बिखरते ही हैं, जुड़ते नहीं।
-घोर आपत्तिजनक। बिना सहमति, सहकार स्वीकार्य नहीं होता। सो, मात्र चेतावनी पर्याप्त नहीं।
-क्या आपने अजमेर की गलियों-चौबारों के बारे में लेखन को विराम दे दिया? इस छत पर दिखते खुले नीले आकाश और मोहल्ले पर एक टिप्पणी तो बनती ही है। अपने शहर के साथ जीते हुए उससे बतियाना न भूले, इसी बहाने चार और भी जुट जाएंगे।
-आखिर लिखने वाले की कसौटी तो पाठक ही है। आलोचक के चक्कर में तो पूरा साहित्य ही घनचक्कर बन गया है। जब मैं इंडिया टूड़े में काम करता था तब वहाँ समीक्षा के लिए सबसे ज्यादा कविता, कहानी और उपन्यास की किताबे आती थी। जब हमें अपने लिए उनमें से पढ़ने के लिए किताब लेने के लिए कहा जाता था तब कोई भी इन किताबों को मुफ्त में भी घर ले जाने को राजी नहीं होता था।
-आपको मराठी सीखने का गुरुमंत्र देना होगा! बहुत दिन से मन के एक कोने में यह इच्छा दबी हुई थी। थोड़ा बता देंगे तो अच्छा होगा, बाकी अभ्यास के लिए बंदा हाजिर है ही। मेरी इच्छा शिवाजी के उत्तर कालीन मराठा समाज के विषय में कुछ लिखने की है, सो मूल स्रोत के लिए मराठी कम से कम पढ़नी आ गयी फिर तो रस निकाल लूँगा। अभी कुछ समय पहले "मस्तानी के बिना भी था बाजीराव" शीर्षक से पेशवा परंपरा पर एक लेख लिखा था। उसको ही आगे बढ़ाने का विचार हैं सो आपसे अनुरोध किया।
-ऐसा कुछ नहीं है, बस दिलजले हैं सो दिल के जख्मों को ही कागज़ पर उतार देते हैं। स्याही की जगह खून है और कलम की जगह कटु अनुभव। ऐसा न करें तो जीना ही दुश्वार हो जाएँ। फिर हम तो पालकी के कहार हैं, पालकी में कौन बैठा है न तो जानने की इच्छा है न अधिकार। हमें तो ढोना हैं, दूसरे के रूप में अपने को। सो उसे ही आनंद का स्वरूप दे दिया है वैसे अपना पाप ढोना ज्यादा मुश्किल होता है! वह किया नहीं सो यह कहते हुए चल रहे हैं "हाथी-घोड़ा-पालकी, जै कन्हैया लाल की"।
-आप जैसे सुधिजन के सानिध्य में मेरे जैसे अकिंचन का भी भला हो जाए, ऐसी ही कामना है।
-दोनों जगह सच्चाई को उजागर करने वाले 'भीतरी' विभीषण की परंपरा के हैं। एक के गलत से दूसरे का गलत सही नहीं हो जाता।
-कपड़े तो क्या रंग भी निरपेक्ष होता है पर हर चीज़ का एक तकाजा है। आपको अच्छा लगे वही सबको लगे यह जरूरी नहीं और जो दूसरों का विचार हो, आप उससे सहमत हो यह भी आवश्यक नहीं।
-यह कैसी पॉलिटिक्स है कामरेड?
देश में संख्या बल वाले दलित-महिला आखिर पोलित ब्यूरो में हाशिये पर क्यो हैं?
-निर्मल वर्मा का उपन्यास है, "अंतिम अरण्य" मौका लगे तो देखना, मृत्यु का इतना विषाद-सूक्ष्म विश्लेषण है कि उसका भय-कातर भाव कहीं तिरोहित हो जाता है। एक नया पक्ष उद्घाटित होता है असीम ऊर्जा-उजाले का।
-आखिर में, अपना रक्त ही तो मुक्ति देता है, नहीं तो देह-मुक्त तो हम कब के हो जाते हैं।
-हम सब अपने अनुभव से ही सीखते हैं बस दूसरे से तो यह निश्चित करते हैं कि हम ही अकेले नहीं है जिंदगी की इस लड़ाई मे सो एक मोर्चा और सही!
-"सृजन ही मुक्त करता है", मुक्ति का तो पता नहीं पर जमीन से पाँव उखड़ने नहीं देता, यह जानता हूँ अपने अनुभव से।
-लिखते रहों, यही सद्गति का एकमेव उपाय है।
-पिता-पुत्री का नाता ही कुछ ऐसा है।
-एक बोलना सिखाती है तो दूसरी बोलने के लायक बनती है। कर्जा तो दोनों का है, एक देह का दूसरा नेह का।
-हिन्दी माँ हैं, सो जितना ऋण उतार सकें वही बेहतर नहीं तो ऊपर तो बस खुला आकाश है।
-जब हम होते हैं तो नहीं होते और जब हम नहीं होते तो वही होते है। होने और न होने के बीच भी न का ही अंतर है।
-न पड़ोसी न ईश्वर, हम स्वयं अपनी ही निगाह की निगरानी में होते हैं।
-बुरे सपने को सपना ही नहीं मानना चाहिए।
-ईश्वर एक मार्ग अवरुद्ध करता हैं तो कई नए द्वार खोल देता है।
-बस अश्रुगलित नेत्र धुंधलेपन के कारण देख नहीं पाते हैं।
-"हमे तो कुछ हासिल नही चाहा हुआ" तो फिर जीवन के गणित में कुछ घटने की एवज में हमारी दोस्ती को ही हासिल मानकर जोड़ ले।
-खुले में लघु शंका करने वाला सेना पर शंका पैदा कर रहा है! आखिर सतीत्व पर सवालिया निशान तो वेश्या ही लगाती है?
-रतौंदी रोगियों से रंग की पहचान की उम्मीद बेमानी है!
-शराब के नशे से मुक्त करके किताब का नशा चढ़ा सकें तो बेहतर होगा।
-हर नियम का अपवाद होता है पर अगर अपवाद ही नियम हो जाएँ तो फिर तो रब ही रखवाला है।
-जिंदगी के अनजान रास्ते लेकर वही जाते है, जहां आखिर में हमें पहुँचना होता है। हम बेशक मंजिल से बेखबर हो।
-वेश्या, सतीत्व का तो चोर, वस्तु के स्वामी होने का दावा हमेशा करते हैं।
-कहारों को पालकी में बैठने वालों के वजन से मतलब होता है न की उनसे।
वहीं पालकी में बैठे व्यक्ति को कहारों से कोई सरोकार नहीं होता।
उन्हें तो बस मंजिल तक पहुँचने की गति का भास होता है, पहुंचाने वाले का आभास नहीं।
आखिर रेल में भी कितने यात्री इंजिन को देखते हैं या उसके बारे में जानने की कोशिश करते हैं।
-रतौंदी के शिकार दो पैर वाले, अब एक बैसाखी के सहारे जग-जीतने का दावा कर रहे हैं!
- जीवन में आगे स्मरण बोध को पाथेय बनने दें।
-बेटी, पिता का अभिमान है, स्वयंसिद्ध संतान है।
-हिन्दी माँ है, सो अच्छी है, बुरी है इस सोच से परे हैं।
-आज फ़ेसबुक पर एक पोस्ट देखकर लगा कि जातिवादी सोच वाली संकुचित व्यक्ति ज्योतिष में पूरा दखल रखते हैं, सो भविष्यवादी आकाशवाणी चिपका रहे हैं।
-तन के घाव तो समय के साथ भर जाते है पर मन के घाव रह-रह कर हरे होते रहते हैं।
-भाई, मैं तो अभी भी नित्य प्रति पढ़ता हूँ, कम से कम 30-50 पेज। लिखता हूँ, 15 दिन में 1200-1500 शब्द। अभी भी एक कुशल गृहिणी की तरह, खर्च कम है और बचत ज्यादा!
-मेरा रास्ता ऐसा आसान नहीं, मुझे प्रतीक्षा करनी होगी।
-उमंग-तरंग तो मन में होती है, आयु तो बस पड़ाव है।
-संगीतमय सुबह का सिलसिला सच में स्वर्गिक आनंद है।
-जिंदगी में इश्क़ सबको होता है, किसी को मिल जाता है, किसी का छूट जाता है।
-इश्क़ में तो डूबकर ही जाना होता है, मझदार का तो विकल्प ही नहीं होता। इश्क़ तेरा-मेरा का फर्क नहीं करता।
-मुंह की कालिमा तो पानी-साबुन से धोकर मिट जाती है पर मन का मैल तो चिता पर देह के साथ ही मिटता है।
-जिसका अपना घर बसा नहीं या बस कर उजड़ गया या फिर दूसरे का बसा-बसाया घर उजाड़कर अपना बसेरा बनाने वाली महिलाएं ही सार्वजनिक जीवन में स्त्री मुक्ति और महिला अधिकार के आंदोलनों में आगे नज़र आती है।
-वैसे तो आभार अपने प्रति ही होता है, सम-विचार व्यक्तियों से जुड़ने का। स्वगत स्वयं के लिए और स्वागत अन्य का।
-पुस्तक के खरीददार के मनोविज्ञान के साथ उसका बाजार से संबंध और अर्थशास्त्र का कोण जुड़ा होता है, बाकी हिन्दी साहित्य की वर्तमान दशा-दिशा पर इस अंतर्दृष्टि से कम ही सोचा गया है।
-किताबों का साथ एक ऐसा सुख देता है, जिसका वर्णन करना गूंगे से गुड़ खाने के स्वाद को पूछने जैसा है।
-साड़ी और तुम! क्षणिकता के भावावेग में उतावलापन उचित नहीं होता। अपने मूल स्वभाव-चरित्र को बनाए रखना ही सही होता है।
-वतन के लिए तन न्यौछावर किया जाता है, तन के लिए वतन नीलाम नहीं किया जाता!
-धंधेबाज की बाजी धंधे से ही जुड़ी होती है, धंधा जारी रहना ही कसौटी है उसके लिए। सुबह से शाम तक तंत्र से पैसा उगाएँ और रात में क्रांति को लेकर टकराएँ! घर में पत्नी का ठिकाना नहीं पड़ोसन को घर दिलाने की उड़ेधबुन, आचरण-व्यवहार में अंतर से अधिक कुछ नहीं।
मैंने तुम्हें वह सब चीजें भी सौंप दी, जिनके बारे में मुझे भी संशय था कि वे सब मेरे ही पास थीं।
-मिरांडा जुलाई
-हौसले के साथ जीना ही तो जिंदगी है!
मुझे भविष्य का पता नहीं पर फिर भी मैं हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहता हूँ।
-फुयूमी सोरयो
-जहाँ में जो मिले, उसे मुकम्मल बना लेना चाहिए!
मुकम्मल मान लेने और मुकम्मल बना लेने में जमीन-आसमान कर फर्क है।
मानना एक-तरफा होता है जबकि बनाना परस्पर।
जीवन को साधारण बनकर ही जीने की कोशिश करनी चाहिए, असाधारण जीवन हर किसी के बस का नहीं होता और खैर दुनियावी मामले में दुख देता है सो अलग।
-अगर जीवन में कभी भी स्वयं को गलत दिशा में पाओ तो उस रास्ते को छोड़ दो।
-मैंने तो सहज ही मानव मन की प्रकृति के अनुरूप लिखा था. राजस्थान के अपने ननिहाल के गांव में जब अंधेरे में अकेले निकलते थे तो 'कोई है?'
डर से अधिक अपने-से किसी और की उपस्थिति का आभास, विश्वास को दृढ़ करता था.
-जहाँ में जो मिले, उसे मुकम्मल बना लेना चाहिए!
अगर कोई संकट है तो वह मेरे लिए हो। मेरे बच्चों के जीवन में शांति रहे।
-थॉमस पेन
-यादें आदमी ही नहीं वक्त को भी 'ठहरा' देती है।
-जीवन संतुलन का दूसरा नाम है।
-सहृदय हो पर दूसरों को अपनी अवमानना न करने दें।
-भरोसा करें पर धोखा न खाएं।
-अपने में संतुष्ट रहते हुए भी स्वयं को उन्नत करने के लिए तत्पर रहें।
-बचपन के किसी 'बड़े' को अपनी अधेड़ उम्र में मिलने के अवसर को टालना, अपने बचपन में लौटने से वंचित होना होता है।
-कहीं अगर वह 'बड़ा' ईश्वर के घर निकल जाएँ तो उसके साथ बचपन का दरवाजा हमेशा के लिए बंद हो जाता है।
-फिर रह जाता है, अकेलापन, पश्चाताप और जीवन के बेमानी होने का अहसास!
