Saturday, October 27, 2018

City of Gates_Delhi_दरवाजों वाला शहर दिल्ली



मशहूर है, दिल्ली 17 बार बसी है। हिंदू काल की तीन दिल्ली, मुस्लिम काल की बारह दिल्ली और ब्रिटिशकाल की दो दिल्ली। जितनी बार दिल्ली बसाई गई उतनी ही बार-केवल ब्रिटिशकाल को छोड़कर-इसमें परकोटे या फसीलें बनाई गई।


इन फसीलों में बनाए गए दरवाजों की भी संख्या कम नहीं रही।

प्राचीनकाल में राजधानी की सुरक्षा के लिए सामरिक दृष्टि से फसील के भीतर मजबूत दरवाजे बनाए जाते थे, जिनका प्रवेश  मार्ग प्रायः अंग्रेजी के 'एस' अक्षर की तरह घुमावदार होता था। दिल्ली के बहुत से दरवाजे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से प्रसिद्ध थे, पुनर्निर्माण और विकास की योजनाओं के तहत तोड़े जा चुके हैं।

जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व में उनकी पहल पर ही आसफअली रोड के किनारे-किनारे बनी फसील का कुछ हिस्सा तोड़ने से बच गया। इसी तरह, तुर्कमान दरवाजा न केवल ध्वस्त होने से रह गया, वरन उसका जीर्णाेद्वार भी कर दिया गया।

दिल्ली के सबसे पुराने दरवाजों में, शहर के बाहर 1193 पूर्व के काल में बनाया गया निगमबोध दरवाजा है। इस दरवाजे को दिल्ली विकास प्राधिकरण ने यमुना तट को सुन्दर बनाने की योजना के अन्तर्गत जीर्णाेद्वार कर पत्थरों से बनवाया। इस पर गीता के द्वितीय श्लोक भी उत्कीर्ण किए गए जो आत्मा की अमरता को सिद्व करते हैं।

दिल्ली का अंतिम हिंदू राज-परिवार रायपिथौरा का था। इसे ही पृथ्वीराज कहते थे। पृथ्वीराज चैहान ने 1180 से 1186 के बीच रायपिथौरा का किला बनवाया। रायपिथौरा की दिल्ली के बारह दरवाजे थे, लेकिन तैमूरलंग ने अपनी आत्मकथा में इनकी संख्या दस बताई है। इनमें से कुछ बाहर की तरफ खुलते थे और कुछ भीतर की तरफ। इन दरवाजों को अब समय की लहर ने छिन्न-भिन्न कर दिया है।

यजदी के "जफरनामे" में 18 दरवाजों का जिक्र है। इनमें से कुछ दरवाजों के नाम इस प्रकार थे-दरवाजा हौजरानी, बुरका दरवाजा, गजनी दरवाजा (इसका नाम राय पिथौरा के समय में रंजीत दरवाजा था), मौअज्जी दरवाजा,  मंडारकुल दरवाजा, बदायूं दरवाजा, दरवाजा हौजखास, दरवाजा बगदादी, बाकी दो दरवाजों के नाम प्रायः नहीं मिलते। ये सभी दरवाजे वर्तमान महरौली क्षेत्र में थे।

महरौली से तुगलकाबाद की ओर जाने वाले मार्ग पर लाडो सराय से दक्षिण हुमायूं दरवाजा था।

गजनी दरवाजा या रंजीत दरवाजा 17 फुट चौड़ा था। इसमें दरवाजा उठाने या गिराने के लिए सात फुट ऊंचा पत्थर का खम्भा था, जो आज भी मौजूद है।

रायपिथौरा के किले की फसील का जो हिस्सा फतेहबुर्ज पर खत्म होता था, उसी से यह दरवाजा है। फतेहबुर्ज और सोहनबुर्ज के बीच में एक दरवाजा था जिसका अब कोई चिन्ह नहीं है। इसी क्षेत्र में अनंगपाल (हिंदूकाल की दूसरी दिल्ली बसाने वाला राजा) ताल के पास ही भिंड दरवाजा था और यहीं से थोड़े फासले पर फसील उधम खां के मकबरे पर समाप्त होती थी।

मुस्लिम और पठान काल की दिल्ली के जो दरवाजे मशहूर रहे, उनमें अलाई दरवाजा (1310), हुमायूँ दरवाजा, गजनी दरवाजा, बगदाद दरवाजा (सीरी महल और हौजखास के बीच), जेल दरवाजा, दिल्ली दरवाजा (षाहजहां-काल 1636-48 के बीच निर्मित), अजमेरी दरवाजा, लाहौरी दरवाजा, काबुली दरवाजा (जो वर्तमान नया बाजार के छोर पर तीस हजारी की तरफ था), सलीम दरवाजा (1622), खिजरी दरवाजा (कुतुब के पास अलाउदीन खिलजी द्वारा निर्मित), तुर्कमान दरवाजा, मोरी दरवाजा (डफरिन पुल के आगे जहां आज निकोलसन रोड के पास फसील टूट हुई है) मशहूर है।


