Tuesday, June 18, 2019

History of Delhi through Coins_सिक्कों की जुबानी, दिल्ली की कहानी

देहलीवाल



इतिहास को जानने में पुरातात्विक साक्ष्यों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जिसे सिक्के, अभिलेख, स्मारक, भवन, मूर्तियां और चित्रकला के माध्यम से जाना जा सकता है। किसी भी देश के सिक्कों के प्रचलन के इतिहास से उसके अतीत के विषय में प्रामाणिक जानकारी मिलती है। सिक्कों की छाप से न केवल बीते समय की प्रगति बल्कि तत्कालीन प्रौद्योगिकी और कला-कौशल के विकास का पता चलता है। सिक्के अपने दौर की राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्रियाकलापों के संवाद के साधन के रूप में एक ठोस साक्ष्य का प्रतीक है। भिन्न कालखंडों के सिक्कों के समग्र अध्ययन से पूरे देश की संस्कृति और सिद्धांतों के क्रमिक विकास की एक पूरी तस्वीर नजर आती है।
दिल्ली के पुराने किले की पूर्वी दीवार के पास 1969-1973 के काल में दूसरी बार पुरातात्विक खनन में मिले मृदभांड, टेराकोटा (पकी मिटटी की) की यक्ष यक्षियों की छोटी प्रतिमाएँ, लिपि वाली मुद्राएँ किले के संग्रहालय में रखी हैं। मौर्य काल (३०० वर्ष ईसापूर्व) से लेकर मुगलों के आरंभिक दौर तक इस क्षेत्र में लगातार मानवीय बसावट रहने का तथ्य प्रमाणित हुआ है। मौर्यकाल में सारे देश में चांदी के जो पंचमार्क सिक्के मगध-मौर्य श्रेणी के सिक्के कहलाते थे। इन सिक्कों के पुरोभाग पर पांच चिन्ह या लांछन देखने को मिलते हैं, जो विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों के रूपों में हैं। कौटिल्य ने टकसाल के अधिकारी को “लक्षणाध्यक्ष” और सिक्कों की समय समय पर जांच पड़ताल करने वाले अधिकारी को “रूपदर्शक” कहा है। मौर्यकाल में सिक्के शासन की ओर से ही जारी किए जाते थे।
कुषाणों ने मध्य एशिया और कश्मीर सहित भारत के एक बड़े भूभाग पर ईसा की प्रथम सदी के उत्तरार्ध से तीसरी सदी के पूर्वार्ध तक शासन किया। कुषाणों ने मुख्य रूप से सोने और तांबे के सिक्के जारी किए। विम कदफिस सोने के सिक्के जारी करने वाला पहला भारतीय शासक था। कुषाणों के सबसे प्रतापी शासक कनिष्क की स्वर्ण मुद्रा पश्चिम बंगाल के पांडु राजार ढीबी के एक टीले से मिली है। कुषाणों के समय में रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार खूब बढ़ा और रोमन मुद्राएं (देनेरियस् औरेयस्) बड़ी तादाद में भारत पहुंचने लगीं। तब कुषाणों ने भी अपनी स्वर्ण मुद्राएं रोमन स्वर्ण मुद्राओं के अनुकरण बनानी षुरू कर दीं। इतना ही नहीं, रोमन देनेरियस् के आधार पर भारत में “दीनार” प्रचलित हो गया, जो बाद में गुप्त सम्राटों की स्वर्ण मुद्राओं के लिए भी प्रयुक्त हुआ।
कुषाण साम्राज्य के अवसान के बाद गुप्त वंश ने (335-455) तक उत्तर भारत को एकजुट रखा। गुप्त शासकों ने विविध प्रकार की जो स्वर्ण मुद्राएं जारी कीं, उनका उपयोग प्रमुखतः भूमि की खरीद फरोख्त, बड़े पैमाने पर व्यापार और दान दक्षिणा के लिए हुआ। आम तौर पर गुप्त स्वर्ण मुद्राओं के पुरोभाग पर शासकों के विभिन्न रूपों में प्रतिमांकन है। पृष्ठभाग में देवी का अंकन है। दोनों ओर गुप्तकालीन ब्राही और संस्कृत भाषा में मुद्रालेख हैं, कभी-कभी छंदोबद्व भी। स्कंदगुप्त के समय (455-468) तक गुप्त शासकों ने जो स्वर्ण मुद्राएं जारी कीं उन्हें प्राचीन भारत की सर्वश्रेष्ट मुद्राएं माना जा सकता है।