-सो, समय रहते 'बड़े' से मिलकर अपने बचपन में लौटने की कोशिश को टालना नहीं चाहिए।
-बाकी जीवन है तो कट ही जाता है, बिना अपराधबोध के बीते जो ज्यादा अच्छा।
-वैसे भी तन के कष्ट से मन का कष्ट अधिक भारी होता है।
-संस्कार, मूल्य और बुद्धिमता किसी हाट मोल नहीं मिलती।
-हर आदमी अपना सबसे अच्छा जज है, हम किसी दूसरे पर फतवा नहीं दे सकते! मेरा आशय भी यही था कि अपना आकलन तुम ही सबसे बेहतर कर सकते हो।
हर रचनात्मक व्यक्ति में पागलपन का अंश तो होता ही है, जो उसे सामान्य से असामान्य और फिर अति सामान्य तक ले जाता है।
श्री अरविंद के अपनी पत्नी मृणालनी के नाम पत्र पुस्तक में कुछ ऐसी ही बात व्यक्त की है।
अब समझे पागलों की भी एक 'बस्ती' (इंतज़ार हुसैन वाली) है!
-बीते हुए वक्त का मौजूदा घड़ी पर कोई अख़्तियार नहीं होता है।
-मन को जो सही लगे कई बार वह गलत भी होता है, फिर भी मन की करने से अफसोस नहीं रहता। दूसरे बेशक शिकायत करें पर खुद को कोई शिकायत नहीं रहती।
-वैसे मेरी अँग्रेजी पर मुझे ही भरोसा नहीं है!
-समय के अनवरत प्रवाह का प्रतीक है, माँ-बेटे का संबंध।
-कभी मैंने परीक्षा के लिए इतिहास नहीं पढ़ा बस अपने आनंद के लिए पढ़ा। जो मतलब के लिए पढ़ा वह भाप बनकर उड़ गया और जो मन से गुना वह ही नमक बनकर मन में रह गया।
-भाई, खोजने से भगवान मिल जाते हैं, सो यह तो इतिहास है जो बिखरा हुआ है, यत्र-तत्र-सर्वत्र! बस सहेजने वाला चाहिए, प्राण प्रतिष्ठा तो जन-जनार्दन कर ही देता है। शर्त इतनी भर है कि आप रतौंदी से ग्रसित नहीं होने चाहिए।
-चेहरे पर दस्तक देती उम्र का पता चलता है, धीरे से जिंदगी का एक सफा खुलता है।
-आखिर लिखने वाले की अंतिम कसौटी तो पाठक ही होते हैं बाकी तो बस भ्रम है।
-दो विपरीत ध्रुवों का भी गठजोड़ ही चुंबक के समान स्थायी होता है।
-विवाह का एक लक्ष्य एक समान सोचना नहीं बल्कि एक जैसा सोचना है।
-जीवन में आगे बढ़ते रहने का मतलब भूलना कतई नहीं है।
-वह तो बस दुखी होने की बजाए खुशी को चुनने भर का प्रतीक है।
-शत्रु तो देह मात्र को ही कष्ट देते हैं, मित्र तो आत्मा को लहू-लुहान कर देते हैं।
-बात निकलेगी तो दूर तलाक जाएंगी, चचा ग़ालिब कह गए हैं।
भला होना ज्यादा रोचक है!
-टोनी मॉरिसन
-माँ, शिक्षित थी, साक्षर नहीं सो इतना सहज कर गई!
-व्यक्ति विशेष से हट सकते है, उसे हटा सकते हैं। पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण दुख के भाव से निवृत होकर मन की शांति को प्राप्त करना है। ऐसे में, 'व्यक्ति' से ज्यादा जरूरी 'भाव' से मुक्ति है।
-अपने लोगो से जुड़े रहने का लालच ही अभी बनाए हुये है।
-मनुष्य की स्थिति, स्वभाव नहीं हो सकता है।
-जब स्कूल में कोर्स में किताब पढ़ते थे तो रस नहीं आता था, अब नीरस जिंदगी से बचने के लिए किताब में रस खोजते हैं।
-अर्थपूर्ण मौन, अर्थहीन शब्दों से हमेशा बेहतर है।
-जीवन के इंद्रधनुष के रंग को साफ देखने के लिए सूरज और बारिश दोनों की समान जरूरत होती है।
-दुनिया के कहने से ज्यादा अपने सपने को पूरा करने पर यकीन करना चाहिए।
-जीवन में शक्ति के आवेग से अधिक निरंतरता का महत्व है।
-जब तक सीखते रहते हैं, तब तक जिन्दा रहते हैं नहीं तो बस बुत रह जाते हैं, बिना आत्मा के!
-शब्दों से परे है, मित्रता। शब्दातीत।
-जिंदगी में अचानक कुछ नहीं होता! जो कि इंसान बहुत ही बेखबर है।
-दिल की आवाज़ तो बिना वाई-फ़ाई के बिना ही 'हाई' होती है।
-'मित्रता दर्शन और कला के समान अनावश्यक है। मित्रता स्वयं में बेमानी होते हुए भी अस्तित्व के महत्व को मूल्य प्रदान करने वाले तत्वों में से एक है। "
- सी.एस. लुईस, द फोर लव्स
-बेल आसमान में कितनी ही ऊपर भले क्यों न चली जाएँ, जड़े तो धरती की भीतर ही समाई होती है। बाकी हर नियम का अपवाद होता है, सो अपवाद को न याद रखते हुए अच्छाई के नियम पर अपना भरोसा रखना चाहिए।
-मेरा बेटा ही मेरी बात सुनता है पर करता अपने मन की है। जो उसे सही लगता है।
सो समाज में भी जिसको अगुवाई करनी है, उसे अपना खुद का उदाहरण सामने रखना होगा।
सिर्फ आप कह रहे हैं, वह काफी नहीं है।
समाज और सभा को 'राजनीति' से ज्यादा 'सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक' समस्याओ' के निदान पर ध्यान देना होगा।
जैसे लड़कियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार।
अगर लड़की को यह मिल गया तो वह पति सहित परिवार चला लेगी।
नहीं तो लड़को की हालत आप ज्यादा अच्छी से जानते हों।
-रोशनी से सबका ही भला होता है, फिर ज्ञान का प्रकाश तो किसी में कोई अंतर नहीं करता!
-बुद्ध ने कहा है, अप्पों दीपो भाव, अपना दीपक स्वयं बनो। मतलब खुद का रास्ता, खुद ही बनाना है और तय करना है। अगर आप व्यक्ति के रूप में अच्छे हैं तो पिता भी, पुत्र भी, पति भी, भाई भी सभी भूमिकायों में बेहतर होंगे। साथ ही समाज का भी एक प्रेरक तत्व होंगे, नहीं तो बस "नेतागिरी" से समाज टूटता है, जुड़ता नहीं। आज राजनीति जोड़ने की बजाएँ तोड़ने का काम कर रही है, फिर चाहे वह समाज की हो या देश की।
-आप अपने शौक का मनपसंद काम करते हुए थकते नहीं हो। सो, बिना थके-रूके करते जाते हो, अपनी ही प्रेरणा से।
-नौकरी तो आजीविका के लिए है, जीवन के लिए है, लिखना।
-जिसको झेलना पड़े, वह रिश्ता कैसा ?
-मन की जिजीविषा सब पर भारी है।
-जिंदगी में हम दोस्त चुनते हैं, दुश्मन हमें चुने-चुनाएं मिलते हैं।
-जहर चाहे चासनी में डूबोेकर दिया जाएँ, मौत ही मिलती है। ऐसे ही, दवा पीने में भले ही कड़वी हो पर देती फायदा ही है। सो, यही फर्क है मार्क्सवाद और राष्ट्रवाद में।
-काम करो और निरंतर प्रयासरत रहते हुए जीवन में बेहतर करों।
जीवन की अच्छी बातों को स्मरण पाथेय बनने दो।
-पिता का मान होती है, बेटी।
-कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
... क्योंकि सपना है अभी भी!
यह पंक्तियाँ धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कविता 'क्योंकि सपना है अभी भी ' की है। बाकी देखा जाएँ तो "सपनों का कोई सौदा नहीं होता" अगर होता तो उसका कोई मोल नहीं होता क्योंकि वह अनमोल होता है।
-संस्कृति, अजर-अमर होती है, प्रतीक भी।
क्षण-भंगुर तो देह है, पुण्य भी करती है और पाप भी करवाती है।
आत्मा सच है, चिरंतन है सो देह के गुणगान पर इतना ज़ोर क्यों?
फिर यह तो संतन को क्या सीकरी से काम का देश है, सत्ता से पुरस्कार-तिरस्कार से कला को नापना ही तो उसकी अंतरनिहित कलुषता का सार्वजनिकीकरण है।
दोस्ती करों या दुश्मनी, निभाओ पूरे धर्म से।
किसी की मौत के बाद उसमें सब अच्छा ही देखना और कहना, हमारे समाज के दोगलेपन का परिचायक है। मानो मरने के बाद शैतान भी देवता हो जाता है और आपका विरोधी सबसे बड़ा हितैषी!
आखिर कथित 'नेहरूवादी मॉडल' भी तो सोवियत संघ की ही नकल था, मूल ढांचा तो वहाँ ढह गया अब यहाँ उसकी शव-साधना बची है।
शव साधक बंदरिया की तरह मरे बच्चे को छाती से चिपकाए विधवा विलाप कर रहे हैं।
-नहीं समझ पाएँ तो ज्यादा अच्छा। समझ जाते तो फिर लिख नहीं पाते।
-सफर में साथी खूबसूरत और दिल को सुकून देने वाला हो तो समय का पता ही नहीं चलता।
-सीखना एक कभी न समाप्त होने वाली प्रक्रिया है जो जीवन में नए क्षितिज खोजने में सबल बनाती है।
-जीवन में एक लक्ष्य निश्चित करके उसे साकार करने के लिए अपनी क्षमता, कौशल और परिश्रम का प्रयोग करने से स्वत: ही उपलब्धियां हासिल होती है।
-यह सोचने वाली बात है कि समाज में 'क्रांति' करने या लाने के 'क्षणिक' आवेश का भाव जीवन की 'क्षणिकता' का 'आत्मा हत्या' जैसे अतिरेकता वाले निर्णय तक कैसे पहुँच जाता है। यह कैसा मनोविज्ञान है, डटकर मोर्चा लेने का या फिर आगे बढ़कर-निर्णायक रूप से पीछे हटने का!
-जीवन की धड़कनों से शब्दों की गिनती अधिक है।
-जब आपके मन की बात कोई और हूबहू लिख दें तो फिर ऐसे में आप लिखने के प्रपंच से बच जाते हैं। ऐसे में, आप शब्दों को 'जाया' करने से बच जाते हो।
-समय, सूत्रधार बनकर अपने चाक पर कृति गढ़ ही देता है।
-शेष, निमित्त-साधन तो भौतिक उपादान है।
-संसार है सो भार है, अधिभार है और साभार है।
-बाकी आईआईएमसी तो हीरों की खान हैं, कौन सा हीरा कब कोहिनूर बनकर तख्त-ताज में जुड़ता-जमता है वो तो बस कर्मों की गति-फेर हैं।
-बाकी कुछ कहूँगा तो बाकी संगी-साथी नाराज़ होंगे।
-आपने तो 'कह' ही दिया है, सो "हाथी के पाँव में सबका पाँव"।
-जब व्यक्ति अपने को नीचा दिखने वाले व्यक्तियों पर ध्यान न देकर स्वयं पर भरोसा बनाए रखता हैं और अपने को कमतर आँकने वाले दूसरे सभी व्यक्तियों को मुस्कुराहट के साथ दरकिनार कर देता है तो ऐसे में उसकी सफलता सबसे बड़ा 'प्रतिशोध' है।
-स्वयं को सही साबित करने के लिए दूसरे को गलत बताना जरूरी नहीं है।
-पुस्तक मेला तो आनंद का उत्सव है, शब्दों का जमघट, मोर्चा कैसा ?
