Sunday, January 29, 2017

Struggle for Right_धर्मयुद्ध




पापी के साथ कैसा धर्मयुद्ध?


बाज़ार में मॉल कुछ बताएँगे और बेचेंगे कुछ तो फिर दोगले ही कहे जायेंगे. ऐसे में सौदा धोखा देना ही कहा जायेगा.


सो, कलाकार तो झूठा-दोगला होता नहीं. अब अगर यह कलाकार भी नहीं और जो कह रहे हैं उससे सरोकार भी नहीं!

तो फिर तो जूते ही खायेगें.


अब सब कोई आप की दृष्टि से ही दुनिया देखे फिर यह जरुरी नहीं.
अब अगर शाहबानो पर बहुमत वाली सरकार झुक गई तो पद्मिनी पर मामले में बाज़ार की क्या औकात है!


तिस पर ये फ़िल्मी तिजारत के कारोबारी है, जिन्हें समाज-देश-दुनिया से कोई सरोकार नहीं.


सो पापी के साथ कैसा धर्मयुद्ध?


Saturday, January 28, 2017

Princess Jahanara_Tis Hazari_तीस हजारी की राजकुमारी जहाँआरा

28012017, दैनिक जागरण


तीस हजारी का नाम आने पर आज अधिकतर दिल्लीवासियों की आंखों के सामने उत्तरी दिल्ली में एक भीड़भाड़, धूल भरी जिला अदालतों के परिसर का दृश्य उभर आता है। शायद कोई बिरला ही होगा, जिसे तीस हजारी के जहाँआरा से जुड़े होने का पता होगा।

तीस हजारी के इतिहास का एक सिरा मुगल बादशाह शाहजहाँ (1592-1666) तक जाता है। मुगल तारीख के पन्नों में झांकने से पता चलता है कि शहजादी जहाँआरा (1614-1681) को कुदरत से बेहद प्यार था। शाहजहां की दिलअजीज और बड़ी बेटी शहजादी जहाँआरा के आदेश पर ही यहाँ 30,000 पेड़ों का एक बगीचा तैयार किया गया था। इस तरह, तीस हजारी शब्द चलन में आया।

ऐसा कहा जाता है कि जब शाहजहां को उसके तीसरे बेटे औरंगजेब ने आगरा किले में कैद किया तो शहजादी जहाँआरा ने ही शाहजहां की मौत तक उसकी देखभाल की थी। बाप और बेटी में बेहद प्यार था और शहजादी जहाँआरा पूरी ईमानदारी से कैद में अपने बीमार पिता का ख्याल रखा।

कुदरत से मुहब्बत का ही नतीजा था कि फारसी कवि सादी से प्रभावित शहजादी जहाँआरा ने कच्ची कब्र में ही दफन होने की तमन्ना जताई थी। इसी का नतीजा है कि हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास शहजादी जहाँआरा की संदूकनुमा खोखली कब्र बनी है, जिसमें घास उगी हुई है। उसके स्मृति लेख में लिखा है, मेरी कब्र को मत ढकना, उसे हरी घास से बचाना, घास ही मुझे ढकेगी। “दिल्लीः अननोन टेल्स ऑफ़ ए सिटी” में आर.वी. स्मिथ लिखते है कि यह भाग्य की विडंबना है कि जहाँआरा को एक बगीचे में बनी कब्र में दफन होने की अंतिम इच्छा के विपरीत हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास एक आधी कच्ची कब्र में दफनाया गया।

“शाहजहानाबादः द सावरिजन सिटी इन मुगल इंडिया” में स्टीफन पी. ब्लेक लिखते हैं कि शाहजहां ने काबुल दरवाजे के बाहर नीम के पेड़ों वाला एक बाग बनवाया था, जो कि तीस हजारी बाग कहलाता था। औरंगजेब की बेटी जीनत-उल-निसा बेगम और मुहम्मद शाह की बेगम मल्का जमानी को भी वहाँ दफनाया गया।