गुप्त वंश के पतन के बाद उत्तर भारत में हर्षवर्धन (606-647) ने थानेश्वर को अपनी राजधानी बनाया। हर्ष की चांदी की कुछ मुद्राएं मिली हैं। उनके पुरोभाग पर राजा की छवि है और पृष्ठभाग पर मयूर का अंकन है। मयूर के चतुर्दिक मुद्रालेख हैं-"विजितावनिरवनिपति श्रीषीलादित्य दिवं जयति"। शिलादित्य हर्ष का विरूद् था, इसलिए ये सिक्के हर्ष के माने जाते हैं।
बारहवीं शताब्दी के मध्य में अजमेर के चौहानों से पहले तोमरों राजपूतों ने दिल्ली को अपनी पहली बार अपने राज्य की राजधानी बनाया था। तोमर वंश के बाद दिल्ली की राजगद्दी पर बैठे चौहान शासकों के समय में दिल्ली एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गई ओर तब के समय में व्यापक रूप से प्रचलित मुद्रा “देहलीवाल” कहलाती थी। एक मत है कि उस समय वैसे तो सिक्के शुद्ध चांदी से लेकर तांबे के होते थे पर उन सभी को चांदी की मुद्रा के रूप में ढाला गया था और शायद उन सभी को एक ही नाम देहलीवाल से जाना जाता था। दिल्ली के कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया। उल्लेखनीय है कि विदेशी मुस्लिम हमलावर भी दिल्ली के हिंदू राजपूत शासकों की मुद्रा को देहलीवाल के नाम से ही पुकारते थे। वैसे घुड़सवार-नंदि के सिक्कों का उत्पादन तो जारी रहा पर इन सिक्कों से राजपूत शूरवीरों की आकृति को हटा दिया गया। उनकी आकृति के स्थान पर संस्कृत में उरी हउमीरा (अमीर या सेनापति) और देवनागरी लिपि में उरी-महामदा के साथ बदल दिया गया।
मुस्लिम हमलावर महमूद गजनवी ने भारत में सोने के दीनार निकाले थे। मगर उसके सबसे महत्वपूर्ण चांदी के वे दिरहम हैं जो उसने 1028 में लाहौर महमूदपुर की टकसाल में तैयार करवाए थे। महमूद गजनवी की यह रजत-मुद्रा 2.80 ग्राम की है और इसके पुरोभाग पर अरबी-कूफी अक्षरों मकें कलमा के अलावा लेख हैः अमीनुद्दौला व अमीनुलमिल्लत बिसमिल्लाह अल्-दिरहम रब बे महमूदपुर सनः418 (किनारे पर)। सिक्के के पृष्ठभाग पर अरबी के उपर्युक्त समूचे लेख को नागरी लिपि और संस्कृत में प्रस्तुत किया गया है। उस समय पश्चिमोत्तर भारत में हिंदूशाही शासकों के चलाए गए घुड़सवार और नंदि की आकृति वाले सिक्के भी प्रचलित थे। महमूद गजनवी और उसके उत्तराधिकारियों ने अपने कुछ सिक्कों पर उन्हीं प्रतीकों को कायम रखा। ऐसे सिक्कों के एक ओर कूफी लिपि में लेख है और दूसरी ओर नागरी में सामंतदेव नाम।
गौरी वंश के मुहम्मद (जिसे मुहम्मद बिन साम भी कहते हैं) ने 1192 में पृथ्वीराज चौहान को हराकर सही अर्थ में पहली बार भारत में पहले इस्लामी राज्य की स्थापना की। मुहम्मद गोरी ने गाहड़वालों के राज्य (राजधानीः कन्नौज) को जीतकर उनके जैसे ही सोने के सिक्के जारी किए। उन सिक्कों के पुरोभाग पर लक्ष्मी का अंकन है और पृष्ठभाग पर नागरी में श्री मुहम्मद बिन साम लेख है। उसके घुड़सवार-नंदि शैली के सिक्कों के पुरोभाग पर नागरी में श्री मुहम्मद बिन साम और पृष्ठभाग पर श्री हमीर शब्द अंकित हैं। यह हमीर शब्द अरबी के अमीर शब्द का भारतीय अपभ्रंश है।
मुहम्मद गोरी के प्रतिनिधि कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1206 में दिल्ली को राजधानी बनाकर पहली सल्तनत की नींव डाली। इन आरंभिक तुर्की सुलतानों ने इस्लामी ढंग के नए सिक्के जारी किए। इस्लाम में सिक्कों पर प्रतिमांकन कराने की प्रथा नहीं थी, इसलिए कुछ अपवादों को छोड़कर, भारत के इस्लामी शासकों के सिक्कों पर, दोनो ओर, केवल मुद्रालेख ही देखने को मिलते हैं।
