देश के सुदूर स्थानों पर जमीन से जुड़कर काम करने वाले मित्रों से बात करके दिल्ली में रहने का व्यर्थता बोध और प्रबल जाता है! साफ़ लगने लगता है कि देश की राजधानी में बैठकर जंगल, जमीन, जल की बात करना कितना बेमानी है. किसान के प्रति संवेदना कितनी उथली है, आखिर नागर समाज का लोक पक्ष, अगर कोई है, होने की बात ही सिरे से बेमानी लगती है. आखिर राजधानी के कितने बौद्धिकों ने फूस के खपरैल, मिट्टी के चकोरे, लकड़ी का ईधन, पुआल, पशुओं की खली, आंगन की छाँव देखने के साथ कुंए पर कोयल की टेर सुनी हैं? कितनों ने तालाब का मीठा पानी, मोटे अनाज की रोटी, खेत में खड़ी मिर्ची-टमाटर को तोड़कर देसी घी में बनाये जाने वाली सब्जी का स्वाद लिया है? अधिकांश ने नहीं बस इंडिया इंटर नेशनल सेंटर, इंडिया हैबिटैट सेंटर, इस्लामिक सेंटर, फोरेन प्रेस क्लब-प्रेस क्लब से होने वाले प्रगतिशील विमर्श के साथ प्रतीत होता है, जमीन से जुड़ा शालीन पक्ष भी तिमिर में विलीन हो गया है. दिल्ली में इतना 'जहर' क्यों हैं? यह अनायास नहीं है कि अज्ञेय ने पचास के दशक में (15 जून, 1954) दिल्ली में "साँप" नामक कविता लिखी थी. साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?) तब कैसे सीखा डँसना-- विष कहाँ पाया?
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