चांदनी चौक में वर्तमान दरीबा कलां बाजार का प्रवेश द्वार किसी समय में खूनी दरवाजा नाम से मशहूर था। यहीं तैमूरलंग के समय में और बाद में ब्रिटिश शासन के आंरभिक काल में कई देश भक्तों का कत्ल हुआ।

इसी तरह दिल्ली दरवाजे से बाहर बने जेल दरवाजे (खूनी दरवाजे) पर भी अब्दुल रहीम खान खाना के बेटों के सिर काटकर लटकाए गए थे। एक दिल्ली दरवाजा, शेरशाही का दरवाजा भी कहलाता था। इसका निर्माण 1541 के आसपास हुआ था।

लालकिले से जामा मस्जिद की ओर खुलने वाले दरवाजे का नाम भी शाहजहां ने दिल्ली दरवाजा रखा था। चांदनी चौक की तरफ खुलने वाले दरवाजे का नाम था-लाहौरी दरवाजा। ये दोनों नाम अभी तक प्रचलित हैं।

कश्मीरी दरवाजे से शुरू करें तो इन दरवाजों की स्थिति इस प्रकार थी मोरी दरवाजा (1867 में तोड़ दिया गया), काबुली दरवाजा (तोड़ दिया गया), लाहौरी दरवाजा, अजमेरी दरवाजा, तुर्कमान दरवाजा, दिल्ली दरवाजा, खैराती दरवाजा (वर्तमान अंसरी रोड पर घटा मस्जिद के साथ था), राजघाट दरवाजा (वर्तमान नई कोतवाली के समीप था), कलकत्ती दरवाजा (जहां आज किले के पूर्वी छोर की तरफ रेलवे लाइन के नीचे दो सुरंग मार्ग जैसे रह गए हैं), केलाघाट दरवाजा  (उत्तर पश्चिम में यमुना के पास था-तोड़ दिया गया), निगमबोध दरवाजा, पत्थर घाटी दरवाजा (तोड़ दिया गया) और बदर रौ दरवाजा।

आज की बदली हुई परिस्थितियों और सुरक्षा व्यवस्था में न तो परकोटा-फसीलों का स्थान रह गया है, न ही दरवाजों का। बहरहाल, दिल्ली के पुराने इतिहास को इन दरवाजों की सहायता से मुखर अवश्य किया जा सकता है।



Friday, October 26, 2018

In a free state_v s naipual_वी. एस. नायपॉल_इन ए फ्री स्टेट




दरअसल हम जिंदगी में खुद से ही कहे झूठ का दंड भुगतते हैं!

-वी. एस. नायपॉल (इन ए फ्री स्टेट में)


Monday, October 22, 2018

British Government: Vivekananda's influence on Indian Revolutionaries

The British Reaction

In relevant historical accounts, secret Government papers, published reports and reminiscences of revolutionary leaders, we find the tremendous influence exerted by Vivekananda on the revolutionary movement. His writings were widely read by the militants. Those were practically their textbooks; recruitments to revolutionary parties were made from the members of the Ramakrishna Mission, and the magic name of Vivekananda was used for this purpose. The government, noticing that many portions of Vivekananda’s writings could be used for radical politics, thought of prohibiting the publication of Swamiji’s letters and banning the Ramakrishna Mission. This was not surprising, as Vivekananda himself was in his lifetime regarded a suspicious character and was closely watched and harassed. The British Criminal Investigation Department complained at the time that whenever they went to search a revolutionary’s house, they found the books of Vivekananda.

Here are two extracts from the secret police reports:

“... The teachings of the Vedanta Society tend towards Nationalism in politics. Swami Vivekananda himself generally avoided the political side of the case, but by many Hindu Nationalists he is regarded as the Guru of the movement. ... It is obvious that with very little distortion this teaching [of Vivekananda] was a powerful weapon in the hands of an idealist revolutionary like Aurobindo Ghosh.… Several passages of the teachings of Swami Vivekananda are pregnant with sedition, that their potentialities for evil have been fully realized and taken advantage of by the revolutionary party, that the various recognized maths are resorted to by political refugees, and that bogus ashramas, which are nothing but centres for the dissemination of revolutionary doctrines, have sprung up with alarming rapidity in eastern Bengal.”

Subhas Chandra Bose, whom the British considered the most dangerous man in India, and who embodied the entire militant revolutionary spirit of India, wrote time and again that his life was molded under Vivekanandas influence and urged the youth to follow Swamiji’s ideal. He said of Vivekananda: “Reckless in his sacrifice, unceasing in his activity, boundless in his love, profound and versatile in his wisdom, exuberant in his emotions, merciless in his attacks, but yet simple as a child.”