इल्तुतमिश (1210-35) ने नई शैली के सिक्के जारी किए। राजस्थान के नागौर से जारी घुड़सवार शैली के सोने के सिक्कों में घुड़सवार के चारों ओर घेरे में कलमा और तिथि दी गई है। सिक्के के सामने वाले हिस्से पर सुल्तान का नाम है। इल्तुतमिश पहला विदेशी मुस्लिम सुल्तान था, जिसने सिक्कों पर टकसाल का नाम देना शुरू किया। उसने अपने को इस्लामी खिलाफत का वफादार साबित करने के इरादे से अपने सिक्कों पर खलीफा का नाम भी खुदवाया। इल्तुतमिश की बेटी रजिया सुल्तान के समय (1236-40) में दिल्ली और लखनौती (गौड़, बंगाल) के टकसाल-घरों में चांदी के सिक्के जारी किए। पर हैरानी की बात यह है इन सिक्कों पर रजिया का नाम न होकर उसके बाप का नाम है। जो कि तख्त पर एक महिला के होने के बावजूद उसकी हुकूमत को न मानने सरीखा ही है। वैसे रजिया ने लखनौती में नया टकसाल-घर खोला। उसके समय में घुड़सवार और नंदि प्रकार के जीतल बनते रहे।
गयासुद्दीन बलबन (1266-87) ने सोना, चांदी-तांबा और तांबे के सिक्के चलाए। उसने घुड़सवार-नंदि आकृति वाले सिक्के बंद करवा दिए। बलबन के चांदी-तांबे के मिश्र धातु के जारी नए सिक्के के सामने घेरे के भीतर अरबी में उसका नाम बलबन है और घेरे के बाहर नागरी में मुद्रालेख है-स्त्री सुलतां गधासदीं। खिलजी वंश के आरंभिक दो सुलतानों (जलालुुद्दीन फीरोज और रूकुुद्दीन इब्राहीम) ने सिक्कों के मामले में बलबन की ही नकल की। जबकि अलाउद्दीन खिलजी (1296-16) ने हजरत देहली की टकसाल में तैयार करवाए सोने और चांदी के अपने टंकों पर सिकंदर अल्-सानी (दूसरा सिकंदर) जैसी भव्य पदवियां अंकित करवाई। उसने अपने सिक्कों पर से बगदाद के खलीफा का नाम हटा दिया और उसके स्थान पर लेख अंकित कराया-यमीन।
मुहम्मद बिन तुगलक (1325-51) के समय के सिक्के मुद्राशास्त्र के हिसाब से बड़े महत्व के हैं। उसने सोने और चांदी के सिक्कों के तौल बदलने का प्रयोग किया। पहले ये सिक्के 11 ग्राम के थे। मुहम्मद तुगलक ने सोने के ये सिक्के तौल बढ़ाकर लगभग 13 ग्राम और चांदी के सिक्के को घटाकर 9 ग्राम कर दिया। मगर उसका यह प्रयोग असफल रहा और उसे पहले के तौल-मान पर लौटना पड़ा। बहलोल लोदी (1451-89) ने चांदी-तांबे की मिश्रधातु के 80 रत्ती तौल के जो टंक चलाए वे बहलोली के नाम से मशहूर हुए। लोदी सुलतानों-बहलोल, सिकंदर और इब्राहीम-के सिक्कों पर खलीफा का नाम, सुलतान का नाम, टकसाल घर (दिल्ली) का नाम और तिथि अंकित है।
बाबर ने 1526 में पानीपत के मैदान में इब्राहीम लोदी को परास्त करके भारत में मुगल शासन की नींव डाली। बाबर और हुमायूँ का शासन अल्पकालिक रहा। उन्होंने जो थोड़े से सिक्के जारी किए वे मध्य एशियाई बनावट के हैं। वस्तुतः मुद्रा प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन अफगानी सूर वंश के शेरशाह (1538-45) ने किया। 1540 में हुमायूँ को हराकर जब वह दिल्ली सल्तनत का शासक बना तो उसने शुद्ध चांदी का जो नया सिक्का चलाया उसे रूप्य या रूपया का नाम दिया। शेरशाह ने चांदी के अपने सिक्के को जो नाम दिया वह कुछ बिगड़े रूप में (रूपी) अंग्रेजों के शासनकाल में कायम रहा और आज भी रूपया, के नाम से कायम है।
बाबर और हुमायूँ को इतना अधिक मौका नहीं मिला कि वे नई शैली के सिक्कों के बारे में सोच सकें। दोनों के ही चांदी के दिरहम मध्य एशियाई शैली के हैं और तैमूरी वंश के शासक शाहरूख के नाम पर शाहरूखी कहलाते हैं। करीब 72 ग्रेन भर के इन सिक्कों के पुरोभाग पर कलमा तथा खलीफाओं के नाम और पृष्ठभाग पर बादशाह का नाम है। बाबर और हुमायूं ने तांबे के जो सिक्के जारी किए वे दिल्ली के सुलतान बहलोल लोदी के सिक्के (बहलोली) के अनुकरण पर बनाए गए थे। बाद के मुगल बादशाहों की मुद्राएं मुख्यतः सूरी मुद्रा-शैली के अनुकरण पर ही बनी है।
