Tuesday, June 25, 2019
Saturday, June 22, 2019
British period wells of Delhi_अंग्रेजों के ज़माने में दिल्ली के कुएं
अंग्रेजों ने 1803 में दिल्ली में अपना कब्जा किया और यहां पर ब्रिटिश रेसिडेंसी स्थापित की। तब से लेकर 1857 तक दिल्ली एक सैन्य ठिकाना थी। उस दौर में दिल्ली का प्रशासन उत्तर पश्चिम प्रांत (अविभाजित पंजाब) से संचालित होता था। अगर उस समय के दस्तावेजों को देखें तो पता चलता है कि पंजाब के जिलों की सिंचित क्षेत्र की सूची में तुलनात्मक रूप से दिल्ली का स्थान ऊपर था।
1898 के अकाल आयोग के लिए उपलब्ध करवाए गए आंकड़ों में, कुल सिंचित भूमि की तुलना में ऐसे क्षेत्र के प्रतिशत का आकलन किया गया था। तब दिल्ली की कुल सिंचित भूमि के 37 प्रतिशत का 15 प्रतिशत क्षेत्र कुओं, चार प्रतिशत बंधों और झील तथा 18 प्रतिशत नहरों से सिंचित होता था। अंग्रेजों के समय में हुई जमीन की पैमाइश के वर्षों में (1872-75) पूरे जिले में 8,841 पानी लायक कुएं थे। जिनमें 4,797 कुएं सोनीपत में, 2,256 कुएं दिल्ली में और 1778 कुएं बल्लभगढ़ में थे।
दिल्ली गजेटियर (1883-84) के अनुसार, दिल्ली के छह क्षेत्रों (खादर, बांगर, डाबर, झेरकोही, कोही और खंडरात) में कुल 2256 कुएं थे, जिनमें 1883 चिनाई वाले और 373 बिना चिनाई (कच्चे कुएं) वाले कुएं थे। उस समय में मुख्य रूप से चार प्रकार के कुएं होते थे। इन कुओं में पहला प्रकार साधारण चिनाई वाला कुआं (पक्का कुआ, गोला, रेक्ता) होता था। यह कुआं ईंट या पत्थर और चूने के गारे का बना होता था। जो कि लंबे समय तक चलने के हिसाब से बनाया जाता था और बरसों तक चलता था। इसी तरह, पानी की उपलब्धता के लिहाज से शुष्क चिनाई वाला कुआं होता था। ऐसा कुआं मुख्य रूप से पहाड़ी इलाकों के पास होता था, जहां आस-पड़ोस में रहने वाले खुरदरे और पत्थर से बनी सामग्री का उपयोग करते थे क्योंकि वहां सर्वसुलभता के कारण पत्थर सस्ता था। लेकिन ऐसे बहुत से स्थान नहीं थे, जहाँ इस तरह के कुओं का निर्माण देखने को मिलता था।
ऐसे ही लकड़ी के कुएं (गंधवाले का छाह) होते थे, जिसमें कुएं की बगलों में लकड़ी के घुमावदार टुकड़े बने हुए होते थे जैसे छकड़ा गाड़ी के पहिये के खंड बने होते हैं। इनकी लंबाई नौ इंच से दो फीट तक होती थी। ये कुएं जल की उपलब्धता के अनुकूल मिट्टी में बने बनाए जाते थे। ये कुएं अधिक गहराई वाले न होने के बावजूद बरसों-बरस कारगर होते थे, कभी-कभी पूरी एक पीढ़ी। वैसे तो तब ऐसे कुएं कई क्षेत्रों में पाए जाते थे, लेकिन विशेष रूप से ऐसे कुओं की उपस्थिति दिल्ली खादर के कुछ गांवों में देखने को मिलती थी।
पानी उपलब्ध करवाने में सक्षम और और समय के हिसाब से इसके बाद झार-का-कुंआ (बनवाला) का स्थान था। इस कुएं के लिए धरती में छेद करते हुए एक गड्डा खोदा जाता था, जिसके चारों तरफ कई प्रकार की झाड़-झंखाड़ (इस कार्य के लिए सामान्य रूप से झाड़ी, ढाक और बांस की लकड़ी का प्रयोग होता है) से घेरेबंदी की जाती थी। इससे ढहती मिट्टी को बाहरी सहारा मिलता था। ये कुएँ साफ तौर पर एक सस्ता सौदा थे और अधिकांश स्थानों पर तीन साल तक चलते थे। जबकि कठोर मिट्टी होने की सूरत में, कुछ लंबे समय तक पानी दे पाते थे। ऐसे कुएं बीस फीट तक की गहराई तक होते थे।
Tuesday, June 18, 2019
History of Delhi through Coins_सिक्कों की जुबानी, दिल्ली की कहानी
देहलीवाल |
इतिहास को जानने में पुरातात्विक साक्ष्यों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जिसे सिक्के, अभिलेख, स्मारक, भवन, मूर्तियां और चित्रकला के माध्यम से जाना जा सकता है। किसी भी देश के सिक्कों के प्रचलन के इतिहास से उसके अतीत के विषय में प्रामाणिक जानकारी मिलती है। सिक्कों की छाप से न केवल बीते समय की प्रगति बल्कि तत्कालीन प्रौद्योगिकी और कला-कौशल के विकास का पता चलता है। सिक्के अपने दौर की राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्रियाकलापों के संवाद के साधन के रूप में एक ठोस साक्ष्य का प्रतीक है। भिन्न कालखंडों के सिक्कों के समग्र अध्ययन से पूरे देश की संस्कृति और सिद्धांतों के क्रमिक विकास की एक पूरी तस्वीर नजर आती है।
दिल्ली के पुराने किले की पूर्वी दीवार के पास 1969-1973 के काल में दूसरी बार पुरातात्विक खनन में मिले मृदभांड, टेराकोटा (पकी मिटटी की) की यक्ष यक्षियों की छोटी प्रतिमाएँ, लिपि वाली मुद्राएँ किले के संग्रहालय में रखी हैं। मौर्य काल (३०० वर्ष ईसापूर्व) से लेकर मुगलों के आरंभिक दौर तक इस क्षेत्र में लगातार मानवीय बसावट रहने का तथ्य प्रमाणित हुआ है। मौर्यकाल में सारे देश में चांदी के जो पंचमार्क सिक्के मगध-मौर्य श्रेणी के सिक्के कहलाते थे। इन सिक्कों के पुरोभाग पर पांच चिन्ह या लांछन देखने को मिलते हैं, जो विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों के रूपों में हैं। कौटिल्य ने टकसाल के अधिकारी को “लक्षणाध्यक्ष” और सिक्कों की समय समय पर जांच पड़ताल करने वाले अधिकारी को “रूपदर्शक” कहा है। मौर्यकाल में सिक्के शासन की ओर से ही जारी किए जाते थे।
