Sunday, November 27, 2016
History of Indian note currency_इतिहास का झरोखा हैं भारतीय नोट
वर्ष 1978 में एक बार फिर नोटों का विमुद्रीकरण किया गया। अस्सी के दशक में 1 रूपए के नोट पर तेल रिंग और 5 रूपए के नोट पर फार्म मशीनीकरण के चित्र वाले नोटों के साथ 20 रूपए और 10 रूपए के नोटों पर कोणार्क चक्र, मोर की चित्र वाले नये नोट छापे गए जबकि वर्ष 1987 में महात्मा गांधी के चित्र वाला 500 रूपए का नोट छपा।
Saturday, November 26, 2016
Pul Mithai_पुल मिठाई_मिठाई का पुल
पुल मिठाई यानि मिठाई का पुल
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के नजदीक के एक अजीब-सा नाम वाला पर भीड़ से भरी एक जगह है, ‘पुल मिठाई’। इसे ‘मिठाई पुल’ यानी मिठाई से जुड़ा हुआ एक पुल के नाम से भी जाना जाता है। पुल मिठाई, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से पीली कोठी की तरफ जाने वाले रास्ते में पड़ता है। इसका एक सिरा कुतुब रोड तो दूसरा सिरा आजाद मार्केट रोड से मिलता हैं तो उसके नीचे रेललाइन हैं। आज यहाँ पर मसाले, सूखे मेवे और अनाज बेचने वाले खुदरा व्यापारियों की दुकानें हैं।
पुल मिठाई की सड़क पर बिकती दालें |
दिल्ली के पुल मिठाई का नाम साहसी सिख और अमृतसर के झबाल गाँव के रहने वाले सिंधिया मिसल के सरदार बघेल सिंह से जुड़ा है। दिल्ली पर मराठा सेना के लगातार धावों से भयभीत होकर तत्कालीन उन्होंने पतनशील मुगल साम्राज्य के बादशाह शाह आलम द्वितीय (1761) ने बेगम समरू ने सिख सरदारों से मदद की गुहार करने का अनुरोध किया। जब मराठों को सिख सेना के आने की खबर मिली तो वे दिल्ली से कूच कर गए।
ऐसे में, सरदार बघेल सिंह के नेतृत्व में सिख सेना के पहुँचने की सूचना मिलने पर मुगल बादशाह ने घबराकर अपनी मदद के लिए पहुंची सिख सेना को रोकने के लिए शहर के दरवाजे बंद करवा दिये। जिस पर नाराज़ होकर सिख सेना ने अजमेरी गेट से शहर में घुसकर तुर्कमान गेट के इलाके में आगजनी की और रात में मजनूँ का टीला पर डेरा डाला।
दिल्ली में हालत बिगड़ते देख बादशाह ने बेगम समरू को सरदार बघेल सिंह को मनाकर लालकिले लिवाने के लिए भेजा। बघेल सिंह के साथ 500 सिख घुड़सवारों ने बेगम के बगीचे में अपना डेरा डाला। आज चांदनी चौक में इसी स्थान पर बिजली के सामान का थोक बाजार भगीरथ प्लेस है।
सरदार बघेल सिंह का चित्र |
बघेल सिंह ने बेगम समरू के बगीचे में ही बने रहना पसंद किया पर मुगल बादशाह से मुलाक़ात नहीं की। वे हर्जाने में बादशाह से राजधानी में गुरूद्वारों के निर्माण के लिए सिख सेना के दिल्ली में चार साल रहने और उसके खर्च की वसूली पाने में सफल रहे। बघेल सिंह ने वर्ष 1783 में दिल्ली में माता सुंदरी गुरुद्वारा, बाला साहिब, बंगला साहिब, रकाबगंज, शीशगंज, मोती बाग, मजनूँ का टीला और दमदमा साहिब गुरुद्वारों का निर्माण पूरा करवाया।
इसी खुशी के अवसर पर मिठाई के बेहद शौकीन बघेल सिंह ने राजधानी में मिठाइयों की एक प्रदर्शनी का आयोजन किया। सबसे अच्छी मिठाई बनाने वालों को इनाम दिए। इस घटना के बाद यह स्थान पुल मिठाई के नाम से मशहूर हो गया।
फैंटम के 1857 की पहली आजादी की लड़ाई पर लिखे उपन्यास "मरियम" जिस पर बाद में "जुनून" फिल्म बनी के हवाले से दिल्ली के माहौल का वर्णन किया है कि कैसे मिठाई के पुल पर मिठाई की दुकानों से रात को जिन्न मिठाइयां खरीदते थे, विद्रोह की योजना बनाने वालों के लिए खाने-पीने की दूसरी दुकानें भी देर तक खुली रहती थीं। बताते हैं कि सन 1957 तक ऐसी कई दुकानें वहां मौजूद थी।
पुस्तक: जासूसों के ख़ुतूत |
"जासूसों के खुतूत" पुस्तक में अंग्रेजों का एक हिंदुस्तानी जासूस गौरीशंकर अपने भेजे खत में पुल मिठाई के बारे में लिखता है कि कल रात आक्रमण के बाद तीनों रेजीमेंटों को बताया गया है कि वे अपना दायित्व सही तरह से निभाएं। मिठाई पुल से दिल्ली दरवाजे तक समाचार पहुंचाने के लिए एक दस्ता नियुक्त किया गया है।
Friday, November 25, 2016
Thursday, November 24, 2016
Wednesday, November 23, 2016
banaras yatra1_बनारस यात्रा1
ब्रह्मपुत्र मेल से मुग़लसराय से कल से शुरू यात्रा पुरानी दिल्ली में आखिरकार आज खत्म हुई। वैसे सात घंटे से अधिक से देरी से पहुंची इस ट्रेन की रसोई में पीने का पानी और शौचालय में पानी दोनों ही चुक गया था।