-पथ तो अनजाना और अनाम ही होता है। हाँ, पंथ जाना और नाम वाला होता है।
-अपने लोग होते हैं तो एक ताकत रहती है।
-दोगले जब रक्त शुद्धता की दुहाई देने लग जाएँ तो गुस्सा कम और तरस ज्यादा आता है।
-बेटी, पिता का खुला-स्वाभाविक प्रेम और बेटा अव्यक्त-अविरल स्नेह का प्रतीक होता है।
-जब कर्म और वचन में दुराव हो जाता है तो शब्द अपना अर्थ खो देते हैं।
-परस्पर संवाद गुणकारी होता है नहीं तो वाद-विवाद से तो अलगाव ही होता है।
-हम सब एक अव्यक्त बंधन में बंधे हैं, सो वैसे ही रहे तो बेहतर!
-सफलता का दर्द नहीं दिखता, रिसते घाव छिप जाते हैं।
-रास्ता जो मंजिल तक पहुंचा दे, वही असल है।
-दर्द, जीवन में सुखों की क्षणिकता को पहचाने की दृष्टि देता है।
-बाहर रहो या घर में 'बजना' तो है ही। अपनो में रहे या गैरों में !
-जीवन में तिल-गुड़ की मिठास हो...उसे पचा सकें, ऐसी प्रयास हो!
(मतलब श्रम करें और तनाव मुक्त रहें ताकि 'शुगर' न हो)
-अच्छे स्वास्थ्य की कामना के साथ मकर सक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएँ।
-प्रेम अनंत और प्रेम भावना अनन्या है।
-आज दोपहर में बीबीसी हिन्दी की वेबसाइट पर "खिचड़ी" पर यह लेख पढ़ा था, अब घर में बाजरे-तिल-मोठ की तिल के तेल के साथ बनी "खिचड़ी" खाने को मिल गयी।
सो, अनायास ही आज अपने ननिहाल-नानी-माँ की याद आ गई।
इसी को कहते हैं जो पढ़ोगे सो पाओगे !
अब तक तो गुना था, आज स्वाद भी ले लिया।
-पुस्तक मेले में जाकर व्यक्ति अपने में ऊर्जा से सराबोर हो जाता है। ऐसे में समय कहाँ बीतता है, पता ही नहीं चलता। बाकी मित्रों से मिलने का सुखद संयोग तो है ही, फिर चाहे वे पीछे से मिले या आगे तपाक से।
-अब तो कोई मन से रोता भी कहाँ है, सब रूदाली जो हो गए हैं।
-साँप को केसर युक्त मीठा दूध पिलाने से भी विष भरा डंक ही मिलेगा। अब कुछ और प्रतिफल मिलने की अपेक्षा भ्रम से अधिक कुछ नहीं सो भ्रम हमें न रहे तो भी बेहतर!
-ईश्वर शब्दों का चुनने का अवसर विरलों को देता है। शब्दों के साथ अपनी सार्थकता साबित करने का।
-गुरु तो ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है, उस पर चलना तो स्वयं होता है।
-जीवन में व्यर्थ कुछ नहीं होता, पुराना ही खाद बनकर नए आने वाले कल के रूप में कोपल बनकर फूटता है।
-रतौंदी रोग से ग्रसित तत्कालीन पुस्तकों में अब तो सुधार हो, समय की मांग है!
-चलते रहना ही एकमात्र चुनौती है !
- मजबूरी को क्षमता का नाम वह भी महज़ पेट की मजबूरी...दो बीघा जमीन से मालदा की मजबूरी से ज्यादा कुछ नहीं।
-भीरु लड़की के स्थान पर वीर माँ जीजाबाई की जरूरत है!
-सच्चाई किसी की मोहताज नहीं, बस रोशनी में आने में देरी की जिम्मेदारी उसकी नहीं!
-सच, अपच होता है, झूठ कहाँ पच जाता है, पता ही नहीं चलता!
-हिंदुस्तान के की माँ, बहन, बेटी, पत्नी और प्रेमिका के अपने शहीद के याद में बहने वाले आँसू कब बहने बंद होंगे।
-एक परिवार में काम करने वाले और सबकी सुनने-ध्यान रखने वाले बेटे की सार्वजनिक रूप से आलोचना और बिगड़ैल लड़के की दबे-छिपे आलोचना, नहीं बुराई भी ऐसे ताकि उसे बुरा न लगे!
-अब संयुक्त परिवार की ऐसी परंपरा से भारत कब उबरेगा।
-स्त्री ही काम की है, पुरुष तो जड़ से ही बेकार है।
-जीवन में परिवार ही मूल का उत्स है।
-कलेंडर के बदलने के साथ जीवन में भी पात्र और घटनाओ के रूप-अर्थ भी बदल जाते है।
-पिता का "मातृत्व" सर्वाधिक सहज-स्वाभाविक रूप से "भोजन" के रूप में परिलक्षित होता है।
- दुनिया का सबसे सुंदर और स्थायी साथ, बिटिया का।
-जीवन में माँ की रिक्तता, एक स्थायी दुख है। इस दुख की तिक्तता हर क्षण जीवन की क्षणभंगुरता के भाव को जागृत रखती है।
-जीवन में प्यार हमेशा दर्द से बड़ा होता है, तभी प्यार जीतता है और जीवन चलता रहता है। नहीं तो अगर दर्द जीत जाएँ तो जीवन का अंत हो जाए।
-सुख नहीं, ख्याति नहीं, केवल विरोध पाकर बढ़ते रहो।
-जीवन में सरकार और नौकरी से कहीं ज्यादा जरूरी साथी है।
-जीवन में रास्ते तो अनेक हैं पर यात्रा तो एक ही है।
-बुद्धि के बिना राग-विराग का ज्ञान संभव नहीं होता है।
-स्मृतियों का गाँव या गाँव की स्मृति !
-पुरानी पुस्तकों की खुशबू बीते समय में ले जाती है। एक यही शौक है, सो जो पूरा हो जाएँ, कम है।
-सही है, जै रामजी की तो फिर भी यदाकदा सुनाई दे जाता है तो कानों को अखरता नहीं बाकि लाल सलाम का रास्ता-वास्ता तो दक्षिणी दिल्ली के लाल-किले में ही भटक-भटका हुआ है. वह बात अलग है कि समय की सुई ऐसे अटकी हुई है कि देर-सवेर कुछ सुनाई दे जाता है और गोरी के प्रेम में चहुँओर एक ही फ्रेम-तस्वीर देखने की रतौंदी सरीखा कानों वाले रोग में भी सब लाल सुनाई देता है।
-निज अभियक्ति में समूहिक पीड़ा को स्वर देना असाधारण बात है।
-प्रतिभा को तो मान्यता समाज और आम जन देते हैं, शेष तो सत्ता की गुलामी है।
-ज्ञान का ताप, भौतिक शीत को भी शांत कर देता है।
-स्थान-समय से परे प्रेम।
-अस्वीकृति ही आशीर्वाद है।
-समय के साथ अर्थ, व्याख्या और सन्दर्भ सब परिवर्तित हो जाता है. कनाट प्लेस में रहते हुए मैंने कभी पिज़्ज़ा या बर्गर नहीं खाया पर शादी के बाद पहली बार पत्नी के लिए अब संतान की खातिर में न केवल वह जाता हूँ बल्कि खाता भी हूँ सो समय के साथ अर्थ, व्याख्या और सन्दर्भ सब परिवर्तित हो जाता है।
-सपना और सच्चाई में हमेशा जमीन और आसमान का अंतर होता है, खैर सपने देखना कब मना है, कौन से पैसे लगने हैं! यहाँ सोचने और उसको साकार करने की कसौटी है।
-यह बचपन ही असली जीवन है बाद में तो बस...
-दुख की फांस थोड़ी भी रह जाएँ तो बड़ी दुखदाई होती है, सुख का क्या है? वह तो आता है चला जाता है।
-निगमबोध की चिता पर न तो शब्द, न भक्त कोई साथ नहीं लेटता. बाज़ार और भीड़ दूंढ लेती है फिर कोई नया चेहरा चमकाने को अपना वजूद-अहंकार.
-जीवन में कई बार हारने से ज्यादा किससे हारे, वह बात मन को ज्यादा कचोटती है.
-अज्ञानता ही तो सीखने की इच्छा पैदा नहीं होने देती...
-कुछ बारिश को महसूस करते हैं तो कुछ उसमें भीग जाते हैं.
-पर जिन्हें अंग्रेजी आती नही, हिंदी जानते नहीं उनका क्या करें?
प्यार में फेर में पड़ने वाला दरसल अपनी जिंदगी के गुमशुदा पलों को खोज रहा होता है. सो, प्यार की जकड़न में पड़ने वाला अपने चाहने वाले के बारे में सोचकर दुखी होता है. यह अच्छी यादों वाले एक कमरे में दोबारा घुसने सरीखा होता है, जहाँ आप एक लम्बे अरसे से नहीं गए होते हो.
-हारुकी मुराकामी
-जीवन में कई बार अनजाने रास्तों के जोखिम को उठाने की बजाए सुरक्षित यात्रा करते हुए मंजिल तक पहुंचना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है.
-जिंदगी में साथी छोड़ा नहीं जाता बल्कि छूट जाता है.
-उसकी लोगों को किताब के सफे की तरह पढ़ने की शफ़ा, एक नियामत भी थी और एक शाप भी.
-वास्तविक गुरु, संख्याबल में अधिक शिष्यों वाला न होकर सर्वाधिक शिष्यों को गुरु बनाने की पात्रता प्रदान करने वाला होता है.
-किसी भी सयुंक्त परिवार के बाह्य वैभव की धुरी एक व्यक्ति की परिवार के भीतर सर्वकालिक उपस्थिति होती है जो सार्वजनिक में नज़र नहीं आती है। उसके महत्व का ज्ञान और उपस्थिति का भान, व्यक्ति के न रहने पर ही होता है।
लखटकिया वकील न हो तो कमर खटिया को लग जाती है पर इंसाफ का इंतज़ार ही रहता है!
और बस मिलती है
तारीख पर तारीख!
-ऑस्कर वाइल्ड, द पिक्चर ऑफ डोराएन ग्रे
-भूमि का असर है या फिर बस नाम का ही शर है।
-दलाल खुद को दलाल कहे तो इसका यह मतलब नहीं है कि दुनिया उसे दलाल से कुछ और मान लेगी!
-आखिर अगर किसी ने देह-जीविकाओं के मोहल्ले में मकान ले लिया और शाम को अपने यहाँ किसी को आने का न्योता दिया तो फिर आने वाला अपने साथ बोतल ही लाएगा भजन करने वाला मंजीरा तो नहीं।
-अब ऐसे में, कौन असली कसूरवार हैं, यह तो यक्ष प्रश्न है?
-आखिर निसंग से ज्यादा संगत का असर होता है।
-ब्लॉग तो पार्किंग लौट है, लिख पर उस पर जमा कर लीजिये. बाकि एक डायरी रखे जो समझ में आये, लिख डाले, संपादन-विवेचना तो बाद की बात है. अरे, संजीदगी को मारिये गोली, बस लिखना शुरू कर दे, जो आपको पसंद हो, सोचिये आप ही विद्वान है और बच्चों के लिए लिख रही है. जब छपने लगेगी तो अपने आप विश्वास हो जायेगा. बाकि ब्लॉग तो है ही, लिखकर उस पर डाल दीजिये. बढ़िया, आप ऑनलाइन दिखी तो सोचा राम-राम कर ली जाएं.
-जीवन है तो ऊपर-नीचे तो होता ही है, सो घबराना कैसा ?
-आज की आपाधापी भरे जीवन में संवाद के आधुनिक साधन स्मार्ट फ़ोन से लेकर फेसबुक और ट्विटर तक ने भूगोल की दूरी को बेशक कम कर दिया है पर आपसी मेल-जोल और शारीरिक अनुपस्थिति को बढ़ा दिया है. वह ननिहाल में बड़ों के पैर छूना और गलबाहियों से आशीर्वाद पाना मानो ब्लैक एंड वाइट ज़माने की देवानंद-दिलीप कुमार की फिल्मों का होना हो गया है. आज के रंगीन दौर में चमकीलापन तो है पर जीवन की चमक और उसका रस मानो कमतर हो गया है. खैर, अपने घर-आँगन के इतिहास को अपनी संतान से साँझा करने और उनमें उसकी समझ पैदा करने का गुरुतर दायित्व हमारा ही है. सो, उस दिशा में यह एक पहल दूसरों के लिए भी दीये का काम करेंगी यही आशा है. दुनिया के चमकदार रोशनी में अपने गांव-खेत-चौबारे का अँधेरा भी दूर हो इसके लिए शहर से उन तक जाने वाले रास्तों की समझ का दिशा-बोध होना जरूरी है.
