28012017, दैनिक जागरण
तीस हजारी का नाम आने पर आज अधिकतर दिल्लीवासियों की आंखों के सामने उत्तरी दिल्ली में एक भीड़भाड़, धूल भरी जिला अदालतों के परिसर का दृश्य उभर आता है। शायद कोई बिरला ही होगा, जिसे तीस हजारी के जहाँआरा से जुड़े होने का पता होगा।
तीस हजारी के इतिहास का एक सिरा मुगल बादशाह शाहजहाँ (1592-1666) तक जाता है। मुगल तारीख के पन्नों में झांकने से पता चलता है कि शहजादी जहाँआरा (1614-1681) को कुदरत से बेहद प्यार था। शाहजहां की दिलअजीज और बड़ी बेटी शहजादी जहाँआरा के आदेश पर ही यहाँ 30,000 पेड़ों का एक बगीचा तैयार किया गया था। इस तरह, तीस हजारी शब्द चलन में आया।
ऐसा कहा जाता है कि जब शाहजहां को उसके तीसरे बेटे औरंगजेब ने आगरा किले में कैद किया तो शहजादी जहाँआरा ने ही शाहजहां की मौत तक उसकी देखभाल की थी। बाप और बेटी में बेहद प्यार था और शहजादी जहाँआरा पूरी ईमानदारी से कैद में अपने बीमार पिता का ख्याल रखा।
कुदरत से मुहब्बत का ही नतीजा था कि फारसी कवि सादी से प्रभावित शहजादी जहाँआरा ने कच्ची कब्र में ही दफन होने की तमन्ना जताई थी। इसी का नतीजा है कि हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास शहजादी जहाँआरा की संदूकनुमा खोखली कब्र बनी है, जिसमें घास उगी हुई है। उसके स्मृति लेख में लिखा है, मेरी कब्र को मत ढकना, उसे हरी घास से बचाना, घास ही मुझे ढकेगी। “दिल्लीः अननोन टेल्स ऑफ़ ए सिटी” में आर.वी. स्मिथ लिखते है कि यह भाग्य की विडंबना है कि जहाँआरा को एक बगीचे में बनी कब्र में दफन होने की अंतिम इच्छा के विपरीत हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास एक आधी कच्ची कब्र में दफनाया गया।
“शाहजहानाबादः द सावरिजन सिटी इन मुगल इंडिया” में स्टीफन पी. ब्लेक लिखते हैं कि शाहजहां ने काबुल दरवाजे के बाहर नीम के पेड़ों वाला एक बाग बनवाया था, जो कि तीस हजारी बाग कहलाता था। औरंगजेब की बेटी जीनत-उल-निसा बेगम और मुहम्मद शाह की बेगम मल्का जमानी को भी वहाँ दफनाया गया।
मुगलों के जमाने में यह छायादार पेड़ों वाला एक खुला मैदान होता था, जहां कश्मीर जाने वाले कारवां दिल्ली का शहर छोड़ने के बाद अपना डेरा डालते थे। इसी तरह, बाहर से सफर करके आने वाले यात्रियों के दल शहर में दाखिल होने से पहले पड़ाव डालते थे। यही वजह है कि जिस दरवाजे से होकर ये तमाम मुसाफिर और कारवां गुजरते थे, उसे कश्मीरी दरवाजा (गेट) के नाम से जाना जाता था।
यह शाहजहां के बसाए शहर शाहजहाँनाबाद के परकोटे के करीब बनाई गई विशाल दीवार में निर्मित दस दरवाजों में से एक था। यहां कई छायादार पेड़ थे, जिनकी छांव में माल रखा जाता था और काफिले के पशु और आदमी पल भर आराम कर लेते थे। इस ठहराव स्थल वाले मैदान में कुत्ते, चील-कौवे और जंगली जानवरों सहित चोर तथा लुटेरे अपने-अपने कारण से जमा होते थे। यहां रात में छापे के डर से गुर्जरों का खासा आतंक था।
उन दिनों में तीस हजारी में ऊंट, घोड़े और यहां तक हाथी भी देखे जा सकते थे। इसके अलावा बैलगाड़ियां और दूसरी पशु गाड़ियां भी नजर आती थी। जहां पर अनेक व्यापारी भी अपना डेरा डालते थे, जिनमें से एक बड़ी संख्या कश्मीरियों की होती थी।
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