पुरानी दिल्ली स्टेशन पर बिजली की सीढ़ियों के अभाव में कुलियों को ही पाँच सौ देने पड़े वही मुग़ल सराय में भी कुलियों की कुलीगीरी कमतर नहीं थी। महिलाओं-बच्चों को देखकर 1500 रुपए मांगे फिर तोल-मोल के बोल के बाद कम पर माने।
मजेदार था कि मुग़ल सराय में रेलवे की समय सारिणी हिन्दी की बजाए अँग्रेजी में ही उपलब्ध थी सो भारतीय रेल की अखिल भारतीय और पूर्वोतर रेल दोनों की समय सारिणी खरीदी। जबकि बनारस में तो उपलब्ध ही नहीं थी। रेलवे में हिन्दी के प्रकाशनों का न मिलना सोचने की बात है।
नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर तो बिजली से चलने वाली सीढ़ियों से बनारस जाते समय कोई परेशानी नहीं हुई पर लगता है कि पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन का सुधार अभी होना बाकी है। जबकि नयी दिल्ली की तुलना में पुरानी दिल्ली से ज्यादा यात्रा चढ़ते-उतरते हैं। जिसमें स्वाभाविक रूप से गरीब-गुरबा ज्यादा होते हैं।
ऐसा नहीं है कि भारतीय रेल ही इस सौतेले बर्ताव में आगे हो, मेट्रो भी कुछ पीछे नहीं है। यह बात मेट्रो कि दोनों स्टेशनों-चाँदनी चौक और कश्मीरी गेट-पर भी नज़र आती है, जहां रखरखाव और सफाई अपनी कहानी खुद ही बयान करती है।
Friday, November 18, 2016
Thursday, November 17, 2016
जब दिल्ली में पहली बार गूंजी थी, रेल इंजिन की सीटी_Rail in Delhi_Bhartiya Rail Magazine_October 2016_isse
अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर (1837-1857) दिल्ली में रेल शुरू किए जाने की संभावना से ही बेहद परेशान थे। उन्हें परिवहन के इस नए अविष्कार से शहर की शांति के भंग होने की आशंका थी। यही कारण था कि जफर ने दिल्ली के दक्षिण-पूर्व हिस्से से वाया रिज पर बनी छावनी से उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर रेल लाइन बिछाने के प्रस्ताव पर रेल लाइन को शहर के उत्तर की दिशा में ले जाने का अनुरोध किया था।
गौरतलब है कि सन् 1803 में दिल्ली पर पूरी तरह से काबिज होने के बाद ही ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में मुनाफा कमाने और क्षेत्र विस्तार के लिहाज से रेल के जाल को बढ़ाने में लग गयी थी। दिल्ली को रेल के नक्शे पर लाने की योजना इसी का नतीजा थी। मजेदार बात यह है कि जब सन् 1841 में रोलैंड मैकडोनाल्ड ने समूचे भारत के लिए एक रेल नेटवर्क विकसित करने के लिए सबसे पहले कलकत्ता-दिल्ली रेलवे लाइन के निर्माण का प्रस्ताव रखा था तो उसे ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी से फटकार मिली थी।
सन् 1848 में, भारत के गवर्नर जनरल बने लॉर्ड डलहौजी ने कलकत्ता से दिल्ली तक रेलवे लाइन की सिफारिश की क्योंकि काबुल और नेपाल से आसन्न सैन्य खतरा था। उसका मानना था कि यह प्रस्तावित रेलवे लाइन सरकार की सत्ता के केंद्र, उस समय कलकत्ता ब्रिटिश भारत की राजधानी थी, से दूरदराज के क्षेत्रों तक संचार का एक सतत संपर्क प्रदान करेंगी। यही कारण है कि जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1857 में देश की पहली आजादी की लड़ाई में हिंदुस्तानियों को हारने के बाद दिल्ली पर दोबारा कब्जा किया तब अंग्रेजों ने शहर में रेलवे लाइन के बिछाने की योजना को अमली जमा पहनाने की ठानी।
जहां एक तरफ, दिल्ली में हिंदुस्तानियों पर निगरानी रखने के इरादे से अंग्रेजी सेना को शाहजहांनाबाद के भीतर स्थानांतरित किया गया वही दूसरी तरफ, शहर में आज़ादी की भावना को काबू करने के हिसाब से रेलवे स्टेशन के लिए जगह चुनी गई। शाहजहांनाबाद में आजादी की पहली लड़ाई के कारण क्रांतिकारी भावनाओं का ज़ोर अधिक था इसी वजह से रेलवे लाइनों और स्टेशन को उनके वर्तमान स्वरूप में बनाने का अर्थ शहर के एक बड़े हिस्से से आबादी को उजाड़ना था।
अंग्रेजों ने 1857 के आज़ादी की लड़ाई से सबक लेते हुए फिर कभी ऐसे हिसंक आंदोलन की खतरे की संभावना को काबू करने के लिहाज से दिल्ली में रेलवे लाइन को शहर के बाहर ले जाने की बजाय उसके अंदर लाने का फैसला किया। सलीमगढ़ और लाल किले पर अँग्रेजी सेना के कब्जे के बाद इन दोनों किलों से गुजरती और दिल्ली को दो हिस्सों में बांटती रेलवे लाइन सैनिक दृष्टि से कहीं अधिक उपयोगी थी। गौरतलब है कि पहले रेल लाइन को यमुना नदी के पूर्वी किनारे यानि गाजियाबाद तक ही लाने की योजना थी। इस तरह से, रेलवे लाइन और स्टेशन ने पुरानी दिल्ली को भी दो हिस्सों में बाँट दिया। उधर अंग्रेजों ने शहर के उत्तरी भाग, जहां पर सिविल लाइन बनाई गई, पर अपना ध्यान देना शुरू किया। यही ऐतिहासिक कारण है कि सिविल लाइंस और रिज क्षेत्र शाहजहांनाबाद के उत्तर में है।