-इसके होने से ही खेत के दरवाजे के कोने में बनी समाधि पर अगरबत्ती-धूप की उपस्थिति ही चिर निद्रा में सोये पुरखों से नयी पीढ़ी का तार जुड़ेगा. यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि शहर में तो न अब खेत हैं, न समाधि बनाने की परंपरा सो हमारी किस्मत में तो बिजली के शवगृह में राख होकर मैली यमुना में तिरोहित होना बदा है.
-और फिर एक योग्य-मेधावी संतान तो जीवंत प्रमाण है. सो, शंका कैसी.
-पता नहीं हिंदी साहित्य का स्त्रीवादी विमर्श आदमी-औरत को लेकर "आजादी", "अंतर", "अंतर्विरोध" जैसे जुमलों की चौखट से कब बाहर निकलेगा. जब शादी से पहले शारीरिक संबंध, विवाह पूर्व सहजीवन, विवाहेत्तर संबंध का जीवन जीने और उसे ही प्रगतिशील लेखन का मापदंड बनाने वाली महिलाओं को ही साहित्य के शीर्ष पर देखना सचमुच समाज की सोच और उसके साहित्य से संबंध मन को प्रश्नाकुल बना देता है. फिर लगा कि घर में अपनी माँ, बहिन, पत्नी और बेटी को लेकर ऐसा कभी क्यों नहीं लगा, शायद परिवार के कारण.
-विश्वास सबसे बड़ी पूंजी होती है, अपनी भी और औरों की भी. बस होने और न होने में महीन से रेखा ही होती है, विश्वास में वह दिखती नहीं और अविश्वास में उसके सिवाय कुछ और नहीं दिखता.
-कुंडली तो कोई भी बांच सकता है, भाग्य कैसे बांचेगा !
-सिवाए चंद चोट के निशान और ग्लानि के कुछ हासिल नहीं, वहीँ नया रास्ता और जुदा मंजिल इंतज़ार में है कि कोई आएं तो सही जिसे बांहों में ले सकें. तो अब तो संभाले खुद को और दूसरे को उसके लिए छोड़ दे.
''पिछले दस वर्षों से हमारे देश में 2774 नए नगर-उपनगर वजूद में आ गए हैं!''
— (''डाउन टु अर्थ'' अक्टूबर 2014)
-आग तो बराबर के दो पत्थरों के रगड़ने से ही निकलती है, जैसे यज्ञ में लकड़ी-कुशा के माध्यम से अग्नि प्रज्वलित की जाती है।
-दो टके की नौकरी में बच्चों के बचपन का साथ छूट जाता है और जब होश आता है तो बचपन को दोबारा जीने के अनुपम अवसर को गंवाने के अहसास के अलावा कुछ नहीं होता. शायद इसीलिए विलियम वर्ड्सवर्थ ने कहा था कि हर बच्चा, आदमी का अपना ही प्रतिरूप होता है.
-दिनकर की प्रसिद्ध पंक्ति है, समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।
-मन दांए जाना चाहता है तो तन बाएं जाता है.
-फिर भी हम कहते है कि हम जीवन जी रहे हैं जबकि सच होता नहीं है. असल बात तो यह होती है कि जीवन हमको बिता रहा होता है.
जब तक असलियत से हम दो-चार होते हैं, जीवन बीत चुका होता है!
-ज्ञान का आयु और अध्ययन की अपेक्षा अनुभव से संबंध है.
निष्ठा, धैर्य और उम्मीद...
सो मन को मनाये रखे... ऐसे में विश्वास को कायम रखते हुए, खुद को टिकाए रखना ही तो असली चुनौती है. वह बात अलग है कि रात हमेशा लम्बी लगती है और दिन के उजाले थोड़े !
-फेस बुक पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बिना (माँ की) गाली के अपने माँ-पिता के साये में परिवार के साथ उनके ही घर में रह रहे हैं.
-हर रोज़ बिना नागा, बिना किसी डे को मनाने की फूहड़ता से बचते हुए.
-सो उम्मीद कायम रहने के लिए, अंधेरे में दिया-बाती और तेल नहीं चुकना चाहिए.
-प्रकृति के नियम बाँधते हैं
मीठे फल-विष एक डाल
सहज-कुटिल व्यक्ति एक ताल
पीड़ा और गहरे सुख एक जाल।
और वहीं
प्रकृति के नियम
उन्हें विलग भी रखते हैं।
डाल, ताल, जाल से सुर बन गया और अंत में गद्य की गरिमा.
सो अब इस नंगे सच के बाद कुछ बोलने की बात बेमानी है.
(सलमान खान के अंगरक्षक पुलिस कांस्टेबल की फटेहाली में हुई असमय-मौत की दर्दनाक कहानी पढ़ने के बाद)
फिर इस प्यार के क्या मायने?
और अगर यह है तो
फिर केवल यही प्यार क्यों?
तुम्हारी देह का एक हिस्सा
स्याह अंधेरे में था उस पार,
पार्क तक देखने को
सिर्फ एक खिड़की थी
दिन-सारा, बंद ही बीत गया
केवल एक खिड़की थी
जो रात बार जगी-खुली रही
तुम्हारी देह का एक हिस्सा
स्याह अंधेरे में था उस पार,
पार्क तक देखने को
सिर्फ एक खिड़की थी दिन-सारा,
बंद ही बीत गया केवल एक खिड़की थी
जो रात बार जगी-खुली रही
चित्र की अवस्था का ज्ञान तो बनाने वाले के मन और अंगुलियों को पता होगा, दूर से निहारने वाले को तो आकर्षण ही खींचता हैं और काम से बड़ा तो जीवन का कोई आकर्षण नहीं !
हिम्मंत न हार, आएंगी मंजिल आख़िरकार.
कैसी शर्म, कैसा घबराना !
घर में पुस्तके, जीवित देवता है.
कफ़न कोई देता नहीं है, उसे तो जुटाना पड़ता है.
ग्रीनपीस
क्या अरब देशों में भी ग्रीन (हरियाली) पीस (शांति) हैं ?
अगर नहीं तो भारत से सीधे वही जाना चाहिए क्योंकि वहां हरियाली और शांति की सबसे ज्यादा जरुरत है.
-इंसान पहचानने में तो तुम पारखी थे ही अब सलीके-से सटने की बात को भी खूबसूरती से कहने में माहिर हो गए हो. भाई, मैं तो आज से तुम्हारा मुरीद हो गया हूँ.
-सत्य तो ही वास्तविक होता है, उद्घाटित तो असत्य को करना पड़ता है. फिर सत्ता चाहे कैसी भी क्यों न हो उसका मूल चरित्र ही छिपाना होता है, सुभाषचन्द्र बोस से जुडी सूचना का मामला इसका उपयुक्त उदहारण है.
जीवन तो रपटीली राहों से बनकर ही आगे बढ़ता है, लीक से हटकर ही इतिहास बनता है.
राज होगा तो राजा होंगे, राजा होगा तो दरबार, दरबार तो दरबारी, दरबारी तो षड्यंत्र, षड्यंत्र तो युद्ध और युद्ध तो छली, दुत्कारी और दुख तो महिलाएं ही पाएंगी और बचने के लिए पुरुष साका तो स्त्री जौहर करेंगी.
दुष्चक्र का चक्र कहाँ, कैसे रुकेगा, यही सनातन धर्म की खोज है.
-अब तो उनके लिए ही जाना जरुरी है, हम तो बीत ही गए हैं, थोड़ा-थोड़ा उनमे ही जीकर जीने की सार्थकता पाई जा सकती है.
-सही में, मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए हैं, याद दिलाने के लिए शुक्रिया. जीवन की आपाधापी में जरुरी चीजे छूट जाती है और गैर जरुरी चीजे समय बीता देती है.
फिर भी सरक-सरक, जा पंहुचा लकीर-लकीर.
हम तो अंधे हैं सो अनुमान पर ही जीते है पर फिर भी आंख वालों सीे तलाश में रहते हैं.
मन से या मजबूरी से !
यहाँ तो मन के नेह से ज्यादा मजबूरी का ही नाता लगता है
पत्रकारों को नहीं मानेंगे तो छपेंगे कैसे और बाबुओं के बिना मदद मिलेंगी कैसे?-मिर्जा ग़ालिब ने भारतीय काव्य परंपरा में 'गम' को जोड़ा जैसे कभी यूनानियों ने भारतीय नाटकों में दुखांत को जोड़ा था.
अपनी व्यर्थता को पहचान सकना ही जिंदगी का असली सबक है.
जीवन में समय का करीने से इंतज़ार और फिर सफलता मिलने पर समय का सही उपयोग और कायदे से अपनों का सहयोग यही सूत्र वाक्य होना चाहिए .
धैर्य, केवल प्रतीक्षा करने की क्षमता न होकर प्रतीक्षा की घड़ियों में संतुलित व्यवहार को बनाये रखना है. जीवन में मिली एक छोटी सी विफलता का अर्थ असफलता कतई नहीं है. इसका वास्तविक मर्म तो यह है कि आपकी परीक्षा थी और उसमें हतोत्साहित नहीं हुए.
भाषा का संयम और मर्यादा रहे तो सन्देश अधिक सार्थक होगा.
नेपाल भूकंप की त्रासदी को लेकर अभी तक सफ़ेद कबूतर और मोमबत्ती वाले नहीं आएं और न ही स्त्रीवादी विमर्श वाली महिलाएं दिखी हैं.
भोजपुरी-मैथिल का तड़का लगाकर, देस का होने का भ्रम देने वाले उत्तरी बिहार की त्रासदी को शायद देख नहीं पा रहे हैं.
इन सबकी अनुपस्थिति में बौद्धिक चैनल उनके बिना विधवा स्त्री की सूनी मांग-सा लग रहा है.
आखिर हम लोग बहस कैसे करेंगे?-पर जाकर लगा कि आजकल कितना सतही हो गया है, हम सबका ज्ञान ! पता नहीं किस तरफ जाएंगे हम सब. अरे, मैं तो स्वयं ही सीखने में लगा हूं, सीखना तो दोतरफ़ा चीज़ है, तबले पर संगत जैसा, जिसके लिए दो व्यक्ति जरुरी है. ऐसा कुछ नहीं है, जब तक सीखते रहते हैं, तब तक जिन्दा रहते हैं नहीं तो बस बुत रह जाते हैं, बिना आत्मा के.
वो तो तुम थे जिसने उसे संवार दिया
मंगलसूत्र कारक है तो विवाह कारण, अब तो सहजीवन का भी विकल्प है, जब तक जी चाहे रहो नहीं तो दोनों अपने-अपने रास्ते! (२० तमिल महिलाओं के मंगलसूत्र पहनना छोड़ने की घटना पर)
अभी एक पोस्ट पढ़ी तो पता लगा कि सावन के अंधे को सब हरा ही हरा क्यों नज़र आता है, खैर दिल्ली के 'राष्ट्रीय' मीडिया के रतौंदी तो जग जाहिर है.
कल ही बंगलूर में मिले, एक टीवी पत्रकार बता रहे थे कि कैसे एक राष्ट्रीय 'पढ़ा लिखा' चैनल आधारहीन आरोप को लेकर स्टोरी बनाने पर जोर दे रहा था. जिसके लिए उन्होंने साफ़ मना कर दिया और ज्यादा जोर देने पर दिल्ली से ही हवाई स्टोरी करने का सुझाव दिया.
ऐसे में, हरियाली के अंधों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है !
मीडिया आम आदमी की घर में छतरी से झांके तो आबरू खतरे में और जब आम आदमी मीडिया का चरित्र आंके तो तू कौन!
लोकतंत्र का चौथा खम्बा या अंतिम विद्रूपता !
मैं देर करता नहीं, देर हो जाती है...
तालिबान ने बामियान में विश्व भर में बलुआ पत्थर की बुद्ध की सबसे ऊंची मूर्ति को विस्फोटक से नष्ट करने के बाद नौ गायों का वध किया था.
सोच, स्मृति या समझ या कोई पुराना दर्द!
जो रह-रह कर उठता है और पैदा होते हैं नए विवाद.
गोरी जसोदा तो श्याम कैसे सांवला ?
चाहता हूँ किसी के दुख का कारण नहीं बनूं पर अकारण अपनों के ही दुख का निमित्त बन जाता हूँ...
हिंदी के कितने लिखाड़, अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते हैं!
आदतन या कभी अटपटा लगा ही नहीं.
जब आज में उम्मीद लायक कुछ न लगे तो कल की ही उम्मीद बचती है...
सफलता की कहानी तो सिर्फ सन्देश देती है पर असफलता की कहानी, सफलता के सबक देती है.