मुगलों के जमाने में यह छायादार पेड़ों वाला एक खुला मैदान होता था, जहां कश्मीर जाने वाले कारवां दिल्ली का शहर छोड़ने के बाद अपना डेरा डालते थे। इसी तरह, बाहर से सफर करके आने वाले यात्रियों के दल शहर में दाखिल होने से पहले पड़ाव डालते थे। यही वजह है कि जिस दरवाजे से होकर ये तमाम मुसाफिर और कारवां गुजरते थे, उसे कश्मीरी दरवाजा (गेट) के नाम से जाना जाता था।

यह शाहजहां के बसाए शहर शाहजहाँनाबाद के परकोटे के करीब बनाई गई विशाल दीवार में निर्मित दस दरवाजों में से एक था। यहां कई छायादार पेड़ थे, जिनकी छांव में माल रखा जाता था और काफिले के पशु और आदमी पल भर आराम कर लेते थे। इस ठहराव स्थल वाले मैदान में कुत्ते, चील-कौवे और जंगली जानवरों सहित चोर तथा लुटेरे अपने-अपने कारण से जमा होते थे। यहां रात में छापे के डर से गुर्जरों का खासा आतंक था।

उन दिनों में तीस हजारी में ऊंट, घोड़े और यहां तक हाथी भी देखे जा सकते थे। इसके अलावा बैलगाड़ियां और दूसरी पशु गाड़ियां भी नजर आती थी। जहां पर अनेक व्यापारी भी अपना डेरा डालते थे, जिनमें से एक बड़ी संख्या कश्मीरियों की होती थी।


British_Hindi_अंग्रेजी राज_हिंदी

जब भारत में अंग्रेजी राज आया तब अंग्रेजों ने देखा कि दरबारी भाषा फारसी और बोलचाल की भाषा उर्दू है, जिसे उन्होंने हिन्दुस्तान की भाषा हिन्दुस्तानी मान लिया। तीसरी भाषा फूहड़ हिन्दुवी थी, जो गंवार बोलते थे। शासन के निमित्त से भारतीय जीवन को पहचानते हुए धीरे-धीरे अंग्रेजों को फूहड़ हिन्दुवी का महत्व समझ आने लगा। उर्दू के मन में हिंदी के लिए यहीं से सौतियाडाह जागा। जो यह समझते है कि पाकिस्तान की मांग के पीछे उर्दू का एक बहुत बड़ा कारण है, शायद कुछ गलत नहीं समझते।

-अमृतलाल नागर
("हम हिंदी का उर्दूकरण क्यों नहीं चाहते" शीर्षक निबंध, साहित्य और संस्कृति)

Amritlal Nagar_Urdu_अमृतलाल नागर_उर्दू

अमृतलाल नागर


"उर्दू के समर्थक कहते हैं कि वह विशुद्ध भारतीय भाषा है और भारत के हिन्दू-मुसलमानों ने मिलकर उसे बनाया है. जवाहर लाल नेहरू ने इसी निष्ठा से उर्दू का पक्ष समर्थन करते हुए ही हिंदी को हिन्दू साम्प्रदायिकता की उपज और बनावटी भाषा मानते हैं. मैं सच कहूंगा, मुझे लगा कि यह जान-बूझकर कपट-जुआ खेल जा रहा है. रेडियो के 'हिंदुस्तानी' समाचारों में 'गेंहू' को 'गंदुम' कहा जाता था. महात्मा गांधी की तबियत आज होशियार और बश्शाश है-यह बुखारी रेडियो की भाषा थी."


-अमृतलाल नागर, हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और उपन्यासकार ("हम हिंदी का उर्दूकरण क्यों नहीं चाहते" शीर्षक निबंध, पेज १०३-१०४, साहित्य और संस्कृति)


Sunday, January 22, 2017

Alchol_Gandhi_Hindi



यहां शराब पीने वाले अनगिनत लोग है। कांग्रेस में भी ऐसे कई हैं पर मैं उन्हें कुछ भी नहीं कह सकता हूँ।

-महात्मा गांधी, धीरूभाई. बी. देसाई को लिखे एक नोट में (फरवरी 1947)


Drink_Mahatma Gandhi_Congress


There are innumerable people who drink. There are many such in the Congress, too, and I could say nothing to them.