सन् 1857 की स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों का विचार था कि रेलवे लाइन को दिल्ली की बजाय मेरठ से गुजरना चाहिए। वह बात अलग है कि इस सुझाव से इंग्लैंड और दिल्ली में असंतोष था। सन् 1857 का एक सीमांत शहर दिल्ली अब पाँच प्रमुख रेल लाइनों का जंक्शन बनने के कारण महत्वपूर्ण बन चुका था। जहां कई उद्योग और व्यावसायिक उद्यम शुरू हो गए थे।
यही कारण है कि सन् 1863 में गठित एक समिति में नारायण दास नागरवाला सहित दूसरे सदस्यों ने तत्कालीन अंग्रेज सरकार से दिल्ली को रेलवे लाइन से मरहूम न करने की दरखास्त की थी। इसके दो साल बाद बनी दिल्ली सोसायटी ने भी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट से एक याचिका में अनुरोध करते हुए कहा कि रेलवे लाइन को हटाने से शहर का व्यापार प्रभावित होगा ही साथ ही यह रेलवे कंपनी के शेयर में धन लगाने वालों के साथ भी बेईमानी होगी।
इस फैसले में दिल्ली के सामरिक-राजनीतिक महत्व के साथ पंजाब के रेल मार्ग का भी ध्यान में रखा गया था। ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी के निदेशकों के विरोध पर तत्कालीन गवर्नर जनरल का कहना था कि यह रेलवे लाइन सिर्फ मुनाफा कमाने वाली एक रेल लाइन न होकर अँग्रेजी साम्राज्य और उसके राजनीतिक हितों के लिए जरूरी थी। दिल्ली के नागरिकों और पंजाब रेलवे कंपनी (ईस्ट इंडिया रेलवे अधिक दूरी वाले मेरठ की बजाय दिल्ली में एक रेल जंक्शन चाहती थी) के दबाव के कारण चार्ल्स वुड ने वाइसराय के फैसले को बदल दिया।
सन् 1867 में नए साल की पूर्व संध्या पर आधी रात को दिल्ली में रेल की सीटी सुनाई दी और दिल्ली में पहली बार रेल ने प्रवेश किया। उर्दू के मशहूर शायर मिर्ज़ा गालिब की जिज्ञासा की कारण इस लोहे की सड़क (रोड ऑफ आयरन) से शहर की जिंदगी बदलने वाली थी। दिल्ली में रेल लाइन का निर्माण कुछ हद तक अकाल-राहत कार्यक्रम के तहत हुआ था। रेल ऐसे समय में दिल्ली पहुंची जब अकाल के बाद कारोबार मंदा था और कुछ व्यापारी शहर छोड़कर दूसरे कस्बों में जा चुके थे। यही कारण था कि स्थानीय व्यापारी इस बात को लेकर दुविधा में थे कि आखिर रेल से उन्हें कोई फायदा भी होगा? पर रेल के कारण पैदा हुए अवसरों ने जल्द ही उनकी चिंता को दूर कर दिया। दिल्ली पहले से ही पंजाब, राजस्थान और उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों के लिए एक स्थापित वितरण केंद्र था सो रेल के बाद थोक का व्यापार बढ़ना स्वाभाविक था।
दिल्ली में रेलवे लाइन की पूर्व-पश्चिम दिशा की मार्ग रेखा ने शाहजहांनाबाद के घनी आबादी की केंद्रीयता वाले स्वरूप को बिगाड़ दिया। सन् 1857 से पहले दिल्ली शहर में यमुना नदी पार करके या फिर गाजियाबाद की तरफ से नावों के पुल से गुजरकर ही घुसा जा सकता था। लेकिन सन् 1870 के बाद शहर में बाहर से आने वाले रेल यात्री को उतरते ही क्वीन रोड, नव गोथिक शैली में निर्मित रेलवे स्टेशन और म्यूनिसिपल टाउन हाल दिखता था।
अंग्रेजों के राज में भारत में रेलवे के मार्ग निर्धारण में तत्कालीन भारत सरकार के निर्णायक भूमिका थी। जबकि उस दौर में अधिकतर रेल लाइनों को बनाने का काम निजी कंपनियों ने किया। अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने पहले से मौजूद वाणिज्यिक मार्गों के आधार पर ही दिल्ली को मुंबई, कलकत्ता और मद्रास के बंदरगाहों से जोड़ने वाली सड़कों की तर्ज पर रेलवे लाइन के शुरुआती रास्तों का खाका बनाया। लार्ड डलहौजी ने अपने प्रसिद्ध मिनट (भाषण) में कहा, “भारत में रेलवे की लाइनों के चयन के पहले राजनीतिक और व्यावसायिक लाभ का आकलन करते हुए उसके लाभ को देखा जाना चाहिए।” इसके बाद डलहौजी ने कलकत्ता से वाया दिल्ली उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश तक, बंबई से संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) के शहरों और मद्रास से मुंबई को जोड़ने वाले प्रस्तावित रेल मार्गों का नक्शा तैयार किया। डलहौजी के दोहरे उद्देश्य को ध्यान में रखे जाने की बात के बावजूद सन् 1870 तक सैन्य दृष्टि से अधिक व्यावसायिक दृष्टिकोण हावी रहा।
