Saturday, April 29, 2017
Sunday, April 23, 2017
Near_Dear_नजदीक_दूर
जब कोई कम वक्त में ज्यादा नजदीक आ जाता है तो उसके दूर होने की गुंजाइश ज्यादा होती है.
Caste_Non Indian_Hindu religions_हिंदुस्तान में जाति_इस्लाम-ईसाईयत
जाति है कि जाती नहीं.
वैसे अगर देखे तो हिंदुस्तान में जाति ने इस्लाम-ईसाईयत किसी को भी नहीं छोड़ा, जहाँ फिरकों की मस्जिद होती है न कि महज़ब की नहीं.
ऐसे ही ईसाईयत में भी नीची जाति से ईसाई बने व्यक्तियों के गिरिजाघर ही नहीं कब्रिस्तान तक जुदा है.
यानी अहिंदू होकर भी जातिवाद का भूत, विक्रम-बेताल के तरह सिर पर अभी भी सवार है.
Saturday, April 22, 2017
Battle of Patparganj for Delhi_दिल्ली पर प्रभुत्व_पटपड़गंज की लड़ाई
22042017_DJ |
आज दिल्ली के यमुना पार इलाके के पटपड़गंज क्षेत्र की पहचान वहाँ पर बनी प्रसिद्ध आवासीय सोसाइटियों और मदर डेयरी संयंत्र के कारण है। यह बात कम लोगों को ही पता है कि यह स्थान कभी दिल्ली के लिए हुई निर्णायक लड़ाई का मैदान था।
पटपड़गंज की लड़ाई, दिल्ली पर प्रभुत्व का संघर्ष था।इससे पहले यानि तब दिल्ली में मराठों का वर्चस्व था। अपनी राजधानी में स्वयं प्रवेश करने में असमर्थ निर्वासित मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय को वर्ष 1772 में महादजी सिन्धिया की मराठा सेना इलाहाबाद से दिल्ली लाकर उसे दिल्ली की गद्दी पर फिर से बिठाया था। इसकी एवज में बादशाह ने लगभग सब अधिकार मराठों को दे दिए थे।
शाह आलम ने एहसान फरामोशी दिखाते हुए मराठों के प्रभाव से मुक्त होने के लिए लॉर्ड लेक से संरक्षण की गुहार की। अंग्रेज़ भी इसी मौके की तलाश में थे। सो इसका नतीजा पटपड़गंज के युद्ध के रूप में सामने आया।
आज से करीब दो सौ तेरह साल पहले, पटपड़गंज में 11 सितंबर 1803 को अंग्रेज जनरल गेरार्ड लेक के सैनिकों और फ्रांसिसी कमांडर लुई बॉरक्विएन के नेतृत्व में वाली सिंधिया की मराठा सेना में एक भयंकर लड़ाई हुई। दिल्ली की इस लड़ाई में मराठों की हार ने उत्तर भारत में मराठा शक्ति के अवमूल्यन और अंग्रेजो के प्रभुत्व को निर्णायक रूप से तय कर दिया।
पटपड़गंज के इस निर्णायक युद्ध की कहानी नोएडा के हरे-भरे गोल्फ कोर्स के बीच खड़े स्मारक-स्तंभ से पता चलती है। यहाँ पर 1916 में लगाए गए स्तंभ के अनुसार, इस स्थान के पास 11 सितम्बर 1803 को दिल्ली की लड़ाई लड़ी गई थी, जिसमें लुई बॉरक्विएन की कमान में सिन्ध्यिा की मराठा फौजों को जनरल गेरार्ड लेक के नेतृत्व में ब्रितानी सेना ने पराजित किया था। सिन्धिया की मराठा सेना की हार के तीन दिन बाद दिल्ली ने भी हथियार डाल दिए।
"द एंग्लो-मराठा कैम्पैनस एंड द कन्टेस्ट फॉर इंडियाः द स्ट्रगल" पुस्तक में रैंडोल्फ जी एस कूपर लिखते हैं कि इस लड़ाई का स्थान एक छोटा सा दोआब था जो कि पूर्व में हिंडन नदी और पश्चिम में यमुना नदी से घिरा हुआ था। कुछ ने इसे पटपड़गंज की लड़ाई कहा है लेकिन लेक के प्रयासों से मिली सफलता के कारण यह स्थान दिल्ली की लड़ाई के रूप में ही जाना गया।