-Mahatma Gandhi, Note To Dhirubhai B. Desai, February 1947

Saturday, January 21, 2017

Jallikattu_जल्लीकट्टू


जल्लीकट्टू सिर्फ़ एक ट्रिगर था, दरअसल ये विरोध तमिलनाडु के लोगों के केंद्र और न्यायापालिका के बीच भरोसे की खाई दिखाता है. कई लोग दिल्ली के मीडिया पर भी भरोसा नहीं करते. वो मानते हैं कि मीडिया तमिल लोगों और उनकी प्रथाओं की अजीब छवि पेश करता है.


-ए. आर. वेंकटचालापथी, इतिहासकार

Sunday, January 15, 2017

Life as Rail_जिंदगी की रेल



जिंदगी की रेलगाड़ी में किसी का स्टेशन पहले आता है और किसी का बाद में । 

इसका मतलब यह कतई नहीं है कि पहले अपनी मंजिल पर उतरने वाला जल्दी पहुच गया और बाद वाला देर से। 

जिंदगी की रेल में मंजिल सबकी आती है बस करना है तो अपनी बारी का इंतज़ार ।

Saturday, January 14, 2017

Ramkinker Baij on questing Gandhi_ गाँधी के अनुकरण पर रामकिंकर बैज


रामकिंकर बैज



"आज गांधी की मूर्तियां बनाने के महत्वपूर्ण कलाकार माने जाते हैं। क्या मुझे एक कलाकार के रूप में पहचाने जाने के लिए निरंतर गांधी की मूर्तियां बनानी होंगी?"

-रामकिंकर बैज, गाँधी के अँधा-अनुकरण पर 

Ramkinker Baij_Gandhi

Ramkinker Baij


“Today, those who make sculptures of Gandhi are considered to be important artists. Do I have to repeatedly portray Gandhi to be considered an artist?”


-Ramkinker Baij

Kotwal of Delhi_दिल्ली की कोतवाल परंपरा

दैनिक जागरण, १४ जनवरी २०१७





दिल्ली में नागरिक कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कोतवाल की एक लंबी परंपरा रही है। मलिक उमरा फखरूद्दीन को दिल्ली का पहला कोतवाल माना जाता है। सन् 1237 ई. में 40 साल की उम्र में कोतवाल बना मलिक अपनी बुद्धिमत्ता और वफादारी के कारण दिल्ली सल्तनत के तीन सुलतानों, बलबन, कैकोबाद और कैखुसरो के दौर में कोतवाल रहा। उस समय कोतवाल का कार्यालय किला राय पिथौरा यानी आज की महरौली में होता था।


अंग्रेजों के खिलाफ सन् 1857 में देश की आजादी की पहली लड़ाई के विफल होने के साथ ही कोतवाल की संस्था का भी खात्मा हो गया। यह एक कम जानी बात है कि कि सन् 1857 की पहली लड़ाई से ठीक पहले दिल्ली के आखिरी कोतवाल गंगाधर नेहरू थे जो कि पंडित मोतीलाल नेहरू के पिता और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के दादा थे। खुद नेहरू ने अपनी आत्मकथा "मेरी कहानी" में अपने दादा गंगाधर के बारे में लिखा है कि वे अठारह सौ सत्तावन के गदर के कुछ पहले दिल्ली के कोतवाल थे।


1861 में अंग्रेजों ने कानून व्यवस्था के नाम पर भारतीयों पर निगरानी के इरादे से भारतीय पुलिस अधिनियम को लागू किया। सन् 1911 में दिल्ली अंग्रेजों की राजधानी बनी तो जरूर पर कानून व्यवस्था के हिसाब से राजधानी की पुलिस पंजाब पुलिस की ही एक इकाई बनी रही क्योंकि तब प्रशासनिक तौर पर दिल्ली पंजाब का हिस्सा थी। उसी साल दिल्ली के पहले मुख्य आयुक्त को नियुक्त किया गया और उसे पुलिस महानिरीक्षक की शक्तियां और कार्य भी सौंपे गए।