भारत में शुरूआती दौर में (वर्ष 1870 से) ब्रिटेन में गठित दस निजी कंपनियों ने रेलवे लाइनों के निर्माण और संचालन का कार्य किया। सन् 1869 दो कंपनियों के विलय होने के बाद आठ रेलवे कंपनियों-ईस्ट इंडियन, ग्रेट इंडियन पेनिनसुला, ईस्टर्न बंगाल, बॉम्बे, बड़ौदा और सेंट्रल इंडियन, सिंध, पंजाब एंड दिल्ली, मद्रास, साउथ इंडियन और अवध और रोहिलखंड-रह गई। इन रेलवे कंपनियों को सरकार की तरफ से किसी भी तरह से पैसे की कोई गारंटी नहीं दी गई थी।
अंग्रेज़ सरकार ने रेल अधिग्रहणों के बाद ईस्टर्न बंगाल, सिंध, पंजाब और दिल्ली और अवध और रोहिलखंड रेलवे को चलाने के लिए चुना। पर सरकार के हर रेलवे के मामले में प्रबंध संचालन के सूत्र अपने हाथ में लेने के कारण अलग-अलग थे। उदाहरण के लिए जब सिंध, पंजाब और दिल्ली के अधिग्रहण के बाद सरकार ने उसका दो रेलवे कपंनियों के साथ विलय कर दिया। सिंध, पंजाब और दिल्ली रेलवे का दो रेलवे कपंनियों इंडस वैली एंड पंजाब नार्दन लाइनों के साथ मिलाकर उत्तर पश्चिम रेलवे बनाया गया, जिसका संचालन का जिम्मा भारत सरकार पर था। सरकार ने इस रेलवे लाइन के सामरिक महत्व वाले स्थान में होने के कारण इसका प्रबंधन सीधे अपने हाथ में ले लिया था।
आज के जमाने के उलट अंग्रेजों के दौर में लोक निर्माण विभाग सरकारी स्वामित्व वाली रेल लाइनों की देखरेख करता था। केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग को इस कार्य से होने वाला लाभ सरकारी खजाने में जमा होता था तो हर साल भारत सरकार के बजट के माध्यम से पूंजी दी जाती थी।
वर्ष 1860 में जब ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी वाया दिल्ली रेलवे लाइन बिछाने में लगी थी तो शहर की नगरपालिका और स्थानीय जनता से कोई राय नहीं ली गई। सन् 1890 के दशक में जब दिल्ली में अतिरिक्त रेलवे लाइनों का निर्माण किया गया तो यहां कारखानों की संख्या कई गुणा बढ़ी। सन् 1895 में दिल्ली के उत्तर भारत के मुख्य रेल जंक्शन बनने की उम्मीद में पंजाब रेलवे विभाग ने शहर के अधिकारियों से उनकी मंजूरी के बिना किसी भी रेलवे कंपनी को दिल्ली स्टेशन की पाँच मील की परिधि में जमीन न देने की बात कही। वर्ष 1900 में जब सदर बाजार और पहाड़गंज में कई दुकानें, घर और कारखाने बने तो शहर में रेल इतिहास का दूसरा चरण शुरू हुआ। इसी दौरान आगरा-दिल्ली रेलवे को सदर बाजार के दक्षिण में जमीन का एक टुकड़ा देने के साथ एक बड़ी भूमि का हस्तांतरण हुआ। इस पर नगरपालिका ने सर्कुलर रोड के न टूटने के लिए जमीन के टुकड़े और दीवार के बीच एक अवरोधक बनाने पर जोर दिया।
बिजली, ट्राम की लाइनों और रेलवे लाइनों ने दिल्ली शहर में कई एकड़ खेतों को एक आबादी वाले क्षेत्र में बदल दिया जो कि क्षेत्रफल में वर्ष 1903 में बृहत्तर लंदन के आकार के बराबर था। इस पर लॉर्ड हार्डिंग ने ”चमत्कारी परिवर्तन“ के विषय में लिखा कि रेल लिने के कारण जहां कभी मक्का के खेत थे, वहाँ अब दस प्लेटफार्मों वाला एक बड़ा रेलवे स्टेशन, दो पोलो मैदान और निचली जमीन पर बनी इमारतें हैं। वर्ष 1905 में जब दिल्ली की नगरपालिका काबुल गेट और अजमेरी गेट के बीच की दीवार, जो कि शहर के विस्तार के लिए भूमि के लिए एक बाधा थी, को गिराना चाहती थी तब अधिकारियों ने रेलवे लाइन को ही एक नया अवरोधक बताया।
इस सदी की शुरुआत में दिल्ली भारत में सबसे बड़ा रेलवे जंक्शन थी। राजपूताना रेलवे कंपनी ने शहर के पश्चिम में मौजूद दीवार में से रास्ता बनाया तो दरियागंज में अंग्रेज सेना की उपस्थिति का नतीजा यमुना नदी के किनारे वाली तरफ दीवार के एक बड़े हिस्से के ध्वंस के रूप में सामने आया। इस तोड़फोड़ पर अंग्रेज सरकार ने चुप्पी ही साधे रखी।
पुरानी दिल्ली में टाउन हॉल का शास्त्रीय स्वरूप, ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी की किलेनुमा वास्तुशैली में बना रेलवे स्टेशन और ठेठ विक्टोरियाई ढंग से बनी पंजाब रेलवे की इतालवी शैली की इमारतें एक दूसरे की पूरक थी। उत्तर पश्चिम रेलवे के कराची तक रेल पटरी बिछाने की वजह से शुरू में दिल्ली के व्यापारियों और उद्योगपतियों को काफी फायदा हुआ। लेकिन वर्ष 1905 में जब रेलवे के जरिये कराची तक कपास के कच्चे माल के रूप में पहुंचने के कारण स्थानीय स्तर पर भी कपास उद्योग विकसित होने से उत्तर भारत में कपास उद्योग में दिल्ली का दबदबा घटा। तब भी, सदी के प्रारंभिक वर्षों से दिल्ली उत्तर भारत का एक मुख्य रेलवे जंक्शन बन गई जहां कारोबार में काफी इजाफा हुआ।