अनुशासन के लिए उठाया गया कष्ट, पश्चाताप की पीड़ा से लाख गुना बेहतर है.
हम बहुधा दूसरों के साथ अतिशय सदाशयता बरतने, कुछ हद तक दिखाने के फेर में, के चक्कर में जाने-अनजाने अपनों की अनदेखी कर देते हैं. जिसका नतीजा अपनों से बिछुड़ने, अलग होने या छिटक जाने के रूप में सामने आता है. और हमें जब तक इस बात का अहसास होता है तो समय अपनी गति पकड़ चुका होता है, हम कही पीछे रह जाते है.
अकेले अपनी जिंदगी में.
दिल तो होते ही हैं, टूटने के लिए. अगर टूटा दिल संभल भी जाएं तो भी वह पुराने वाला नहीं होता है क्योंकि खलिश तो रह ही जाती है.
परीक्षा, परिस्थिति की नहीं व्यक्ति की जीवटता की होती है...
विशेषण की आवश्यकता किसे पड़ती है ?
कुछ समझे तो बताये !
३५ वर्षों में पहली बार दिल्ली में 'दिल्ली वाला न होने' का अहसास हुआ.
अभी-अभी मोबाइल फ़ोन पर एक चुनावी मेसेज आया, जिसे सुनकर लगा कि देश की राजधानी में केवल बिहारी-पुरबिया ही वोटर रहते हैं!
बाकि की तो दरकार ही नहीं है, न आदमी की न उनके वोट की.
धर्म, भाषा के नाम पर ही खंडित होते समाज में अब इलाके-प्रदेश के नाम पर भेद.
न जाने कैसा समाज रचेंगे अब देश के कर्णधार !
दूसरों का हल्कापन झलक जाता है, अपनी गुरु गंभीरता में
आखिर मीडिया के मठाधीश अपने संस्थानों की सत्ता से लड़ने का साहस क्यों नहीं जुटा पाते?
अपने यहाँ तो पत्रकारों के वेतन आयोग पर चुप्पी साध लेते हैं और राजनीति में भगीरथ बनने का आव्हान करते हैं!
मतबल
हम्माम में कोई सिर्फ अकेला नहीं है.
छोटा सपना और बड़ा लक्ष्य ही मार्ग प्रशस्त करते हैं.
पहले को स्त्रोत ने ज्ञानी बनाया है और दूसरे को ट्रांसस्क्रिप्ट ने.
अब पाकिस्तान से गुजरात कोई नयी जियारत का शुरू होने के ब्रेकिंग न्यूज़ ही देखनी बची है.
वैसे इंडियन एक्सप्रेस ही था, जिसने खबर ब्रेक की थी कि जनरल वी.के. सिंह के समय में भारतीय सेना की टुकड़ी 'दिल्ली' की ओर रवाना हो गयी थी.
पुरानी कहावत है, जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि. अब इसमें पत्रकार को भी सम्मिलित कर लेना चाहिए वैसे भी अब बिना पत्रकार यानि अख़बार के साहित्यकार को भी कौन जान रहा है ?
तभी तो साहित्यकार को भी पत्रकार को 'बुद्धिजीवी' की जमात में शामिल करना पड़ा है.
प्रगति का आकाशवाणी चैनल
पता लगा है कि बिहार के गाँवों में भी 'क्रिसमस' बड़ी धूम धाम से मनाया गया और देशप्रेमियों ने अपने बच्चों को 'लाल' टोपा पहनाया.
बताने वालों का कहना है, यह खबर एकदम पक्की है क्योंकि इस चैनल में 'गिरजे' का पैसा है, लाल की रिश्तेदारी है और वाम का आभारी है.
साला, यह "पॉलिटिक्स" तो हिंदी को मार रही है!
बड़े बौद्धिक पत्रकारों के लिए "अखबारों और टीवी चैनलों" में 'आम' श्रमजीवी पत्रकारों को वेज बोर्ड के अनुसार वेतन मिलने का मुद्दा 'बहस' और 'प्राइम टाइम' लायक क्यों नहीं लगता ! दिखता नहीं या देखना नहीं चाहते, रिसर्च की कमी है या "विभीषण" ग्रंथि से ग्रसित मानसिकता?
दिल्ली की गलियों में.....
एक दिल था जो धड़कना ही भूल गया
नहीं पता था दिल के कोने में फांस कोई बस गई,
मैं ही अकेला था सो खुद को भूल गया
बोलने की बजाए करना उचित, बखान की बजाए दृश्यमान परिणाम सही, वायदे की बजाए साबित करना बेहतर.
जीवन में कई बार की गयी गलतियाँ, सही मंजिल तक पहुंचा देती है
जिंदगी बीत जाती है, मौत के मुहाने जागता है आदमी.
उसने चाहने का आभास देते हुए भुला दिया, एक वह था कि चाहकर भी भूला नहीं सका ...
-किसी के अतीत को खुद उसकी मुँहजुबानी सुनना दर्दनाक भी हो सकता है, ऐसा सोचा नहीं था.
-आपके कुछ कर पाने के लगन को दुनिया पहचान लेती है, आख़िरकार.
(मेरे प्रस्तावित उपन्यास की पहली पंक्ति)
-मौत सबको बराबरी पर ला देती है।
-मन के संघर्ष से बाहर के संघर्ष ज्यादा भारी हैं।
-प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं होती वैसे कई बार हम अपनी ही राय को महत्व नहीं देते। जैसे हमारी संतान हमारे लिए बच्चा ही रहती है चाहे वह विवाह योग्य हो जाएँ, वह तो बाहर वाले ही आपको ध्यान दिलाते है कि अब उनकी शादी की उम्र हो गयी है।
-महात्मा गांधी को जिंदा तो उनके आलोचकों ने ही रखा है, जबकि उनके नाम पर सत्ता-सुख भोगने वाले ही वास्तविक गांधी-हंता है। शरीर से उनका देहांत तो एक दिन ही हुआ था पर उनके नाम पर दुकान चलाने वाले तो रोज़ उनका जनाजा निकालते है, अपने कथित स्वार्थ और लालच के कारण। गांधी इसलिए नहीं बड़े थे कि उन्होंने क्या कहा, क्या किया! वे इसलिए बड़े थे और आज भी उतने प्रासंगिक है क्योंकि उन्होंने जो कहा, किया उसे जिया भी। जबकि आज के सार्वजनिक जीवन में मनसा-वाचा-कर्मणा के भाव का ही अभाव है। सो, अभाव से महाभाव कैसे जागृत हो सकता है ?
-गुलाब के आगे भी पतझर को कोई रोक नहीं सकता...चाहे-अनचाहे!
-जो काम खुद न कर पाओ तो जो आपसे बेहतर करें, उसे सहयोग देने की ख़ुशी अलग है।
-अकादमिक महाभारत में विजय प्राप्त करने के लिए, मोर्चे इतने हैं कि लड़ने वाले कम है।
-सिगरेट, मांस और शराब से दूसरों को जलाने के बजाए अपने ज्ञान से मजबूर कर दो। नाभि से ऊपर उठो बाकी नीचे के लिए तो दुनिया पड़ी है।
-जीवन में निजता के स्तर पर कौन कितने पानी में हैं, वह स्वयं अपना बेहतर न्यायधीश है। सत्ता के आगे कुलपति, पत्रकार, कलाकार सहित लेखक सभी को शीश नवाते देखा सो शल्य भाव से अधिक कृष्ण भाव से जीवन प्रेरित हो यही अभीष्ट होना चाहिए।
-जीवन भर सत्ता का रस छकने के बाद भी दूसरों को छकाने से बाज़ नहीं आते, सेवानिवृत नौकर हो या शाह !
-जीवन कम हो रहा है, अनुभव भले ही बढ़ रहा हो!
-जीवन में चक्रव्यूह सभी के है, पर पहला द्वार तोड़ने के बाद ही आगे का रास्ता तय होता है।
-समय-व्यक्ति-अर्थ भी अपनी गति के साथ अपनी युति बदल लेते हैं।
="मेरे प्रिय बेटे, अपने जीवन में केवल एक बार प्यार करने वाले व्यक्ति, वास्तव में खोखले लोग होते हैं। जिसे अपनी वफादारी और उनकी निष्ठा कहते हैं, मैं उसे परंपरा की काहिली या कल्पना की कमी कहता हूं। भावनात्मक जीवन के लिए निष्ठा, प्रज्ञावान जीवन के लिए निरंतरता के समान है-स्पष्ट रूप से असफलताओं की स्वीकारोक्ति। निष्ठा! मैं किसी दिन इसका विश्लेषण करूंगा। इसके भीतर संपत्ति के प्रति आसक्ति है। ऐसी अनेक वस्तुएं हैं, जिन्हें हम छोड़ सकते हैं, अगर हमें इस बात का डर न हो कि दूसरे उन वस्तुओं को ले सकते हैं। लेकिन मैं आपको रोकना नहीं चाहता। अपनी कहानी के साथ आगे बढ़ो। "
-मुझे बचपन से ही इतिहास पढ़ने की ललक रही है और आज भी मैं अपने को इसका विद्यार्थी ही मानता हूँ, लेखक नहीं। इधर-उधर से पढ़कर, मैं तो बस भानुमती का कुनबा जोड़ देता हूँ। लिखते तो दूसरे हैं, जो मुझ जैसों का ज्ञान-अभिवर्धन हो जाता है तथा फिर नए सिरे से और पढ़ने की चुनौती मिलती है।
-जब घड़ा पानी से पूरा भरा हो, तो उसे बांटना ही बुद्धिमानी है।
-निज अभियक्ति में समूहिक पीड़ा को स्वर देना असाधारण बात है।
-अरे गिरमिटिया, साहेब कब से हो गए बाबू !
-भीड़ में अकेला आदमी, फिर भी अंगार-सा राख में चमकता आदमी।
-लगता है जीवन "फ़ाइल-फीते" में ही बीत जाएंगा! आएं थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास.
अच्छी संगत में कोई सफर लंबा नहीं है.
-इस बार एक पार्टी में टिकट बॅटवारे ने राजनीति की चौसर के सारे खाने असली रंग मैं दिखा दिए.
-हैरानी की बात है कि लोग खुद को तो बदलने को तैयार नहीं और दूसरों से बदलाव की उम्मीद रखते हैं। जब तक खुद नकारात्मक सोच और एकलखोरी की बुरी आदत से बाहर नहीं आएंगे तब तक भगवान भी इनका कुछ नहीं कर सकता।
-प्रयास करने से ही परिणाम फलीभूत होते हैं।
-कहीं पहुँचकर भी हम वहीं अटक जाते हैं, जहां से चले होते हैं। कहीं से निकालकर भी हम वहाँ नहीं पहुँच पाते, जहां पहुँच चुके होते हैं।
-दूध से लेकर मकान के भाड़े के सच से कहाँ तक भागा जा सकता है. यह तो नश्तर में भाले की तरह चुभते हैं.
-चोरी-छिपे पीछे से वार करने वाला, सामने आकर खुले में लड़ने वाले से हज़ार गुना अधिक खतरनाक-जानलेवा होता है।
-तू धरती, मैं फाग रे...
-दोगलों के शब्द ही नहीं चेहरे भी जुदा होते हैं, बोले का मोल नहीं होता तो तस्वीर बदरंग होती है।
-शौक से ही तो दुश्मन डरता है !
-बड़का बोल बोलने वालों के मन से आखिर बामन-बनिया-ठाकुर-भूमिहार की बात जाती क्यों नहीं? बाकी भी कोई पीछे हो ऐसा नहीं है !
-आखिर हम सब भी तो पिता का ही विस्तार है।
-लेखक का अंतिम लक्ष्य पाठक ही होता है, सो उसकी बात अंतिम सत्य. सर माथे !
-भूखे को भोजन और भर-पेट को स्वाद की तलाश रहती है, सो एक भूखे को तो अपनी भूख मिटाने के सिवा किसकी याद रहेगी! ऐसे में उससे भोजन के मेनू सहित जुड़ी विषय सामग्री पढ़ने की उम्मीद बेमानी है।
-हम जब तक जिंदा होते हैं, झूठ को जीते हैं और सच तो मरना ही होता है।
-सहना मरना है।
-राजनीतिक नेताओं की प्रदीक्षणा करके व्यवस्था में मक्खन-मलाई जीमने वाले और पद पर काबिज होने के बाद यानि मतलब निकल जाने पर उनमें ही कमियाँ बताने लग जाते हैं। यह कुछ ऐसा ही है कि भूख से बिलबिला रहा श्वान रोटी मिलने पर, रोटी डालने वाले पर ही भौकने लग जाता है।
-ईर्ष्या की भावना, किसी के मन में भी हो प्रेम को जला देती है...