कुषाणों ने मध्य एशिया और कश्मीर सहित भारत के एक बड़े भूभाग पर ईसा की प्रथम सदी के उत्तरार्ध से तीसरी सदी के पूर्वार्ध तक शासन किया। कुषाणों ने मुख्य रूप से सोने और तांबे के सिक्के जारी किए। विम कदफिस सोने के सिक्के जारी करने वाला पहला भारतीय शासक था। कुषाणों के सबसे प्रतापी शासक कनिष्क की स्वर्ण मुद्रा पश्चिम बंगाल के पांडु राजार ढीबी के एक टीले से मिली है। कुषाणों के समय में रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार खूब बढ़ा और रोमन मुद्राएं (देनेरियस् औरेयस्) बड़ी तादाद में भारत पहुंचने लगीं। तब कुषाणों ने भी अपनी स्वर्ण मुद्राएं रोमन स्वर्ण मुद्राओं के अनुकरण बनानी षुरू कर दीं। इतना ही नहीं, रोमन देनेरियस् के आधार पर भारत में “दीनार” प्रचलित हो गया, जो बाद में गुप्त सम्राटों की स्वर्ण मुद्राओं के लिए भी प्रयुक्त हुआ।
कुषाण साम्राज्य के अवसान के बाद गुप्त वंश ने (335-455) तक उत्तर भारत को एकजुट रखा। गुप्त शासकों ने विविध प्रकार की जो स्वर्ण मुद्राएं जारी कीं, उनका उपयोग प्रमुखतः भूमि की खरीद फरोख्त, बड़े पैमाने पर व्यापार और दान दक्षिणा के लिए हुआ। आम तौर पर गुप्त स्वर्ण मुद्राओं के पुरोभाग पर शासकों के विभिन्न रूपों में प्रतिमांकन है। पृष्ठभाग में देवी का अंकन है। दोनों ओर गुप्तकालीन ब्राही और संस्कृत भाषा में मुद्रालेख हैं, कभी-कभी छंदोबद्व भी। स्कंदगुप्त के समय (455-468) तक गुप्त शासकों ने जो स्वर्ण मुद्राएं जारी कीं उन्हें प्राचीन भारत की सर्वश्रेष्ट मुद्राएं माना जा सकता है।
गुप्त वंश के पतन के बाद उत्तर भारत में हर्षवर्धन (606-647) ने थानेश्वर को अपनी राजधानी बनाया। हर्ष की चांदी की कुछ मुद्राएं मिली हैं। उनके पुरोभाग पर राजा की छवि है और पृष्ठभाग पर मयूर का अंकन है। मयूर के चतुर्दिक मुद्रालेख हैं-"विजितावनिरवनिपति श्रीषीलादित्य दिवं जयति"। शिलादित्य हर्ष का विरूद् था, इसलिए ये सिक्के हर्ष के माने जाते हैं।
बारहवीं शताब्दी के मध्य में अजमेर के चौहानों से पहले तोमरों राजपूतों ने दिल्ली को अपनी पहली बार अपने राज्य की राजधानी बनाया था। तोमर वंश के बाद दिल्ली की राजगद्दी पर बैठे चौहान शासकों के समय में दिल्ली एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गई ओर तब के समय में व्यापक रूप से प्रचलित मुद्रा “देहलीवाल” कहलाती थी। एक मत है कि उस समय वैसे तो सिक्के शुद्ध चांदी से लेकर तांबे के होते थे पर उन सभी को चांदी की मुद्रा के रूप में ढाला गया था और शायद उन सभी को एक ही नाम देहलीवाल से जाना जाता था। दिल्ली के कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया। उल्लेखनीय है कि विदेशी मुस्लिम हमलावर भी दिल्ली के हिंदू राजपूत शासकों की मुद्रा को देहलीवाल के नाम से ही पुकारते थे। वैसे घुड़सवार-नंदि के सिक्कों का उत्पादन तो जारी रहा पर इन सिक्कों से राजपूत शूरवीरों की आकृति को हटा दिया गया। उनकी आकृति के स्थान पर संस्कृत में उरी हउमीरा (अमीर या सेनापति) और देवनागरी लिपि में उरी-महामदा के साथ बदल दिया गया।
मुस्लिम हमलावर महमूद गजनवी ने भारत में सोने के दीनार निकाले थे। मगर उसके सबसे महत्वपूर्ण चांदी के वे दिरहम हैं जो उसने 1028 में लाहौर महमूदपुर की टकसाल में तैयार करवाए थे। महमूद गजनवी की यह रजत-मुद्रा 2.80 ग्राम की है और इसके पुरोभाग पर अरबी-कूफी अक्षरों मकें कलमा के अलावा लेख हैः अमीनुद्दौला व अमीनुलमिल्लत बिसमिल्लाह अल्-दिरहम रब बे महमूदपुर सनः418 (किनारे पर)। सिक्के के पृष्ठभाग पर अरबी के उपर्युक्त समूचे लेख को नागरी लिपि और संस्कृत में प्रस्तुत किया गया है। उस समय पश्चिमोत्तर भारत में हिंदूशाही शासकों के चलाए गए घुड़सवार और नंदि की आकृति वाले सिक्के भी प्रचलित थे। महमूद गजनवी और उसके उत्तराधिकारियों ने अपने कुछ सिक्कों पर उन्हीं प्रतीकों को कायम रखा। ऐसे सिक्कों के एक ओर कूफी लिपि में लेख है और दूसरी ओर नागरी में सामंतदेव नाम।
गौरी वंश के मुहम्मद (जिसे मुहम्मद बिन साम भी कहते हैं) ने 1192 में पृथ्वीराज चौहान को हराकर सही अर्थ में पहली बार भारत में पहले इस्लामी राज्य की स्थापना की। मुहम्मद गोरी ने गाहड़वालों के राज्य (राजधानीः कन्नौज) को जीतकर उनके जैसे ही सोने के सिक्के जारी किए। उन सिक्कों के पुरोभाग पर लक्ष्मी का अंकन है और पृष्ठभाग पर नागरी में श्री मुहम्मद बिन साम लेख है। उसके घुड़सवार-नंदि शैली के सिक्कों के पुरोभाग पर नागरी में श्री मुहम्मद बिन साम और पृष्ठभाग पर श्री हमीर शब्द अंकित हैं। यह हमीर शब्द अरबी के अमीर शब्द का भारतीय अपभ्रंश है।