सदर बाजार नई रेलवे लाइन पर काम करने वाले मजदूरों के रहने का ठिकाना था। इस सदी के प्रारंभिक वर्षों में ग्रेट इंडियन पेनीनसुला रेलवे ने पहाड़गंज में अपने कर्मचारियों के लिए मकान बनाए। नई राजधानी के कारण हुए क्षेत्रीय विकास के कारण पहाड़गंज एक महत्वपूर्ण स्थान बन गया, जिसका महत्व नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बनाए जाने के फैसले से और अधिक बढ़ गया।
एक तरह से रेलवे और कारखानों ने दिल्ली शहर की बुनावट को बदल दिया। वर्ष 1910 तक दिल्ली जिले का हरेक गांव बारह मील की दूरी के भीतर रेलवे स्टेशन की जद में था। इतना ही नहीं रेलवे ने शहर और उसके करीबी इलाकों में बैलगाड़ी को छोड़कर यातायात के दूसरे सभी परिवहन साधन बेमानी हो गए।
यह अनायास नहीं है कि अंग्रेजों ने अपनी नई साम्राज्यवादी राजधानी नई दिल्ली की स्थापना के लिए पुरानी दिल्ली के उत्तरी भाग, जहां 12 दिसंबर, 1911 को किंग जॉर्ज पंचम ने एक भव्य दरबार में सभी भारतीय राजाओं और शासकों को आमंत्रित कर ब्रिटिश राजधानी को कलकत्ता से यहां पर स्थानांतरित करने की घोषणा की थी, की तुलना में एक अलग स्थान को वरीयता दी। इस तरह, शाहजहांनाबाद के दक्षिण में एक स्थान का चयन केवल आकस्मिक नहीं था। राजधानी के उत्तरी हिस्से को इस आधार पर अस्वीकृत किया गया कि वह स्थान बहुत तंग होने के साथ-साथ पिछले शासकों की स्मृति के साथ गहरे से जुड़ा था और यहां अनेक विद्रोही तत्व भी उपस्थित थे। जबकि इसके विपरीत स्मारकों और शाही भव्यता के अन्य चिह्नों से घिरा हुआ नया चयनित स्थान एक साम्राज्यवादी शक्ति के लिए पूरी तरह उपयुक्त था, क्योंकि यह प्रजा में निष्ठा पैदा करने और उनमें असंतोष को न्यूनतम करने के अनुरूप था।
पहले विश्व युद्ध (1914-1917) के कारण शहर के विकास की योजनाओं की गति धीमी हुई। दिल्ली में आगरा-दिल्ली के प्रमुख रेल मार्ग के परिचालन को नए सिरे से तैयार करने के लिहाज से शहर के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्सों के विस्तारित क्षेत्रों का विकास होने में समय लगा। ईस्ट इंडिया रेलवे के वाया दिल्ली रेलवे लाइन बिछाने के कारण व्यापार में तेजी आई। शहर के वित्त और खुदरा कारोबार पर नियंत्रण रखने वाले अमीर खत्री, बनिया, जैन और दिल्ली के शेखों सहित हस्तकला उद्योगों के कर्ताधर्ताओं की दिलचस्पी साफ तौर पर पंजाब-कोलकाता रेलवे के कारण उपजी नई संभावनाओं में थी।
Wednesday, November 16, 2016
Tuesday, November 15, 2016
Love_Marriage_Live-in-relationship_प्रेम_विवाह_लिव-इन
न प्रेम किया, न विवाह! ऐसे लिव-इन में रहने वाले टीवी प्रस्तोता 'प्रेम और विवाह' दोनों पर लाइव-प्रसारण में साधिकार बहस करते हुए प्रश्नचिन्ह लगाते नज़र आते हैं?
यानि अंगूर खट्टे हैं!
शायद इसीलिए हिन्दू धर्म में 'गृहस्थ' आश्रम को सबसे कठिन माना गया है।
आखिर हिन्दू विवाह भी एक संस्कार होता है, कुल सोलह संस्कारों में से।
यानि अंगूर खट्टे हैं!
शायद इसीलिए हिन्दू धर्म में 'गृहस्थ' आश्रम को सबसे कठिन माना गया है।
आखिर हिन्दू विवाह भी एक संस्कार होता है, कुल सोलह संस्कारों में से।
Monday, November 14, 2016
Meeting with Ocean_Bhavani prasad mishra_सागर से मिलकर_भवानीप्रसाद मिश्र
सागर से मिलकर जैसेनदी खारी हो जाती है
तबीयत वैसे हीभारी हो जाती है मेरीसम्पन्नों से मिलकर
व्यक्ति से मिलने काअनुभव नहीं होताऐसा नहीं लगताधारा से धारा जुड़ी है
एक सुगंधदूसरी सुगंध की ओरमुड़ी है
तो कहना चाहिएसम्पन्न व्यक्तिव्यक्ति नहीं है
वह सच्ची
कोई अभिव्यक्तिनहीं है
कई बातों का जमाव हैसही किसी भीअस्तित्व का अभाव है
मैं उससे मिलकरअस्तित्वहीन हो जाता हूँ
दीनता मेरीबनावट का कोई तत्व नहीं हैफिर भी धनाड्य से मिलकरमैं दीन हो जाता हूँ
अरति जनसंसदि कामैंने इतना हीअर्थ लगाया है
अपने जीवन केसमूचे अनुभव कोइस तथ्य में समाया हैकि साधारण जनठीक जन है
उससे मिलो जुलोउसे खोलोउसके सामने खुलो
वह सूर्य है जल हैफूल है फल हैनदी है धारा हैसुगंध है
स्वर है ध्वनि है छंद हैसाधारण का ही जीवन मेंआनंद है!
