Tuesday, March 28, 2017

Hindu_a way of life_हिन्दू धर्म एक जीवन पद्धति



यहूदी, ईसाई और मुसलमान तीनों अब्राहमिक पंथ है, जो एक किताब- एक पैगंबर का अनुसरण करते हैं। इसके साथ ही यह समूहगत रूप से यानि संप्रदाय के हिसाब से एक स्थान विशेष और पूजा पद्धति का अनुकरण करते हैं। हिन्दू धर्म में कोई शंकराचार्य किसी हिन्दू को अहिंदू नहीं घोषित कर सकता।

पर इस्लाम-ईसाइयत में ऐसा नहीं है, जैसे सलमान रुशदी और तसलीमा नसरीन को कुफ़्र के नाम पर सजा घोषित की गयी। इस तरह से 1984 के बाद एसजीपीसी ने बूटा सिंह को तनखैया घोषित कर दिया था, जिस बाद उन्हें स्वर्ण मंदिर जाकर माफी के रूप में जूते साफ करके सेवा करनी पड़ी।

भारत में चर्च ईसाई संप्रदायों के नाम पर विभक्त है। जैसे देश में कैथॉलिक ईसाई, प्रोटेस्टंट चर्च में नहीं जा सकता तो दोनों चर्च ऑफ इंग्लैंड के चर्च में नहीं। यहाँ तक कि मरने के बाद कब्रिस्तान मे दफनाने के लिए भी 'फादर' की अनुमति लेनी पड़ती है। हाल में ही प्रियंका चोपड़ा की नानी की बिहार में हुई मौत के बाद उनके सीरियाई चर्च ने उनके शव को केरल के शहर में गाड़ने की अनुमति नहीं दी क्योंकि उनका विवाह एक हिन्दू से हुआ था।

वैसे हिन्दू धर्म एक जीवन पद्धति है, इसकी पुष्टि सुप्रीम कोर्ट (न्यायमूर्ति जे एस वर्मा) अपने एक निर्णय में पहले ही कर चुका है।

UP_Yogi_Gorakhnath



मतलब भाग मछंदर, योगी आया!


अभी एक बंगाली सखी ने 'मछंदर' या 'मच्छर' पूछा तो अचरज लगा.
वैसे दिल्ली आकर जातीयता के जड़े कट जाती है, यह आज इस प्रश्न से पूरी तरह समझ आ गया.

Monday, March 27, 2017

गुरु गोरखनाथ_guru gorakhnath




हिन्दू ध्यावै देहुरा, मुसलमान मसीत।
जोगी ध्यावै परम पद, जहां देहुरा न मसीत।


-गुरु गोरखनाथ 

Caste_UP_From Krishna to Yogi_क्या कृष्ण-क्या योगी




फेसबुक पर पढ़ते-पढ़ते एक पुराने पर अब नामचीन साथी की वाल पर काम की पंक्तियाँ मिल गई..

सो लगा साझा करनी चाहिए.
"जिससे डर लगता है, उस पर पूरी तैयारी से और अकेले हमला करो। जीत जाओगे।"

फिर लगा अगर मन मजबूत हो तो डर कैसा?
फिर हमले के लिए तैयारी का क्या औचित्य?

हमारे देश में ही जीत के लिए, सबसे बड़ा योद्धा, राममनोहर लोहिया के शब्दों में जाति का अहीर, कह गया है कि कर्म कर फल की चिंता मत कर.

जब साधु-नदी के स्त्रोत न पूछने वाले ब्राह्मणों के ज्ञान वाले देश में जाति पूछना ही पत्रकारिता का काम बचा हो तो फिर क्या कृष्ण-क्या योगी!

जब टीवी चैनल की टीआरपी के लिए दर्शकों को खबर को भोगने का स्वाद देना ही कसौटी हो गया हो तो फिर प्रस्तोता की जाति भी बता देनी चाहिए ताकि मंडल से लेकर कमंडल कोई भी भ्रम में नहीं रहेगा और बेकार में व्यथित नहीं होगा.

आखिर भीमराव आंबेडकर ने अनायास नहीं लिखा था कि "जाति है की जाती नहीं".