मुहम्मद गोरी के प्रतिनिधि कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1206 में दिल्ली को राजधानी बनाकर पहली सल्तनत की नींव डाली। इन आरंभिक तुर्की सुलतानों ने इस्लामी ढंग के नए सिक्के जारी किए। इस्लाम में सिक्कों पर प्रतिमांकन कराने की प्रथा नहीं थी, इसलिए कुछ अपवादों को छोड़कर, भारत के इस्लामी शासकों के सिक्कों पर, दोनो ओर, केवल मुद्रालेख ही देखने को मिलते हैं।
इल्तुतमिश (1210-35) ने नई शैली के सिक्के जारी किए। राजस्थान के नागौर से जारी घुड़सवार शैली के सोने के सिक्कों में घुड़सवार के चारों ओर घेरे में कलमा और तिथि दी गई है। सिक्के के सामने वाले हिस्से पर सुल्तान का नाम है। इल्तुतमिश पहला विदेशी मुस्लिम सुल्तान था, जिसने सिक्कों पर टकसाल का नाम देना शुरू किया। उसने अपने को इस्लामी खिलाफत का वफादार साबित करने के इरादे से अपने सिक्कों पर खलीफा का नाम भी खुदवाया। इल्तुतमिश की बेटी रजिया सुल्तान के समय (1236-40) में दिल्ली और लखनौती (गौड़, बंगाल) के टकसाल-घरों में चांदी के सिक्के जारी किए। पर हैरानी की बात यह है इन सिक्कों पर रजिया का नाम न होकर उसके बाप का नाम है। जो कि तख्त पर एक महिला के होने के बावजूद उसकी हुकूमत को न मानने सरीखा ही है। वैसे रजिया ने लखनौती में नया टकसाल-घर खोला। उसके समय में घुड़सवार और नंदि प्रकार के जीतल बनते रहे।
गयासुद्दीन बलबन (1266-87) ने सोना, चांदी-तांबा और तांबे के सिक्के चलाए। उसने घुड़सवार-नंदि आकृति वाले सिक्के बंद करवा दिए। बलबन के चांदी-तांबे के मिश्र धातु के जारी नए सिक्के के सामने घेरे के भीतर अरबी में उसका नाम बलबन है और घेरे के बाहर नागरी में मुद्रालेख है-स्त्री सुलतां गधासदीं। खिलजी वंश के आरंभिक दो सुलतानों (जलालुुद्दीन फीरोज और रूकुुद्दीन इब्राहीम) ने सिक्कों के मामले में बलबन की ही नकल की। जबकि अलाउद्दीन खिलजी (1296-16) ने हजरत देहली की टकसाल में तैयार करवाए सोने और चांदी के अपने टंकों पर सिकंदर अल्-सानी (दूसरा सिकंदर) जैसी भव्य पदवियां अंकित करवाई। उसने अपने सिक्कों पर से बगदाद के खलीफा का नाम हटा दिया और उसके स्थान पर लेख अंकित कराया-यमीन।
मुहम्मद बिन तुगलक (1325-51) के समय के सिक्के मुद्राशास्त्र के हिसाब से बड़े महत्व के हैं। उसने सोने और चांदी के सिक्कों के तौल बदलने का प्रयोग किया। पहले ये सिक्के 11 ग्राम के थे। मुहम्मद तुगलक ने सोने के ये सिक्के तौल बढ़ाकर लगभग 13 ग्राम और चांदी के सिक्के को घटाकर 9 ग्राम कर दिया। मगर उसका यह प्रयोग असफल रहा और उसे पहले के तौल-मान पर लौटना पड़ा। बहलोल लोदी (1451-89) ने चांदी-तांबे की मिश्रधातु के 80 रत्ती तौल के जो टंक चलाए वे बहलोली के नाम से मशहूर हुए। लोदी सुलतानों-बहलोल, सिकंदर और इब्राहीम-के सिक्कों पर खलीफा का नाम, सुलतान का नाम, टकसाल घर (दिल्ली) का नाम और तिथि अंकित है।
बाबर ने 1526 में पानीपत के मैदान में इब्राहीम लोदी को परास्त करके भारत में मुगल शासन की नींव डाली। बाबर और हुमायूँ का शासन अल्पकालिक रहा। उन्होंने जो थोड़े से सिक्के जारी किए वे मध्य एशियाई बनावट के हैं। वस्तुतः मुद्रा प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन अफगानी सूर वंश के शेरशाह (1538-45) ने किया। 1540 में हुमायूँ को हराकर जब वह दिल्ली सल्तनत का शासक बना तो उसने शुद्ध चांदी का जो नया सिक्का चलाया उसे रूप्य या रूपया का नाम दिया। शेरशाह ने चांदी के अपने सिक्के को जो नाम दिया वह कुछ बिगड़े रूप में (रूपी) अंग्रेजों के शासनकाल में कायम रहा और आज भी रूपया, के नाम से कायम है।
बाबर और हुमायूँ को इतना अधिक मौका नहीं मिला कि वे नई शैली के सिक्कों के बारे में सोच सकें। दोनों के ही चांदी के दिरहम मध्य एशियाई शैली के हैं और तैमूरी वंश के शासक शाहरूख के नाम पर शाहरूखी कहलाते हैं। करीब 72 ग्रेन भर के इन सिक्कों के पुरोभाग पर कलमा तथा खलीफाओं के नाम और पृष्ठभाग पर बादशाह का नाम है। बाबर और हुमायूं ने तांबे के जो सिक्के जारी किए वे दिल्ली के सुलतान बहलोल लोदी के सिक्के (बहलोली) के अनुकरण पर बनाए गए थे। बाद के मुगल बादशाहों की मुद्राएं मुख्यतः सूरी मुद्रा-शैली के अनुकरण पर ही बनी है।
अकबर ने सोना, चांदी और तांबे के अपने सिक्कों के लिए सूरी शैली तौल और बनावट को अपनाया। बुनियादी सिक्का चांदी का रूपया था, जिसका तौल 11.5 माशा या 178 ग्रेन के बराबर था। अकबर के पूरे राज्य में एक ही तौल के रूपए का प्रचलन था।अकबर का तांबे का सिक्का दाम, सोने का सिक्का मुहर या अशर्फी कहलाता था। अकबर के सिक्के गोलाकार और वर्गाकार, दोनों ही प्रकार के हैं। अकबर के समय में मुद्रालेखों के लिए पहली बार “नस्तालीक लिपि” का इस्तेमाल हुआ। 1582 में दीन-इलाही की स्थापना के बाद में अकबर के सिक्कों पर से कलमा को हटा दिया और उसके स्थान पर इलाही मतवाला मुद्रालेख अंकित कराया-अल्लाह अकबर जल्ल जलालहु। इस मुद्रालेख वाले सिक्कों को जलाली कहते थे। उस दौर में मुहरें सूबों की राजधानियों में बनती थीं। टकसाल-स्थलों को बड़े आकर्षक नाम दिए गए थे। जैसे लाहौर को दारूल सल्तनत और दिल्ली को दारूल खिलाफत।