self learning_अप्पो दीपो भव
शब्द को साधना सहज है पर उससे सीखना और भी कठिन है, सो जिसने मन के एकलव्य को जगा दिया सो उसे स्थानीय गुरु की भी आवश्यकता नहीं। बुद्ध का "अप्पो दीपो भव" सबका जीवन ध्येय वाक्य होना चाहिए।
स्वयं ही सीखने की प्रक्रिया में, गुरु भाव से अधिक सहचर का भाव सिखाता है क्योंकि साहचर्य में सकारात्मकता का स्वाभाविक संयोग बनता है। यही कारण है कि हिन्दू दर्शन में साध-संगत के भाव को आवश्यक माना है।
Sunday, November 13, 2016
Wednesday, November 9, 2016
Shekhar Ek Jivani_Agyey_Nirmal Verma_Hindi Novel_Literature
यह भी एक दैविक संयोग जान पड़ता है कि अचानक जीवन के किसी मोड़ पर कोई ऐसी पुस्तक हाथ लग जाती है जिसे हमने जान-बूझकर नहीं चुना किन्तु जिसे जैसे स्वयं मालूम हो, कि हमारी आत्मा किस तृष्णा की आग में उसके लिए झुलस रही है, और वह खुद चलकर हमारे हाथ में चली आती है और हमें लगता है, कि हम अभी तक इसी की प्रतीक्षा तो कर रहे थे।
अज्ञेय के ‘शेखर’ को पढ़ना कुछ ऐसा ही अनुभव था; अपनी हिन्दी में भी ऐसी पुस्तक लिखी जा सकती है, यह एक चमत्कार-सा जान पड़ा था। महीनों तक उसकी भाषा और शैली का नशा मेरे मन पर छाया रहा्।
अच्छी कहानियां प्रेमचन्द, सुदर्शन, जैनेन्द्र की पहले भी पढ़ी थी किन्तु ‘शेखर’ का प्रभाव उसके ‘कहानीपन’ में नहीं, उस भभकती इन्टेंसिटी में था, जो शब्दों की आंच से हमारे भाव-जगत को धीरे-धीरे उबालने लगती है। ‘मानसबल का वक्ष, रात’ यह एक वाक्य आज भी तीर की तरह बिंधा है। पहली बार हिन्दी कथा साहित्य में प्रकृति सिर्फ पृष्ठभूमि नहीं, स्वयं पात्रों की ‘प्रकृति’ में साझा करती जान पड़ती है।
-निर्मल वर्मा
Tuesday, November 8, 2016
लेखन_चिंतन_विचार_writing_continuity_creation
स्मरण को पाथेय बनने देना चाहिए।
लेखन भी एक तरह से सबकी अपनी अपनी यात्रा है, अनुभव हैं, संघर्ष हैं, दुख हैं, चाहने की अनुभूति हैं।
समय के साथ लेखन के प्रति समझ विकसित होने से आत्म विश्वास यह भी आ जाता है।
ऐसे में, किसी से अप्रभावित होकर लिखने का तरीका ही उत्तम है।
वैसे, लिखने में निरंतरता और सातत्य महत्वपूर्ण है, बाकी तो बस खामखयाली है।
Sunday, November 6, 2016
दिल्ली की देहरी_1_पांडवों का इंद्रप्रस्थ यानि पहली दिल्ली_First Delhi of Indraprastha_Pandavas
पांडवों का इंद्रप्रस्थ यानि पहली दिल्ली
दिल्ली का इतिहास, उसकी अब तक की बसावटों की तरह ही अविछिन्न है । उल्लेखनीय है कि पुराने किले का स्थान दिल्ली का मूल नगर इंद्रप्रस्थ माना जाता है। हिन्दू साहित्य के अनुसार, यह किला पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ के स्थल पर है। पांडवों ने ईसापूर्व से 1400 वर्ष सबसे पहले दिल्ली को अपनी राजधानी इन्द्रप्रस्थ के रूप में बसाया था।
पूर्व-ऐतिहासिक काल में जिस स्थल पर इंद्रप्रस्थ बसा हुआ था, उसके ऊंचे टीले पर १६ वीं शताब्दी में पुराना किला बनाया गया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस किले की कई स्तरों पर खुदाई की है। खुदाई में प्राचीन भूरे रंग से चित्रित मिट्टी के विशिष्ट बर्तनों के अवशेष मिले हैं, जो महाभारत काल के हैं। यहाँ उत्खनन से पता चला कि लगभग 1,000 ईसा पूर्व के काल में यहां मानवीय बसावट थी और ये लोग विशिष्ट प्रकार के बर्तनों और सलेटी रंग की चीजों का इस्तेमाल किया करते थे। यहाँ खुदाई में मिले बर्तनों के अवशेषों के आधार पर पुरातत्वविदों की मान्यता बनी कि यही स्थल पांडवों की राजधानी होगा। यह ध्यान देने वाली बात है कि देश में दूसरे महाभारतकालीन स्थानों पर भी उत्खनन में ऐसे ही बर्तनों के अवशेष मिले हैं।
वर्ष 1955 में पुराने किले के दक्षिण पूर्वी भाग में हुई पुरातात्त्विक खुदाई में कुछ मिट्टी के पात्रों के टुकड़े पाए गए जो कि महाभारतकालीन पुरा वस्तुओं से मेल खाते थे। इससे पुराने किला क्षेत्र के इन्द्रप्रस्थ होने की बात की पुष्टि हुई। पुराने किले की पूर्वी दीवार के पास 1969-1973 के काल में दोबारा खुदाई की गई। उस दौरान यहाँ पुरातात्विक खनन में मिले मृदभांड, टेराकोटा (पकी मिटटी की) की यक्ष यक्षियों की छोटी प्रतिमाएँ, लिपि वाली मुद्राएँ किले के संग्रहालय में रखी गई हैं।
महाभारत के प्रसंग के अनुसार, श्री कृष्ण ने पांडवों शांति-समझौते के रूप में कौरवों के समक्ष केवल पांच गांवों की मांग रखी थी। इन सभी गांवों के नामों के अंत में "पत" आता था जो संस्कृत के "प्रस्थ" का हिंदी साम्य है। ये 'पत' वाले गांव थे-इंदरपत, बागपत, तिलपत, सोनीपत और पानीपत। यह जानकर अचरज होगा कि दक्षिण दिल्ली की ओखला नहर के पूर्वी किनारे से लगभग २२ किलोमीटर दूर तिलपत गांव है। इन सभी उत्खनन स्थलों से महाभारत कालीन भूरे रंग के बर्तन मिले हैं।
