जल से बिजली बनाने के प्रयासों का परिणाम देश के नदी प्रवाहों पर हो रहा है। बिजली उत्पादन के अतिरिक्त शहरीकरण और प्रत्येक घर में शौचालय का लक्ष्य भी नदी प्रवाहों के लिए घातक बन गया है। हम नदी प्रवाहों का दुरुपयोग मल सहित गंदे पानी को फेंकने के लिए कर रहे हैं। प्राणदायिनी गंगा की पवित्रता की रक्षा के लिए जो बैचेनी हम दिखाते हैं, वह अधिकांशत: सरकारी नीतियों की आलोचना पर जाकर रुक जाती है। गंगा को तीसरे दर्जे की नदी का व्यवहार मिल रहा है।
सच तो यह है कि देश की लगभग सभी नदियां ऐसी ही 'शोचनीय' स्थिति में पहुंच चुकी हैं। वे आधुनिक होती सभ्यता का कचरा ढो रही हैं। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का अभिशाप भुगत रही हैं।
मानव सभ्यता एक दोराहे पर खड़ी है। वह देख रही है कि आधुनिक तकनालॉजी देश, काल व प्रकृति पर विजय पाने और सुख के जो अनेक साधन प्रदान कर रही है, उनकी उत्पादन प्रक्रिया स्वयं में ही प्रकृति नाशक है और मानवजाति के विनाश को निकट ला रही है।
क्या पवित्र गंगा नदी के प्रति हमारी श्रद्धा-भावना सभ्यता के इस संकट से बाहर निकलने का आत्मबल प्रदान कर सकती है?
मैं जब अपने भीतर झांकता हूं तो मुझे स्वीकार करना पड़ता है कि शायद मुझमें वह आत्मबल नहीं है। मैं बौद्धिक धरातल पर उसकी विवेचना तो कर सकता हूं पर उस जीवनशैली का त्याग नहीं कर सकता।
No comments:
Post a Comment