Sunday, March 26, 2017

दिल्ली कर रीगल सिनेमा_History of Regal Cinema of Delhi

पंजाब केसरी, 26032017

दिल्ली के कनॉट प्लेस में स्थित रीगल सिनेमाघर इस महीने (31 मार्च) बंद हो जाएगा। रीगल के मालिक इमारत के लिए सुरक्षा प्रमाणपत्र लेने में असफल होने के कारण अब राजधानी के इस 84 साल पुराने सिनेमाघर में आखिरी बार अनुष्का शर्मा की फिल्म 'फिल्लौरी' दिखाई जाएगी। सिनेमाघर के बाहर चिपके नोटिस में लिखा है, "मैनेजमेंट ने 31-03-2017 से बिल्डिंग में बिजनेस बंद करने का फैसला लिया है।" 


नयी दिल्ली कनॉट प्लेस में अधिकतर थिएटर 30 के दशक में बनें, जिनमें से अनेक जैसे रीगल, प्लाज़ा ओडियन और रिवोली प्लाज़ा आज भी लोकप्रिय व्यावसायिक सिनेमाघर के रूप में मौजूद हैं। बहराल, पुरानी दिल्ली में तो पहले से ही अनेक सिनेमाघर थे, पर रीगल नई दिल्ली का पहला सिनेमाघर था जो कि वर्ष 1931 में बना। रीगल थियेटर, कनॉट प्लेस में बनी सबसे पहली इमारत थी। जब यह सिनेमाघर खोला गया था तब इस क्षेत्र का व्यावसायिक रूप से इतना विकास नहीं हुआ था और रीगल को खुलते ही तत्काल सफलता नहीं मिली थी।


अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह “सेलिब्रेटिंग दिल्ली” पुस्तक में बताते है कि उनके पिता (सरदार शोभा सिंह) नए शहर में एक सिनेमा-रीगल का निर्माण करने वाले पहले व्यक्ति थे। शुरू में उन्होंने खुद सिनेमाघर को चलाने की कोशिश की। मुझे याद है कि कई बार सिनेमाघर में केवल दस दर्शक होते थे और उन्हें दर्शकों को टिकट के उनके पैसे वापस लेने के लिए गुहार करनी पड़ती थी, जिससे उन्हें फिल्म को दिखाने पर पैसा बर्बाद नहीं करना पड़े। उस दौर में, पुरानी दिल्ली वालों खासकर चव्वनीवालों ने इसे पसंद नहीं किया क्योंकि वे खुले में बनी नई दिल्ली को एक भूतों की बस्ती मानते थे।


रीगल का डिजाइन नई दिल्ली के वास्तुकार एडविन लुटियंस के दल के साथी वॉल्टर स्काइज़ जॉर्ज ने तैयार किया था। रीगल की इमारत मॉल के प्रारूप की तरह दिखती है। मूल रूप से विक्टोरियन वास्तुकला से प्रेरित रीगल सिनेमाघर में मुगल प्रभाव, पाइट्रा द्यूरा सजावट में नज़र आता है। हैरानी की बात यह है कि यहाँ किया गया फूलों का रूपांकन, सफदरजंग मकबरे के समान है। रीगल एक ऐसा सिनेमाघर था जिसमें नाटक और फिल्में दोनों दिखाए जाते थे। इसका स्थापत्य-बाक्स, ग्रीन रूम, विंग्स आदि इसके इतिहास का पता देते हैं।


इस इमारत में एक ही छत के नीचे रीगल सिनेमा हॉल, दुकानें, और रेस्तरां मौजूद थे। रीगल का स्वरूप रंगमंच और सिनेमा को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था और इसमें स्टेंडर्ड नामक एक रेस्तरां भी था जो बाद में गेलॉर्ड बन गया। पहले रीगल में फिल्म देखना एक सांस्कृतिक कर्म माना जाता था। उस समय फिल्म देखने का मतलब तक के डेविकोस और आज के स्टैंडर्ड रेस्तरां तथा गेलार्ड में भोजन करना भी होता था।