Saturday, October 20, 2018

Thakkar Pheru_Delhi Sultante_ठक्कर फेरू की जुबानी दिल्ली सल्तनत की कहानी

दैनिक जागरण_२० १० २०१८






एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी और विद्वान ठक्कर फेरू दिल्ली सल्तनत के समय में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। वे सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल (1296-1316) में दिल्ली में विभिन्न पदों पर रहे। उन्होंने अपने सक्रिय अनुभव से कुछ ग्रंथों (रत्न परीक्षा, गणितसार, द्रव्य परीक्षा, युग प्रधान चतुष्पदिका, वास्तुसार, ज्योतिषसार, गणितसार कौमुदी, धातूत्पत्ति और भूगर्भशास्त्र) की रचना की थी। ये ग्रंथ, तत्कालीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, वस्तुव्यापार, शिल्प&स्थापत्य एवं जन संस्कृति पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।

ठक्कर फेरू श्रीमाल वंश के धाधिया गोत्रीय श्री कालिय के पुत्र चंद के पुत्र थे। ये मूल रूप से कन्नाणा निवासी थे फिर राजकार्य से दिल्ली में भी रहने लगे थे। शाही खजाने के रत्नों के अनुभव के आधार पर जिस प्रकार उन्होंने प्राकृत भाषा में "रत्न परीक्षा" की रचना की उसी प्रकार "ढिल्लिय टंकसाल कज्जठिए" अर्थात् दिल्ली टंकसाल के गर्वनर के पद पर रहकर प्राचीन अर्वाचीन सभी मुद्राओं का अनुभव प्राप्त कर प्राकृत में ही "द्रव्य परीक्षा" लिखी। ठक्कर फेरू ने अपने भाई और पुत्र, जिसका नाम हेमपाल था, के ज्ञानार्थ इसकी रचना 1375 में दिल्ली में की थी। इस रचना में भाई का उल्लेख तो है पर नाम नहीं लिखा है।

"द्रव्य परीक्षा" में ठक्कर फेरू ने दिल्ली की टकसाल अधिकारी के रूप हुए अपने अनुभवों को संचित किया है। इसकी प्रारंभिक तीन गाथाओं में पहली में महालक्ष्मी को नमस्कार-मंगलाचरण, दूसरी व तीसरी में दिल्ली की टकसाल के अधिकारी के रूप में रहकर भ्राता और पुत्र के लिए इस ग्रन्थ की रचना का संकल्प करते हुए चौथी गाथा में उसके पहले प्रकरण में चासनी का दूसरे में स्वर्ण-रौप्य शोधने का तीसरे में मूल्य और चौथे में सर्व प्रकार की मुद्राओं का वर्णन करूंगा लिखा है। गाथा 5 से 45 तक इसी तरह विविध प्रक्रियाएं वर्णित हैं।

उसने "द्रव्य परीक्षा" ग्रन्थ का निर्माण 1375 में किया। कवि ने स्वयं प्रारंभिक दूसरी गाथा में "ढिल्लिय टंकसाल कज्जठिए" वाक्य द्वारा इसे व्यक्त किया है। द्रव्य परीक्षा की गाथा 139 में ठक्कर फेरू ने लिखा है कि अब मैं राजबन्दिछोड़ विरूद वाले सुलतान कुतुबुद्दीन की नाना प्रकार की चौरस व गोल मुद्राओं का मोल तोल कहता हूँ।

इस ग्रन्थ में चार अध्यायों में 149 गाथा हैं। एक से चार तक मंगलाचरण है। तत्पश्चात चासनी, चासनी शोध विधि, उपादान धातुओं में सीसा, चांदी, सोना आदि की चासनी, मिश्रदल शोधन, रौप्यवनमालिका, कनक वनमालिका, स्वर्ण व्यवहार, ह्नास्य, मौल्य, तौल आदि धातु की पूर्व प्रक्रिया का वर्णन 50 गाथा तक किया गया है। इसके बाद मुद्राप्रकरण प्रारम्भ होता है।

मुद्रा प्रकरण में ठक्कर फेरू ने तत्कालीन प्राप्य सैकड़ों प्रकार की रौप्य मुद्रा, स्वर्ण मुद्रा, त्रिधातु-मिश्रित-मुद्रा, द्विधातु मुद्रा, खुरासानी मुद्रा, अठनारी मुद्रा, गूर्जरी मुद्रा, मालवी मुद्रा, नलपुर मुद्रा, चंदेरिकापुर मुद्रा, जालंधरी मुद्रा, और दिल्ली मुद्रा में पहले तोमर राजाओं की और बाद में 55 प्रकार की तत्कालीन मुसलमानी मुद्राओं का स्वरूप देकर अलाउद्दीन सुलतान आदि की विविध मुद्राओं का वर्णन किया है। फिर सोना, चांदी और तांबे की अनेक मुद्राओं का स्वरूप बताया गया है।

111वीं गाथा में दिल्ली के तोमर राजपूत राजाओं की चार प्रकार की मुद्राओं का वर्णन है। ये दिल्ली के अंतिम हिंदू राजा थे जिनके उत्तराधिकारी पृथ्वीराज चौहान के पश्चात मुसलमानी सल्तनत का अधिकार हो गया था। ये मुद्राएं अनंगपलाहे, मदनपलाहे पिथउपलाहे और चाहड़पलाहे चार प्रकार की थीं। दुर्भाग्य की बात है कि इन राजाओं के सम्बन्ध में भारतीय इतिहास अब तक मौन-सा है। गाथा 112 से 133 तक मुसलमानी शासन में वर्णित मुद्राओं का वर्णन है। ये विविध प्रकार की और नाना तोल-मोल की थीं।

