Sunday, June 2, 2013

छाया मत छूना / गिरिजाकुमार माथुर



छाया मत छूना मन

होता है दुख दूना मन

जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ

सुहावनी छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी;

तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,

कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।

भूली-सी एक छुअन बनता

हर जीवित क्षण

छाया मत छूना मन

होगा दुख दूना मन

यश है न वैभव है,

मान है न सरमाया;

जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।

प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्‍णा है,

हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्‍णा है।

जो है यथार्थ कठिन

उसका तू कर पूजन- छाया

मत छूना मन

होगा दुख दूना मन

दुविधा-हत साहस है,

दिखता है पंथ नहीं

देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।

दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,

क्‍या हुया जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?

जो न मिला भूल उसे

कर तू भविष्‍य वरण,

छाया मत छूना मन

होगा दुख दूना मन

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