सरदार खुशवंत सिंह के शब्दों में, एक बार प्रसिद्व नर्तक उदय शंकर ने उनसे (सरदार शोभा सिंह) संपर्क किया था। मशहूर नर्तक उदय शंकर अपने यूरोप के दौरे से लौटे थे और उनके नृत्य कार्यक्रमों की वहां के अखबारों में काफी तारीफ हुई थी। वे कुछ रातों के लिए रीगल सिनेमा को अपने नृत्य कार्यक्रमों के लिए किराए पर लेना चाहते थे। मेरे पिता ने उनसे पूछा किस लिए? उनका कहना था कि मैं नृत्य करना चाहता हूँ। मेरे पिता के विचार में पुरुषों के नृत्य का विचार केवल हिजड़ों के घुम-घुमकर हाथ से ताली बजाने तक ही सीमित था। उदय शंकर ने किराए के पैसे का अग्रिम में भुगतान करने के कारण मेरे पिता सहमत हो गए। वे उत्सुकतावश वहां यह देखने चले गए कि इस आदमी के नृत्य को देखने के लिए कौन आता है। उन्होंने देखा कि सिनेमाघर में जाने के लिए डिनर जैकेट पहने अंग्रेज पुरूषों और महिलाओं की कारों की कतार लगी हुई है। यह देखकर वे भी नृत्य देखने के लिए चले गए और उन्हें एहसास हुआ कि भारतीय नृत्य का मतलब हिजड़ों के अश्लील नाच से कहीं अधिक था। उन्होंने उदय शंकर और उनकी टोली को अपने कुछ अंग्रेज मित्रों से मिलने के लिए अपने घर पर आमंत्रित किया।

Saturday, March 25, 2017

self pity to love



अगर हम खुद पर दया करना छोड़ दे और अपने से प्यार करने लग जाएँ तो दुनिया सुन्दर और रहने लायक बन ही जाएँगी.

नई दिल्ली की कहानी, पत्रों की जुबानी_formation of new delhi in letters

25032017_दैनिक जागरण 


“दिल्ली की पुरानी दीवारों में केवल इस्ताम्बूल या रोम की बराबरी की शाही परम्परा ही कैद नहीं है बल्कि मौजूदा शहर के पड़ोसी इलाकों ने हिन्दू इतिहास को प्राचीन कालीन रंगमंच भी प्रदान किया है। जिसका यशोगान राष्ट्रीय महाकाव्यों की विशाल सम्पदा में मिलता है। इस तरह भारत की जिन नस्लों के लिए अतीत की गाथाएं और अभिलेख इतने मायने रखते हों, उसके लिए तो सर्वोच्च सत्ता द्वारा पूजित साम्राज्य के केन्द्र की यह वापसी समूचे देश में ब्रिटिश हुकूमत के हमेशा-हमेशा के लिए जारी रहने और हमेशा बने रहने का संकेत होगा। इस तरह ऐतिहासिक कारण इस प्रस्तावित बदलाव के पक्ष में अत्यन्त महत्वपूर्ण और सचमुच मायनेखेज राजनीतिक कारण होंगे।”


भारत में अंग्रेज शासन के योजनाकारों के जेहन में दिल्ली को लेकर कौन सी अवधारणा काम कर रही थी इसकी बानगी 1 नवम्बर, 1911 को इंडिया हाउस लन्दन से कौंसिल में भारत के गर्वनर जनरल के लिखे गए पत्र की उपरोक्त पंक्तियों में देखने को मिलती है। “नई दिल्ली: बुनियादी दस्तावेज” नामक पुस्तक में इस तथ्य का खुलासा होता है।


इस पुस्तक में राष्ट्रीय अभिलेखागार के संग्रह में राजधानी स्थानान्तरण तथा नई दिल्ली की निर्माण योजना से संबंधित वर्ष 1911-1913 की अवधि के पत्रों,जो कि मूल रूप से अंग्रेजी भाषा में हैं, में उपलब्ध जानकारी को समेटा गया है।


दिसंबर, 1911 में दिल्ली में राजधानी के स्थानांतरण की घोषणा करते हुए अंग्रेज सम्राट ने कहा कि हम अपनी जनता को सहर्ष घोषणा करते हैं कि कौंसिल में हमारे गर्वनर जनरल से विचार विमर्श के बाद की गयी हमारे मंत्रियों की सलाह से हमने भारत की राजधानी को कलकत्ता से प्राचीन राजधानी दिल्ली ले जाने का फैसला किया है।