यह भी एक कम जाना तथ्य है कि इंद्रप्रस्थ के अपभ्रंश इंद्रपत के नाम का एक गांव वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ तक दिल्ली के पुराना किला में स्थित था। अंग्रेजों की राजधानी नई दिल्ली का निर्माण करने के दौरान अन्य गांवों के साथ उसे भी हटा दिया गया था। सैयद अहमद खान ने अपनी 'आसारुस्सनादीद' शीर्षक पुस्तक में इंदरपत के मशहूर मैदानों (जिसके एक हिस्से को अब इंद्रप्रस्थ एस्टेट के रूप में स्मारक का दर्जा दे दिया गया है) का नाम दिया है।
वर्ष 1911 में अंग्रेजों के कलकत्ता से बदलकर दिल्ली को नई राजधानी बनाने के निर्णय पर तत्कालीन वाइसरॉय लॉर्ड हार्डिंग ने लिखा था, "दिल्ली अभी भी एक मायावी नाम है। हिंदुओं के दिलोदिमाग में यह नाम बहुत सारे ऐसे पवित्र प्रतीकों और किंवदंतियों से जुड़ा हुआ है जो इतिहास के प्रारंभ बिंदु से भी पुराने हैं। दिल्ली के मैदानों में ही पांडव राजकुमारों ने कौरवों के साथ एक भीषण युद्व लड़ा था जिससे अंततः महाभारत की रचना हुई। और यमुना तट पर ही पांडवों ने प्रसिद्ध यज्ञ किया था जिसमें उनकी ताजपोशी हुई थी। पुराना किला आज भी उसी जगह आबाद है जहां उन्होंने इस शहर की बुनियाद डाली थी और इसे इंद्रप्रस्थ का नाम दिया था। यह आधुनिक दिल्ली शहर के दक्षिणी दरवाजे से बमुश्किल पांच किलोमीटर दूर पड़ता है।"
(5 नवम्बर, 2016, दैनिक जागरण)
Saturday, November 5, 2016
Thursday, November 3, 2016
दिल्ली की मुद्रा देहलीवाल_Delhi coin Dehliwal
बारहवीं शताब्दी के मध्य में अजमेर के चौहानों से पहले तोमरों राजपूतों ने दिल्ली को अपनी पहली बार अपने राज्य की राजधानी बनाया था। तोमर वंश के बाद दिल्ली की राजगद्दी पर बैठे चौहान शासकों के समय में दिल्ली राजनीतिक स्थान के साथ एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गई थी। तत्कालीन दिल्ली में व्यापक रूप से प्रचलित मुद्रा, देहलीवाल कहलाती थी। वैसे तो उस समय सिक्के, शुद्ध चांदी से लेकर तांबे के होते थे। पर सभी सिक्कों को चांदी की मुद्रा के रूप में ढाला गया था और सभी एक ही नाम देहलीवाल से जाने जाते थे।
सन् 1192 में तराइन के लड़ाई में विदेशी मुसलमान हमलावर मुहम्मद गौरी की जीत और अंतिम भारतीय हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हार के साथ दिल्ली की राजनीति में बदलाव से साथ आर्थिक रूप से दिल्ली टकसाल की गतिविधियों में भी परिवर्तन आया। दिल्ली के कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार, इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया।
उल्लेखनीय है कि विदेशी मुस्लिम हमलावर भी दिल्ली के हिंदू राजपूत शासकों की मुद्रा को देहलीवाल के नाम से ही पुकारते थे। वैसे बैल-और-घुड़सवार के सिक्कों का उत्पादन तो जारी रहा पर इन सिक्कों से राजपूत शूरवीरों की आकृति को हटा दिया गया। उनकी आकृति के स्थान पर संस्कृत में उरी हउमीरा (अमीर या सेनापति) और देवनागरी लिपि में उरी-महामदा के साथ बदल दिया गया।
इस पूरी अवधि के दौरान दिल्ली टकसाल की उत्पादन क्षमता स्थिर और उत्पादन की दर भी काफी हद तक एकसमान थी। अंग्रेज़ इतिहासकार एडवर्ड थॉमस के अनुसार, मोहम्मद बिन साम यानी मुहम्मद गौरी की मौत तक जन साधारण व्यक्तियों का मौद्रिक लेनदेन देहलीवाल अथवा जीतल की मुद्रा में ही होता थी। देहलीवाल मुद्रा का भार 32 रत्ती था। ऐसा देखा गया है कि अधिकतर प्राचीन भारतीय मुद्राएं औसत रूप से 50 ग्रेन भार की होती थी। जैसे वराह वाली चांदी की पुराने मुद्राओं सहित राजपूत मुद्राओं का औसतन भार 50 ग्रेन होता था। उल्लेखनीय है कि भारत में महाराज मनु के काल से ही चांदी तौलने का माप रत्ती होता था।
भारतीय इतिहासकार डी.सी. सरकार की पुस्तक भारतीय सिक्कों में अध्ययन के अनुसार, बारहवीं शताब्दी के अंत में, मोहम्मद गौरी ने अपनी स्वर्ण मुद्रा के लिए गहड़वाल की सिक्के पर बैठी लक्ष्मी को अपनाया। गुलाम वंश के सुल्तानों ने देहलीवाल नामक सिक्के जारी किए, जिसमें एक ओर प्रसिद्व चौहान घुड़सवार और दूसरी ओर भगवान शिव के बैल के साथ नागरी अक्षरों में शाही नाम खुदा हुआ था। उनके सिक्के आम तौर पर चांदी और तांबे के मिश्रण से बने थे, जिनका वजन 56 सेर था। उनके सोने के सिक्के भी चांदी और तांबे के मिश्रण वाले सिक्कों के समान ही थे। गौरतलब है कि दिल्ली के विभिन्न शासकों-तोमर, चौहान, गौरी और गुलाम-वंश के दौर में दिल्ली टकसाल की स्थिति कोई खास अलग नहीं थी। 12 वीं सदी में विभिन्न राजपूत शासकों के शासनकाल में दिल्ली टकसाल ने करीब एक अरब सिक्के ढ़ाले थे।
वर्ष 1053 के बाद से गांधार यानि आज के अफगानिस्तान में स्थित गजनी राज्य से चांदी की लगातार आमद ने दिल्ली टकसाल के पीढ़ी दर पीढ़ी सिक्का बनाने वाले कारीगरों को एक मानक स्तर के वजन वाले सिक्के (3.38 ग्राम) तैयार करने में मदद की थी। उस समय धातु सामग्री, सामान्य वजन सीमा और डिजाइन में यह सिक्का शाही दिरहम पर आधारित था। चांदी-तांबा की मिश्र धातु वाले इन सिक्कों में विशुद्ध रूप से 0.59 ग्राम चांदी होती थी।