सन् 1912 के राजपत्र (गजट) के अनुसार, पूरा दिल्ली जिला सीधे तौर पर एक पुलिस उपमहानिरीक्षक, जिसका अपना मुख्यालय अंबाला में था, के नियंत्रण में था जबकि दिल्ली जिले में तैनात पुलिस बल की कमान एक पुलिस अधीक्षक और पुलिस उप अधीक्षक के पास थी। यहां के कुल पुलिस बल में दो निरीक्षक, 27 उप निरीक्षक , 110 हवलदार, 985 पैदल सिपाही और 28 सवार थे।


शहर में कानून व्यवस्था का काम ग्रामीण पुलिस के पास था, जिसकी बागडोर दो पुलिस निरीक्षकों के पास थी। इन निरीक्षकों के अपने मुख्यालय सोनीपत और बल्लभगढ़ में थे, जिसके तहत दस पुलिस थाने क्षेत्र आते थे। इसके अलावा सात बाहरी चैकियां और चार सड़क चौकियां भी थीं। दिल्ली शहर में कोतवाली, सब्जी मंडी और पहाड़गंज तीन बड़े पुलिस थाने थे जबकि सिविल लाइन्स में रिजर्व पुलिस बल, सशस्त्र रिजर्व पुलिस बल और नए रंगरूटों के रहने के लिए विशाल पुलिस बैरकें थीं।



सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने सन् 1297 में अपने प्रमुख सेनापति नसरत खां को दिल्ली का कोतवाल बनाया। पर उसके कठोर व्यवहार और आतंक के कारण सुल्तान ने उसे हटाकर मलिक उल मुल्क को कोतवाल बनाया। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक बार उसके बारे में कहा था कि वह वजीरात (प्रधानमंत्री पद) बनने के लायक है पर मैंने उसके जरूरत से ज्यादा मोटापे की वजह से उसे केवल दिल्ली का कोतवाल ही बनाया है।



सन् 1648 में जब मुगल बादशाह शाहजहां अपनी राजधानी को आगरा से दिल्ली (तब शाहजहांनाबाद) लाया तो गजनफर खान की शाहजहांनाबाद का पहला कोतवाल बनाया गया। साथ ही वह मीर-ए- आतिश (तोपखाना प्रमुख) भी था।





Tuesday, January 10, 2017

History of Local Administration (MCD) in British Delhi_अंग्रेजों के दौर में ऐसे बनी एमसीडी

सांध्य टाइम्स, 10/01/2017




दिल्ली के स्थानीय प्रशासन का इतिहास पुराना होने के साथ रोचक भी है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को छल-बल से विफल तो कर दिया पर इसका परिणाम यह हुआ कि भारत के शासन सूत्र की बागडोर व्यापारिक कंपनी ईस्ट इंडिया के हाथ से निकलकर अंग्रेज सरकार के हाथ में चली गई। 1858 में दिल्ली को पंजाब सूबे में मिला दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि दिल्ली, पंजाब के पांच डिवीजनों में से एक बन गई और इस डिवीजन में हिसार, रोहतक, गुडगांव, करनाल, अंबाला, शिमला और दिल्ली के जिले थे। पंजाब प्रांत के एक भाग के रूप में दिल्ली संभाग एक कमिश्नर के अधीन था, जिसका अपने सामान्य प्रशासनिक कार्यों के अतिरिक्त सिरमूर, काल्सिया, दुजाना, पटौदी और लोहारू की संरक्षित रियासतों पर भी नियंत्रण था। 



1857 के बाद अंग्रेजों ने शाहजहांनाबाद की चारदीवारी से बाहर निकलकर राजधानी के सिविल लाइंस क्षेत्र को विकसित किया। दिल्ली म्युनिसिपल कमीशन को गठित करने का मूल उद्देश्य मुख्य रूप से सिविल लाइंस क्षेत्र (सत्ता का केंद्र होने के साथ जहां पर अंग्रेजों के आभिजात्य वर्ग के घर थेे) और कुछ हद तक चारदीवारी में बसे शहर को बेहतर नागरिक सुविधाएं प्रदान करना था।