12 दिसम्बर, 1911 के भव्य दरबार के लिए क्वीन मेरी के साथ जार्ज पंचम भारत आये तो उन्होंने तमाम बातों के साथ देश की राजधानी कलकत्ते से दिल्ली लाने की घोषणा की और यहीं दरबार स्थल के पास ही पत्थर रखकर जार्ज पंचम और क्वीन मेरी ने नये शहर का श्रीगणेश भी कर दिया। उस वक़्त के वायसराय लार्ड हार्डिंग की पूरी कोशिश थी कि यह योजना उनके कार्यकाल में ही पूरी हो जाए। सबसे पहले जरूरत माकूल जगह का चुनाव था। उन दिनों यह व्यापक विश्वास था कि यमुना का किनारा मच्छरों से भरा हुआ था और यह अंग्रेजों के स्वास्थ्य के लिहाज से स्वास्थ्यप्रद न होगा।


इसी तरह, किंग्सवे कैंप वाले स्थल के छोटा होने तथा गंदगी भरे पुराने शहर के ज्यादा करीब होने की वजह से नामंजूर कर दिया गया।
इस सिलसिले में समतल और चौरस जमीन से घिरी गयी रायसीना पहाड़ी इसके लिए आदर्श साबित हुई। पुराने किले के निकट होने के कारण उसने ब्रिटिश के पूर्ववर्ती साम्राज्य के बीच एक प्रतीकात्मक सम्बन्ध भी मुहैया करा दिया, जिसकी निर्माताओं को गहरी अपेक्षा थी।


योजना को लागू करने की जिम्मेदारी लन्दन काउन्टी कौंसिल के कैप्टन स्विंटन को सौंपी गई। उन्होंने रायल ब्रिटिश इंस्टीट्यूट ऑफ़ आर्किटेक्ट्स से मशविरा करके इस काम के लिए एडविन लैंडसिअर लुटियन का नाम सुझाया। लुटियन ने अपने साथ सहायक के रूप में हर्बट बेकर का नाम दिया, जिनके साथ वे पहले दक्षिणी अफ्रीका में काम कर चुके थे।


उसी वर्ष दोनों वास्तुकारों और काउन्टी तथा कुछेक विषेशज्ञों को साथ लेकर कैप्टन स्विंटन ने दिल्ली का दौरा शुरू किया। शिलान्यास वाली जगह को एकमत से राजधानी के लिए नामंजूर किया गया। नये सिरे से माकूल जगह की तलाश में इन विषेशज्ञों ने रायसीना की पहाड़ी के पास मालचा गांव को चुना। इसी घटना का जिक्र गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिंग ने इस तरह से किया है, मालचा गांव वाली जगह को नापसन्द करने के बाद मैंने घोड़े पर सवार होकर दिल्ली के कमिश्नर हेली को साथ लिया। हम लोग मैदान में सरपट दौड़ते हुए कुछ दूरी पर स्थित रायसीना की पहाड़ी पर जा पहुंचे जो किसी वक़्त महाराजा जोधपुर की मिलकियत थी। पहाड़ की चोटी से पुराने किले और हुमांयू के मकबरे जैसे स्मारकों तक फैला अद्भुत दृश्य था। दूर चांदी की तरह झिलमिलाती यमुना की धारा का आखिरी सिरा नजर आ रहा था। मैंने कहा गवर्नमेंट हाउस के लिए सही जगह यही है। हेली भी मेरे इस कथन से सहमत थे। लुटियन और बेकर भी हमसे पहले हाथी की सवारी करते हुए रायसीना हिल को पसन्द कर चुके थे। रायसीना के बारे में अंतिम रिपोर्ट 20 मार्च 1913 को सौंपी गयी।


Thursday, March 23, 2017

Selective Communalism_Secularism




देश में बड़े पेड़ के गिरने से भूकंप आने का भाषण देने से लेकर गोली चलवाकर खुद को जमात का मसीहा बताने वाले व्यक्ति और उनसे जुड़ी घटनाएँ मील का पत्थर हैं, देश की राजनीति के विकास राजमार्ग की.

church_child_बड़का-सेक्युलर लिखाड़






गिरिजाघर के सफेदपोश कैथोलिक पादरियों के काले कारनामे पता नहीं या भूल गए!


वैसे इतिहास बताता है कि ईसा ने नहीं बल्कि ईसाइयत में पादरी को चर्च ने पैदा किया.

