Friday, September 30, 2016
Thursday, September 29, 2016
Monday, September 26, 2016
Sunday, September 25, 2016
Democrats And Dissenters_Ramachandra Guha_राहुल गांधी_काँग्रेस_रामचंद्रा गुहा
कांग्रेस के घेरे के बाहर गांधी परिवार के अर्थहीन होने एक भावना घर चुकी है। आज लोगों के लिए, राहुल गांधी एक उपहास और घृणा के पात्र है, जो कि अन्यथा कांग्रेस के उदार दृष्टिकोण के प्रति आकर्षित हो सकते हैं। कांग्रेस में बुद्धिमान और समझदार लोग हैं लेकिन वे सभी गांधी परिवार पर अत्यधिक निर्भर हैं। मैं इस निर्भरता को समझने में असमर्थ हूँ।
लता मंगेशकर_उरी हमला_lata mangeshkar_Uri attack_pakistan_indian soldiers
26 जनवरी 1963 को लता मंगेशकर ने दिल्ली के रामलीला मैदान में "ऐ मेरे वतन के लोगों" का गाना गाते हुए |
इस वर्ष मुझे (अपने जन्मदिन 28 सितंबर को) ये सब भेजने की बजाए आप वही धनराशि और जितनी अधिक आप से हो सके वो आप अपने वीर जवान भाइयों के लिए अर्पण करें।
-लता मंगेशकर, शीर्ष पार्श्व गायिका, अपने 87वें जन्मदिन के मौके पर उरी हमले में शहीद हुए सैनिकों की शोक स्मृति में
Saturday, September 24, 2016
पुरखे _निर्मल वर्मा_दूसरे शब्दों में विचार चिंतन_ancestors_Nirmal Verma
एक आधुनिक लेखक होने के नाते मैं अपने को अपने देश की अनेक ऐसी ही विलुप्त, उपेक्षित, विस्मृत पंरपराओं के बीच पाता हूँ । वे आंखों से तिरोहित भले ही हों, अनुपस्थित नहीं हैं। जिस तरह के अवचेतन का छिपा संसार बराबर मेरी चेतना में सेंध लगाकर मेरे सृजन संसार में घुसपैठ करता रहता है, उसी तरह प्रकृति, परंपरा, ईश्वर, अनीश्वर की छायाएं मेरी आधुनिक चेतना पर अपनी छायाएं डालती रहती हैं। मेरी रचना-भूमि पर मृत और जीवित एक साथ रहते हैं, यहां मेरे पुरखे मेरे समकालीन हैं, मेरे अनुभव के साक्षी हैं। इसे मैं अपने सृजन का अदृश्य परिवेश कहना चाहूँगा और यह अदृश्य कम से कम रचना के क्षेत्र में, उससे कहीं विराट्, व्यापक और विस्फोटक है, जिसे हम ऐतिहासिक या सामाजिक परिवेश कहते हैं।
हर कविता और कहानी इस अदृश्य के छिपे, गोपनीय संकेतों को अपनी भाषा में मूर्तिमान करने का प्रयास है। यदि संयोग और सौभाग्य से वह ऐसा करने में सफल हो जाती है तो उसका अमूर्त यथार्थ हमारी जानी-पहचानी दुनिया के यथार्थवादी यथार्थ से कहीं अधिक उज्जवल, कहीं अधिक अर्थपूर्ण, कहीं अधिक विस्मयकारी दिखाई देता है।
निर्मल वर्मा, दूसरे शब्दों मेंः विचार चिंतन
लोक साहित्य_देवेंद्र सत्यार्थी_Lok Sahitya_Devendra Sathyarthi
चित्र: देवेंद्र सत्यार्थी दिल्ली में आयोजित पंजाबी कवि दरबार में कविता पढ़ते हुए (1957) |
लोक साहित्य मानव जाति की वह धरोहर है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती हुई निरंतर परिवर्द्ममान्ध होती हुई अक्षुण्ण बनी रहती है। लोक-साहित्य का रूपाकार अवश्य किसी देश या जाति की भौगोलिक सीमा में आबद्व रहता है। पर उसकी आत्मा सार्वभौम और शाश्वत है, उसकी स्थिति व परिस्थिति, आशा-निराशा, कुंठा और विवशताएं एक सी है।
लोक साहित्य की छाप जिसके मन पर एक बार लग गई फिर कभी मिटाए नहीं मिटती। सच तो यह है कि लोक-मानस की सौंदयप्रियता कहीं स्मृति की करूणा बन गई है। तो कहीं आशा की उमंग या फिर कहीं स्नेह की पवित्र ज्वाला। भाषा कितनी भी अलग हो मानव की आवाज तो वही है।
