Saturday, June 8, 2019

Lalkot to Rai Pithora_First Delhi_लाल कोट से राय पिथौरा वाली पहली दिल्ली

दैनिक जागरण, 08062019 




किला राय पिथौरा को दिल्ली के सात शहरों में प्रथम होने का गौरव हासिल है, जिसका निर्माण 1180-1186 के बीच में हुआ और इसका संबंध महान राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान  से है। दिल्ली का अंतिम हिन्दू राज परिवार रायपिथौरा का था। उल्लेखनीय है कि सोमेश्वर पुत्र पृथ्वीराज चौहान  ने अंतिम हिंदू सम्राट के रूप में दिल्ली में सुदृढ़ केंद्रीय सत्ता की स्थापना की।

विग्रहराज के पौत्र पृथ्वीराज तृतीय ने, जिसे राय पिथौरा के नाम से जाना जाता है और जो मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दू प्रतिरोध की कहानियों का लोकप्रिय नायक रहे हैं, लालकोट का विस्तार उसके आसपास पत्थरों की विशाल प्राचीरें और द्वार बना कर किया। यह दिल्ली का प्रथम नगर किला राय पिथौरा के नाम से विख्यात है। रायपिथौरा की दिल्ली के बारह दरवाजे थे, लेकिन अमीर तैमूर ने इनकी संख्या दस बताई है। इनमें से कुछ बाहर की तरफ खुलते थे और कुछ भीतर की तरफ। महरौली से प्रेस एन्कलेव तक राय पिथौरा के किले के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। 

"दिल्लीःप्राचीन इतिहास" पुस्तक में उपिंदर सिंह लिखती है कि दिल्ली का सर्वाधिक प्राचीन किला लालकोट था जिसे तोमर शासक अनंगपाल द्वितीय ने ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य बनवाया था। इसकी ऊंची दीवारें, विशाल दुर्ग और प्रवेश द्वार सभी ध्वस्त हो चुके हैं और मलबों से जहां-तहां ढके हुए हैं। इसके प्राचीर की दीवार की परिधि लगभग 36 किलोमीटर थी, जो 3 से 9 मीटर की असमान मोटाई की थी। दुर्ग का कुल क्षेत्रफल 763875 वर्ग मीटर था। महरौली स्थित लौह स्तंभ शिलालेख से पता चलता है कि अनंगपाल द्वितीय ने दिल्ली को बसाया और लालकोट को 1052 ईस्वी तथा 1060 ईस्वी के बीच बनवाया। गढ़वाल और कुमायूं क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं, जिसके अनुसार मार्गशीर्ष महीने के दसवें दिन 1117 संवत! या 1060 ईस्वी में अनंगपाल ने दिल्ली का किला बनवाया तथा इसका नाम लालकोट रखा। 

राजा विग्रहराज चतुर्थ (1153-64) ने जो शाकंभरी आधुनिक सांभर के चाहमान या चौहान वंश के विशाल देव या बीसल देव के नाम से जाना जाता है, राज्य भार संभालने के तुरंत बाद शायद तोमरों से दिल्ली छीन ली थी। अशोक के स्तम्भ पर अंकित ईस्वी सन् 1163 या 1164 के एक लेख में, जो इस समय कोटला फिरोजशाह में है, विन्ध्य और हिमालय के बीच की भूमि पर विग्रहराज के आधिपत्य का उल्लेख है। उदयपुर जिले के बिजोलिया के एक अभिलेख में उसके द्वारा दिल्ली पर अधिकार किए जाने का उल्लेख है जबकि अन्य अभिलेखों में दिल्ली पर तोमरों और  चौहान  द्वारा क्रमशः शासन किए जाने का उल्लेख है। जबकि दिल्ली में तोमर शासन काल के स्मारक चिन्हों को अनंगपुर गांव के किले तथा पत्थर निर्मित बांध तथा लालकोट के दुर्ग के रूप में देखा जा सकता है। तोमर शासन के बाद चौहान शासन की शुरूआत हुई और लालकोट किले को विस्तारित किया गया। 

दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल और पूर्व केंद्रीय मंत्री जगमोहन अपनी पुस्तक "ट्रम्पस एंड ट्रेजिडिज ऑफ़ नाइन्थ दिल्ली" में लिखते हैं कि जब पृथ्वीराज चौहान, जिसे राय पिथौरा के नाम से भी जाना जाता है, राजा बना तो उसने लालकोट के विस्तार करते हुए एक विशाल किला बनवाया। वास्तविकता में लालकोट-किला राय पिथौरा पहली दिल्ली है न कि एक पृथक अस्तित्व वाला लालकोट।