मुगल बादशाह जहांगीर (1605-27) के सिक्के सबसे सुंदर हैं। कुछ सिक्कों पर जहांगीर के नाम के साथ नूरजहां का नाम भी अंकित है। जहांगीर के राशिचक्रवाले सिक्कों को भी बड़ी प्रसिद्वि मिली है। जहांगीर ने अपने शासन के पहले साल में ही अकबर के व्यक्ति-चित्र वाली मुहर जारी की थी। जहांगीर ने इलाही संवत् को त्याग दिया और उसके स्थान पर सौरमान वाले अपने शासन-वर्ष को सिक्कों पर अंकित कराया, साथ में हिजरी संवत् भी। उस दौरान जो सिक्के जारी किए गए उन पर पद्यबद्ध मुद्रालेखों में नूरजहां बादशाह बेगम नाम अंकित है। मगर शाह जहां ने तख्त पर बैठते ही नूरजहां के नामवाले और राशिचिन्ह वाले सिक्कों का चलन बंद करवा दिया। उसने आदेश जारी किया कि इन सिक्कों का प्रयोग करने वाले को मृत्युदंड दिया जाएगा। यही वजह है कि ये सिक्के बड़े दुर्लभ है।
शाहजहां ने अपने शासन (1627-58) के पूरे दौर में अपने सिक्कों पर एक ओर कलमा तथा टकसाल का नाम अंकित कराया। शाह जहां ने दिल्ली में नया शाहजहांनाबाद नगर बसाया, तो वह मुगल सल्तनत का प्रमुख टकसालनगर बन गया। शाहजहां के सिक्के विभिन्न शैली के हैं और सुलेखन के उत्कृष्ट नमूने हैं। औरंगजेब ने तख्त पर बैठते ही अपने सिक्कों पर कलमा का अंकन बंद करवा दिया। वह समझता था इस्लाम का यह महजबी वाक्य काफिरों से अपवित्र न हो जाए। तक से मुगल सिक्कों पर कलमा (ला इला लिल्लिल्लाह मुहम्मद उर्रसूलिल्लाह) को अंकित कराने की प्रथा सदा के लिए बंद हो गई। कलमा के स्थान पर नाम व पदवी है-मुहीउद्दीन मुहम्मद बादशाह आलमगीर या औरंगजेब बादशाह गाजी। पृष्ठभाग पर जुलूसी (राज्यारोहण-वर्ष) और टकसाल का नाम है। दक्कन पर विजय प्राप्त करके बीजापुर और गोलकुंडा पर कब्जा करने पर मुगल रूपया उन प्रदेशों में भी भलीभांति प्रचलित हो गया।
औरंगजेब के बाद मुगल बादशाहों की मुद्राओं का इतिहास बड़ा उलझा हुआ है। औरंगजेब के बाद, बढ़ती आपसी कलह के कारण, आर्थिक दशा बिगड़ती गई और मुद्रा-व्यवस्था पर भी उसका बड़ा असर पड़ा। बादशाह फर्रूख्सियर के समय टकसालघरों को किराए या लगान पर देने की प्रथा शुरू हुई। इस नीति के अंततः मुगल टकसालघरों पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। अंतिम मुगल सिक्का बहादुरशाह द्वितीय का मिला है।
Saturday, June 15, 2019
Soil of Delhi_दिल्ली की माटी की कहानी
15062019, दैनिक जागरण |
हर जगह की मिट्टी का अपना रंग होता है और हर रंग कुछ कहता है। अगर देश की राजधानी दिल्ली की बात करें तो दिल्ली की मिट्टी की उर्वरता श्रेणी की है। यहां की मिट्टी पर यमुना नदी, बाढ़ के पानी, पहाड़ी और दक्षिण पश्चिम दिशा से आने वाली वायु का प्रभाव पड़ा है। मिट्टी की बनावट पर इन विभिन्न प्रभावों के आधार पर दिल्ली चार भू-आकृतिक विभागों में वर्गीकृत है। खादर या नयी जलोढ़ मिट्टी, बांगर या पुरानी जलोढ़ मिट्टी, डाबर या निचाई वाले क्षेत्र और कोही या चट्टानी या पहाड़ी क्षेत्र।
महरौली और तुगलकाबाद के पास का दक्षिण भाग पहाड़ी है, जिसे कोही कहते हैं। यमुना के किनारे का निचाई वाला क्षेत्र खादर कहलाता है। पहाड़ी से उत्तर में तथा ग्रान्ड ट्रन्क रोड से पश्चिम में जो इलाका पड़ता है और जो इसे खादर से अलग करते हैं, वह समतल मैदान बांगर कहलाता है। नजफगढ़ के पास निचान है, जहां वर्षा के मौसम में पहाड़ी से पश्चिम की ओर का पानी एकत्र हो जाता है और उसमें नजफगढ़ झील बन जाती है। यहां की मिट्टी सख्त (कठोर) है और डाबर कहलाती है।
खादर क्षेत्रों की मिट्टीमिट्टियों में विशेष प्रकार की सतहें हैं। सबसे ऊपर की सतह मुलायम है और नीचे वह सख्त हो जाती है। ऊपर बाढ़ के द्वारा लाई गई चिकनी मिट्टी है और नीचे की सतह रेतीली है। आम तौर पर मिट्टी की मात्रा 13 से 17 प्रतिशत तक है और निचली सतहों पर 10 प्रतिशत से कम है। मिट्टी की संरचना मुख्य रूप से एक कणवाली या कमजोर विकसित कणीय है। औसत रूप से मिट्टी उपजाऊ है तथा प्रबन्ध के अच्छे उपायों से फसलों से काफी पैदावार ले जा सकती है। खादर की मिट्टी चार स्थानों पर पाई गई हैं-पल्ला, शाहदरा, गोकुलपुर और मदनपुर। जबकि अलीपुर की एक पांचवी प्रकार की मिट्टी भी है-जो हाल की तथा पुरानी जलोढ़ के बीच की है।