गाथा 134 से 136 तक ठक्कर फेरू ने अपने समय के सुल्तान अलाउद्दीन की मुद्राओं का वर्णन करते हुए बतलाया है कि उसकी छगाणी मुद्राएं दो प्रकार की व इगाणी भी दो प्रकार की है। इगानी मुद्रा में 95 टांक तांबा और 5 टांक चांदी एक सौ मुद्राओं में है। वह एक ही प्रकार की है और राजदरबार में तथा सार्वजनिक व्यवहार में इसी का प्रचलन है।

"द्रव्य परीक्षा" को केवल भारतीय साहित्य में ही नहीं विश्व साहित्य में भी महत्वपूर्ण माना जाता सकता है। प्राचीन मुद्रा-सिक्कों के सम्बन्ध में यत्र-तत्र स्फुट वर्णन प्राचीन साहित्य में भले ही पाये जाएं पर सात सौ वर्ष पूर्व स्वतंत्र रूप से रचित इस पुस्तक का अपना विशिष्ट महत्व है।

Friday, October 19, 2018

Ram tumhara naam_Ramdhari Singh Dinkar_राम तुम्हारा नाम_रामधारी सिंह दिनकर

चित्र साभार: राजा रवि वर्मा (वनवासी राम)



राम, तुम्हारा नाम कंठ में रहे,
हृदय, जो कुछ भेजो, वह सहे,
दुख से त्राण नहीं मांगूं।


मांगू केवल शक्ति दुख सहने की,
दुर्दिन को भी मान तुम्हारी दया
अकातर ध्यान मग्न रहने की।


देख तुम्हारे मृत्यु-दूत को डरूं नहीं,
न्योछावर होने में दुविधा करूं नहीं।
तुम चाहो, दूँ वही,
कृपण हौ प्राण नहीं मांगू।


रामधारी सिंह दिनकर (राम, तुम्हारा नाम)



Sunday, October 14, 2018

Discovery of India_Gandhi_Nehru_Railways_India_मोहनदास करमचंद गाँधी_भारत खोज_रेल_ नेहरु





मोहनदास करमचंद गाँधी ने भारत आने के बाद अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह पर अगले दो वर्षों तक भारत की यात्रा की थी, जिसमें उन्होंने काफी हिस्सा रेल से तय किया था. 


प्रसिद्ध हिंदी लेखक अमृत लाल नागर ने जवाहर लाल नेहरु की "डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया" किताब की समीक्षा करते हुए लिखा था कि यह "भारत की खोज" नहीं बल्कि नेहरु की "भारत" की खोज है.


Saturday, October 13, 2018

Delhi's contribution in early hindi cinema_आरंभिक सिनेमा-साहित्य का दिल्ली सूत्र






सिनेमा और साहित्य को लेकर दिल्ली के संबंध की बात कम ही ध्यान में आती है। जबकि हकीकत इससे बिलकुल जुदा है। हिंदी की पहली साप्ताहिक फिल्मी पत्रिका “रंगभूमि” वर्ष 1932 में पुरानी दिल्ली के कूचा घासीराम से छपी। इस पत्रिका के प्रकाशक, त्रिभुवन नारायण बहल और संपादक नोतन चंद-लेखराम थे। वही 1934 के साल में दिल्ली के ऋषभचरण जैन ने राजधानी से “चित्रपट” के नाम से एक फिल्म पत्र प्रकाशित किया। सात रूपए के सालाना चंदे वाले इस फिल्म पत्र की एक प्रति दो आने की होती थी। उनकी हिंदी के मशहूर लेखकों जैसे प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार और चतुरसेन शास्त्री खासी दोस्ती थी। यही कारण था कि “चित्रपट” में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती थी।

हिंदी सिनेमा में करीब 1500 गानों को गाने वाले मुकेश (चंद माथुर) का जन्म 22 जुलाई 1923 को दिल्ली के चांदनी चौक में ही हुआ था। इंजीनियर पिता लाला जोरावर चंद माथुर और मां चांदरानी की संतान मुकेश प्रसिद्व गायक अभिनेता कुंदनलाल सहगल की तरह गायक-अभिनेता बनने का ख्वाब देखा करते थे। दसवीं तक पढ़ाई करने के बाद स्कूल छोड़ने वाले मुकेश ने दिल्ली लोक निर्माण विभाग में बतौर सहायक सर्वेयर सात महीने तक नौकरी की। उनके दूर के रिश्तेदार मशहूर अभिनेता मोतीलाल ने उनकी आवाज सुनी और प्रभावित होकर वह उन्हें 1940 में बंबई ले आए। मुकेश ने नेशनल स्टूडियोज की फिल्म “निर्दोष” (1941) में अभिनेता-गायक के रूप में संगीतकार अशोक घोष के निर्देशन में अपना पहला गीत “दिल ही बूझा हुआ हो तो फसले बहार क्या” गाया। विनोद विप्लव “हिंदी सिनेमा के 150 सितारे” (प्रभात प्रकाशन) शीर्षक पुस्तक में लिखते हैं कि मुकेश को कामयाबी मिली निर्माता मजहर खान की फिल्म  “पहली नजर” (1945) के गीत “दिल जलता है तो जलने दे” से। जो कि संयोग से मोतीलाल पर ही फिल्माया गया था। अनिल विश्वास के संगीत में निर्देशन में डाक्टर सफदर आह सीतापुरी की इस गजल को मुकेश ने सहगल की शैली में ऐसी पुरकशिश आवाज में गाया कि लोगों को भ्रम हो जाता था कि इसके गायक सहगल हैं। इसी गीत को सुनने के बाद मुकेश को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