-हमारा पढ़ा लिखा तबका अपने पलायन के लिए बेहतर शब्द गढ़ लेता है.
-असहमति के लिए भी सहमत होना जरुरी है. नहीं तो किताब वाले पंथों में तो असहमति से सहमत होने का भी विकल्प नहीं है, बस है तो तख़्त या तख्ता.
- प्रिय व्यक्तियों का शुभ तो अपना भी शुभ है।
-जिंदगी में खाली जेब के कारण दिल के टूटने से बड़ी विफलता कुछ नहीं...
-तुम्हें कुछ व्यक्ति केवल इस कारण से अस्वीकृत कर देंगे क्योंकि तुम्हारी उपस्थिति ही उन्हें अपने आलोचना लगती है। ऐसे में, अपने काम पर चुपचाप-लगातार लगे रहो।
-जब स्कूल में कोर्स में किताब पढ़ते थे तो रस नहीं आता था, अब नीरस जिंदगी से बचने के लिए किताब में रस खोजते हैं.
-कृतज्ञता का भाव ही जीवन की जड़ों से जोड़े रखता है और उसकी ऊष्मा ही नयी हरीतिमा का मार्ग प्रशस्त करती है।
-जीवन गुरू है और कठिनाईयां पाठ।
-रात भर चलता रहा नींद की सड़क पर सुबह के सूरज तक पहुँचने के लिए...
-क्षणभंगुरता सुख की हो या दुख की, अस्थायी ही हैं, सो कैसा बौराना और क्या घबराना !
-आने वाले समय का रास्ता, बीते हुये समय से होकर ही निकलता है।
-कुछ तो लोग कहेंगे !
-दुनिया में कभी भी समस्या वजूद से नहीं बल्कि सोच से होती है।
-कई मौकों पर चुप्पी ही मनुष्य का सबसे कारगर जवाब होती है।
-असली तो थोड़ी भी पी, नशा पूरा हुआ जिंदगी का।
-मराठे भी स्वधर्म से च्युत व्यक्तियों को अपने में आत्मसात करने में सफल न हुए। शिवाजी ने जरूर परिस्थिति वश मुस्लिम बने बंधुओं को वापिस परावर्तित किया पर अपहरण स्त्री-किशोरियों और बच्चियों को अपनी मूल धारा में समाहित नहीं कर सकें।
-बोलने और चुप्पी का तनाव ही कलाकारों को जिलाए रखता है...
-जड़ पर प्रहार करो, शाखाएं स्वयं ढह जाएंगी।
-प्यार को कहना ही क्यों जरुरी होता है ?
-मन-प्रीत ही पीड़ा देते हैं।
-अरे, ऐसा कुछ नहीं, सरकारी नौकरी की बोरियत से बचने के लिए सहारा है ब्लॉग. वह कहते है न कि एक बार पत्रकारिता कर ली तो उसका वायरस मरता नहीं. सो, सरकारी नौकरी के पहले का रोग के पाला हुआ है. जब तक पढ़ो नहीं नीद नहीं आती और लिखो नहीं तो चैन नहीं मिलता. बस यही एक हुनर है सो लोहे को रोज़ पीटता हूं, ताकि शब्दों से स्नेह-मित्रता बनी रही.
-एक दिन जाए, शहर से भी दोस्ती हो जाएगी और रास्ते भी खुल जाएंगे, मंजिल तक पहुँचने के. दिशा तय हो तो फिर मंजिल तो टुकड़ों में ही हासिल होती है. अप्पो दीपो भव, अपना दीपक स्वयं बने, बुद्ध का प्रसिद्ध वाक्य है. फिर भी मुझ से को अपेक्षा होगी, मैं प्रस्तुत हूँ.
-प्रभु तुम चन्दन हम पानी, ईश्वर के अंश हम सभी में है, बस उसे पहचाने की देर है, जीवन सहज-स्फूर्तिदायक-सकारात्मक लगने लगता है.सो, प्रभु इच्छा मानकर श्री गणेश कर डालिए. सरस्वती मुश्किल से कृपा करती है..
-मन कुलांचें मारता है तो बुद्धि उसे नियंत्रित करती है अगर बुद्धि ही बौरा गयी तो फिर तो क्या कहने. मैं हूँ, सो सोचता हूँ और गर सोचता हूँ तो मैं हूँ.
-मधुर मुस्कान, लगता है बेहतर मुस्कुराने का मुकाबला है. सो, दोनों अव्वल हैं.
-कजरी-काल, पता नहीं क्या करेगा धमाल!
-अब राधे माँ को ही ले, नंगे से तो भगवान भी डरता है और भगवान से डरे भक्त, आसरा खोजते हैं, सो ऐसे लोग उनके डर का फायदा उठाते हैं...
-अच्छे दोस्तों का कुछ तो असर होगा, दो बराबर के पत्थर से ही आग निकलती है.
-आग अपने भीतर ही जला ले तो काफी है, दुनिया तो दूसरे से बदले की आग में पहले से ही जल रही है. उसे तो जल की जरुरत है, जलने से बचने के लिए.
-अब तो गुस्से को खुद ही अपने अन्दर पीने और उसका कलम से भरपूर जवाब ही बेहतर है.
-माँ की पावन स्मृति को सादर नमन. बाकि माँ जाती कहाँ है, वह तो हमारे मन-तन में प्राणपण जीवित होती है. बस जरुरत होती है तो उसके पुनीत स्मरण बोध की.
-मन से भीरु और तन से कमजोर व्यक्ति ही दूसरों खासकर अपने मातहतों को धमकाकर अपनी कुंठा निकालता है.
-टुकड़ा-टुकड़ा जिंदगी जुड़कर ही सार्थक होती है, नहीं तो बिखर जाती है.
-स्वर्ग में मंत्री से बेहतर नर्क में राजा रहना है, कम से कम प्रोटोकाल तो राजा का मिलेगा.
-जिंदगी में कोशिश की कशिश को कम नहीं होने देना चाहिए.
-दुख लिखने वाली गाड़ी का एक्स्सिलैटर है, जो उसकी रफ़्तार को बढ़ा देता है, सुख तो सेफ ड्राइविंग है तो सुरक्षित पहुंचने के फेर में समान दूरी को बनाये रखता है.
-आजकल वैसे भी मंडी में मंदी है....
-मांजना क्या है, जीवन ही मथ रहा है, जैसे-जैसे मथेगा, वैसे वैसे कुछ निकलेगा, थोड़ा जहर और थोड़ा अमृत.
-लिखना बना रहना चाहिए, स्मृतियों के वातायन से ताकि दूसरों के मन की बंद खिड़कियाँ भी धड़ाम से खुल जाए, बहुत यादें, दर्द, ख़ुशी, अनचाही तमन्नाएं और भूली-बिसरी ख्वाहिशें निकल आएंगी ...
-पिछली पीढ़ी से हमारी अगली पीढ़ी का नाता ही टूट गया है. हमारा अपना बचपन ननिहाल की ड्योडी से लेकर दादा के घर की चौखट तक पसरा हुआ, आज भी हमारी आँखों के सामने से गुज़र जाता है. यह एक मूक फिल्म की तरह है, जिसमे दृश्य तो हैं पर आवाज़ गायब है.
-जिंदगी में मजबूरी को अपनी खूबी में बदलने का हुनर ही मंजिल तक पहुंचता है.
-झूठ झर जाता है, पेड़ से सूखे पत्ते की तरह...
-प्यार, घर की चार-दिवारी में ही रहे तो बेहतर अगर मनी-प्लांट की तरह घर की दिवार-दहलीज़ को पार कर जाएं तो सिवाय रुसवाई-बदनामी-अकेलेपन के कुछ नहीं मिलता. हमारी विषय वासना का प्रतीक है, मनी-प्लांट. घर से ज्यादा बाहर झाँकने की सनक.
-मां तो मां है, उस जैसा कोई नहीं. संतान की पहली गुरु. मांएं, शिक्षित होती है, साक्षर बेशक न हो. जीवन से बड़ा कोई प्रणामपत्र नहीं.
-हार की बजाए जीत की बात करना ही बेहतर है क्योंकि नकारात्मक बातें उल्टा माहौल ही बनाती है. आखिर आग तो चकमक के दो बराबर के पत्थरों को रगड़ने से ही पैदा होती है.
-अगले पल का भरोसा नहीं होता सो उसमें जीने के हसरत नहीं रखनी चाहिए। ऐसे में मौजूदा पल में ही जीना बेहतर होता है।
-अगर जीवन में प्रेम नहीं हो तो क्या भला कुंडली में कैसे मिलेगा ?
-पाटलिपुत्र की लड़ाई में बिहारी बाबू 'शल्य' की भूमिका में है, लगता है कौरवों ने कुछ ज्यादा ही आवभगत कर दी है.
-वक़्त निकल जाता है, न चिट्टी आती है न सन्देश और न वह. रह जाता है बस इंतज़ार याद भर करने का.
-जीवन में आगे बढ़ने के बाद चाहकर भी पीछे लौटना नहीं होता. फिर चाहे वह बचपन हो या यादों का घर बस चाहना रह जाती है जो चिता के साथ ही जलती है.
-हम अपने छोटे से जीवन में न जाने क्यों बड़े से अभिमान को छोड़ नहीं पाते हैं और जब सांसे थोड़ी सी रह जाती है तो फिर पछताते हैं.
-किसी का हरदर्द बने बिना 'दर्द' समझ नहीं आता है।
-आज दुख है, कल सुख था. तो है, था हो जाता है और था है बन जाता है. सो, घबराना कैसा ! समय परिवर्तनशील है सो तुम क्यों जड़ होना चाहती हो ? व्यामोह से निकलो, जो हो गया बीत गया. सो काहे परेशान होना, आगे-बढकर पीछे को मुड़कर मत देखो!
-समय सभी को स्थिर कर देता है, जवानी में उतावलापन स्वाभाविक है.
-आज बेटी के साथ सेल्फी वाला समाज से पूछना लाजमी बनता है कि आखिर बेटियों की गलतियाँ माफी के योग्य क्यों नहीं हो पाती हैं?
-आरंभ के बिना अंत कैसा ?
-चुपचाप अपने काम में लगे रहना ही दुनिया के शोर का सबसे अच्छा जवाब है.
-वैसे बोलना ही कौन-सा जरुरी है? सर्वोतम तो मौन है !
-लिखना भी तपस्या की तरह है, अगर छोटी-सी चीज़ का भी व्यवधान आ गया तो मानो सब कुछ स्थगित. विचार भी इत्र की तरह है, अगर उड़ गया तो खुशबू तो फैला देंगा पर अगर डिब्बी में बंद कर दिया तो आगे भी काम देगा.
-तंबाकू-खैनी खाने वाले, योग की खूबी तुम क्या जानो बाबू!
-प्यार टूटता है तो कोई पैमाना नहीं होता, हाथ छूटता है तो कोई पास नहीं होता.
-एकाकीपन ही सबसे भरोसेमंद साथी है, जो कभी धोखा नहीं देता.
-प्यार लीक पर नहीं चलता, वह तो अपना रास्ता खुद ही बनाता है, सो नक्शे का क्या काम ?
-कितने गांव उजड़ कर नक़्शे से मिट गए, इसका कोई हिसाब नहीं.
-जिंदगी मे शब्दों के मायने व्याकरण से कहीं जुदा होते हैं।
-मैंने तो प्राथमिकता को ही रेखांकित किया है, बाकि जैसे आदिवासियों के विस्थापन की पीड़ा है वैसे ही किसी को मंदिर टूटने की. कुछ को मस्जिद टूटने की भी!आँखों से हर रंग को देखने का अभ्यास होना चाहिए न कि रतौंदी रोग से ग्रसित होना चाहिए.
-सुन्दरता और बुद्धि का मणिकांचन योग दुर्लभ ही होता है.
-हम विद्वान नहीं है, तो उनसे जुड़ जाओ कुछ असर स्वयं पर भी होगा. स्वाभाविक रूप से सकारात्मक.
-हमारे यहाँ शब्द को ब्रह्म इसीलिए कहा गया है, यह हम पर है कि हम भाषा-संवाद की शक्ति जगाते हैं या बस यूँ ही उसे निरर्थक कर देते हैं. फिजिक्स में कहा भी गया है कि ध्वनि नष्ट नहीं होती और वह ब्रह्माण्ड में विचरती है.