वहीँ चर्च जिसके कारण आज भी ८० फीसदी भारतीय ईसाई 'दलित' होने के नाते अलग चर्च-कब्रिस्तान के रूप में भेदभाव के शिकार है.




Wednesday, March 22, 2017

Uttarpradesh_words turning into reality_जाग मछंदर, गोरख आया



उत्तर प्रदेश की एक कहावत है जो बन गई करनी..

"जाग मछंदर, गोरख आया।"

Sunday, March 19, 2017

UP Effect on Kashmir_राम जी की माया


राम जी की माया राम जी जाने


भूकंप का केंद्र लखनऊ है और झटके धरती के स्वर्ग में महसूस किये जा रहे हैं!

UP Elections_caste_kabir


कबीर ने कहा है कि "जात न पूछो साधु की."

फिर भी अगर साधु के कोपिन से जात खोज निकालने वालों का क्या कसूर, आखिर कलमवीर तो खुद ही दिगंबर है!


सो, बिना लंगोट वाले तो एक जात वाले ही हुए न!


अब जात भी बतानी पड़ेगी?

Saturday, March 18, 2017

Historic Lodhi Garden_लोदी गार्डन का ऐतिहासिक सफर




लोदी गार्डन को ब्रिटिश काल में विकसित करते हुए 9 अप्रैल 1936 को लेडी विलिंगडन ने इसका विधिवत उद्घाटन हुआ। यही कारण था कि इस पार्क का नाम लेडी विलिंगन पार्क रखा गया। दरअसल यह लेडी विलिंगडन, भारत के तत्कालीन वाइसरॉय और गवर्नर जनरल विलिंगडन के मार्कोस की पत्नी, की दूरदृष्टि थी,जिसके कारण आज का लोदी गार्डन अस्तित्व में आया।


अंग्रेज इतिहासकार पर्सिवल स्पीयर ने अपनी पुस्तक “दिल्ली के अपने स्मारक और इतिहास” में इस बगीचे के उद्घाटन के विषय पर मजेदार टिप्पणी करते हुए लिखा है कि पूरी दिल्ली एक महामारी के रूप में “विलिंगडनमय” हो गई। एक बगीचे के अलावा, तीन सड़कों, एक हवाई पट्टी क्षेत्र और एक अस्पताल का नाम पति, पत्नी या उनके रिश्तेदारों के नाम पर रखा गया था।


वर्ष 1996 में यहां पर भारतीय बोन्साई एसोसिएशन के सहयोग से एक राष्ट्रीय बोन्साई पार्क विकसित किया गया। जिसमें विभिन्न प्रजातियों के 10 से 50 साल पुराने बोन्साई पौधे रखे गए हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2011 में इसकी 75 वीं वर्षगांठ बनाई गई।


सुबह घूमने की शौकीन अंग्रेज़ वाइसरॉय की पत्नी को इसके लिए सैय्यद और लोधी राजवंशों के मकबरों से सटे इलाका सबसे बेहतर लगा। यह बात उनकी पारखी नजर में साफ आ गई कि मूल रूप से इनमें से हर मकबरे के साथ एक बाग जुड़ा हुआ था। यह बाग खैरपुर नामक गांव की जमीन का अधिग्रहण करके बनाया गया था। यह अधिग्रहण भूमि अधिग्रहण विधेयक 1894 के तहत किया गया। यहां के विस्थापितों को कोटला मुबारकपुर क्षेत्र सहित दिल्ली के अन्य स्थानों पर बसाया गया। वह बात अलग है कि आजादी के बाद के दौर में इनमें से अधिकतर स्थानों के नाम बदल दिए गए हैं। वह बात जुदा है कि दिल्ली जिमखाना क्लब में अब भी लेडी विलिंगडन के नाम पर स्विमिंग क्लब सुरक्षित है। 


आजादी के बाद, ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व को देखते हुए इस पार्क का नाम लोधी गार्डन रखा गया। विख्यात वास्तुकार जे.ए. स्टीन ने वर्ष 1968 में इस बाग का विकास करते हुए सौंदर्यीकरण किया। जिसके तहत इस बाग के बीच में एक फव्वारे के साथ सर्पिल आकार का 300 मीटर लंबी और 3.3 मीटर गहरी झील विकसित की गई। दिसंबर 1970 में, घरों के भीतर रखे जाने वाले पौधों को रखने के लिए फोर्ड फाउंडेशन की मदद से एक ग्लास हाउस बनाया गया।