गौरतलब है कि सदाबहार पार्श्व गायक मुकेश को फिल्मी दुनिया की राह दिखाने वाले मोतीलाल (राजवंश) भी दिल्ली के प्रतिष्ठित परिवार से संबंध रखते थे। 1935 में बनी “शहर का जादू” उनकी पहली फिल्म थी। हिंदी सिनेमा के स्वाभाविक अभिनय करने वाले आरंभिक कलाकारों में से एक मोतीलाल 1940 के दशक के सितारा अभिनेता थे। यह उनके अभिनय का ही कमाल था कि मोतीलाल को फिल्म “देवदास”(1955) में चुन्नी बाबू की भूमिका के फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार मिला। इतना ही नहीं, उनका हैट लगाने का अंदाज एकदम निराला था। केवल अंदाज ही नहीं लक्ष्मी की भी, उन पर पूरी कृपा थी। उस समय अकेली ऐसी फिल्म हस्ती थे, जिनके पास अपना स्वयं का हवाई जहाज था।

“द हंड्रेड ल्यूमिनरीज आॅफ हिंदी सिनेमा” की प्रस्तावना में सुपर स्टाॅर अमिताभ बच्चन ने लिखा है कि इस महान और बेहद सजह अभिनय के धनी अभिनेता की प्रशंसा में अधिक कुछ नहीं लिखा गया है। वे (मोतीलाल) अपने समय से काफी आगे थे। अगर वे आज जीवित होते तो उनकी बहुमुखी प्रतिभा उनके लिए अब भी स्थान सुरक्षित रखती। हकीकत में वे आज भी हमारी तुलना में बेहतर अभिनय कर रहे होते। 


उर्दू के मशहूर शायर मिर्जा गालिब के दिल्ली में दफन होने की बात आम नहीं है। यह बात कम जानी है कि राजधानी में गालिब की मजार दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित फिल्मकार सोहराब मोदी के कारण सलामत है। उन्होंने ही हजरत निजामुद्दीन औलिया की खानकाह के पास गालिब की कब्र पर संगमरमर पत्थर चिनवा कर महफूज करवाया था वरना खुदा ही जाने क्या होता। उन्होंने यह काम हिंदी सिनेमा के इतिहास की यादगार फिल्म “मिर्जा गालिब” (1954) को राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक जीतने के बाद श्रध्दा स्वरूप किया था। 

पूछते हैं वो के गालिब कौन है? 

कोई बतलाओ के हम बतलाएं क्या? 


यह तथ्यात्मक बात है कि फिल्म “मिर्जा गालिब” के पोस्टर पर भी हिंदी ही लिखा था। जबकि फिल्म में शायरी उर्दू थी, कल्चर उर्दू का था. तब भी (सेंसर बोर्ड) सर्टिफिकेट पर हिंदी ही लिखा था।


Thursday, October 11, 2018

Currency of Rajput Era_Deehliwal_दिल्ली की मुद्रा थी देहलीवाल



तराइन की दूसरी लड़ाई में अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हार और मुहम्मद बिन साम की मृत्यु तक जन साधारण का लेनदेन की जरूरत देहलीवाल अथवा जीतल की मुद्रा से ही पूरी होती थी। विदेशी मुस्लिम विजेता दिल्ली की मुद्रा को देहलीवाल के नाम से पुकारते थे। कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया।

ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकरशाह और भारतीय पुरा अवशेषों के प्रसिद्ध लेखक एडवर्ड थॉमस के अनुसार, देहलीवाल मुद्रा का भार 32 रत्ती, मनु के समय से चांदी तौलने का पुराना माप, होता था। वे बताते हैं कि अधिकतर प्राचीन भारतीय मुद्राएं औसत रूप से 50 ग्रेन की होती थी। उल्लेखनीय है कि पुराने वराह चांदी की मुद्राओं सहित राजपूत मुद्राओं का औसतन भार 50 ग्रेन की होता था। उन्होंने किसी भी वजन मानक उल्लेख नहीं किया है।