अकबर ने सोना, चांदी और तांबे के अपने सिक्कों के लिए सूरी शैली तौल और बनावट को अपनाया। बुनियादी सिक्का चांदी का रूपया था, जिसका तौल 11.5 माशा या 178 ग्रेन के बराबर था। अकबर के पूरे राज्य में एक ही तौल के रूपए का प्रचलन था।अकबर का तांबे का सिक्का दाम, सोने का सिक्का मुहर या अशर्फी कहलाता था। अकबर के सिक्के गोलाकार और वर्गाकार, दोनों ही प्रकार के हैं। अकबर के समय में मुद्रालेखों के लिए पहली बार “नस्तालीक लिपि” का इस्तेमाल हुआ। 1582 में दीन-इलाही की स्थापना के बाद में अकबर के सिक्कों पर से कलमा को हटा दिया और उसके स्थान पर इलाही मतवाला मुद्रालेख अंकित कराया-अल्लाह अकबर जल्ल जलालहु। इस मुद्रालेख वाले सिक्कों को जलाली कहते थे। उस दौर में मुहरें सूबों की राजधानियों में बनती थीं। टकसाल-स्थलों को बड़े आकर्षक नाम दिए गए थे। जैसे लाहौर को दारूल सल्तनत और दिल्ली को दारूल खिलाफत।
मुगल बादशाह जहांगीर (1605-27) के सिक्के सबसे सुंदर हैं। कुछ सिक्कों पर जहांगीर के नाम के साथ नूरजहां का नाम भी अंकित है। जहांगीर के राशिचक्रवाले सिक्कों को भी बड़ी प्रसिद्वि मिली है। जहांगीर ने अपने शासन के पहले साल में ही अकबर के व्यक्ति-चित्र वाली मुहर जारी की थी। जहांगीर ने इलाही संवत् को त्याग दिया और उसके स्थान पर सौरमान वाले अपने शासन-वर्ष को सिक्कों पर अंकित कराया, साथ में हिजरी संवत् भी। उस दौरान जो सिक्के जारी किए गए उन पर पद्यबद्ध मुद्रालेखों में नूरजहां बादशाह बेगम नाम अंकित है। मगर शाह जहां ने तख्त पर बैठते ही नूरजहां के नामवाले और राशिचिन्ह वाले सिक्कों का चलन बंद करवा दिया। उसने आदेश जारी किया कि इन सिक्कों का प्रयोग करने वाले को मृत्युदंड दिया जाएगा। यही वजह है कि ये सिक्के बड़े दुर्लभ है।
शाहजहां ने अपने शासन (1627-58) के पूरे दौर में अपने सिक्कों पर एक ओर कलमा तथा टकसाल का नाम अंकित कराया। शाह जहां ने दिल्ली में नया शाहजहांनाबाद नगर बसाया, तो वह मुगल सल्तनत का प्रमुख टकसालनगर बन गया। शाहजहां के सिक्के विभिन्न शैली के हैं और सुलेखन के उत्कृष्ट नमूने हैं। औरंगजेब ने तख्त पर बैठते ही अपने सिक्कों पर कलमा का अंकन बंद करवा दिया। वह समझता था इस्लाम का यह महजबी वाक्य काफिरों से अपवित्र न हो जाए। तक से मुगल सिक्कों पर कलमा (ला इला लिल्लिल्लाह मुहम्मद उर्रसूलिल्लाह) को अंकित कराने की प्रथा सदा के लिए बंद हो गई। कलमा के स्थान पर नाम व पदवी है-मुहीउद्दीन मुहम्मद बादशाह आलमगीर या औरंगजेब बादशाह गाजी। पृष्ठभाग पर जुलूसी (राज्यारोहण-वर्ष) और टकसाल का नाम है। दक्कन पर विजय प्राप्त करके बीजापुर और गोलकुंडा पर कब्जा करने पर मुगल रूपया उन प्रदेशों में भी भलीभांति प्रचलित हो गया। 
औरंगजेब के बाद मुगल बादशाहों की मुद्राओं का इतिहास बड़ा उलझा हुआ है। औरंगजेब के बाद, बढ़ती आपसी कलह के कारण, आर्थिक दशा बिगड़ती गई और मुद्रा-व्यवस्था पर भी उसका बड़ा असर पड़ा। बादशाह फर्रूख्सियर के समय टकसालघरों को किराए या लगान पर देने की प्रथा शुरू हुई। इस नीति के अंततः मुगल टकसालघरों पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। अंतिम मुगल सिक्का बहादुरशाह द्वितीय का मिला है।


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