शाह आलम द्वितीय ने मराठों के खिलाफ अंग्रेजों से मदद क्या मांगी कि वास्तव में सत्ता ही उनके हाथ से निकल गई। “शाहजहानाबादः द साविरजिन सिटी ऑफ़ मुगल इंडिया 1639-1739” में स्टीफन पी. ब्लेक लिखते हैं कि अंग्रेजों और मुगल सम्राट के बीच संबंध तनावपूर्ण थे और इस संबंध में 1858 में बहादुर शाह द्वितीय के अपदस्थ होकर निर्वासित होने तक गांठ बनी ही रही। शाह आलम ने लार्ड लेक से संरक्षण की गुहार की थी लेकिन इसको लेकर एक औपचारिक संधि कभी नहीं हुई।
वर्ष 1805 के एक आदेश से अंग्रेजों ने मुग़ल बादशाह के संरक्षण के नियम तय किए। इस तरह, अंग्रेजों ने पहले तो मुगल बादशाह के नाम पर शासन करना शुरू किया और बाद में सत्ता पर ही काबिज हो गए। मराठों से गद्दारी का नतीजा यह निकला कि कभी लगभग पूरे भारत पर ही राज्य करने वाले मुगलों के वंशज अब अंग्रेजों पेंशनर बन गए। कहने को तो पहले की ही तरह वे बादशाह थे लेकिन असली सत्ता अंग्रेज रेजीडेंट के हाथों में चली गई।
Ford_Labour_Five Days week_हेनरी फोर्ड_पांच दिन का कार्यदिवस
हेनरी फोर्ड |
किसी को भी यह बात जानकर हैरानी होगी कि दुनिया में मजदूरों के हितों के लिए पांच दिन का कार्यदिवस करने की पहल किसी कम्युनिस्ट सोवियत संघ या चीन जैसे देश की सरकारों ने नहीं की थी.
संसार में सबसे पहले पूंजीपति देश कहे जाने वाले अमेरिका में कार निर्माता हेनरी फोर्ड ने अपनी कंपनी में सप्ताह में दो दिन का अवकाश घोषित किया था।
फोर्ड ने शानिवार व रविवार को छुट्टी का ऐलान किया ताकि उनके मजदूर-कर्मचारी अपने निजी काम करने के साथ-साथ आराम भी कर सके।
Friday, April 21, 2017
Thursday, April 20, 2017
Saturday, April 15, 2017
दिल्ली का प्राचीनतम हिंदू किला था, लाल कोट_Hindu Fort City_Lal Kot
किला राय पिथौरा-लाल कोट भारतीय गौरवशाली अतीत की एक प्रेरणादायक गाथा का भाग है। अरावली पर्वत श्रृंखला के सबसे सामरिक भाग में स्थित किला दिल्ली के इतिहास के कई उतार-चढ़ाव का साक्षी रहा है। “दिल्ली और उसका अंचल” पुस्तक के अनुसार, अनंगपाल को पृथ्वीराजरासो में अभिलिखित भाट परम्परा के अनुसार दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। यह कहा जाता है कि उस (अनंगपाल) ने लाल कोट का निर्माण किया था जो कि दिल्ली का प्रथम सुविख्यात नियमित प्रतिरक्षात्मक प्रथम नगर के अभ्यन्तर के रूप में माना जा सकता है। वर्ष 1060 में लाल कोट का निर्माण हुआ। जबकि सैयद अहमद खान के अनुसार, किला राय पिथौरा वर्ष 1142 में और ए. कनिंघम के हिसाब से वर्ष 1180 में बना।
दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल और डीडीए के लाडो सराय स्थित कुतुब गोल्फ कोर्स में पृथ्वीराज चौहान की भव्य मूर्ति सहित परिसर के निर्माण के सूत्रधार जगमोहन की नवीनतम पुस्तक “ट्रम्प्स एंड ट्रैजिडीस ऑफ़ नाइन्थ दिल्ली” के अनुसार, ग्यारहवीं शताब्दी के अंत तक, तोमर राजपूतों ने उत्तर-पश्चिम की ओर अपना वर्चस्व बढ़ाया और सूरज कुंड में अपने क्षेत्रीय मुख्यालय की स्थापना की। उनके राजा अनंग पाल ने सूरज कुंड के लगभग दस किलोमीटर पश्चिम में लाल कोट नामक एक किले का निर्माण किया।
बारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में विग्रहराज चौहान ने तोमर राजा को हराकर लाल कोट सहित उसके क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया। उसके बाद जब पृथ्वीराज चौहान, जो कि राय पिथौरा के नाम से भी प्रसिद्ध थे, सिंहासन पर बैठे तो उन्होंने लाल कोट का विस्तार करते हुए एक विशाल किला बनाया। इस तरह, लाल कोट कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है बल्कि लाल कोट-रायपिथौरा ही दिल्ली का पहला ऐतिहासिक शहर है। इस किलेबंद बसावट की परिधि 3.6 किलोमीटर थी। चौहान शासन काल में इस किलेबंद इलाके का और अधिक फैलाव हुआ जो कि किला-राय पिथौरा बना।
तोमरों और चौहानों ने लाल कोट के भीतर अनेक मन्दिरों का निर्माण किया और इन सभी को मुसलमानों ने गिरा दिया और उनके पत्थरों को मुख्यतः कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद के लिए पुनः इस्तेमाल किया गया। पत्थर की बनी विष्णु की एक चतुर्भजी मूर्ति कुतुबमीनार के दक्षिण पूर्व में पाई गई जो सन् 1147 की है और इसे अब राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है।
अनगढ़े पत्थरों से बनी ये प्राचीरें बहुत हद तक मलबे के ढेर से ढकी हुई हैं और इसका पूरा घेरा अभी तक खोजा नहीं जा सका है। ये मोटाई में पांच से छह मीटर तक मोटी है और कुछ किनारों पर 18 मीटर तक ऊंची हैं और उनके बाहर की ओर चौड़ी खन्दक है। तैमूर (लंग) के अनुसार इसमें तेरह द्वार थे। द्वारों में से जो अब भी मौजूद है, वे हैं-हौजरानी, बरका और बदायूं द्वार। इनमें से अन्तिम द्वार के बारे में विदेशी यात्री इब्नबतूता ने उल्लेख किया है और संभवतः यह शहर का मुख्य प्रवेश द्वार था।
लाल कोट के समान इस (राय पिथौरा) की प्राचीरों को काटती हुई दिल्ली-कुतुब और बदरपुर-कुतुब सड़कें गुजरती है। दिल्ली की ओर से अधचिनी गांव से आगे बढ़ने पर सड़क के दोनों ओर किला राय पिथौरा की प्राचीरें, जिन्हें सड़क काटती हुई जाती है, देखी जा सकती है।
इतिहासकार एच सी फांशवा अपनी पुस्तक “दिल्ली, पास्ट एंड प्रेजेन्ट” में लिखता है कि यह एक और आकस्मिक संयोग है कि दिल्ली में सबसे पुराने हिंदू किले का नाम लाल कोट था तो मुसलमानों (यानी मुगलों के) नवीनतम किले का नाम लाल किला है।
तराइन की दूसरी लड़ाई में अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद वर्ष 1191 में इस शहर पर विदेशी तुर्की-मुसलमान शासकों ने कब्जा कर लिया। कुतबुद्दीन ने सन् 1192 में इस पर अधिकार किया और इसे अपनी राजधानी बनाया। और अगली शताब्दी तक यानी खिलजी के सीरी के निर्माण तक यह उनकी सल्तनत का केंद्र था।
Monday, April 10, 2017
Sunday, April 9, 2017
हिन्दू धर्म _Hindu Dharma
यह हिन्दू धर्म की विविधता का ही पुण्य प्रताप था कि बुद्धम् शरणम् गच्छामि के एकालाप संगीत के मध्य आदि शंकराचार्य का स्वर मुखर हुआ।