हसन निजामी ने अपनी पुस्तक "ताजुल मआसिर" में सिंध के तत्कालीन शासक मलिक नासिरूद्दीन कुबाचा के अपने बेटे के माध्यम से इल्तुतमिश को एक सौ लाख देहलीवाल की पेशकश करने और अपने पिता की मौत पर उसके बेटे के इल्तुतमिश के शाही खजाने में पांच सौ लाख देहलीवाल जमा करवाने का हवाला दिया है। "ताजुल मआसिर" में 1191 से 1217 (27 वर्ष) तक की घटनाओं का वर्णन है। "ताजुल मआसिर" दिल्ली सल्तनत का प्रथम राजकीय इतिहास है।

दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों के दौर के सिक्कों और मापतौल पर किताब लिखने वाले एच. नेल्सन राइट के अनुसार, शम्स अल-दीन इल्तुतमिश (1210-1235) के दिल्ली की मुद्रा के मानकीकरण के साथ इन सिक्कों में चांदी की मात्रा को घटाकर आधा कर दिया गया। नए सिक्के, जिसे जीतल का नाम दिया गया, का वजन 32 रत्ती था। जीतल में प्रयुक्त चांदी और तांबे का संयुक्त मूल्य चांदी की दो रत्ती के बराबर था। तांबे के लिए चांदी का सापेक्ष मूल्य 1ः80 था। देवगिरी पर मुस्लिम जीत के बाद उत्तरी भारत में जीतल का चांदी के टंका का सापेक्ष मूल्य बदलकर 1ः48 और दक्कन में 1ः50 हो गया। दक्षिण भारत में इसके थोड़े से अंतर से महंगा होने का कारण यह था कि तांबा विदेशों से आयात किया जाता था।


तब के समुद्री व्यापारी अपने नौव्यापार के लिए लाल सागर के रास्ते का इस्तेमाल करते थे। यही कारण है कि तब देहलीवाल सिक्कों का प्रसार फारस की खाड़ी से भारत के उत्तर पश्चिम तट तक हो गया था। बारहवीं सदी के उत्तरार्ध में पश्चिम से प्राप्त चांदी की नियमित आपूर्ति से उत्तर भारत में सिक्के गढ़ने वालों ने राजपूतों के देहलीवाल सिक्के भी बनाए।

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि विभिन्न शासकों के तहत-तोमर, चौहान, गौरी और दिल्ली सल्तनत-दिल्ली टकसाल की स्थिति कोई खास अंतर नहीं था। 12 वीं सदी के अधिकतर समय में विभिन्न राजपूत शासकों के दौर में दिल्ली टकसाल ने एक अरब सिक्के ढ़ाले थे। वर्ष 1053 के बाद से गजनी राज्य से चांदी की लगातार आमद ने दिल्ली टकसाल के पीढ़ी दर पीढ़ी सिक्का बनाने वालों को एक मानक स्तर के वजन वाले सिक्के (3.38 ग्राम) तैयार करने में मदद की। तब धातु सामग्री, सामान्य वजन सीमा और डिजाइन में यह सिक्का शाही दिरहम पर आधारित था। चांदी-तांबा की मिश्र धातु वाले इन सिक्कों में विशुद्ध रूप से 0.59 ग्राम चांदी होती थी।

बारहवीं शताब्दी के पूर्वांद्व में तोमर वंश के राजपूतों ने पहली बार दिल्ली को अपने राज्य की राजधानी बनाया था। उनके समय में ही दिल्ली एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बनी। तब दिल्ली की अर्थव्यवस्था में समृद्ध जैन व्यापारियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी तत्कालीन प्रचलित मुद्रा "देहलीवाल" कहलाती थी।


Sunday, October 7, 2018

Biography_Samuel Johnson



“Biography has often been allotted to writers who seem very little acquainted with the nature of their task, or very negligent about the performance. They rarely afford any other account than might be collected from public papers, but imagine themselves writing a life when they exhibit a chronological series of actions or preferments; and so little regard the manners or behavior of their heroes that more knowledge may be gained of a man's real character, by a short conversation with one of his servants, than from a formal and studied narrative, begun with his pedigree and ended with his funeral."


-Samuel Johnson, critic and poet

Saturday, October 6, 2018

Film Posters depicting the socio-cultural history of Hindi Society_हिंदी समाज की दशा-दिशा बताते पोस्टर




भारत में हाथ से बने पोस्टर की अवधारणा का विकास सिनेमा के उद्भव के साथ ही हुआ। पोस्टर कला के  हस्तनिर्मित से ऑफसेट प्रिंटिंग और फिर डिजिटलीकरण तक का सफर, कलात्मक सौंदर्य और कारीगरी धीरे-धीरे ढलने की एक कहानी है। सरल शब्दों में, यह कला भारत में सिनेमा की यात्रा को बयान करती है। भारतीय सिनेमा के इतिहास को समझने के लिए फिल्म पोस्टर सबसे उपयुक्त है। वे इस लंबी यात्रा को दर्शाने वाले मील के पत्थर हैं। 

