25032017_दैनिक जागरण |
“दिल्ली की पुरानी दीवारों में केवल इस्ताम्बूल या रोम की बराबरी की शाही परम्परा ही कैद नहीं है बल्कि मौजूदा शहर के पड़ोसी इलाकों ने हिन्दू इतिहास को प्राचीन कालीन रंगमंच भी प्रदान किया है। जिसका यशोगान राष्ट्रीय महाकाव्यों की विशाल सम्पदा में मिलता है। इस तरह भारत की जिन नस्लों के लिए अतीत की गाथाएं और अभिलेख इतने मायने रखते हों, उसके लिए तो सर्वोच्च सत्ता द्वारा पूजित साम्राज्य के केन्द्र की यह वापसी समूचे देश में ब्रिटिश हुकूमत के हमेशा-हमेशा के लिए जारी रहने और हमेशा बने रहने का संकेत होगा। इस तरह ऐतिहासिक कारण इस प्रस्तावित बदलाव के पक्ष में अत्यन्त महत्वपूर्ण और सचमुच मायनेखेज राजनीतिक कारण होंगे।”
भारत में अंग्रेज शासन के योजनाकारों के जेहन में दिल्ली को लेकर कौन सी अवधारणा काम कर रही थी इसकी बानगी 1 नवम्बर, 1911 को इंडिया हाउस लन्दन से कौंसिल में भारत के गर्वनर जनरल के लिखे गए पत्र की उपरोक्त पंक्तियों में देखने को मिलती है। “नई दिल्ली: बुनियादी दस्तावेज” नामक पुस्तक में इस तथ्य का खुलासा होता है।
इस पुस्तक में राष्ट्रीय अभिलेखागार के संग्रह में राजधानी स्थानान्तरण तथा नई दिल्ली की निर्माण योजना से संबंधित वर्ष 1911-1913 की अवधि के पत्रों,जो कि मूल रूप से अंग्रेजी भाषा में हैं, में उपलब्ध जानकारी को समेटा गया है।
दिसंबर, 1911 में दिल्ली में राजधानी के स्थानांतरण की घोषणा करते हुए अंग्रेज सम्राट ने कहा कि हम अपनी जनता को सहर्ष घोषणा करते हैं कि कौंसिल में हमारे गर्वनर जनरल से विचार विमर्श के बाद की गयी हमारे मंत्रियों की सलाह से हमने भारत की राजधानी को कलकत्ता से प्राचीन राजधानी दिल्ली ले जाने का फैसला किया है।
12 दिसम्बर, 1911 के भव्य दरबार के लिए क्वीन मेरी के साथ जार्ज पंचम भारत आये तो उन्होंने तमाम बातों के साथ देश की राजधानी कलकत्ते से दिल्ली लाने की घोषणा की और यहीं दरबार स्थल के पास ही पत्थर रखकर जार्ज पंचम और क्वीन मेरी ने नये शहर का श्रीगणेश भी कर दिया। उस वक़्त के वायसराय लार्ड हार्डिंग की पूरी कोशिश थी कि यह योजना उनके कार्यकाल में ही पूरी हो जाए। सबसे पहले जरूरत माकूल जगह का चुनाव था। उन दिनों यह व्यापक विश्वास था कि यमुना का किनारा मच्छरों से भरा हुआ था और यह अंग्रेजों के स्वास्थ्य के लिहाज से स्वास्थ्यप्रद न होगा।
इसी तरह, किंग्सवे कैंप वाले स्थल के छोटा होने तथा गंदगी भरे पुराने शहर के ज्यादा करीब होने की वजह से नामंजूर कर दिया गया।
इस सिलसिले में समतल और चौरस जमीन से घिरी गयी रायसीना पहाड़ी इसके लिए आदर्श साबित हुई। पुराने किले के निकट होने के कारण उसने ब्रिटिश के पूर्ववर्ती साम्राज्य के बीच एक प्रतीकात्मक सम्बन्ध भी मुहैया करा दिया, जिसकी निर्माताओं को गहरी अपेक्षा थी।
योजना को लागू करने की जिम्मेदारी लन्दन काउन्टी कौंसिल के कैप्टन स्विंटन को सौंपी गई। उन्होंने रायल ब्रिटिश इंस्टीट्यूट ऑफ़ आर्किटेक्ट्स से मशविरा करके इस काम के लिए एडविन लैंडसिअर लुटियन का नाम सुझाया। लुटियन ने अपने साथ सहायक के रूप में हर्बट बेकर का नाम दिया, जिनके साथ वे पहले दक्षिणी अफ्रीका में काम कर चुके थे।
उसी वर्ष दोनों वास्तुकारों और काउन्टी तथा कुछेक विषेशज्ञों को साथ लेकर कैप्टन स्विंटन ने दिल्ली का दौरा शुरू किया। शिलान्यास वाली जगह को एकमत से राजधानी के लिए नामंजूर किया गया। नये सिरे से माकूल जगह की तलाश में इन विषेशज्ञों ने रायसीना की पहाड़ी के पास मालचा गांव को चुना। इसी घटना का जिक्र गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिंग ने इस तरह से किया है, मालचा गांव वाली जगह को नापसन्द करने के बाद मैंने घोड़े पर सवार होकर दिल्ली के कमिश्नर हेली को साथ लिया। हम लोग मैदान में सरपट दौड़ते हुए कुछ दूरी पर स्थित रायसीना की पहाड़ी पर जा पहुंचे जो किसी वक़्त महाराजा जोधपुर की मिलकियत थी। पहाड़ की चोटी से पुराने किले और हुमांयू के मकबरे जैसे स्मारकों तक फैला अद्भुत दृश्य था। दूर चांदी की तरह झिलमिलाती यमुना की धारा का आखिरी सिरा नजर आ रहा था। मैंने कहा गवर्नमेंट हाउस के लिए सही जगह यही है। हेली भी मेरे इस कथन से सहमत थे। लुटियन और बेकर भी हमसे पहले हाथी की सवारी करते हुए रायसीना हिल को पसन्द कर चुके थे। रायसीना के बारे में अंतिम रिपोर्ट 20 मार्च 1913 को सौंपी गयी।
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