-देवेंद्र सत्यार्थी (मोहनलाल बाबुलकर-गढ़वाली लोक साहित्य का विवेचनात्मक अध्ययन की भूमिका में)
Monday, September 19, 2016
Lal Bahadur Shastri_Indo-Pak War_1965_हिंदू_धोती_भारत_पाकिस्तान युद्ध_1965
ये पाकिस्तानी सोचते हैं कि हिंदू तो लड़ नहीं सकता। वह तो समझते हैं कि हिंदुस्तान तो हिंदुओं का देश है, और हिंदू लड़ नहीं सकते। उनका ख्याल है कि हिंदू केवल धर्म-कर्म, पूजा, पाठ इत्यादि में लगे रहते हैं। और खास तौर से वे धोती वालों को बिलकुल लड़ने के काबिल नहीं समझते। बहराल, आप में से तो कोई धोती पहनता नहीं, किन्तु मैं तो धोती पहनता हूँ । पर मुझे यह नहीं मालूम कि ज्यादा जोरदार फैसले मैंने धोती पहन कर लिए, या प्रेसीडेंट अयूब ने पैंट पहनकर।
लाल बहादुर शास्त्री, तत्कालीन प्रधानमंत्री, 1965 में पाकिस्तानी आक्रमण के समय
(स्त्रोत: ड़ेयस विथ लाल बहादुर शास्त्री: ग्लिम्पसेस फ्रोम द लास्ट सेवेन ईयर्स: राजेश्वर प्रसाद)
Sunday, September 18, 2016
Friday, September 16, 2016
Thursday, September 15, 2016
आउटसाइडर'_उत्तर प्रदेश_यादवी संघर्ष_Outsider_uttar pradesh_yadav family fued
अल्बैर कामु |
'आउटसाइडर' के कारण उत्तर प्रदेश में यादवी संघर्ष!
आखिर श्री कृष्ण को श्राप तो गांधारी ने दिया था फिर यह साहित्य में नोबेल पुरस्कार वाले फ्रेंच लेखक अल्बर्ट कामु (अल्बैर कामु) कहाँ से आ गए।
1960 के साल में दुनिया को अलविदा कहने वाले कामु ने तो उत्तर प्रदेश का नाम ही नहीं सुना होगा पर उनका मानना था "नेता या अभिनेता बनना आसान है, लेकिन खुशियों की तलाश करना बहुत मुश्किल होता है।"
घोर कलियुग पर फिर भी कभी-कभी 'सच' हो ही जाता है।
आउटसाइडर |
Tuesday, September 13, 2016
Monday, September 12, 2016
Friday, September 9, 2016
ऐतिहासिक दिल्ली की गवाह है, राजधानी की रिज_Delhi Ridge_age old witness of historic delhi
हाल में ही केन्द्रीय सूचना आयोग के दिल्ली के रिज क्षेत्र के सीमांकन में देरी के कारण अंधाधुंध अतिक्रमण और अतिक्रमण करने वालों के खिलाफ कार्रवाई पर रिपोर्ट सौंपने का निर्देश दिया। इतना ही नहीं, आयोग ने रिज क्षेत्र की सीमा चिन्हित करने में देरी से अतिक्रमण और मानचित्र सहित जानकारी मांगी है। इस तरह, एक बार फिर दिल्ली की रिज चर्चा में है। दुनिया की सबसे ऐतिहासिक राजधानियों में से एक दिल्ली का उल्लेख हिंदुओं के प्राचीन महाकाव्य महाभारत में मिलता है।
इस शहर की दो प्राकृतिक विशेषताओं-रिज और यमुना नदी ने इसे सदियों से शासकों के लिए एक सुरक्षित और मनपसंद जगह बनाया। यही कारण है कि दिल्ली की हरियाली के फेफड़े की रक्षा की लड़ाई बहुत पहले ही शुरू हो गई थी। दिल्ली में पहाड़ी का भाग, दिल्ली रिज तो कभी रिज के नाम से पुकारा जाता है जो कि कभी शहर की लगभग 15 प्रतिशत भूमि पर फैला हुआ था।
यह रिज एक भूवैज्ञानिक कारक है जिसकी विशेषता यह है कि वह कुछ दूरी तक लगातार चोटी की तरह उठान पर है। दिल्ली रिज भारत की सबसे पुराने पहाड़ अरावली पर्वत श्रृंखला का उत्तरी विस्तार है जो कि गुजरात से लेकर राजस्थान और हरियाणा से दिल्ली तक विस्तार लिए हुई है। दिल्ली रिज कुल 35 किलोमीटर की दूरी तक फैली हुई है जो कि भाटी माइंस से दक्षिण पूर्व में 700 साल पुराने तुगलकाबाद तक अलग-अलग दिशाओं में शाखाओं में विभाजित है और अंत में यमुना नदी के पश्चिमी तट पर वजीराबाद के पास उत्तरी छोर तक इसका फैलाव है।