लोदी गार्डन में पक्षियों की 50 से अधिक प्रजातियों का बसेरा है। इनमें से अधिक लोकप्रिय पक्षियों की तस्वीरों को पार्क के चारों ओर प्रदर्शित किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि केन्या के नैरोबी शहर के बाद दिल्ली में दुनिया के किसी भी दूसरे शहर की तुलना में सबसे अधिक पक्षियों की प्रजातियां है।


दिल्ली के लोदी गार्डन को एक बड़ा ऑक्सीजन टैंक कह सकते हैं, क्योंकि यहां हर तरह के पेड़ हैं। ढेरों लोग यहां सुबह-शाम सैर के लिए आते हैं। उल्लेखनीय है कि देश के पहले उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार पटेल सुबह चार बजे लोधी गार्डन में सैर के लिए जाते थे। प्रदीप कृष्ण अपनी पुस्तक “ट्रीज ऑफ दिल्ली, एक फील्ड गाइड” में लिखते हैं कि पेड़ को देखने के लिहाज से लोदी गार्डन सबसे उपयुक्त स्थान है, जहां पर पेड़ों की 110 से अधिक प्रजातियां पाई जाती है और तो और यहां पर एक पेड़ को खोजने के लिए मानचित्र की सुविधा भी है।


लोधी गार्डन में भी एक कोस मीनार है, जिसमें ऊपर की तरफ निगरानी रखने के लिए एक खिड़की भी बनी हुई है।यह मीनार लोधी गार्डन के भीतर कोने में बने शौचालय के पास है। यह कोस मीनार एक पतले सिलेंडर के आकार की ऊपरी तरफ एक सजावटी निगरानी खिड़की वाली है।



Saturday, March 11, 2017

दिल्ली में होली_Holi in Delhi

दैनिक जागरण में होली पर लेख 

कोई भी त्यौहार आखिर एक जीवन पद्वति और लोक जीवन से निकलते हैं। होली हमारी निजी, पारिवारिक और सामाजिक जीवन से अवसाद के निकलने का निकासी बिंदु है। आज बेषक दिल्ली का पढ़ा-लिखा समाज होली को एक त्यौहार की जगह एक झंझट और गंवारूपन की तरह देखता है। वेलेंटाइन डे में हमारे युवा युवतियों को जो आधुनिकता और यूरोपियता दिखती है वह होली में वे नहीं पाते। आज दिल्ली में होली का उत्साह कहीं नजर आता भी है तो झोंपडपट्टियों में ही जबकि इधर मध्यमवर्गीय मोहल्लों में होली का रंग वर्ष प्रतिवर्ष और अधिक फीका हो रहा है। 

दिल्ली के पुराने दौर में ऐसा नहीं था। उस समय में परंपरा से होली भाईचारे और प्रेम का उत्सव था। सुप्रसिद्व मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। दिल्ली सल्तनत के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन हुए पद्मावत के रचियता मलिक मोहम्मद जायसी के अनुसार उस समय गांवों में जरूर इतना गुलाल उड़ता था कि खेत भी गुलाल से लाल हो जाते थे।
अमीर खुसरो ने होली को अपने सूफी अंदाज में कुछ ऐसे देखा है
दैय्या रे मोहे भिजोया री, शाह निजाम के रंग में, कपड़े रंग के कुछ न होत है, या रंग में तन को डुबोया री।
मुगल दरबार में वर्षा के मौसम के आरंभ के साथ ही होली की तरह का पर्व मनाया जाता था, जिसे जहांगीर ने ”आब-ए-पश्म“ और अब्दुल हमीद लाहोरी ने ”ईद-ए-गुलाबी“ कहा है, इसमें दरबारीगण एक दूसरे पर गुलाबजल छिड़कते थे। शाहजहाँनाबाद बसने वाले मुगल सम्राट शाहजहाँ के दौर में होली खेलने का मुगलिया अंदाज बदल गया था और होली उल्लास से मनाई जाती थी। बाँकीपुर पुस्तकालय में संगृहीत एक चित्र इस तथ्य की पुष्टि करता है।तब होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी रंगों की बौछार कहा जाता था। मुगलकाल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे आम के बाग में होली के मेले लगते थे। 