आरंभिक समय से ही पोस्टरों ने दर्शकों और फिल्म के बीच में आपसी जुड़ाव का काम किया। यह एक कड़वा सच है कि भारत में पोस्टर कला को एक दोयम दर्जे माना जाता है जबकि इसके उलट पूरी दुनिया में इसे ललित कलाओं के समान सम्मान दिया जाता है।


हिंदी फिल्म पोस्टरों पर छपी एस एम एम औसजा की पुस्तक "बाॅलीवुड इन पोस्टर्स" (ओम बुक इंटरनेशनल से प्रकाशित) एक ऐसी ही अप्रतिम पुस्तक है। जिसमें न केवल पोस्टर के बारे में बल्कि हर फिल्म, उसके कलाकारों तथा लोकप्रिय गानों की सारगर्भित रूप से तथ्यात्मक जानकारी दी गई है। पुस्तक से पता चलता है कि हिंदी फिल्मों के पिछले सात दशकों के पोस्टर और पोस्टर बनाने की प्रवृति को गौर से देखने पर पता चलता है कि समय के साथ न केवल इनमें सौंदर्यशास्त्र बल्कि प्रस्तुतिकरण में भी परिवर्तन आया है। एक तरह से ये पोस्टर बदलते सामाजिक-राजनीतिक या सामाजिक-धार्मिक परिदृश्यों पर एक सटीक टिप्पणी है।



1930-1940 के दशक के शुरुआती फिल्म पोस्टरों में धार्मिक तत्व और शालीन पहनावे में महिलाएं दिखती हैं। तब फिल्म निर्माण का आरंभिक चरण था जब उसे सामाजिक मान्यता नहीं मिली थी। ऐसे पोस्टर दर्शकों के समक्ष एक स्वस्थ-पारिवारिक मनोरंजन की छवि पेश करते थे। फिर 1950-1960 के दशक में जब फिल्मों को सामाजिक स्वीकृति मिलने लगी और कलाकारों को सितारा माने जाने लगा तब अशोक कुमार, नर्गिस और मधुबाला जैसे कलाकार प्रमुख चेहरों के रूप में उभरे। 1970 के दशक में अमिताभ बच्चन जैसे एक्शन नायकों के उदय के साथ सामाजिक विषयों पर अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ।

जबकि 1990-2000 का दशक में नई अवधारणाओं, प्रारूपों और प्रस्तुतिकरण से भरापूरा रहा। अगर सौंदर्यबोध को पैमाना माना जाए तो पोस्टरों ने लिथोग्राफ से लेकर आॅफसेट और अब डिजिटल प्रिंटिंग तक का सफर तय किया है। इनमें से हरेक की अपनी-अपनी विशिष्टताएं और खूबसूरती थीं।


"बाॅलीवुड इन पोस्टर्स" में हिंदी सिनेमा के 78 वर्षों (1930-2008) की प्रमुख 208 फिल्मों का लेखा-जोखा है। इन फिल्मों में दिल्ली से संबंधित कथानक वाली फिल्मों में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित सोहराब मोदी की "मिर्जा गालिब" (1954) सबसे पुरानी फिल्म है। फिल्म के पोस्टरों (रंगीन और श्वेत श्याम दोनों) में सुरैय्या और भारत भूषण की फोटो के साथ मिनर्वा मोव्हिटोन कृत "मिर्जा गालिब" फिल्म के अंग्रेजी-हिंदी में नाम सहित निर्माता सोहराब मोदी का नाम छपा हुआ है। जबकि दिल्ली के ऐतिहासिक कथानक वाली फिल्म "हुमायूं" (1945) के पोस्टर में एक किलेनुमा इमारत की पृष्ठभूमि में अशोक कुमार, नरगिस और वीणा के चेहरे प्रमुखता से बने हुए हैं जबकि फिल्म का नाम तीन भाषाओं, हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी में छपा हुआ है। 


इसी तरह, बाप-बेटे और महानगर में जमीन के कारोबार की कहानी वाली "त्रिशूल" (1978) के पोस्टर में संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के चेहरों की प्रमुखता हिंदी सिनेमा में सितारा परंपरा के मजबूत होने और अंग्रेजी के बढ़ते दबदबे, जहां निर्देशक-गीतकार-संगीतकार-निर्माता के नाम अंग्रेजी में छपे हैं, का संकेत है। यह बात एक दूसरे पोस्टर से साबित होती है जिसमें अंग्रेजी में त्रिशूल प्रमुखता से छपा है तो हिंदी में छोटे से ऊपर कोने में। 


गानों के लिए मशहूर हुई "रजिया सुल्तान" (1983) के पोस्टर में अंग्रेजी में छपा फिल्म का नाम भी उर्दू लिपि में लिखा गया है जबकि निर्देशक कमाल अमरोही और संगीतकार ख्ययाम के नाम भी अंग्रेजी में छपे है। यहां भी तुलनात्मक रूप से हिंदी के प्रति उपेक्षा साफ है। शाहरूख खान की "चक दे इंडिया" (2007) के पोस्टर में अंग्रेजी का पूरा वर्चस्व नजर आता है, जहां हिंदी सिरे से ही गायब है। 