दिल्ली के इतिहास में रिज ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और यहां तक कि इसका अपना प्राग इतिहास भी है। दिल्ली रिज क्वार्टजाइट चट्टानों से बनी है, जिससे पाषाण युग वाले मानव अपने औजार बनाते थे। दरअसल, पुरातत्वविदों ने दिल्ली रिज में पाषाण युग के कारखानों की खोज की है जो कि व्यापक स्तर पर औजारों के उत्पादन का साक्ष्य है। पाषाण कालीन मानव की रिज के घने वन आच्छादित क्षेत्र में भी रहगुजर थी जो कि उन्हें भोजन (कंदमूल और पशु) तथा आश्रय प्रदान करती थी। इतना ही नहीं, वहाँ पर्याप्त जल भी था और यह तथ्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
रिज अपनी स्थलाकृतिक विशेषता के कारण हजारों साल से मानव को इस क्षेत्र में बसने के लिए आकर्षित करती रही है। यही कारण है कि आठवीं सदी के लालकोट के किले, 12 वीं सदी की कुतुब मीनार, 17 वीं सदी का परकोटे वाला शहर शाहजहांनाबाद से 20 वीं सदी की लुटियन की नई दिल्ली तक राजधानी की ऐतिहासिक वास्तुकला रिज के भीतर और उसके आसपास पाई जाती है।
दिल्ली सात शहरों के उत्थान-पतन की गवाह रही है। इनमें मुख्य किला राय पिथौरा, लाल कोट, महरौली, सिरी, तुगलकाबाद, फिरोजाबाद और मुगल शहर शाहजहांनाबाद, जो कि अब पुरानी दिल्ली के नाम से जाना जाता है। उल्लेखनीय है कि अंग्रेजो ने शाहजहांनाबाद पर ही कब्जा किया था। मध्य काल में इन शहरों में से पहले चार पारिस्थितिक कारणों और पहाड़ियों की वजह से मिली सैन्य सुरक्षा के कारण सीधे तौर पर रिज में ही बने थे।
14 वीं सदी में, दिल्ली रिज का जंगल कांटेदार झाड़ियों से ढका था, जहां प्राकृतिक हरीतिमा कम थी। शिकार के बेहद शौकीन बादशाह फिरोज तुगलक ने रिज के चट्टानी दक्षिणी भाग को साफ करवाया जिस पर गयासुद्दीन तुगलक ने किलेदार शहर तुगलकाबाद किले का निर्माण करवाया। उत्तर मुगल कालीन दौर में शहर के यमुना नदी के तट की ओर ले बनने के कारण रिज पर बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई हुई। फिर भी इसने एक भूमिगत जल स्रोत के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और स्थानीय चरवाहे के लिए गोचर भूमि के रूप में कार्य किया।
दिल्ली के हालिया इतिहास में रिज की भूमिका संवेदनशील रही है। अंग्रेज शासन काल के दौरान रिज विभिन्न कारणों से असाधारण रूप से महत्वपूर्ण बन गई। पहली महत्वपूर्ण घटना वर्ष 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था, जिसमें अंग्रेजों के विदेशी शासन के खिलाफ विद्रोह देखा गया। वैसे तो समूचा उत्तर भारत अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में आगे था पर सर्वाधिक सरगर्मी दिल्ली में थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि भारतीय विद्रोही सैनिक मुगल बादशाह, जो कि अंग्रेजों की कड़ी नजर में था, को केंद्रबिंदु मानकर चारों ओर से लामबंद हुए थे। अंग्रेज सैनिकों ने रिज की ऊंचाई का लाभ हासिल करने के हिसाब से उसके उत्तरी हिस्से में अपना मोर्चा कायम किया था। बाद में भारतीय आजादी के रणबांकुरों की शहादत के कारण रिज को एक पवित्र स्मारक का दर्जा मिला।