तोमरों और चौहान ने लाल कोट के भीतर अनेक मन्दिरों का निर्माण किया और इन सभी को मुसलमानों ने गिरा दिया और उनके पत्थरों का मुख्यतः कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद के लिए पुनः इस्तेमाल किया गया। अमीर खुसरो ने भी अनंगपाल के महल का वर्णन किया है तथा "आइन-ए-अकबरी" और कुछ अन्य स्त्रोतों में तो स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि कुतुबद्दीन तथा इल्तुतमिश ने राय पिथौरा के दुर्ग को ही अपना आवास बनाया था जो निश्चित रूप से लालकोट ही है। 

जब गोर के मुहम्मद बिन साम ने भारत पर आक्रमण किया उस समय दिल्ली पर पृथ्वीराज राज्य कर रहे थे। वर्ष 1191 ईस्वी करनाल के निकट तरावड़ी (तराइन) की लड़ाई के मैदान में पृथ्वीराज चौहान के अधीन राजपूतों के राज्य संघ ने कम से कम एक बार तो इस आक्रमण को विफल कर ही दिया था। परन्तु अगले ही वर्ष 1192 ईस्वी में उसी युद्ध क्षेत्र में पृथ्वीराज को बुरी तरह हरा दिया और वे मारे गए। 

लालकोट
लालकोट यानी अनंगपाल तोमर निर्मित आज की दिल्ली का पहली किलेदार बसावट। लालकोट का परकोटे की दीवार अधम खां के मकबरे से आरंभ होकर उत्तर पश्चिम दिशा की ओर बढ़ती है। कुछ दूरी के बाद यह दीवार उत्तर की ओर मुड़ती है और यही पर रणजीत दरवाजे के अवशेष स्थित हैं। इसके आगे दीवार उत्तर पूर्व की ओर मुड़ती है। उसके बाद दीवार सोहन बुर्ज नामक गढ़ तक पूर्व में घूमती है फिर यह दक्षिण की तरफ मुड़ती है। ये दीवारें एक खाई से घिरी हुईं हैं। आज इनको देखने से पता चलता है कि इन दीवारों की अपार क्षति हुई हैं। दीवार के अनेक हिस्सों में टूटन है, जिस कारण से उसका मूल स्वरूप पूरी तरह नष्ट हो गया है। 

लालकोट उत्खनन 
लालकोट का उत्खनन, महरौली में योगमाया मंदिर के पीछे किया गया। योगमाया मंदिर के दरवाजे के रास्ते से प्राचीन मंदिर की ओर कुतुब परिसर के बस स्टैंड के सामने करीब 50 मीटर उत्तर पश्चिम दिशा की ओर इसे देखा जा सकता है। पहले यहां एक किला था जबकि अब यहां केवल खंडहर के ढेर हैं। ये दिल्ली में तोमर वंश के भवनों के अवशेष हैं। ये उत्खनन के खड्ड बड़े क्षेत्र में फैले हुए हैं और इनसे लालकोट के एक महल के अवशेषों का पता चला है। 11 शताब्दी के इन अवशेषों का गंभीर क्षरण हुआ है। अधिसंख्य उत्खनित अवशेष जैसे काॅलमों (स्तम्भों) पर हुआ नक्काशीदार प्लास्टर कार्य उपेक्षा और ध्वंस के कारण नष्ट हो गया है। 

किला राय पिथौरा
पृथ्वीराज ने लालकोट का विस्तार उसके आसपास विशाल प्राचीरें बनाकर किया था। यह विस्तारित नगर, जिसका दक्षिण-पश्चिमी आधार लालकोट है, किला राय पिथौरा के रूप में जाना जाता है और यही दिल्ली के तथाकथित सात नगरों में से पहला है। लालकोट के समान इसकी प्राचीरों को काटती हुई दिल्ली-कुतुब और बदरपुर-कुतुब सड़कें गुजरती हैं। जैसे ही दिल्ली की ओर से अधिचिनी गांव से आगे बढ़ते है, सड़क के दोनों ओर किला राय पिथौरा की प्राचीरें, जिन्हें सड़क काटती हुई जाती है, देखी जा सकती है। परन्तु इन प्राचीरों का विस्तार का दृश्य कुतुबमीनार से बहुत अच्छी तरह देखा जा सकता है।
अनगढ़े पत्थरों से बनी ये प्राचीरें बहुत हद तक मलबे के ढेर से ढकी हुई हैं और इसका पूरा घेरा अभी खोजा नहीं जा सका है। ये मोटाई में 5 से 6 मीटर तक मोटी है और कुछ किनारों पर 18 मीटर तक ऊंची है और उनके बाहर की ओर चौड़ी खन्दक है। तैमूर लंग के अनुसार, इसमें तेरह द्वार थे। द्वारों में से जो अब भी मौजूद हैं, वे हैं-हौजरानी, बरका और बदायूं द्वार। इनमें से अंतिम द्वार के बारे में इब्नबतूता ने उल्लेख किया है और संभवतः यह शहर का मुख्य प्रवेश द्वार था। 