एक नई अवधारणा लगने वाली इस बात को ही रेखांकित करते हुए 1823 में गवर्नर जनरल एमहर्स्ट ने एक बार कहा था कि "स्थानीय सुधारों के लिए शहर की जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए और यहां तक कि इस खर्च हो पूरा करने के लिए प्रत्यक्ष कर भी लगाए जा सकते हैं। दिल्ली में इस बात का परिणाम यह हुआ कि शहर की देखभाल की जिम्मेदारियों के वहन के लिए एक समिति गठित की गई।"



1820 में फोर्टस्कूयर की बनाई एक विस्तृत रिपोर्ट ने इसके काम को आसान कर दिया। इस रिपोर्ट में दिल्ली में लागू सीमा शुल्क और शहरी करों को सूचीबद्ध किया गया था। लेकिन इससे पहले कि इस प्रयोग का पूरी तरह क्रियान्वयन हो पाता, चार्ल्स मेटकॉफ ने इस नगर पालिका को अपनी केन्द्रित नीति से समाप्त कर दिया। चार्ल्स ट्रेवेयन ने 1833 की अपनी रिपोर्ट में शहर के करों की आलोचना करते हुए इस बात को दिल्ली के एक व्यापार केंद्र के रूप न उभरने का जिम्मेदार बताया। इसी बात से भिवानी, रेवाड़ी और शाहदरा में बाजार पनपने में मदद मिली, जहां पर और दिल्ली की तरह शहरी-कर नहीं लगाए जाते थे। अंग्रेजों ने सबसे पहले शहरी करों को बंगाल और फिर उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में ख़त्म किया।



दिल्ली के नागरिकों के लिए उस समय नागरिक प्रशासन का मतलब एक स्थान या कोई कार्यालय न होकर एक अकेले अधिकारी से था। पर वर्ष 1860 के दशक के बाद इस स्थिति में परिवर्तन आया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अंग्रेजों ने अपने को सिविल लाइंस तक सीमित या अलग न रखते हुए शाहजहांनाबाद की चारदीवारी में बसे पुराने शहर को भी रखा थां।



दिसंबर 1862 में पंजाब सरकार के नगर सुधार अधिनियम, 1850 को दिल्ली में अधिसूचित कर दिया गया। इस तारीख के बाद म्युनिसिपल प्रशासन का, जो अब पुरानी दिल्ली के नाम से प्रसिद्ध है, स्पष्ट और क्रमिक लिखित इतिहास मौजूद है। तब से दिल्ली में नगरपालिका व्यवस्था किसी न किसी रूप में रही। 1862 में ही दिल्ली जिले का दिल्ली, बल्लभगढ़ और सोनीपत तहसीलों में विभाजन हुआ।



उल्लेखनीय है कि 1862 में दिल्ली नगर पालिका केवल 2 वर्ग मील में रहने वाले 1.21 लाख निवासियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए अस्तित्व में आई। नगर पालिका फरवरी, 1863 में अस्तित्व में आई जबकि उसकी पहली बैठक 23 अप्रैल, 1863 को आयोजित हुई। इस प्रशासन का नाम पहले देहली म्युनिसिपल कमीशन था जो कि बाद में देहली म्युनिसिपल कमेटी या दिल्ली नगर पालिका पड़ा। उल्लेखनीय है कि दिल्ली का नागरिक प्रशासन देश के समस्त नागरिक प्रशासनों में सबसे पुराना है। राजधानी में समय के साथ-साथ स्थानीय निकाय का विकास हुआ। और इसी का परिणाम है कि आज देश की राजधानी में चार स्थानीय निकाय करीब 1400 वर्ग किलोमीटर में फैले क्षेत्र की लगभग डेढ़ करोड़ की जनसंख्या को नागरिक सेवाएं प्रदान कर रहे हैं।