-जो जितना अपना आँचल पसार ले, झोली तो झुक कर ही समेटनी होती है, अर्जुन ने समेटी तो गुरु से भी दो कदम आगे बढ़ गया और अश्वथामा नहीं झुक पाया तो आज भी श्रापित विचर रहा है. ज्ञान अर्जन की भी पात्रता अर्जित करनी पड़ती है, ब्राह्मणों ने विद्या को साधा सो श्रेष्ठ हुए, त्यागा तो आज सबके सामने हैं.
-हा, नौकरी भी गुलामी है, जैसे मर्जी कर लो।सो उसमे मजा लेना ही ठीक है। बाकी हरि इच्छा !
-अपना मन सही हो, तो सही लोग मिलते हैं और सही होता है, बाकि से प्रभावित न होना चाहिए और न अब होता हूँ.
-घर तो नर से नहीं नारायणी से ही चलता है,
-कविता तो भावावेग में ही लिखी जाती है, सोचकर तो गद्यात्मक ही लिखना होता है.
-अब तो आयु ही घट रही है, अनुभव तो दिन प्रतिदिन युवा हो रहा है.
-यही तीन चरण है, सूचना जुटाने, एकत्रित करने और उसे स्वरुप प्रदान करने के. फिर तो बस लिखना ही है.
-हाँ, विषय के अंतिंम रूप से तय होना जरुरी है, आखिर कील पर ही तो लट्टू घूमेगा, रस्सी और घुमाने वाला तो बाद की बात है.
-अरे, अगर हम जीवन से जुड़े है तो बोले या लिखे उसमें प्राण तत्व होगा जो किसी को भी प्रभावित करेंगा नहीं तो बेमानी है शब्द बिना अनुभव के. कहने से ज्यादा करना और करने से ज्यादा उसे जीना ही चुनौती है नहीं तो हर कोई गाँधी न बन जाए.
-ज्ञान तो अपार है, हम जितना अपनी अंजलि में ले सके, वह हमारी सामर्थ्य भी है और सीमा भी.
-आज तो तुमने गुलज़ार-नुमा लिखा है, बढ़िया. इसे बनाये रखो. जल्द ही संदूक साफ भी हो जाएगा और स्मृति को भी सहज लेगा.
-लिखना भी तपस्या की तरह है, अगर छोटी-सी चीज़ का भी व्यवधान आ गया तो मानो सब कुछ स्थगित. विचार भी इत्र की तरह है, अगर उड़ गया तो खुशबू तो फैला देंगा पर अगर डिब्बी में बंद कर दिया तो आगे भी कम देगा.
- जब विचार आये उतर लो क्योंकि अगर समय निकल गया तो भूल ही जाओंगे.
-रोज़ लोटे को मांजने से अभ्यास भी बना रहेगा और चमक भी.
-अनुभव ले लिए तो उसका लिपिबद्ध होना मुश्किल नहीं है पर अकस्मात आये विचार को तो फौरन लिखना ही अंतिम उपाय हैं. सो क्षण को कैद करना भी जरुरी है
-मन को भाने की ही माया है, बाकि तो भ्रम है.
-प्रेम का प्रस्टुफन, स्वयमेव सबकुछ कर देता है. बीज फूटता है तो फल भी देता है, सो समय की प्रतीक्षा कीजिए.
-मुझे भी बहुत कुछ 'सुनना' है, तुमसे !
-घर में बेटियां कब बड़ी हो जाती है, पता ही नहीं चलता, मानो कल कि ही बात हो.-वफा का चलन कहाँ रहा अब, सो ऐसा ही होता है अब।
-श्रेष्ठता, काल-समय-स्थिति और सबसे बढ़कर उसके परिणाम से मापी जाती है।
-कई बार शीशा, चेहरे की जगह चरित्र दिखा देता है.
-भारत का इतिहास भी पश्चिम के उपकरणों से खोजना पड़ रहा है, यहाँ तो बस बकचोदी हो रही है, साहित्य के नाम पर मार्क्स-मदिरा और अब उत्तर -आधुनिकता. आधुनिक तो हुए नहीं. नथ उतारी नहीं और बाप बन गए, वाह ! ईसा मसीह की औलाद है, सो बिना बाप ही पैदा हो गए.
-रात के रतजगों की अपनी राम-कहानी है.
-किसी ने कहा है कि मन के गुबार को किसी के साथ साँझा कर लेना चाहिए.
-काम पूरा होने के खुशी सबसे-जुदा होती है, सब सुखों से अलग जैसे बारिश के बाद अचानक बादलों से निकली धूप.
-सपने का स्पर्श, खुली आँखों से झूठ हो जाता है...
-हम कुछ संबंधों को इच्छा होने पर भी नहीं बदल पाते और कुछ संबंध हमें न चाहते हुए भी बदल देते हैं.
-आग तो बराबर के दो पत्थरों के रगड़ने से ही निकलती है, जैसे यज्ञ में लकड़ी-कुशा के माध्यम से अग्नि प्रज्वलित की जाती है।
-बूंद-बूंद से ही गागर भरता है। अपनी यत्र-तत्र की गयी टिप्पणियों को भी एक स्थान पर संग्रहीत करके रखो। आगे क्या पता काम ही आ जाये। मैं तो अपने ब्लॉग में ड्राफ्ट में जोड़ लेता हूँ, यहाँ तक की यह वार्तालाप भी, जितना काम कर लगता है।
-विचार तो अनायास ही निकलते है, सोच कर तो हम बस अपने पूर्वाग्रह ही परोसते हैं ।
-सही कहा, एक किताब वाले महजब के उलट कोई शंकराचार्य, आपको अहिन्दू नहीं घोषित कर सकता।
- बेघर-बेवतनी, किसी भी अति तक ले जाती है।
-मैं तो बस पानी के किनारे से ही पत्थर मारने की कोशिश करता हूँ, पत्थर का नसीब, पानी की सतह पर जितने कुलांचे भर ले।
-देश में आज योग का आतंक है और आतंक का योग है.
-लाख टके का सवाल है कि दूसरों के घर को तो बसा देंगे पर अपने घर का बियाबान कैसे दूर होगा ?
-योग का धर्म स्वस्थ जीवन देना है, आतंक का धर्म जीवन लेना है, अब स्वयं तय करें कि आप किस ओर हैं.
-अहिंदू होने पर भी आप सवाल पूछ सकते हो पर आवाज़ उठाने पर तस्लीमा को तो बेवतन ही होना पड़ा!
-संबंध समय के नहीं, विश्वास के आधार पर जीवित रहते हैंl
-एक का प्रगतिशीलता के नाम पर दोगलापन तो दूसरे का जान की सलामती के लिए मौन !
-जीवन में अपनी मर्जी कहाँ चलती है ?
-यहां तो कोख को ही कब्र बना दिया जाता है, बाहर आने का मौका ही नहीं मिलता.
-जब तक सीखते रहते हैं, तब तक जिन्दा रहते हैं नहीं तो बस बुत रह जाते हैं, बिना आत्मा के
-मुझे हमेशा से पता था, मैं आखिरकार यही रास्ता चुनूँगा। पर कल तक यह नहीं पता था कि आज ही मेरा आखिरी दिन होगा।
-जीवन में कुछ व्यक्ति अपने भाग्य की प्रबलता के कारण सफल होते हैं तो कुछ अपनी जिजीविषा से सफलता प्राप्त करते हैं।
-मैं कभी हारता नहीं...मैं जीतता हूँ या फिर मैं सीखता हूँ।
-बचपन की ही कहानी है, जवानी तो कपूर है जो उड़ जानी है और बुढ़ापा ख़त्म न होने वाली जिंदगानी है.
-नदी-स्त्री समानधर्मा हैं, दोनों अपने आसपास जीवन बसाती चलती है. नदी किनारों को स्पंदित करती है हरियाली से तो स्त्री घर-परिवार-पुरुष को पूर्णता प्रदान करती हैं. तिस पर पुरुष पहाड़ की तरह खड़ा रहता है, अकेले पत्थर बनकर अपने उजाड़-औघड़ वेश में परिवेश में !
-जिंदगी में अक्सर भरोसा ही मौत का कारण बनता है !
-शब्दों में हथियारों से ज्यादा ताकत होती है.
-विकल्प के अभाव में विरोध अपनी धार खो देता है.
-जाति का कीड़ा तो सब में है बस बाकियों को बिहार में भी कुलबुलाता दिखता है...
-समय के साथ जमता दही है, दूध तो फट जाता है. जमे दही की तरह ज्यादा इंतज़ार दोनों का मजा-बेमजा कर देता है.
-जातीय अस्मिता देश से जुड़ी है जबकि जातिगत सोच दिनकर को बिहार से बाहर बिहारी और बिहार में भूमिहार तक सीमित कर देती है! यही जातिगत दुराग्रह का काला पक्ष है.
-बेटा बड़ा हो रहा है और मां का संबल बन रहा है, इससे बेहतर बात क्या हो सकती है. अब बेटा गर्मियों के शिविर में अकेले कमरा बन्द करके खुद तैयार होकर जाने लगा है. जबकि दो दिन पहले तक स्कूल के लिए उसे तैयार करना पड़ता था. बढ़ते हुए बेटों को देखना भी एक अनिर्वचनीय सुख है.
-भाव को कुभाव नहीं बनने देना चाहिए! नहीं तो उसका दुष्प्रभाव समूचे व्यक्तित्व पर पड़ता है. नहीं तो धीरे-धीरे वह स्वभाव बन जाता है.
-बीती हुई यादों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ना ही जिंदगी है.
-बाज़ार की अंधी दौड़ में स्कूल-अस्पताल के जिंदगी की पटरी से उतरने का खामियाजा पूरा समाज संवेदनहीनता और मूल्यों के बेमानी होने के रूप में चुका रहा है. जहां शिक्षक और डॉक्टर का वजूद भी टकसाल के खोटे-सिक्के से ज्यादा कुछ नहीं रह गया है.
-हमें गर्व है. कम से कम हम से कोई तो जगा है वर्ना हम सब तो जग कर भी सोने का प्रहसन कर रहे हैं. ईश्वर आपको बल और संबल दोनों प्रदान करें, यही करबद्ध प्रार्थना है.
-असली गुरु तो जीवन ही है और उसकी शिक्षा सर्वोपरि है.
-पत्रकारिता पढऩे लायक नहीं होती और साहित्य पढ़ा नहीं जाता।
-आज के प्रचार के दौर में शहरी-समाज खासकर मध्यम वर्ग की रूचि काम करने से अधिक यकीन उसके प्रचार और उसके विज्ञापन में हैं।-कभी कभी मृत्यु, मुक्त भी करती है.
-जो भी काम करो, दिल से करो। काम अपने आप सही होगा।
-आज शोर-गुल में मन से मानसरोवर (तिब्बत राष्ट्र) का प्रश्न कहीं पीछे छूट-सा गया लगता है!
-सरकार का एक साल!
-संसार में जब हम आंखों से देखकर अपनी आंखे मोड़ लेते हैं तो कितना खोखला महसूस करते हैं !
-लेखकों से उनके परिवार आख़िरकार निराश ही हो जाते हैं।
-सोशल मीडिया का आंदोलन भी मीडिया की ही प्रतिछाया है. जैसे हर मीडिया ग्रुप यानि मठ की 'रंग दृष्टि' है जिसके माध्यम से ही वह मीडिया विशेष अपने दर्शको/पाठकों को चुनिन्दा ढंग से सूचना देता है. जैसे एक प्रगतिशीलता का परचम थामने का दावा करने वाले चैनल लाल रंग की लाली में इतना डूबा हुआ है कि उसे लाल रंग में कभी कुछ गलत लगता ही नहीं. वैसे भी नीरा राडिया प्रकरण के बाद कौन-सी पत्रकारिता बची है, लाख ट्के का सवाल यही है.
-सबकी जिंदगी में उदासी का एक दौर आता है, जैसे आता है वैसे चला भी जाता है.
-अपना तो जन्म किसान परिवार में हुआ वहीँ ननिहाल के कारण स्वभाव में लोहापन आया. गलती से जीवनयापन के लिए शब्दों का सिलबट्टा घिसना बदा था. उतना ही बस होता तो ठीक रहता पर विधि का विधान सत्ता के गलियारे तक ले आया. अब यहाँ तो कुल जमा निचोड़ का ही काम है, जो जैसे जितना निचोड़ ले समय, धन या अवसर. सो अब अपने मतलब का मैं भी छांट लेता हूँ, सत्व वैसे भी थोड़ा होता है. थोड़ा ही सुन्दर है वर्ना बाकि तो अतिचार है.