आज किला राय पिथौरा का विस्तार महरौली में लालकोट के उत्तर तक और महरौली की मानवीय बसावट तक देखा जा सकता है। किसी समय में एक किला रही इस इमारत के अब खंडहर ही बचे हैं। इस किले की  चहारदीवारी खाई के निम्न स्तर से 20 मीटर तक की ऊंची और 10 मीटर तक चौड़ी है। यह चहारदीवारी लालकोट के फतेह बुर्ज से उत्तर दिशा की ओर बढ़ती है। 

वर्तमान में इतिहास की स्थापना
जगमोहन के केंद्रीय शहरी विकास मंत्री के कार्यकाल से पहले किला राय पिथौरा, जो कि विशाल उपेक्षित टीले की तरह था, का इसके आसपास रहने वाले झुग्गी वासियों के लिए शौचालय के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। जगमोहन ने अपने प्रयासों से दिल्ली विकास प्राधिकरण को सक्रिय करके विकास योजनाओं को बनवाकर इसके संरक्षण और विकास कार्य को क्रियान्वित किया। उस समय टीले का छोटा हिस्सा ही संरक्षित था। जगमोहन के पर्यटन एंव संस्कृति मंत्री बनने के बाद इस पूरे टीले को संरक्षित करने के साथ इसकी विस्तृत खुदाई का प्रबंध भी किया गया। आज आप किला राय पिथौरा के खुदे परकोटे और दीवालों पर उनके शानदार अवशेष के रूप में देख सकते हैं, जिसकी मध्यकालीन मोहकता रात में रोशनी पड़ते ही कई गुना बढ़ जाती है। 
उसी समय यहां निर्मित संरक्षण केंद्र भवन (यह दिल्ली विकास प्राधिकरण के क़ुतुब गोल्फ कोर्स, लाडो सराय से सटा और मालवीय नगर मेट्रो स्टेशन से पीवीआर सिनेमा की ओर निकलने वाले बने निकास द्वार के दाई ओर से कुछ मीटर की दूरी पर मुख्य सड़क पर ही स्थित है) में पृथ्वीराज चौहानकी एक भव्य मूर्ति स्थापित की गई, जिसके चारों ओर सुंदर हरे-भरे पार्क विकसित किए गए हैं। संरक्षण केंद्र रचनात्मक पुर्नरूद्वार का एक शानदार उदाहरण है, जहां परंपरा व इतिहास को नगरीय व्यवस्था में पिरोया गया है, ताकि भीड़भाड़ व लगातार विस्तार होते शहर में ताजगी व सुकून मिल सके। डीडीए ने २००२ में इस संरक्षण पार्क को विकसित करके भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सौंप दिया था।

दिल्ली और पृथ्वीराज रासो 
दिल्ली के संपर्क में पृृथ्वीराज रासो एवं उसके कवि चंद (चंदरबरदायी) का विशेष महत्व है। चंदबरदायी दिल्लीश्वर पृृथ्वीराज चौहान के समकालीन होने का तथ्य असंदिग्ध है। "पृृथ्वीराज रासो" एक विशाल प्रबंध काव्य है। हिंदी साहित्य में इसे पहला महाकाव्य होने का भी श्रेय प्राप्त है।

चंद-कृत पृृथ्वीराज रासो का संबंध दिल्ली के केंद्र से है। विक्रमी संवत् की बारहवीं शताब्दी से दिल्ली मंडल की अर्थात् योगिनीपुर, मिहिरावली, अरावली-उपत्यका-स्थित विभिन्न अंचलों और बांगड़ प्रदेश के विभिन्न स्थलों का जितना विशद और प्रत्यक्ष चित्रण इस ग्रंथ में है उतना अन्य किसी समकालीन हिंदी ग्रन्थ में नहीं मिलता। 


चंदरबरदायी के संबंध में प्रसिद्ध है कि वे दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के बाल सखा, परामर्शदाता एवं राजकवि थे। पृथ्वीराज के भाट कवि चंद ने उन्हें जोगिनीपुर नरेश, ढिल्लयपुर नरेश (दिल्लीश्वर) आदि के नाम से उल्लखित किया है।थरहर धर ढिल्लीपुर कंपिउ।

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