भारत में अंग्रेजी राज के वर्ष 1883-84 में प्रकाशित दिल्ली के गजेटियर में दिल्ली में बड़े स्तर पर जैव विविधता के होने की बात रिकॉर्ड में दर्ज है। अंग्रेज सरकार ने वर्ष 1913 में अधिसूचनाओं के माध्यम से एक मजबूत वैधानिक तंत्र बनाया था। भारतीय वन अधिनियम, 1878 के प्रावधानों के तहत दिल्ली के आठ गांवों की 796.25 हेक्टेअर भूमि को एक आरक्षित वन के रूप में अधिसूचित किया गया था। इसके बाद भी, दिल्ली में रिज को सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से कुछ और अधिसूचनाएं जारी की गईं।
19 वीं सदी में अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर रिज के जंगल का वनीकरण शुरू किया था। वर्ष 1807 का एक अंग्रेजकालीन नक्शा वर्तमान समय में रिज के बिखरे हुए जंगलों के विपरीत रिज के उत्तर से दक्षिण दिशा तक के निर्बाध विस्तार को प्रदर्शित करता है। वर्ष 1900 के आरंभ में, अंग्रेजों ने कुछ मुगल बाग़ों को सहेजने का काम शुरू किया। और जब उनकी शाही राजधानी कलकत्ता (अब कोलकाता) से दिल्ली स्थानांतरित हुई तब अंग्रेजों ने नए शहर के विकास पर ध्यान केंद्रित करते हुए प्रभावशाली इमारतें, चौड़ी और सुचारू सड़कों आदि बनवाईं जो कि आज भी ध्यान आकर्षित करती है।
अंग्रेजों ने नए शहर की एक उपयुक्त राजसी पृष्ठभूमि के रूप में रिज की कल्पना की। इस तरह, एक बार फिर से रिज पर ध्यान केंद्रित हो गया और वनीकरण का काम पूरे जोरों से शुरू हुआ। इसके पीछे मूल विचार नई शाही राजधानी को पत्ते के समुंदर के रूप में तैयार करने का था। इसी कारण विभिन्न विदेशी प्रजातियों के पौधों को रोपा गया जिसमें प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, मैक्सिको देश का पेड़, भी था जिसे अब भारत में विलायती कीकर के नाम से जाना जाता है। इसी विलायती कीकर की वजह से आज रिज में व्यापक रूप से एक ही प्रकार की वनस्पति की अधिकता हुई। इससे दिल्ली के हरित क्षेत्र में वृद्धि हुई पर यह पूरी तरह से एक सकारात्मक विकास नहीं था।
अंग्रेजों के दिल्ली रिज में किए गए वनीकरण से अंग्रेजी औपनिवेशिक वानिकी की प्रकृति और विशिष्टता का पता चलता है। रिज के पास के गांवों में रहने वाले हिंदुस्तानियों को विस्थापित कर दिया गया और ईंधन और चारे के लिए रिज पर निर्भर रहने वाले स्थानीय लोगों को बाड़ और सुरक्षाकर्मियों के सहारे उनके स्वाभाविक अधिकार से वंचित कर दिया गया। वर्ष 1913 में, अंग्रेज सरकार ने सेंट्रल रिज की प्राकृतिक संपदा को संरक्षित करने के लिए भारतीय वन कानून, 1878 के सातवें अधिनियम की धारा 4 को लागू करने का निर्णय लिया। दिल्ली के मुख्य आयुक्त ने आठ गांवों-दसघरा, खानपुर, शादीपुर, बंद शिकार खातून, अलीपुर पिलांजी, मालचा और नारहौला की 796॰25 हेक्टेअर भूमि को आरक्षित वन घोषित कर दिया। इस संबंध में, 6 दिसंबर 1913 को अधिसूचना निकालने के साथ वन बंदोबस्त अधिकारी के रूप में एक आईसीएस अधिकारी और अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट दिल्ली विन्सेंट कोनोली की नियुक्ति की गई। इस तरह, रिज पर अंग्रेजों के नियंत्रण को और अधिक कड़ा कर दिया गया।