-मेरा तो अध्ययन आधारित सीमित ज्ञान है, सूत्र-पुराण सहित महाभारत का मैंने सहज परायण किया है, अध्ययन नहीं. बाकि तो सीखा मैदान में जूझते हुए जाना. व्यवस्थित तरीके से तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया. भविष्य में अवसर मिला तो पढ़ने की कोशिश करूंगा, फिलहाल तो पढ़ने का समय मिल जाए तो वह ही गनीमत.
-वैसे भी भगवा, संन्यास के साथ मिटटी का भी प्रतीक है ! कफ़न कोई देता नहीं है, उसे तो जुटाना पड़ता है. सो मिट्टी है, मिट्टी में जाना है.
-समय का अपना शास्त्र है, दर्शन तो विचार का और क्षत्रिय का व्यवहार प्रतिनिधि है, रही बात धूनी की तो वह तो राजस्थान में गांव में है ही सो कोई बुरा विचार नहीं है. उसे भी आजमाया जा सकता है.
-समय, हमें बर्बाद कर रहा है और हम है कि उसे आबाद करने में लगे हैं.
-जीवन में कई बार अनजाने में कुछ ऐसी ग़लतियाँ हो जाती हैं, जो आयुपर्यंत माफ़ी माँगने के बावजूद माफ़ नहीं हो पातीं।
-इंसान पहचानने में तो तुम पारखी थे ही अब सलीके-से सटने की बात को भी खूबसूरती से कहने में माहिर हो गए हो. भाई, मैं तो आज से तुम्हारा मुरीद हो गया हूँ.
-चलो, बहुत दिनों का धूल-झंकाड़ झड़ गया, नहीं तो नई बहु ने मानो दिमाग ही कुंद कर दिया था.
-आजकल मजबूरी में जुदा नहीं, एक रहना पड़ता है यानि बावफ़ा!-शुरू में तो तुक बना दिया बाद में लगा की अर्थ खो जायेगा सो अंत को छेड़ा नहीं, ज्यों का त्यों धर दिया.
-सुना था कि शहर सच बोलने की सजा देता है, आज देख भी लिया.
-अगर यह सच नहीं तो
-झोंक में क्या लिख जाते हो, लिखने वाले को भी नहीं होता है पता !
-तस्वीर में तुम रोशन थी
-मैंने तो बस मन के दर्द को कागज़ पर उतार दिया, वो तो तुम थे जिसने उसे संवार दिया.
-दर्द से ही भांवरे पड़ी थी मेरी,सो घूमता ही रहा एक कील थी गढ़ी मन में, सो लट्टू मेरा घूमता रहा
-दो पत्थर एक से हो तो आग तो पैदा हो ही जाती है बस रगड़ने की देर है
-अब कुछ दिवस, वह मौन रहेगी कुछ दिवस उसकी वाणी, मौन के लिए मुखर होगी समय की गति चलायमान है। मेरी कामना, दो अनुरक्त नेत्रों की!
-इसके लिए तो लगता है, अपने पूरे तुणीर के तीर चलाने पड़ेगे
-हां, अवश्य. पर जो कविता दिमाग लगाने की बजाए दिल से अनुदित हो जाती है, सहज-अनायास वह ज्यादा सार्थक होती है. नहीं तो दिमाग से तो गद्य नुमा अनुवाद मशीनी लगता है.
-वैसे, यह भी एक बड़ा काम है, पुराने को सहेज कर नए रूप में प्रस्तुत करना
-कोशिश जारी है, पूर्णता को प्राप्त करने की !
-जब मैं एक कुत्ता था, तब मैं दूर से आदमियों को तकता था, उन पर भौंकना हमेशा मुश्किल था, वह भी तब जब आप उनकी जमात के न हो !
-जो मन तो छू जाती है तो मानो अंगुलियाँ अपने आप चलने लगती है जैसे मंदिर की आरती में बजती घंटियाँ .
-मेरा हुनर था तो तुम्हारा काइयांपन वह बात अलग है कि काव्य में कवित्त और प्रेमी में प्रेम कभी स्पंदित न हुआ !
-बन्धु भी और धन्यवाद् भी, एक शब्द में दो की समाई नहीं!
-एक कवि से शब्दों में, "मैं तुम्हारे ध्यान में हूं" यही पर्याप्त है, शेष हरि इच्छा !
-अदभुत चित्र, शीर्षक होना चाहिए, केलि के बाद युगल !
-जीवन में कभी भी जल्दबाजी मत करो. हमेशा अपना श्रेष्ठ देने की कोशिश करो और शेष छोड़ दो. अगर कर्म अर्थपूर्ण है तो वह स्वत: ही अपनी अर्थवत्ता को प्राप्त होगा.
-संतुलन तो जीवन का मर्म है, सो बेहतर यही है की उसे बनाये रखे.
-डूबकर ही उतरना होता है.
-हमें दूसरे व्यक्तियों की संकुचित धारणा को स्वयं को परिभाषित करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए.
-भला जब पितर ही काईयाँ-हरामी हो तो व्यक्ति-परिवार-देश का भला कैसे होगा?
-व्यक्ति का चरित्र, उसकी परिस्थितियों की तुलना में हमेशा शक्तिशाली होना चाहिए.
-एक छोटे-से बीज को पता होता की बढ़ने के लिए, उसे कीचड़ में गिरना होगा, अंधेरे में घिरना होगा और प्रकाश तक पहुँचने के लिए संघर्ष करना होगा.
-दुनिया जले कई बार, राहें खुले हज़ार,
-इतिहास को क्यों उठाना, अभी तो अपने बोझ को उतारने की मजबूरी है !
-लिखे हुए शब्द को पढने का सलीका शिक्षा से और लिखने का हुनर जिंदगी के दर्द से ही मिलता है...
-मनका फेरने की बजाय मन को फेरना चाहिए...
-जिंदगी में मन की हो तो अच्छी, न हो तो और भी सच्ची.
-हम सब वही घिस्सामारी कर रहे हैं, सो घबराना कैसा ?
-अगर समझो तो बिना इज्जत तो पूरी जिंदगी भी थोड़ी है
-कल्पनाओं के संसार में वास्तविकता का समावेश कैसे संभव है ?
-देखा अंधेरे का तीर, एक अंधा-एक फ़क़ीर.
-एक भूख तन की होती है और एक मन की. तन की भूख मिट कर शांत हो जाती है तो मन की भूख मिट कर भी अशांत रहती है, भीतर तक.
-रोजी-रोटी घर तो छूटवा ही देती है, मन से कौन छोड़ना चाहता है, अपना देस !
-आखिर कटु अनुभव से ही जल्दी जुडाव होता है, बनाकर लिखना तो बस समय जाया करना है
-एक चुम्बक की शक्ति होती है अपनी माटी में, जो दूर से भी खीच लेती है, चाहे-अनचाहे !
-जी, कॉलेज तक तो गर्मियां तो ननिहाल में ही बीतती थी, अब दिल्ली छोड़ती ही नहीं सो फेरा ही नहीं लग पाता. नौकरी-परिवार का घेरा है ही ऐसा कि निकलने ही नहीं देता. फिर भी एक भावनात्मक लगाव तो रहता ही है अपने 'देस' से सो वह तो है ही.
-लिखने वाली की कसौटी पढ़ने वाला ही होता है, पढ़ने वाले को अच्छा लगा तो लिखना सार्थक हुआ.
-साहित्यकार, पत्रकारों-सरकारी बाबुओं को 'कलाकार' क्यों कर मानते हैं ?
-सब समय का चक्र है, कभी ऊपर कभी नीचे
-कोई किसी का मोहताज़ नहीं होता बस अपने स्वयं के मोह को तजने की जरुरत है, सो बस भविष्य में व्यामोह से बचो, यही ईश्वर से प्रार्थना है.
-अपनों की बेरूखी, दुश्मनों की तरफ धकेल देती है. और अंजाम तो दोनों के लिए ठीक नहीं होते!
-एक दुस्वप्न समझ कर बिसरा दे, नए संकल्प के साथ अपने परिवार से जुड़कर उसमे ही सुख पाएं, बाहर तो बस मृगतृष्णा है, उस से ज्यादा कुछ नही.
-जीवन में आयु के एक पड़ाव के बाद अपने कार्य में निरंतरता, मन में स्थायित्व, छोटों से सम्मान और स्वजनों की निष्ठा ही रूचिकर रह जाता है.
-ज्यादातर छिनाल हो गयी, कुछ मजबूरी में कुछ तन की दूरी से.
-मैंने तो बस मन के दर्द को कागज़ पर उतार दिया,
-साँप-नेवला एक होने लगे तो पानी तो किनारा छोड़ेगा ही, सो हो रहा है.…
-माटी है, माटी हो जाना है.
-मंगलसूत्र तो सही है पर विवाहित पति को भी तो छोड़ देना चाहिए, आखिर गुलामी का मूल तो विवाह ही है.
-दिल से और दिमाग से लिखने में यही फर्क होता है, दिल से लिखी बात सीधे दिल को चीरते हुए घुसती है जबकि दिमाग वाली बात, आदमी को जबर्दस्ती क़त्ल करने सरीखी लगती है
-वीभत्स सत्य
सांवले रंग से इतना लगाव क्यों?
-जीवन में कभी भी जल्दबाजी मत करो. हमेशा अपना श्रेष्ठ देने की कोशिश करो और शेष छोड़ दो. अगर कर्म अर्थपूर्ण है तो वह स्वत: ही अपनी अर्थवत्ता को प्राप्त होगा.
-भय के दो मायने हैं, सबकुछ भूलकर निकल भागो या फिर सब चुनौतियों का सामना करके आगे बढ़ो, मर्जी अपनी है जो मतलब निकालें.
-व्यक्ति की परख तो पैदा करनी होगी.
-कुछ खुशियाँ माँ ही दे सकती हैं...
-कई बार पुरानी यादें और खुशबू जिंदगी में नया रंग भर देती है...
-जीवन में सटीकता और सतर्कता का सातत्य कायम रहे, ईश्वर से यही प्रार्थना है!
-पृथिवी में दो ही जीवित देवता हैं, माँ-पिता. बस बाकि तो भरम है.
-असली शुद्ध देसी घी, शुद्ध देसी घी, देसी घी.
पर फिर किस मुंह से राजनीतिकों को ज्ञान देते है ?
-पेरिस में पत्रकारों के हत्याकांड की 'लाल' परिभाषा "असहमति की सजा"!
-जीवन में आगे बढ़ने के लिए बहुधा मन को साधकर थामे रखना पड़ता है.
-गुजरात के समुद्र तट पर पाकिस्तान की ओर से आ रही नौका को लेकर 'इंडियन एक्सप्रेस' और 'इंडिया टुडे' का 'दिव्य ज्ञान' भिन्न हैं.
-गुजरात के समुद्र तट पर मोमबत्ती जलाने वालों के साथ अमन के कबूतर उड़ाने वालों को भेजना चाहिए ताकि वे अगले साल भारत में रिलीज़ होने वाले पाक-कैलेंडर की तस्वीरें जुटा सकें.
-तुम भी सब को भुला दो, जैसे वे तुम्हे भुलाने का भ्रम जता रहे हैं...रास्ते पर दूसरों को देखने की अपेक्षा मंजिल पर निगाह बनाए रखो
-राम सेतु निर्माण में गिलहरी का अकिंचन योगदान...
-अस्पर्श्यता ग्रसित वैचारिकी...कितनी अपंग, कितनी एकाकी!
-हम भी अपने देश से कभी दूर नहीं जाना चाहते थे पर यह सेहर का कशिश जो हमको एडवांस के फेर में यहाँ खींच लाया, अब खेंच रहे हैं, रिक्शा.
-उसे देख यादों की सिलवटे माथे पर आ गईं,
-आपकी प्रत्येक इच्छा की एक अंतिम परिणति है...
-शक्तिशाली व्यक्ति दूसरों को नीचा गिराने की अपेक्षा उन्हें ऊपर उठाते हैं...
-देह, नेह का ओढ़ना चाहती है और नज़र है कि ढके शरीर को उघाड़ना चाहती है. शरीर और संसार का यह विरोधाभास कैसे सम हो यही यक्ष प्रश्न है ?
-नंगों के बीच में लंगोट का क्या काम ?
-कोई भी सपना पूरा नहीं हुआ, एक पूरी जिंदगी बेमतलब ही चली गयी...
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