मुस्लिम सुल्तानों के हिन्दू प्रजा के इस्लाम में जबरिया मतांतरण और जज़िया वाली गुलामी लादने के बीच जीते हुए हिन्दू संतों के तेज से भक्ति की अनेक धाराएं बनी, जिनसे कर्म बेशक बदला पर धर्म का मर्म बचा रहा।
इसके पीछे इस्लाम के एकेश्वरवादी कट्टर विचार की तुलना में हिन्दू धर्म के भीतर अनेक पंथों के अस्तित्व और उनके विचारों से मजबूत समय की ढाल थी।
Saturday, April 8, 2017
हरी-भरी 'नई; दिल्ली की कहानी_Flora of New Delhi
दैनिक जागरण 08042017 |
अंग्रेज वास्तुकारों की जोड़ी ने एडविन लुटियन और हरबर्ट बेकर ने ब्रितानी राजधानी नई दिल्ली के लिए जो उपयुक्त भूखंड चुना, वह पुराने शहर शाहजहांबाद के दक्षिण में स्थित एक जमीन का टुकड़ा था। इस जमीन की पश्चिमी सीमा पर, जहां एक ओर दिल्ली की रिज थी तो पूर्व में यमुना नदी। जबकि इसके मध्य में पुराने खंडहरों वाला इलाका था, जहां उस समय पर बड़े पैमाने पर खेतीबाड़ी होती थी।
लुटियन के ‘गार्डन सिटी’ की कल्पना के अनुसार, यह शानदार सरकारी इमारतों (जिसमें गर्वमेंट हाउस, सचिवालय, इंडियन वॉर मेमोरियल आर्क और प्रिंसेस पार्क के राजा-रजवाड़ों के भवन थे) की जमीन थी। इस शहर में पुराना किला जैसे प्राचीन ऐतिहासिक स्मारकों को भी शामिल करने की योजना थी। पुराने और नए स्थानों वाले इस पूरे भूखंड के सड़क मार्गों को ज्यामितीय आधार पर आपस जोड़ा जाना था। इसमें किंग्स-वे (आज का राजपथ) और क्वीन-वे (आज का जनपथ) इन सड़क मार्गों की मुख्य धुरी थे।
लेकिन एक बगीचे का आभास देने वाले शहर में, सड़क मार्गों के किनारों को एकदम खाली या पत्थरों के फर्श के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता था। इसके लिए जरूरी था कि प्रत्येक मार्ग के किनारों पर हरे-भरे वृक्ष लगाए जाए। दिल्ली के शुष्क और धूल भरे वातावरण को देखते हुए ऐसा करना और आवश्यक था क्योंकि छायादार पेड़ हरियाली और शीतलता प्रदान करने में सहायक थे। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि ऐसा करने से नए शहर की प्रभावशाली पहचान कायम होती।
जाहिर तौर पर इसके लिए एक सजग डिजाइन और योजना की आवश्यकता थी। नई दिल्ली के मार्गों में होने वाले पौधारोपण की योजना बनाने वालों में प्रमुख रूप से लुटियन, विलियम रॉबर्ट मुस्टे (बागवानी के निदेशक) और कैप्टन जॉर्ज स्विटन (नगर योजना आयोग के अध्यक्ष) थे। इन व्यक्तियों ने अपने आलावा, दूसरे शहर योजनाकारों, वनकर्मियों और बागवानीविदों की सहायता से लगाए जाने वाले वृक्षों की पहचान का काम करना शुरू किया। सड़क यातायात के बीच उपयुक्त खाली स्थानों पर न होने पर इन वृक्षों के पनपकर बड़े होने और फैलने की संभावना नहीं थी। इतना ही नहीं, इससे आसपास के भवनों को देखने के ‘दृश्य’ के भी बाधित होने का खतरा था। दिल्ली के शुष्क मौसम को देखते हुए सूखा प्रतिरोधी वृक्षों की जरूरत थी। इतना ही नहीं, सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण बात यह थी कि इन वृक्षों का सदाबहार होना आवश्यक था।
