Thursday, October 11, 2018

Currency of Rajput Era_Deehliwal_दिल्ली की मुद्रा थी देहलीवाल



तराइन की दूसरी लड़ाई में अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हार और मुहम्मद बिन साम की मृत्यु तक जन साधारण का लेनदेन की जरूरत देहलीवाल अथवा जीतल की मुद्रा से ही पूरी होती थी। विदेशी मुस्लिम विजेता दिल्ली की मुद्रा को देहलीवाल के नाम से पुकारते थे। कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया।

ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकरशाह और भारतीय पुरा अवशेषों के प्रसिद्ध लेखक एडवर्ड थॉमस के अनुसार, देहलीवाल मुद्रा का भार 32 रत्ती, मनु के समय से चांदी तौलने का पुराना माप, होता था। वे बताते हैं कि अधिकतर प्राचीन भारतीय मुद्राएं औसत रूप से 50 ग्रेन की होती थी। उल्लेखनीय है कि पुराने वराह चांदी की मुद्राओं सहित राजपूत मुद्राओं का औसतन भार 50 ग्रेन की होता था। उन्होंने किसी भी वजन मानक उल्लेख नहीं किया है।

हसन निजामी ने अपनी पुस्तक "ताजुल मआसिर" में सिंध के तत्कालीन शासक मलिक नासिरूद्दीन कुबाचा के अपने बेटे के माध्यम से इल्तुतमिश को एक सौ लाख देहलीवाल की पेशकश करने और अपने पिता की मौत पर उसके बेटे के इल्तुतमिश के शाही खजाने में पांच सौ लाख देहलीवाल जमा करवाने का हवाला दिया है। "ताजुल मआसिर" में 1191 से 1217 (27 वर्ष) तक की घटनाओं का वर्णन है। "ताजुल मआसिर" दिल्ली सल्तनत का प्रथम राजकीय इतिहास है।

दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों के दौर के सिक्कों और मापतौल पर किताब लिखने वाले एच. नेल्सन राइट के अनुसार, शम्स अल-दीन इल्तुतमिश (1210-1235) के दिल्ली की मुद्रा के मानकीकरण के साथ इन सिक्कों में चांदी की मात्रा को घटाकर आधा कर दिया गया। नए सिक्के, जिसे जीतल का नाम दिया गया, का वजन 32 रत्ती था। जीतल में प्रयुक्त चांदी और तांबे का संयुक्त मूल्य चांदी की दो रत्ती के बराबर था। तांबे के लिए चांदी का सापेक्ष मूल्य 1ः80 था। देवगिरी पर मुस्लिम जीत के बाद उत्तरी भारत में जीतल का चांदी के टंका का सापेक्ष मूल्य बदलकर 1ः48 और दक्कन में 1ः50 हो गया। दक्षिण भारत में इसके थोड़े से अंतर से महंगा होने का कारण यह था कि तांबा विदेशों से आयात किया जाता था।


तब के समुद्री व्यापारी अपने नौव्यापार के लिए लाल सागर के रास्ते का इस्तेमाल करते थे। यही कारण है कि तब देहलीवाल सिक्कों का प्रसार फारस की खाड़ी से भारत के उत्तर पश्चिम तट तक हो गया था। बारहवीं सदी के उत्तरार्ध में पश्चिम से प्राप्त चांदी की नियमित आपूर्ति से उत्तर भारत में सिक्के गढ़ने वालों ने राजपूतों के देहलीवाल सिक्के भी बनाए।

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि विभिन्न शासकों के तहत-तोमर, चौहान, गौरी और दिल्ली सल्तनत-दिल्ली टकसाल की स्थिति कोई खास अंतर नहीं था। 12 वीं सदी के अधिकतर समय में विभिन्न राजपूत शासकों के दौर में दिल्ली टकसाल ने एक अरब सिक्के ढ़ाले थे। वर्ष 1053 के बाद से गजनी राज्य से चांदी की लगातार आमद ने दिल्ली टकसाल के पीढ़ी दर पीढ़ी सिक्का बनाने वालों को एक मानक स्तर के वजन वाले सिक्के (3.38 ग्राम) तैयार करने में मदद की। तब धातु सामग्री, सामान्य वजन सीमा और डिजाइन में यह सिक्का शाही दिरहम पर आधारित था। चांदी-तांबा की मिश्र धातु वाले इन सिक्कों में विशुद्ध रूप से 0.59 ग्राम चांदी होती थी।

बारहवीं शताब्दी के पूर्वांद्व में तोमर वंश के राजपूतों ने पहली बार दिल्ली को अपने राज्य की राजधानी बनाया था। उनके समय में ही दिल्ली एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बनी। तब दिल्ली की अर्थव्यवस्था में समृद्ध जैन व्यापारियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी तत्कालीन प्रचलित मुद्रा "देहलीवाल" कहलाती थी।


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