बांगर की मिट्टी (पुरानी जलोढ़)भू आकृतिक रूप से बांगर का इलाका यमुना से दूर है और दिल्ली का उत्तर पश्चिमी भाग है। यहां की अधिकांश जमीनों में, नहरों और कुंओं से सिंचाई की जाती है और थोड़े से क्षेत्र में वर्षा के जल से। खेती की जमीन में प्रायः खारी नमकीन मिट्टी भी मिलती है। मिट्टी में बहुत अधिक खारापन होने के कारण काफी बड़े क्षेत्र में खेती नहीं हो पाती। इस क्षेत्र में पांच प्रकार की मिट्टी वाले स्थान अलीपुर, घेवरा, कराला, लाडपुर और नजफगढ़ है। नजफगढ़ की मिट्टी ही ऐसी है जिसमें पानी बहुत कम होता है और जहां रेत के ढूह मौजूद है या जहां की मिट्टी रेतीली है और जहां बाढ़ भी नहीं आती।
डाबर इलाके की मिट्टी (निचाई वाला क्षेत्र)जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है-डाबर इलाके में वर्षा के दिनों में आम तौर पर बाढ़ आती है क्योंकि यहां जो केवल एक नाला (नजफगढ़ नाला) है वह बाढ़ का सारा पानी बाहर नहीं निकाल पाता। यह इलाका दिल्ली का दक्षिण पश्चिमी और पश्चिमी भाग है। आम तौर पर मिट्टी रेतीली दुमट है और कुछ गहराई पर भारी हो जाती है तथा पूर्व से पश्चिम की ओर हल्की होती जाती है। यहां की मिट्टी जैविक तत्व तथा नाइट्रोजन की दृष्टि से अच्छी नहीं है। इस इलाके में चार प्रकार की मिट्टी वाले स्थान है-नजफगढ़, पालम, शिकारपुर और लाडपुर।
कोही इलाके (पहाड़ी इलाके) की मिट्टीकोही इलाके की मिट्टी दिल्ली के क्वार्टजाइट या बालुकाश्मी चट्टानों से तथा छोटी नदियों के द्वारा बहाकर लाई गई स्थानीय मृदा से बनी है। मृदा गठन कहीं बलुई दुमट है, कहीं दुमट है। यहां भूमिगत जलस्तर काफी नीचा है, इसलिए सिंचाई बहुत बड़ी समस्या है। यहां सारी मिट्टी अवसादी हैं और आधार शैल के ऊपर दरदरी और उथली परंतु शेष प्रदेश में मूलतः जलोढ़ है।
Sunday, June 9, 2019
Prithviraj Chauhan Anniversary_पृथ्वीराज चौहान की 874वीं जयंती
हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की 874वीं जयंती शनिवार को मनाई गई। इस उपलक्ष्य में अखिल भारतीय रावत महासभा एव राज रावत राजपूत महासभा की राजधानी सर्कल सभा एवं प्रवासी राजस्थान वासियों ने लाडो सराय स्थित पिथौरागढ़ प्रांगण में पृथ्वीराज चौहान की प्रतिमा को माला पहनाई। संस्था के पदाधिकारियों ने पूजा के बाद उनकी वीरगाथा भी सुनाई। कार्यक्रम के संरक्षक रक्षा मंत्रलय से रिटायर सहायक निदेशक देवी सिंह चौहान, शंकर सिंह चौहान, दिल्ली पुलिस अधिकारी संतोष सिंह,सरवन सिह काबरा, पूरन सिंह, रामा सिंह, इंदर सिंह, मोहन सिंह, सीआरपीएफ अधिकारी लक्ष्मण सिंह, आईबी से नारायण सिंह, दिल्ली सरकार के अधिकारी नलिन चौहान, महिला प्रकोष्ठ से मंजुला ठाकुर, अल्पना चौहान, अर्चना ठाकुर, अनन्या चौहान, ¨शजनी पुंडिर शामिल रहे।
सभा के संरक्षक देवी लाल सिंह चौहान ने पृथ्वीराज के जीवन चरित्र व ऐतिहासिक उपलब्धियों पर बात की। शंकर सिंह चौहान, संतोष सिंह, मोहन सिंह सूरजपुरा व इंद्र सिंह ने कहा कि हर व्यक्ति को पृथ्वीराज चौहान से प्रेरणा लेनी चाहिए। नलिन चौहान व अनंत चौहान ने युवाओं को जीवन में संघर्ष कर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में बच्चे भी शामिल हुए।
Saturday, June 8, 2019
Lalkot to Rai Pithora_First Delhi_लाल कोट से राय पिथौरा वाली पहली दिल्ली
दैनिक जागरण, 08062019 |
किला राय पिथौरा को दिल्ली के सात शहरों में प्रथम होने का गौरव हासिल है, जिसका निर्माण 1180-1186 के बीच में हुआ और इसका संबंध महान राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान से है। दिल्ली का अंतिम हिन्दू राज परिवार रायपिथौरा का था। उल्लेखनीय है कि सोमेश्वर पुत्र पृथ्वीराज चौहान ने अंतिम हिंदू सम्राट के रूप में दिल्ली में सुदृढ़ केंद्रीय सत्ता की स्थापना की।
विग्रहराज के पौत्र पृथ्वीराज तृतीय ने, जिसे राय पिथौरा के नाम से जाना जाता है और जो मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दू प्रतिरोध की कहानियों का लोकप्रिय नायक रहे हैं, लालकोट का विस्तार उसके आसपास पत्थरों की विशाल प्राचीरें और द्वार बना कर किया। यह दिल्ली का प्रथम नगर किला राय पिथौरा के नाम से विख्यात है। रायपिथौरा की दिल्ली के बारह दरवाजे थे, लेकिन अमीर तैमूर ने इनकी संख्या दस बताई है। इनमें से कुछ बाहर की तरफ खुलते थे और कुछ भीतर की तरफ। महरौली से प्रेस एन्कलेव तक राय पिथौरा के किले के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं।
"दिल्लीःप्राचीन इतिहास" पुस्तक में उपिंदर सिंह लिखती है कि दिल्ली का सर्वाधिक प्राचीन किला लालकोट था जिसे तोमर शासक अनंगपाल द्वितीय ने ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य बनवाया था। इसकी ऊंची दीवारें, विशाल दुर्ग और प्रवेश द्वार सभी ध्वस्त हो चुके हैं और मलबों से जहां-तहां ढके हुए हैं। इसके प्राचीर की दीवार की परिधि लगभग 36 किलोमीटर थी, जो 3 से 9 मीटर की असमान मोटाई की थी। दुर्ग का कुल क्षेत्रफल 763875 वर्ग मीटर था। महरौली स्थित लौह स्तंभ शिलालेख से पता चलता है कि अनंगपाल द्वितीय ने दिल्ली को बसाया और लालकोट को 1052 ईस्वी तथा 1060 ईस्वी के बीच बनवाया। गढ़वाल और कुमायूं क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं, जिसके अनुसार मार्गशीर्ष महीने के दसवें दिन 1117 संवत! या 1060 ईस्वी में अनंगपाल ने दिल्ली का किला बनवाया तथा इसका नाम लालकोट रखा।