अधिकतर दिल्ली में फिल्माई गई इस फिल्म की दर्शकों तक पहुंचने की भाषा भी अंग्रेजी है जो कि हमारे दौर के महानगर की शर्मनाक सच्चाई है। यही सच मणिरत्नम की "गुरू" (2007) में भी झलकता है जहां फिल्म के नाम से लेकर निर्देशक के नाम तक सब अंग्रेजी में है। दुनिया में हिंदी सिनेमा शायद एक अकेला सिनेमा होगा जहां एक संवाद अदायगी से लेकर पोस्टर तक एक दूसरी भाषा, यहां अंग्रेजी, का वर्चस्व है। 


अब यह अनायास है या सायास यह समझने की बात है, जिसकी जड़े नक़ल और भाषाई आत्महीनता वाले हिंदी समाज के दोगलेपन में निहित है. 

Thursday, October 4, 2018

Delhi poison_दिल्ली का जहर





देश के सुदूर स्थानों पर जमीन से जुड़कर काम करने वाले मित्रों से बात करके दिल्ली में रहने का व्यर्थता बोध और प्रबल जाता है! साफ़ लगने लगता है कि देश की राजधानी में बैठकर जंगल, जमीन, जल की बात करना कितना बेमानी है.
किसान के प्रति संवेदना कितनी उथली है,
आखिर नागर समाज का लोक पक्ष, अगर कोई है, होने की बात ही सिरे से बेमानी लगती है.
आखिर राजधानी के कितने बौद्धिकों ने फूस के खपरैल, मिट्टी के चकोरे, लकड़ी का ईधन, पुआल, पशुओं की खली, आंगन की छाँव देखने के साथ कुंए पर कोयल की टेर सुनी हैं? कितनों ने तालाब का मीठा पानी, मोटे अनाज की रोटी, खेत में खड़ी मिर्ची-टमाटर को तोड़कर देसी घी में बनाये जाने वाली सब्जी का स्वाद लिया है?
अधिकांश ने नहीं बस इंडिया इंटर नेशनल सेंटर, इंडिया हैबिटैट सेंटर, इस्लामिक सेंटर, फोरेन प्रेस क्लब-प्रेस क्लब से होने वाले प्रगतिशील विमर्श के साथ प्रतीत होता है, जमीन से जुड़ा शालीन पक्ष भी तिमिर में विलीन हो गया है.
दिल्ली में इतना 'जहर' क्यों हैं?
यह अनायास नहीं है कि अज्ञेय ने पचास के दशक में (15 जून, 1954) दिल्ली में "साँप" नामक कविता लिखी थी.
साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना--
विष कहाँ पाया?


Tuesday, October 2, 2018

Marshall McLuhan_electric technology



“With the arrival of electric technology, man has extended, or set outside himself, a live model of the central nervous system itself. To the degree that this is so, it is a development that suggests a desperate suicidal autoamputation, as if the central nervous system could no longer depend on the physical organs to be protective buffers against the slings and arrows of outrageous mechanism. ”
– Marshall McLuhan

Monday, October 1, 2018

Mahatma Gandhi on Sita and Ram_गाँधी के सीता-राम






मेरे लिए मेरा राम सीता पति दशरथ नन्दन कहलाते हुए भी वह सर्वशक्तिमान ईश्वर ही हैं जिसका नाम हृदय में होने के मानसिक नैतिक ओर भौतिक सब दुखों का नाश हो जाता है। राम नाम समस्त लोगों का शर्तिया इलाज है। फिर चाहे वे शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक हों। राम नाम ईश्वर के कई नामों में से ही एक है। गांधी जी कहते हैं रामराज्य-स्वराज्य की परिसीमा है, राम ने एक जन की बात सुनकर प्रजा को संतुष्ट करने के लिए प्राणों के समान प्रिय जगदम्बा सती शिरोमणि जगदम्बा मूर्ति सीता जी का त्याग किया।
राम ने दुष्टों के साथ भी न्याय किया उन्होंने सत्यपालन के लिये राजपाट छोड़कर वनवास भोगा ओर संसार के तमाम राजाओं को उच्चकोटि के सदाचार पालन का दार्शनिक पाठ पढ़ाया। राम ने अखण्ड एक पत्निव्रत का पालन करके राजा प्रजा का है यह दिखा दिया कि, गृहस्थ आश्रम में भी संयम धर्म का पालन किस तरह किया जा सकता है। उन्होंने राज्यासन को सुशोभित करके राज्य इति को लोकप्रिय बनाकर यह सिद्ध कर दिया कि रामराज्य स्वराज्य की परिसीमा है। राजा को लोकमत जानने के लिए आज के आधे अधूरे साधनों की जरूरत कभी न थी राजा प्रजा मत को आंख के इशारे से समझ लेता था प्रजा राम राज्य में आनन्द सागर में हिलोरे लेती थी। ऐसा रामराज्य आज भी हो सकता है। राम का वंश लुप्त नहीं हुआ है।

-महात्मा गाँधी

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...