कट्टरपंथी मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने एक आदेश से दरबार में होली,दीपावली, बसन्त आदि त्यौहार मनाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। जबकि इसी मुग़ल बादशाह के समकालीन मशहूर शायर फायज देहलवी ने दिल्ली की होली को इन शब्दों में कहा है,
ले अबीर और अरगजा भरकर रुमाल
छिड़कते हैं और उड़ाते हैं गुलाल
ज्यूं झड़ी हर सू है पिचकारी की धार
दौड़ती हैं नारियाँ बिजली की सार
मुगल शैली के एक चित्र में औरंगजेब के सेनापति शाइस्ता खां को होली खेलते हुए दिखाया गया है। 

शायर मीर की ने होली के नाम पर नज्मों की पूरी एक किताब ही लिखी है “साकी नाम होली” इसकी इन पंक्तियों में होली की मस्ती को देखा जा सकता है।आओ साकी, शराब नोश करें
शोर-सा है, जहाँ में गोश करें
आओ साकी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियाँ लाई

महेश्वर दयाल अपनी पुस्तक ”दिल्ली जो कि एक शहर है” में लिखते हैं कि दिल्ली के शाही किले होली का त्यौहार भी ईद की तरह बड़ी धूम धाम से मनाया जाता था। लाल किले के पीछे जमना के किनारे मेले लगते थे। शाहबाड़े से लेकर राजघाट तक बड़ी भीड़ इकट्ठी हो जाती। दफ, झांझ और नफीरी बज रही है। जगह-जगह वेशयाएं नृत्य कर रही हैं। स्वांग भरने वालों की मंडलियां किले के नीचे आतीं और तरह-तरह की नकलें और तमाशे दिखातीं। स्वांग भरने वाले बादशाह और षहजादों-षहजादियों और अमीरजादियां झरोखों में बैठकर तमाशा देखतीं। बादशाह इनाम देते। रात को किले में होली का जश्न मनाया जाता था। रात-रात भर गाना-बजाना होता था। बड़ी-बड़ी नामी वेश्याएं दूर-दूर से बुलाई जाती थीं। 

शहर में अमीरों और रईसों की हवेलियों की ड्योढि़यों और छज्जों के नीचे लोगों की टोलियां इक्ट्ठी हो जातीं। ये ”कुफ्र कचहरियां“ कहलाती थीं। जो जिसके मुंह में आता बकता। अमीरों पर फब्तियां कसी जातीं। किसी के कहे का कोई बुरा न मानता। बीच-बीच में बोलते रहते-”आज हमारे होली है, होली है भाई होली है।“ इसी तरह दिल्लगी होती रहती और सारा दिन हंसी-खुशी में गुजर जाता। दुलहंडी के दिन बेगम जहांआरा के बाग (गांधी ग्राउंड) में धूमधाम से मेला लगता। क्या बड़े,क्या बच्चे सभी बढि़या, उजले कपड़े पहनकर जाते। चाटवालों,सौदेवालों और खिलौनेवालों की चांदी हो जाती।

होली के दिन तो यों भी गुल गपाड़े और रंगरेलियों में गुजर जाते लेकिन रात को जगह-जगह महफिल लगती। सेठ-साहूकार, अमीर गरीब सब चंदा जमा करते और दावतों, महफिलों और मशीनों के लिए बड़ी-बड़ी हवेलियों के आंगनों को या धर्मशालाओं के सहनों को खूब सजाया जाता। गलियों-मुहल्लों और चौकों में रंग खेलने से एक दिन पहले होली भी जलाई जाती थी। उसके लिए भी चंदा होता था मगर लड़के-वाले टोलियों में घूम-फिरकर और घर-घर जाकर पैसे, लकड़ी और उपले भी इकट्ठे करते थे। 

‘सिराज-उल-अखबार’ के तीसवें खंड में भी होली के उत्सव का बड़ा अच्छा वर्णन है। उसके अनुसार, बादशाह खुद भी हिंदू-मुस्लिम अमीरों के साथ झरोखों में बैठते और शहर में जितने भी स्वांग भरे जाते सब झरोखे के नीचे से होकर गुजरते और इनाम पाते। बादशाही नाच-गान मंडलियों के लोग भी होली खेलते। बादशाह के हुजूर में पूरी होली खेली जाती थी और तख्त के कहारों को इस मौके पर एक-एक अशर्फी इनाम के तौर पर मिलती थी। 

