British period wells of Delhi_अंग्रेजों के ज़माने में दिल्ली के कुएं
अंग्रेजों ने 1803 में दिल्ली में अपना कब्जा किया और यहां पर ब्रिटिश रेसिडेंसी स्थापित की। तब से लेकर 1857 तक दिल्ली एक सैन्य ठिकाना थी। उस दौर में दिल्ली का प्रशासन उत्तर पश्चिम प्रांत (अविभाजित पंजाब) से संचालित होता था। अगर उस समय के दस्तावेजों को देखें तो पता चलता है कि पंजाब के जिलों की सिंचित क्षेत्र की सूची में तुलनात्मक रूप से दिल्ली का स्थान ऊपर था।
1898 के अकाल आयोग के लिए उपलब्ध करवाए गए आंकड़ों में, कुल सिंचित भूमि की तुलना में ऐसे क्षेत्र के प्रतिशत का आकलन किया गया था। तब दिल्ली की कुल सिंचित भूमि के 37 प्रतिशत का 15 प्रतिशत क्षेत्र कुओं, चार प्रतिशत बंधों और झील तथा 18 प्रतिशत नहरों से सिंचित होता था। अंग्रेजों के समय में हुई जमीन की पैमाइश के वर्षों में (1872-75) पूरे जिले में 8,841 पानी लायक कुएं थे। जिनमें 4,797 कुएं सोनीपत में, 2,256 कुएं दिल्ली में और 1778 कुएं बल्लभगढ़ में थे।
दिल्ली गजेटियर (1883-84) के अनुसार, दिल्ली के छह क्षेत्रों (खादर, बांगर, डाबर, झेरकोही, कोही और खंडरात) में कुल 2256 कुएं थे, जिनमें 1883 चिनाई वाले और 373 बिना चिनाई (कच्चे कुएं) वाले कुएं थे। उस समय में मुख्य रूप से चार प्रकार के कुएं होते थे। इन कुओं में पहला प्रकार साधारण चिनाई वाला कुआं (पक्का कुआ, गोला, रेक्ता) होता था। यह कुआं ईंट या पत्थर और चूने के गारे का बना होता था। जो कि लंबे समय तक चलने के हिसाब से बनाया जाता था और बरसों तक चलता था। इसी तरह, पानी की उपलब्धता के लिहाज से शुष्क चिनाई वाला कुआं होता था। ऐसा कुआं मुख्य रूप से पहाड़ी इलाकों के पास होता था, जहां आस-पड़ोस में रहने वाले खुरदरे और पत्थर से बनी सामग्री का उपयोग करते थे क्योंकि वहां सर्वसुलभता के कारण पत्थर सस्ता था। लेकिन ऐसे बहुत से स्थान नहीं थे, जहाँ इस तरह के कुओं का निर्माण देखने को मिलता था।
ऐसे ही लकड़ी के कुएं (गंधवाले का छाह) होते थे, जिसमें कुएं की बगलों में लकड़ी के घुमावदार टुकड़े बने हुए होते थे जैसे छकड़ा गाड़ी के पहिये के खंड बने होते हैं। इनकी लंबाई नौ इंच से दो फीट तक होती थी। ये कुएं जल की उपलब्धता के अनुकूल मिट्टी में बने बनाए जाते थे। ये कुएं अधिक गहराई वाले न होने के बावजूद बरसों-बरस कारगर होते थे, कभी-कभी पूरी एक पीढ़ी। वैसे तो तब ऐसे कुएं कई क्षेत्रों में पाए जाते थे, लेकिन विशेष रूप से ऐसे कुओं की उपस्थिति दिल्ली खादर के कुछ गांवों में देखने को मिलती थी।
पानी उपलब्ध करवाने में सक्षम और और समय के हिसाब से इसके बाद झार-का-कुंआ (बनवाला) का स्थान था। इस कुएं के लिए धरती में छेद करते हुए एक गड्डा खोदा जाता था, जिसके चारों तरफ कई प्रकार की झाड़-झंखाड़ (इस कार्य के लिए सामान्य रूप से झाड़ी, ढाक और बांस की लकड़ी का प्रयोग होता है) से घेरेबंदी की जाती थी। इससे ढहती मिट्टी को बाहरी सहारा मिलता था। ये कुएँ साफ तौर पर एक सस्ता सौदा थे और अधिकांश स्थानों पर तीन साल तक चलते थे। जबकि कठोर मिट्टी होने की सूरत में, कुछ लंबे समय तक पानी दे पाते थे। ऐसे कुएं बीस फीट तक की गहराई तक होते थे।
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