उस दौर में भारतीय व्यापारी अपने व्यापार के लिए लाल सागर की नौवहन प्रणाली का उपयोग करते थे। इस समुद्रपारीय व्यापार के कारण इन सिक्कों का चलन फारस की खाड़ी से भारत के उत्तर पश्चिम तट तक हो गया था। उल्लेखनीय है कि इन सिक्कों में वर्ष 1180 में खलीफा शासन के दौरान यूरोपीय चांदी के टुकड़ों से दोबारा गढ़े गए सिक्के शामिल थे। बारहवीं सदी के उत्तरार्ध में पश्चिम यानी यूरोप से होने वाली चांदी की नियमित आपूर्ति के परिणामस्वरूप उत्तर भारत में सिक्के गढ़ने वालों ने गुजराती गड़िया पैसा और राजपूतों के देहलीवाल सिक्के बनाए।
हालांकि पूरे मुइजिद शासन (1192-1210) और गुलाम वंश के कालखंड में बैल-और-घुड़सवार वाले देहलीवाल सिक्कों का उत्पादन और पूर्ववर्ती राजपूत सिक्कों के रूप में उनका उपयोग समान रूप से जारी रहा। लेकिन सिक्के के मानक भार में पांच प्रतिशत की वृद्धि करने के साथ समान रूप से ही उतनी ही प्रतिशत चांदी घटा दी गई। दिल्ली के बैल-घुड़सवार के सिक्कों के ढलने यानि तैयार करने का कार्य जारी रहने के कारण ही वर्ष 1192-1216 तक के कालखंड में इन सिक्कों का निर्यात गांधार, पंजाब और अफगानिस्तान से आगे तक होता रहा।
मुहम्मद बिन साम (1193-1206), इल्तुतमिश (1210-1235), रूक्न अल दीन फिरोज (1235), रादिया (1236-1240), मुइज्ज अल दीन बहराम (1240-1242), अलाउद्दीन मसूद (1242-1246) और नासिर उल-दीन महमूद (1246-1266) के सोने और तांबे के सिक्के देहलीवाल ही कहलाते थे। इन छोटे सिक्कों की एक ओर शिव का बैल (नंदी) और दूसरी ओर राजपूत घुड़सवार होता था और लंबाई में राजा का नाम नागरी लिपि में या अरबी की कुफिक शैली में लिखा होता था।
उत्तर भारत में स्थापित दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने चांदी और तांबे के सिक्कों पर आधारित मुद्रा प्रणाली को ही चलाए रखा जिसमें चांदी के टका और देहलीवाल का प्रभुत्व था। इसके साथ ही, तांबे का जीतल का भी प्रचलन था। जीतल पुरानी हिंदू देहलीवाल मुद्रा का ही एक विस्तार था जो कि देहलीवाल से अधिक लोकप्रिय तो था पर उसका दायरा एक हद तक शहर तक ही सीमित था।
जब वर्ष 1210 में इल्तुमिश दिल्ली के सुल्तान बना तो उसे विरासत में मिली सिक्कों की टकसालों में दिल्ली में मुसलमानों के राज से पहले के राजपूती सिक्कों का गढ़ना जारी था। यह काम वर्ष 1220 में मध्य एशिया में चांदी के उत्पादन के खत्म होने तक कायम रहा। तुर्कों की दुश्मन रियासतों के गुजरात और बंगाल के समुद्री तटों पर कब्जे के कारण वर्ष 1220 में दिल्ली सल्तनत को पश्चिम से समुद्र की ओर से होने वाली होने वाली चांदी की महत्वपूर्ण आपूर्ति अवरुद्ध हो गई। इसका परिणाम देहलीवाल के अस्तित्व पर संकट के रूप में सामने आया।
अंग्रेज़ इतिहासकार एच नेल्सन राइट के अनुसार, शम्स अल-दीन इल्तुतमिश (1210-1235) के दौर में दिल्ली की मुद्रा के मानकीकरण के साथ इन सिक्कों में चांदी की मात्रा को घटाकर आधा कर दिया गया। नए सिक्के, जिसे जीतल का नाम दिया गया, का वजन 32 रत्ती था। जीतल में प्रयुक्त चांदी और तांबे का संयुक्त मूल्य चांदी की दो रत्ती के बराबर था। जबकि तांबे के लिए चांदी का सापेक्ष मूल्य 1:80 था। दक्षिण भारत में देवगिरी पर दिल्ली सल्तनत के सुलतानों की जीत के बाद उत्तरी भारत में जीतल का चांदी के टका का सापेक्ष मूल्य बदलकर 1:48 और दक्कन में 1:50 हो गया। दक्षिण भारत में इसके थोड़े से अंतर से महंगा होने का कारण यह था कि तांबा विदेशों से आयात किया जाता था।
तत्कालीन इतिहास की पुस्तकों में सिंध के शासक मलिक नासिरूद्दीन कुबाचा के अपने बेटे के माध्यम से इल्तुतमिश को एक सौ लाख देहलीवाल की पेशकश करने और अपने पिता की मौत पर उसके बेटे के इल्तुतमिश के शाही खजाने में पांच सौ लाख देहलीवाल जमा करवाने का हवाला आता है। उत्तर भारत में दिल्ली के सुल्तान शम्स अल-दीन इल्तुतमिश का शासनकाल को राजनीतिक सुदृढ़ीकरण का दौर माना जाता है और राइट के मुताबिक, यह दिल्ली के सिक्कों के इतिहास में एक मील का पत्थर था।
इतिहासकार राइट के अनुसार 48 जीतलों का एक टका था। एक जीतल दो रत्तियों के बराबर था। और इस तरह से वह टका और जीतल दोनों को तब उत्तर भारत में प्रचलित माशा और रत्ती के सोने के वजन मानक से जोड़ने में सफल रहा। उसके बाद हमारे समय में दशमलव प्रणाली को अपनाया गया था।
"हिस्ट्री ऑफ सिविलाइजेशनंस ऑफ सेंट्रल एशिया" पुस्तक में लेखक मुकम्मद साजपिदिनोविक अस्मीमोव लिखते हैं कि एडवर्ड थॉमस के बारे में अपने पहले के विचारों का खंडन करने के बाद, राइट ने इल्तुतमिश की चांदी के टका का सही ढंग से मूल्य आंकने का दावा किया जो कि एक तोले के बराबर था। उदाहरण के लिए, 12 माशा और प्रत्येक माशा में 12 रत्ती थी। ऐसे, एक तोला 96 रत्तियों के बराबर था। भारतीय रुपए के मामले में वजन का मानक आज के समय तक कायम है। दूसरी नई बात जीतल का चलना था, जिसने पुराने देहलीवाल मुद्रा का स्थान लिया।
(कादंबिनी, नवम्बर 2016)
(कादंबिनी, नवम्बर 2016)
Tuesday, November 1, 2016
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