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि दिल्ली में होली प्राचीन काल में हिंदू और मुसलमान मिलकर मनाते थे। मुगल बादशाह और मुस्लिम अमीर और नवाब भी होली के आयोजनों में पूरा हिस्सा लेते थे। आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर तो अपनी प्रजा के साथ बड़े शौक और जोश से होली खेलते थे। ”जफर“ की कही हुई ”होरियां“ बहुत चाव से गाई जातीं। उनका यह होली का गीत उनकी भावनाओं को व्यक्त करता थाः
क्यों मों पे मारी रंग की पिचकारी
देखो कुंवरजी दूँगी गारी
भाज सकूँ मैं कैसे मोसों भाजा नहीं जात
ठारे अब देखूँ मैं कौन जू दिन रात
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी
मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी।

जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। 18 वीं सदी में दो चित्रकारों निधा मल और चित्रामन ने जफर के पौत्र मोहम्मद शाह रंगीला के होली खेलते हुए चित्र बनाए थे। आज ये चित्र एक ऐतिहासिक धरोहर हैं। 18वीं शताब्दी के बाद भारतीय मुस्लिमों पर भी होली का रंग चढ़ने लगा। तात्कालिक लेखक मिर्जा मोहम्मद हसन खत्री (मुस्लिम बनने से पहले दीवान सिंह खत्री) अपनी एक अरबी पुस्तक “हफ्त तमाशा” में लिखा है कि भारत में अफगानी और कुछ कट्टर मुस्लिमों को छोड़कर सभी भारतीय मुस्लिम होली खेलने लगे थे। लेकिन जैसे-जैसे सत्ता बदलती गई, वैसे-वैसे उन्होंने होली खेलना भी बंद कर दिया


expression in mother tongue_सार्थक अनुभव_अपनी भाषा




प्रत्येक अनुभव सार्थक होने के लिए शब्द पाना चाहता है. अर्थ विस्तार अपनी ही भाषा में उपयुक्त होता है. अगर दूसरी भाषा से भी अर्थ गहराता है तो स्वागतयोग्य है पर अगर अर्थ की स्थान पर अनर्थ होता दिखे तो फिर ऐसा करना अपेक्षित नहीं. वैसे गीता में कहा है कि स्वधर्म नहीं त्यागना चाहिए.

धर्म के बाह्य पक्ष नहीं आन्तरिक आयाम के लिए अंतिम पंक्ति लिखी थी. बाकि अंग्रेजी का भारत में भाषाई इतिहास ही वर्चस्व-संघर्ष का है. इस बात से किसी को इंकार नहीं होगा. जहाँ हम सहज अपनी भाषा में अपनी बात कह सकें मूल मर्म तो यही है. 


Thursday, March 9, 2017

History



इतिहास में नाम और तारीखों के सिवा सब झूठा है जबकि साहित्य में केवल नाम और तारीखों के सिवा सब कुछ सच है।

-कारलायन

Tuesday, March 7, 2017

हिंदी लेखकों की अंग्रेजी_English words of Hindi writers



न जाने क्यों हिंदी के कुछ कथित बड़े लेखकों को ऐसा लगता है कि "अंग्रेजी" के चंद-वाक्य लिखे बिना उनका रुक्का नहीं जमेगा!

अब यह अंग्रेजी उनके 'ज्ञान' को उघाड़ती है या पाठकों के 'अज्ञान' को ढकती है.

योगी आदित्यनाथ ने पुरस्कार "अंग्रेजी" में ही दिया था या नहीं, यह तो उदय प्रकाश ही जाने बाकि उनका हालिया पोस्ट कुछ ऐसी ही कहानी है.



Saturday, March 4, 2017

Travel of Life_साया-हमसाया

साया-हमसाया 


सफ़र के किसी मोड़ पर 
जब भी मिलती है 
मुझे जिंदगी 
न जाने क्यों 
अज़नबी लगती है
फिर भी 
हर मोड़ से पहले 
उसका चेहरा जगमगाता है 
ठहरो, संभलकर चलना 




आखिर अकेले सफ़र पर जो हो!

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