इन व्यक्तियों के समूह ने काफी शोध और चर्चा के उपरांत इन मार्गों पर लगाने के लिए 13 प्रजातियों के वृक्षों की सूची तैयार की। इनमें से आठ प्रजातियों (जिसमें भारत में आम तौर पर पाए जाने वाले जामुन, नीम, अर्जुन, पीपल और इमली के वृक्ष थे) के पौधे सर्वाधिक लगाए गए। इसके अलावा, एक आयातित प्रजाति (अफ्रीकी सॉसेज पेड़) को भी लगाने के लिए चुना गया था।
लुटियन और मुस्टे ने नई दिल्ली में लगाये जाने वाले प्रस्तावित पौधों की किस्मों को चयनित करने के साथ ही यह योजना भी बनाई कि एक मार्ग पर ही कैसे और कहां विभिन्न प्रजातियों के वृक्ष लगाए जाएंगे।
नई दिल्ली के केंद्रीय भाग में स्थित इमारतों को बेहतरीन दिखने के लिए कैसे वृक्षों को एक साथ समूह में या अलग-अलग लगाने की संभावना का भी खास ध्यान रखा गया।
नई दिल्ली के केंद्रीय भाग सहित आस-पास के इलाके में पेड़ों को लगाने की योजना पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया। लुटियन और मुस्टे ने केंद्रीय भाग की इमारतों की विशेषता को दर्शाने वाली समरूपता को कायम रखते हुए, इस क्षेत्र के रास्तों में केवल एक प्रजाति (जामुन) के पौधों को लगाने की बात सुनिश्चित की।
इसी तरह, गर्वमेंट हाउस (आज का राष्ट्रपति भवन), सचिवालय (आज का नार्थ ब्लॉक-साउथ ब्लॉक), और न्यायालयों (आज का हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट) जैसे महत्वपूर्ण सरकारी भवनों तक समान प्रजातियों के पेड़ों के लगने और उनके बड़े होने की बात पर भी ध्यान दिया गया।
इतना ही नहीं, बड़े और पनपने वाले वृक्षों की प्रजातियों के पौधों को महत्वपूर्ण भवनों की ओर जाने वाले रास्तों पर लगाया गया। जबकि तत्कालीन सरकारी अंग्रेज़ अधिकारियों के आवास के लिए बने बंगलों की तरफ जाने वाली सड़कों पर दूसरी तरह के पेड़ लगाए गए। गार्डन सिटी के प्रभाव को बढ़ाने और एक क्षेत्र से दूसरे बगल वाले क्षेत्र के बीच प्राकृतिक निरंतरता को बनाए रखने के उद्देश्य से लिए अक्सर चौराहों या सड़कों के आपस में मिलने वाले स्थानों पर समान प्रजाति के ही वृक्ष लगाए गए।
इतना ही नहीं, बड़े और पनपने वाले वृक्षों की प्रजातियों के पौधों को महत्वपूर्ण भवनों की ओर जाने वाले रास्तों पर लगाया गया। जबकि तत्कालीन सरकारी अंग्रेज़ अधिकारियों के आवास के लिए बने बंगलों की तरफ जाने वाली सड़कों पर दूसरी तरह के पेड़ लगाए गए। गार्डन सिटी के प्रभाव को बढ़ाने और एक क्षेत्र से दूसरे बगल वाले क्षेत्र के बीच प्राकृतिक निरंतरता को बनाए रखने के उद्देश्य से लिए अक्सर चौराहों या सड़कों के आपस में मिलने वाले स्थानों पर समान प्रजाति के ही वृक्ष लगाए गए।
वर्ष 1919-20 की अवधि में सड़क मार्गों के बीच पौधारोपण का काम शुरू हुआ और फिर अगले पांच साल तक पेड़ लगाए गए। गवर्नमेंट हाउस और सचिवालय के उद्घाटन (1931) के समय तक लुटियन और मुस्टे की योजनाओं के अनुरूप ये पौधे बड़े होकर अच्छे-खासे पेड़ों का रूप ले चुके थे। आज एक शताब्दी के लगभग समय होने के बाद भी नई दिल्ली की सड़कों के किनारे लगाए गए वृक्षों के कारण ही देश के राजधानी की गिनती दुनिया के सर्वाधिक सुंदर भूदृश्यों वाले शहरों में होती है।
Ban on Illegal slaughter houses_उत्तर प्रदेश सरकार का निर्णय