वर्ष 1915 में एक बार फिर दिल्ली के मुख्य आयुक्त ने सात सितंबर 1915 को भारतीय वन अधिनियम, 1878 की सातवें अधिनियम की धारा 19 के तहत एक अधिसूचना जारी करते हुए पट्टी चंद्रावल गांव की भूमि के एक भाग को आरक्षित वन घोषित कर दिया। इन वनों का मालिकाना हक सीपीडब्ल्यूडी की अधिसूचित को दे दिया गया और समिति के सचिव को वन अधिकारी बना दिया गया।
लेकिन तेजी से शहरीकरण के कारण जमीन पर दबाव बढ़ा और 1920-30 के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के पास रिज के एक बड़े हिस्से को बारूद से विस्फोट करके उड़ाया गया। यह काम आवासीय कालोनियों और व्यावसायिक परिसर सहित करोल बाग की नई कॉलोनी के लिए आने जाने का रास्ता बनाने की गरज से किया गया था। 16 सितंबर 1942 को दोबारा मुख्य आयुक्त की अधिसूचना को निरस्त करते हुए पट्टी चंद्रावल महल गांव की जमीन के एक हिस्से को बतौर आरक्षित वन घोषित किया गया। इस तरह, यह साफ पता चलता है कि अंग्रेजों ने शाही वानिकी का एक ऐसा मॉडल लागू किया, जिसकी छाया अभी भी आधुनिक पर्यावरण नीति में नजर आती है।
आजादी के बाद के वर्षों में, बढ़ती जनसंख्या के दबाव, संसाधन की अत्यधिक निकासी, प्राकृतिक दृश्यों वाले सार्वजनिक पार्कों के निर्माण, सार्वजनिक आवास, आधुनिक निर्माण के कचरे के निपटान आदि के कारण रिज को एक गंभीर खतरा पैदा होने के साथ उसकी क्षेत्रफल में कमी आई है। किसी समय अखंड इकाई वाली यह रिज अब पांच क्षेत्रों-उत्तरी रिज, मध्य रिज, दक्षिण मध्य रिज, दक्षिणी रिज और नानकपुरा दक्षिण मध्य में विभाजित है। इन सभी पांच क्षेत्रों का कुल क्षेत्रफल 7784 हेक्टेयर है जो कि पूरे शहर में अलग-अलग खंडों में फैला हुआ है।
Monday, September 5, 2016
"गोबर" और "गौरी-गणेश" में फर्क_Word makes a difference between Gobar-Ganesh
गोबर-गणेश का अंतर
नाम न रहे तो "गोबर" और "गौरी-गणेश" में फर्क ही क्या है। शब्द न पाना, नाम ना पाना, अनामा रह जाना एक बहुत बड़ी व्यथा है।
प्रत्येक अनुभव सार्थक होने के लिए शब्द पाना चाहता है।
फर्क आया नाम के कारण। व्यक्तित्व मिला नाम के कारण। अस्तित्व तो पहले से ही था, पर इसे ‘अस्ति’ की चेतना मिली नाम के कारण।
अतः शब्द पाने की, नाम पाने की, संज्ञा पाने की साधना का ही नाम है ज्ञान-विज्ञान और सभ्यता-संस्कृति।
-कुबेरनाथ राय (गन्धमादन)
Thursday, September 1, 2016
महाभारत_प्रभाकर क्षोत्रिय
महाभारत द्वारा अनेक रचनाओं को जन्म देने का पहला बड़ा कारण तो यह प्रतीत होता है कि यह एक उदार रचना है जो अपने स्त्रोत से जन्म लेने वाली किसी रचना की स्वायत्तता का हरण नहीं करती, किसी को ‘अनुकरण’ की लज्जा में नहीं बांधती, उलटे सर्जक को देश काल की भिन्नता के बावजूद सृजन की मौलिकता के लिए मुक्त करती है।
संक्षेप में वह लोकतांत्रिक अवकाश (स्पेस) देती है, जो किसी भी स्तर पर ‘धर्मशास्त्र’ कही जाने वाली दुनिया में कोई रचना नहीं देती। (यही वह सबसे बड़ी विभाजक रेखा है, जो दुनिया के दो बड़े सामी धर्मों ‘इस्लाम’ और ‘खिस्त’ से हिंदू धर्म को अलग करती है।) संभवतः इसलिए कि यह धर्म, महाभारत, रामायण जैसी सर्जनात्मक कृतियों से रचा हुआ है, जो धार्मिकता के बहाने लोकचेतना और जीवन की समग्रता के काव्य है।
-प्रभाकर क्षोत्रिय
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First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान
कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...