म्युनिसिपल कमिश्नर माधो प्रसाद अपनी पुस्तक (1921 में छपी) में लिखते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय दिल्ली में पहले से ही एक तरह की नगर पालिका थी। दिल्ली के कमिश्नर को 26 अगस्त 1862 में लिखे एक पत्र में पूछा गया था कि क्या दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी की कार्यवाही का किसी भी तरह से प्रचार किया गया और अगर प्रचार किया गया तो उसके लिए क्या तरीका अपनाया गया। डिप्टी कमिश्नर ने 15 सितंबर 1862 को दिए अपने उत्तर में इस बात का उल्लेख किया कि कार्यवाही के सारांश को एक भारतीय भाषा में 50 प्रतियां म्युनिसिपल फंड से पैसे लेकर छपवाई गई है।



वर्ष 1863 दिल्ली म्युनिसिपल कमीशन के इतिहास में एक मील का पत्थर है। इसी साल, पहली बार सार्वजनिक शौचालयों को बनाने के साथ साफ-सफाई की व्यवस्था कायम की गई। इतना ही नहीं, सदर बाजार में एक यूनानी दवाखाना खोला गया तथा नागरिकों के जन्म-मृत्यु के पंजीकरण का काम भी शुरू हुआ। 1867 में कोतवाली में एक आग बुझाने वाली गाड़ी के साथ अग्नि शमन सेवा का आरंभ हुआ।



दिल्ली में कुछ कुओं के पानी को आदमी के पीने लायक न पाए जाने के कारण 1869 में पानी मुहैया करवाने का प्रस्ताव लाया गया। जबकि पानी की गाड़ियों के माध्यम से पेयजल की आपूर्ति का काम 1871-1872 में शुरू हुआ। दिल्ली म्युनिसिपल कमीशन ने लालटेन और लैम्प पोस्ट से गलियों में रोशनी की व्यवस्था का आरंभ किया। वर्ष 1875 में पहली बार 1600 पौधे लगाए गए। इसी साल, सेवाओं का विकेन्द्रीकरण हुआ और सामुदायिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। साफ-सफाई की गतिविधियों की निगरानी के लिए इलाकाई व्यवस्था की शुरुआत की गई। हर इलाके की निगरानी एक तीन सदस्यीय समिति करती थी। तब नजफगढ़ और महरौली के पुराने शहर की नगरपालिकाएं थीं जबकि 1886 में इनको अधिसूचित क्षेत्र के रूप में गठित किया गया।



दिल्ली के आयुक्त (कमिश्नर) कर्नल जी.डब्ल्यू. हैमिल्टन इस म्युनिसिपल कमीशन के अध्यक्ष तथा डब्ल्यू॰ एच॰ मार्शल इसके अवैतनिक मानद सचिव थे। उस समय, इसके बारह अंग्रेज और सात भारतीय सदस्य थे। भारतीय सदस्यों में लाला चूनामल, लाल महेश दास, राव उम्मेद सिंह, लाला साहिब सिंह, दीवान इमानउल्ला खान, शेख महबूब बक्श और शेख विलायत हुसैन खान थे।



तब, इसके कुल कर्मचारियों में सुपरिटेंडेन्ट, नायब सुपरिटेंडेन्ट, जमादार, मुंशी, चपरासी और कर उगाने वाला कर्मचारी होते थे। कई बरसों तक म्युनिसिपल कमीशन में सेक्रेटरी ही प्रमुख अधिकारी होता था परंतु बाद में इस पद को इंजीनियर-सेक्रेटरी में बदल दिया गया। तब तक डिप्टी कमिश्नर ही इस कमेटी का प्रधान हुआ करता था और दिल्ली प्रांत के समस्त आवश्यक प्रशासनिक कार्यों की देखरेख करता था। यह सेक्रेटरी सफाई, स्वास्थ्य, अर्थ सम्बन्धी के अलावा जिला मेजिस्ट्रेट भी होता था। इस तरह से पूरा प्रशासन एक सूत्र में बंधा हुआ था और सारे मुख्य विषय निर्णय के लिए डिप्टी कमिश्नर के पास भेजे जाते थे। बाद में, डिप्टी कमिश्नर एच. सी. बीडन की अध्यक्षता में प्रशासन में कुछ अन्य स्वतन्त्र विभागों की स्थापना हुई। 