राजा विग्रहराज चतुर्थ (1153-64) ने जो शाकंभरी आधुनिक सांभर के चाहमान या चौहान वंश के विशाल देव या बीसल देव के नाम से जाना जाता है, राज्य भार संभालने के तुरंत बाद शायद तोमरों से दिल्ली छीन ली थी। अशोक के स्तम्भ पर अंकित ईस्वी सन् 1163 या 1164 के एक लेख में, जो इस समय कोटला फिरोजशाह में है, विन्ध्य और हिमालय के बीच की भूमि पर विग्रहराज के आधिपत्य का उल्लेख है। उदयपुर जिले के बिजोलिया के एक अभिलेख में उसके द्वारा दिल्ली पर अधिकार किए जाने का उल्लेख है जबकि अन्य अभिलेखों में दिल्ली पर तोमरों और चौहान द्वारा क्रमशः शासन किए जाने का उल्लेख है। जबकि दिल्ली में तोमर शासन काल के स्मारक चिन्हों को अनंगपुर गांव के किले तथा पत्थर निर्मित बांध तथा लालकोट के दुर्ग के रूप में देखा जा सकता है। तोमर शासन के बाद चौहान शासन की शुरूआत हुई और लालकोट किले को विस्तारित किया गया।
दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल और पूर्व केंद्रीय मंत्री जगमोहन अपनी पुस्तक "ट्रम्पस एंड ट्रेजिडिज ऑफ़ नाइन्थ दिल्ली" में लिखते हैं कि जब पृथ्वीराज चौहान, जिसे राय पिथौरा के नाम से भी जाना जाता है, राजा बना तो उसने लालकोट के विस्तार करते हुए एक विशाल किला बनवाया। वास्तविकता में लालकोट-किला राय पिथौरा पहली दिल्ली है न कि एक पृथक अस्तित्व वाला लालकोट।
तोमरों और चौहान ने लाल कोट के भीतर अनेक मन्दिरों का निर्माण किया और इन सभी को मुसलमानों ने गिरा दिया और उनके पत्थरों का मुख्यतः कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद के लिए पुनः इस्तेमाल किया गया। अमीर खुसरो ने भी अनंगपाल के महल का वर्णन किया है तथा "आइन-ए-अकबरी" और कुछ अन्य स्त्रोतों में तो स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि कुतुबद्दीन तथा इल्तुतमिश ने राय पिथौरा के दुर्ग को ही अपना आवास बनाया था जो निश्चित रूप से लालकोट ही है।
जब गोर के मुहम्मद बिन साम ने भारत पर आक्रमण किया उस समय दिल्ली पर पृथ्वीराज राज्य कर रहे थे। वर्ष 1191 ईस्वी करनाल के निकट तरावड़ी (तराइन) की लड़ाई के मैदान में पृथ्वीराज चौहान के अधीन राजपूतों के राज्य संघ ने कम से कम एक बार तो इस आक्रमण को विफल कर ही दिया था। परन्तु अगले ही वर्ष 1192 ईस्वी में उसी युद्ध क्षेत्र में पृथ्वीराज को बुरी तरह हरा दिया और वे मारे गए।
लालकोट
लालकोट यानी अनंगपाल तोमर निर्मित आज की दिल्ली का पहली किलेदार बसावट। लालकोट का परकोटे की दीवार अधम खां के मकबरे से आरंभ होकर उत्तर पश्चिम दिशा की ओर बढ़ती है। कुछ दूरी के बाद यह दीवार उत्तर की ओर मुड़ती है और यही पर रणजीत दरवाजे के अवशेष स्थित हैं। इसके आगे दीवार उत्तर पूर्व की ओर मुड़ती है। उसके बाद दीवार सोहन बुर्ज नामक गढ़ तक पूर्व में घूमती है फिर यह दक्षिण की तरफ मुड़ती है। ये दीवारें एक खाई से घिरी हुईं हैं। आज इनको देखने से पता चलता है कि इन दीवारों की अपार क्षति हुई हैं। दीवार के अनेक हिस्सों में टूटन है, जिस कारण से उसका मूल स्वरूप पूरी तरह नष्ट हो गया है।
लालकोट उत्खनन
लालकोट का उत्खनन, महरौली में योगमाया मंदिर के पीछे किया गया। योगमाया मंदिर के दरवाजे के रास्ते से प्राचीन मंदिर की ओर कुतुब परिसर के बस स्टैंड के सामने करीब 50 मीटर उत्तर पश्चिम दिशा की ओर इसे देखा जा सकता है। पहले यहां एक किला था जबकि अब यहां केवल खंडहर के ढेर हैं। ये दिल्ली में तोमर वंश के भवनों के अवशेष हैं। ये उत्खनन के खड्ड बड़े क्षेत्र में फैले हुए हैं और इनसे लालकोट के एक महल के अवशेषों का पता चला है। 11 शताब्दी के इन अवशेषों का गंभीर क्षरण हुआ है। अधिसंख्य उत्खनित अवशेष जैसे काॅलमों (स्तम्भों) पर हुआ नक्काशीदार प्लास्टर कार्य उपेक्षा और ध्वंस के कारण नष्ट हो गया है।
किला राय पिथौरा
पृथ्वीराज ने लालकोट का विस्तार उसके आसपास विशाल प्राचीरें बनाकर किया था। यह विस्तारित नगर, जिसका दक्षिण-पश्चिमी आधार लालकोट है, किला राय पिथौरा के रूप में जाना जाता है और यही दिल्ली के तथाकथित सात नगरों में से पहला है। लालकोट के समान इसकी प्राचीरों को काटती हुई दिल्ली-कुतुब और बदरपुर-कुतुब सड़कें गुजरती हैं। जैसे ही दिल्ली की ओर से अधिचिनी गांव से आगे बढ़ते है, सड़क के दोनों ओर किला राय पिथौरा की प्राचीरें, जिन्हें सड़क काटती हुई जाती है, देखी जा सकती है। परन्तु इन प्राचीरों का विस्तार का दृश्य कुतुबमीनार से बहुत अच्छी तरह देखा जा सकता है।