दिल्ली जिला एक डिप्टी कमिश्नर के अधीन था। यह पदनाम मुख्य जिलाधिकारियों को गैर-रेगुलेशन प्रान्तों में मिला हुआ था। डिप्टी कमिश्नर की सहायता के लिए आठ सहायक अथवा अतिरिक्त सहायक कमिश्नर थे और प्रत्येक तहसील, तहसीलदार और नायब तहसीलदार के अधीन थी। ये अधिकारी राजस्व संबंधी काम भी देखते थे और न्यायिक कार्य भी। डिप्टी कमिश्नर पूरे जिले के लिए रजिस्ट्रार होता था और वह चार अलग-अलग शहरों में नियुक्त सब रजिस्ट्रारों के काम की देखरेख करता था। वह जिला बोर्ड और दिल्ली नगर पालिका-दोनों ही का पदेन अध्यक्ष होता था। दिल्ली, सोनीपत, बल्लभगढ़ और फरीदाबाद में नगर पालिकाएं होती थी और महरौली तथा नजफगढ़ में नोटिफाइड एरिया कमेटियां। एक जिला बोर्ड भी हुआ करता था। 




जब दिसम्बर 1911 में अंग्रेजों के तीसरे दिल्ली दरबार में सम्राट ने दिल्ली को अपने साम्राज्य की राजधानी घोषित किया तब राजधानी के नागरिक प्रशासन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। 1912 में दिल्ली सूबा बना, जिसमें 773 गांव थे। शाहदरा 1916 में दिल्ली सूबे में मिलाए जाने एक अधिसूचित क्षेत्र था। दिल्ली का किला भी, जो पहले छावनी था, इसी श्रेणी में रखा गया। सिविल लाइन या सिविल स्टेशन और नई दिल्ली अपेक्षाकृत रूप में बाद में बने। इसमें सिविल लाइन को 1913 में अधिसूचित क्षेत्र घोषित किया गया। नई दिल्ली का गठन एक दूसरी श्रेणी की नगरपालिका के रूप में फरवरी 1916 में हुआ, जिसका मूल उद्देश्य उस बहुत बड़ी संख्या वाले मजदूरों की सफाई से संबंधित आवश्यकताओं को पूरा करना था, जो नई राजधानी के निर्माण में कार्यरत थे।


Saturday, January 7, 2017

difference of action and knowledge_roti_रोटी




रोटी खाने के लिए उसे बनाना भी आना,

जरुरी नहीं होता.

History of local administration in British Delhi_दिल्ली के स्थानीय प्रशासन का आरंभिक ब्रिटिश इतिहास

0701201, दैनिक जागरण 


दिल्ली के स्थानीय प्रशासन यानि नगरपालिका का इतिहास देश के समस्त नागरिक प्रशासनों में सबसे पुराना है। 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में भारतीयों की हार के बाद 1858 में दिल्ली में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज ख़त्म हो गया। दिल्ली अंग्रेजी साम्राज्य का हिस्सा बन गई ।


दिल्ली को पंजाब सूबे में जोड़ दिया गया। दिल्ली, पंजाब के पांच डिवीजनों में से एक थी, जिसके तहत हिसार, रोहतक, गुडगांव, करनाल, अंबाला, शिमला और दिल्ली के जिले थे। 1862 में दिल्ली जिले का दिल्ली, बल्लभगढ़ और सोनीपत तहसीलों में विभाजन हुआ।


तब से नगरपालिका व्यवस्था किसी न किसी रूप में दिल्ली को मिली। 1862 में नगर सुधार अधिनियम, 1850 को पंजाब सरकार की एक अधिसूचना से नाम पर दिल्ली पर लागू किया गया और इस प्रशासन का नाम पहले देहली म्युनिसिपल कमीशन रखा गया। बाद में, यह देहली म्युनिसिपल कमेटी या दिल्ली नगर पालिका हुआ।


1863 में दिल्ली डिविजन के आयुक्त कर्नल जी.डब्ल्यू. हैमिल्टन की अध्यक्षता में दिल्ली म्यूनिसिपल कमेटी की पहली बैठक हुई। इस सभा में सात भारतीय और चार अंग्रेज सदस्यों थे।



इस तारीख के बाद राजधानी के म्युनिसिपल प्रशासन का स्पष्ट और क्रमिक रिकॉर्ड मिलता है। तब नजफगढ़ और महरौली के पुराने नगर की नगरपालिकाएं होती थीं, जिन्हें 1886 में अधिसूचित क्षेत्र के रूप में गठित किया गया।



दिल्ली के आयुक्त (कमिश्नर) कर्नल हैमिल्टन इस म्युनिसिपल कमीशन के अध्यक्ष तथा डब्ल्यू। एच. मार्शल इसके अवैतनिक सचिव थे। उस समय, इसके कुल कर्मचारियों में सुपरिटेंडेन्ट, नायब सुपरिटेंडेन्ट, जमादार, मुंशी, चपरासी और कर उगाने वाला कर्मचारी होते थे। कई बरसों तक म्युनिसिपल कमीशन में सेक्रेटरी ही प्रमुख अधिकारी होता था परंतु बाद में इस पद को इंजीनियर-सेक्रेटरी में बदल दिया गया।



1911 में तीसरे दिल्ली दरबार में अंग्रेज राजा किंग जॉर्ज ने दिल्ली को अंग्रेजी साम्राज्य की राजधानी बनाने की घोषणा की। इसके नतीजा 1912 में अलग से दिल्ली सूबे के गठन के रूप में सामने आया। इस सूबे में 773 गांव थे, जिसमें दिल्ली तहसील में 267, सोनीपत तहसील में 141 और बल्लभगढ़ तहसील में 265 गांव थे।


उस समय तक डिप्टी कमिश्नर ही इस कमेटी का प्रधान हुआ करता था और दिल्ली सूबे के समस्त आवश्यक प्रशासनिक कार्यों की देखरेख करता था। यह सेक्रेटरी सफाई, स्वास्थ्य, अर्थ सम्बन्धी के अलावा जिला मेजिस्ट्रेट भी होता था। इस तरह से पूरा प्रशासन एक सूत्र में बंधा हुआ था और सारे मुख्य विषय निर्णय के लिए डिप्टी कमिश्नर के पास भेजे जाते थे। बाद में, डिप्टी कमिश्नर एच. सी. बीडन की अध्यक्षता में प्रशासन में कुछ अन्य स्वतन्त्र विभागों की स्थापना हुई।


शाहदरा 1916 में दिल्ली सूबे में मिलाए जाने एक अधिसूचित क्षेत्र था। दिल्ली का किला भी, जो पहले छावनी था, इसी श्रेणी में रखा गया। सिविल लाइन और नई दिल्ली अपेक्षाकृत रूप में बाद में बने। इसमें सिविल लाइन को 1913 में अधिसूचित क्षेत्र घोषित किया गया।


नई दिल्ली का गठन एक दूसरी श्रेणी की नगरपालिका के रूप में फरवरी 1916 में हुआ। इस नगरपालिका को बनाने का मूल उद्देश्य नई राजधानी के निर्माण में कार्यरत असंख्य मजदूरों की सफाई से संबंधित आवश्यकताओं को पूरा करना था।



Passion_Life




जीवन में बहुधा तार्किकता, जीवन की गति को मंथर कर देती है जबकि पागलपन उसे गतिशील बनाता है.

Tuesday, January 3, 2017

Tum Chandan ham pani_Raidas_प्रभु जी तुम चंदन हम पानी_संत रैदास

संत रैदास



प्रभु जी तुम चंदन हम पानी।

जाकी अंग-अंग बास समानी॥

प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा। 

जैसे चितवत चंद चकोरा॥

प्रभु जी तुम दीपक हम बाती। 

जाकी जोति बरै दिन राती॥

प्रभु जी तुम मोती हम धागा। 

जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।

प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा। 

ऐसी भक्ति करै 'रैदासा॥


First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...