अनगढ़े पत्थरों से बनी ये प्राचीरें बहुत हद तक मलबे के ढेर से ढकी हुई हैं और इसका पूरा घेरा अभी खोजा नहीं जा सका है। ये मोटाई में 5 से 6 मीटर तक मोटी है और कुछ किनारों पर 18 मीटर तक ऊंची है और उनके बाहर की ओर चौड़ी खन्दक है। तैमूर लंग के अनुसार, इसमें तेरह द्वार थे। द्वारों में से जो अब भी मौजूद हैं, वे हैं-हौजरानी, बरका और बदायूं द्वार। इनमें से अंतिम द्वार के बारे में इब्नबतूता ने उल्लेख किया है और संभवतः यह शहर का मुख्य प्रवेश द्वार था।
आज किला राय पिथौरा का विस्तार महरौली में लालकोट के उत्तर तक और महरौली की मानवीय बसावट तक देखा जा सकता है। किसी समय में एक किला रही इस इमारत के अब खंडहर ही बचे हैं। इस किले की चहारदीवारी खाई के निम्न स्तर से 20 मीटर तक की ऊंची और 10 मीटर तक चौड़ी है। यह चहारदीवारी लालकोट के फतेह बुर्ज से उत्तर दिशा की ओर बढ़ती है।
वर्तमान में इतिहास की स्थापना
जगमोहन के केंद्रीय शहरी विकास मंत्री के कार्यकाल से पहले किला राय पिथौरा, जो कि विशाल उपेक्षित टीले की तरह था, का इसके आसपास रहने वाले झुग्गी वासियों के लिए शौचालय के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। जगमोहन ने अपने प्रयासों से दिल्ली विकास प्राधिकरण को सक्रिय करके विकास योजनाओं को बनवाकर इसके संरक्षण और विकास कार्य को क्रियान्वित किया। उस समय टीले का छोटा हिस्सा ही संरक्षित था। जगमोहन के पर्यटन एंव संस्कृति मंत्री बनने के बाद इस पूरे टीले को संरक्षित करने के साथ इसकी विस्तृत खुदाई का प्रबंध भी किया गया। आज आप किला राय पिथौरा के खुदे परकोटे और दीवालों पर उनके शानदार अवशेष के रूप में देख सकते हैं, जिसकी मध्यकालीन मोहकता रात में रोशनी पड़ते ही कई गुना बढ़ जाती है।
उसी समय यहां निर्मित संरक्षण केंद्र भवन (यह दिल्ली विकास प्राधिकरण के क़ुतुब गोल्फ कोर्स, लाडो सराय से सटा और मालवीय नगर मेट्रो स्टेशन से पीवीआर सिनेमा की ओर निकलने वाले बने निकास द्वार के दाई ओर से कुछ मीटर की दूरी पर मुख्य सड़क पर ही स्थित है) में पृथ्वीराज चौहानकी एक भव्य मूर्ति स्थापित की गई, जिसके चारों ओर सुंदर हरे-भरे पार्क विकसित किए गए हैं। संरक्षण केंद्र रचनात्मक पुर्नरूद्वार का एक शानदार उदाहरण है, जहां परंपरा व इतिहास को नगरीय व्यवस्था में पिरोया गया है, ताकि भीड़भाड़ व लगातार विस्तार होते शहर में ताजगी व सुकून मिल सके। डीडीए ने २००२ में इस संरक्षण पार्क को विकसित करके भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सौंप दिया था।
दिल्ली और पृथ्वीराज रासो
दिल्ली के संपर्क में पृृथ्वीराज रासो एवं उसके कवि चंद (चंदरबरदायी) का विशेष महत्व है। चंदबरदायी दिल्लीश्वर पृृथ्वीराज चौहान के समकालीन होने का तथ्य असंदिग्ध है। "पृृथ्वीराज रासो" एक विशाल प्रबंध काव्य है। हिंदी साहित्य में इसे पहला महाकाव्य होने का भी श्रेय प्राप्त है।
चंद-कृत पृृथ्वीराज रासो का संबंध दिल्ली के केंद्र से है। विक्रमी संवत् की बारहवीं शताब्दी से दिल्ली मंडल की अर्थात् योगिनीपुर, मिहिरावली, अरावली-उपत्यका-स्थित विभिन्न अंचलों और बांगड़ प्रदेश के विभिन्न स्थलों का जितना विशद और प्रत्यक्ष चित्रण इस ग्रंथ में है उतना अन्य किसी समकालीन हिंदी ग्रन्थ में नहीं मिलता।
चंदरबरदायी के संबंध में प्रसिद्ध है कि वे दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के बाल सखा, परामर्शदाता एवं राजकवि थे। पृथ्वीराज के भाट कवि चंद ने उन्हें जोगिनीपुर नरेश, ढिल्लयपुर नरेश (दिल्लीश्वर) आदि के नाम से उल्लखित किया है।थरहर धर ढिल्लीपुर कंपिउ।
चंदरबरदायी के संबंध में प्रसिद्ध है कि वे दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के बाल सखा, परामर्शदाता एवं राजकवि थे। पृथ्वीराज के भाट कवि चंद ने उन्हें जोगिनीपुर नरेश, ढिल्लयपुर नरेश (दिल्लीश्वर) आदि के नाम से उल्लखित किया है।थरहर धर ढिल्लीपुर कंपिउ।
Monday, June 3, 2019
Sunday, June 2, 2019
Ram_Gandhi_गांधी_राम
सार्वजनिक सभा
गुमिया में संथालों के बीच भाषण के अंत में गांधी जी कहते हैं, आपको पूरी आस्था व भक्ति के साथ राम नाम लेना
सीखना चाहिये । राम नाम पढ़ने पर आप तुलसीदास से सीखेंगे कि इस दिए नाम की
आध्यात्मिक शक्ति क्या है । आप पूछ सकते हैं कि
मैंने ईश्वर के अनेक नामों में से केवल राम नाम को ही क्यों जपने के लिए कहा यह सच
है कि ईश्वर के नाम अनेक हैं किसी नाम वृक्ष की पत्तियों से अधिक है और मैं आपको
गॉड शब्द का प्रयोग करने के लिए भी कह सकता था लेकिन यहां के परिवेश में आपके लिये
उसका क्या अर्थ होगा गॉड शब्द के साथ यहां आपकी कौन सी भावनायें जुड़ी हुई हैं।
गॉड शब्द का जप करते समय आपको हृदय में उसे महसूस भी हो, उसके लिये मुझे आपको थोडी अंग्रेजी पढ़नी होगी।
मुझे विदेशों की जनता के विचार और उनकी मान्यताओं से भी आपको परिचित करना होगा, परंतु राम नाम जपने के लिये कहते हुए मैं आपको
एक एक ऐसा नाम दे रहा हूँ। जिसकी पूजा इस देश की जनता न जाने कितनी पीढि़यों से
करती आ रही है, यह एक ऐसा नाम है जो हमारे यहां के पशुओं, पक्षियों, वृक्षों और पाषाण
तक के लिए हजारों हजारों वर्षों से परिचित रहा है।
आप अहिल्या कि कथा जानते हैं पर
मैं देख रहा हूँ कि आप नहीं जानते पर, रामायण का पाठ करने से आपको पता चल जायेगा कि राम के स्पर्श
से ही कैसे सड़क के किनारे पड़ा। एक पत्थर प्राण युक्त सजीव हो गया था। राम के
नाम लेना आपको इतनी भक्ति व मधुरता के साथ लेना सीखना चाहिये कि उसके सुनने के
लिये पक्षी अपनी करलव बन्द कर दें उस नाम के एक संगीत पर मुग्ध होकर वृक्ष अपने
पत्र आपकी ओर झुका दें, जब आप ऐसा करने में
समर्थ हो जायेंगे तो मैं आपसे कहता हूँ कि मैं बम्बई से पैदल चल कर एक तीर्थ
यात्री कि भांति आपको सुनने आऊॅंगा। उसके मधुरिमा पग नाम में ऐसी शक्ति निहित है जो
हमारी सारी बुराईयों के लिए रामबाण है।
स्त्रोत:संन्थाल लोगों के बीच (पृष्ठ 291 धर्म नीति दर्शन) 11/5/1934
Saturday, June 1, 2019
Historical Rocks and JNU's natural history_चट्टानों के बरअक्स जेेएनयू का प्राकृतिक इतिहास
01062019, दैनिक जागरण |
अगर आप एक खोजी दृष्टि रखते है तो अनेक बार बसी और उजड़ी दिल्ली एक उपयुक्त शहर है। जहां कई ऐतिहासिक बसावटों वाले शहरों को अपने में समेटे हुए आज की दिल्ली में हर दिन एक नया मिथक, किंवदंती या ऐतिहासिक तथ्य सामने आता है। देश की राजधानी के दक्षिण में एक चट्टानी इलाके में स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेेएनयू) का इतिहास कुल जमा 53 वर्षों का है। जबकि विश्वविद्यालय में चट्टानें एक अलग प्राकृतिक विरासत की कहानी की साक्षी है।उल्लेखनीय है कि ये चट्टानें महाभारत में वर्णित सबसे प्रसिद्ध नगर इंद्रप्रस्थ, जिसे दिल्ली का प्राचीनतम नगर माना जाता है, से भी पुरानी है। अगर भूगोल की भाषा में कहे तो ये चट्टानें पाषाण युग या हिमयुग से भी प्राचीन है। अगर सटीक रूप से विश्लेषित करें तो ये चट्टानें पूर्व-केंब्रियन समय (करीब 2.4 करोड़ साल पुरानी) की है। भारत में पूर्व-केंब्रियन काल में छह वलनक प्रवर्तन के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें से दिल्ली की ये चट्टानें भी हैं। दूसरे शब्दों में, “कैम्ब्रियन” का अर्थ है पृथ्वी के इतिहास का आरंभ। यहां मौैजूद चट्टानें, क्वार्टजाइट किस्म की मेटामॉर्फिक चट्टानें हैं जो कि अरावली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा हैं। दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में गिनी जाने वाली अरावली का आविर्भाव पृथ्वी के इतिहास के प्रारंभिक बिंदु से भी पहले का है।
"सेलिब्रेटिंग दिल्ली" पुस्तक में उपिन्दर सिंह लिखती है कि बी. एम. पांडे ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में अचेउलियन कालखंड का पत्थर का एक औजार मिला था। वही मुदित त्रिवेदी नामक छात्र ने जेएनयू परिसर के प्रागैतिहासिक की खोज में कई पुरापाषाण, माइक्रोलिथ औजारों सहित और दूसरे मनोरंजक अवशेष ढूंढ निकाले। तमाम दावों और प्रति-दावों के मध्य इस बात में तनिक भी संशय नहीं है कि ये सभी चट्टानें पूर्व-ऐतिहासिक हैं। इस तरह, जेेएनयू की चट्टानों का गौरवशाली अतीत साक्ष्य रूप में स्वयंसिद्ध है।
निर्जन स्थान पर होने के कारण इन चट्टानों के आसपास मानवीय बसावट नहीं बसी पर यह परकोटे वाली दिल्ली तक पहुंचने के लिए एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग का भाग थी। तब के व्यापारियों के लिए इन पहाड़ियों से होकर गुजरने वाले सात मार्ग थे, जिनमें से एक इस क्षेत्र से होकर गुजरता था। ध्यान देने वाली बात यह है कि जेएनयू परिसर के आसपास के सभी गाँवों के साथ "सराय" शब्द का प्रत्यय लगा है जैसे बेर सराय, कटवारिया सराय। इन अलग तरह के घरों को एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाया गया था। ये प्रस्तर आवास, धनी व्यापारियों के लिए सुरक्षा के साथ एक आराम घर का भी काम करते थे।
जेेएनयू प्रशासन ने 1970 के दशक के प्रारंभ में इस क्षेत्र की भूमि का अधिग्रहण किया। पर उससे कहीं पहले यह स्थान लंबे समय तक प्रसिद्ध लाल बदरपुर रेत और पत्थरों के अवैध खनन के लिए जाना जाता था। तब विश्वविद्यालय में कई स्थानों पर जमीन में गहरे गड्डे हुआ करते थे जो कि यहां होने वाली खनन गतिविधियों का जीता-जागता प्रमाण थे। इनमें से अधिकतर को खास किस्म की राख से भरकर समतल किया गया। फिर भी आज कुछ गड्डे दिख जाते हैं। वैसे यहां जेएनयू परिसर में पाषाण युग के परिष्कृत उपकरण और लगभग 500 ईसा पूर्व की अवधि के चित्रात्मक उत्कीर्णन पाए गए हैं। इन खोजों के निष्कर्ष की प्रामाणिकता के बारे में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट प्रतीक्षित है।
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