ऑल इंडिया मीट एंड लाइव स्टॉक एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन के एक पदाधिकारी के अनुसार, इस्लामी हलाल में माहिर कसाइयों को छोड़कर बूचड़खानों में काम करने वाले लगभग शेष सभी मजदूर हिंदू हैं।
अब अगर ऐसे में एसोसिएशन के अधिकारियों का यह दावा है कि बूचड़खानों में काम करने वाले मजदूरों में अधिसंख्या हिंदुओं की है तो उत्तर प्रदेश सरकार के इस निर्णय के मुस्लिम विरोधी होने का तर्क पूरी तरह से झूठा है। इतना ही नहीं, इस कुतर्क का दुष्प्रचार करने वाले पूरी तरह से मक्कार और काइयां हैं।
Friday, April 7, 2017
Tuesday, April 4, 2017
Prashant bhushan apologies for insulting Lord Krishna_ काले कोट से काले मुंह तक
काले कोट से काले मुंह तक
आइआइएमसी का एक जूनियर अहीर साथी है, उसने लिखा था कि "अभी तो कृष्ण को गाली पड़ी है", आगे देखिये होता है क्या? ब्राह्मणों से काफी नाराज़ था! तो बंधु गरियाने वाले ने गिरकर माफ़ी मांगी हैं, अब तो ठीक है न! सच्चाई यही ही कि सूरज पर थूकने से सूरज पर नहीं बल्कि थूकने वाले का मुंह ही गंदला होता है. सो रामनवमी पर "हाथी-घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की".
आइआइएमसी का एक जूनियर अहीर साथी है, उसने लिखा था कि "अभी तो कृष्ण को गाली पड़ी है", आगे देखिये होता है क्या? ब्राह्मणों से काफी नाराज़ था! तो बंधु गरियाने वाले ने गिरकर माफ़ी मांगी हैं, अब तो ठीक है न! सच्चाई यही ही कि सूरज पर थूकने से सूरज पर नहीं बल्कि थूकने वाले का मुंह ही गंदला होता है. सो रामनवमी पर "हाथी-घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की".
Monday, April 3, 2017
Saturday, April 1, 2017
दिल्ली नगर निगम का इतिहास_History of local administration of Delhi
पंजाब केसरी 01042017 |
अगले महीने राजधानी में तीन दिल्ली नगर निगमों के पार्षदों के के लिए चुनाव होने वाले हैं. पर आज के नागरिकों में से शायद गिनती के व्यक्तियों को ही इस बात की जानकारी होगी कि देश की राजधानी दिल्ली के नागरिक प्रशासन का एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है।
वैसे राजधानी में स्थानीय प्रशासन का आरंभ, अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 की पहली आजादी की लड़ाई में भारतीयों की हार और अंग्रेज़ों के राजधानी पर दोबारा अधिकार के साथ हुआ। वर्ष 1862 के लगभग स्थापित प्रशासन का पहला नाम देहली म्युनिसिपल कमीशन था जो बाद में बदलकर देहली म्युनिसिपल कमेटी या दिल्ली नगर पालिका हुआ और 7 अप्रैल 1958 से देहली म्युनिसिपल कारपोरेशन अथवा दिल्ली नगर निगम हुआ। इस तरह से, दिल्ली का नागरिक प्रशासन देश के समस्त नागरिक प्रशासनों में सबसे पुराना है।
दिल्ली नगर पालिका का लिखित इतिहास, इसकी संविधान सभा की 23 अप्रैल 1863 को हुई पहली बैठक से प्रारम्भ होता है। इस सभा में सात भारतीय और चार अंग्रेज सदस्यों थे। इसकी पहले साल की कुल आय 98,276 रूपए थी। उस समय पालिका का सर्वाधिक वेतन (साठ रूपए मासिक) पाने वाला अधिकारी सुपरिटेंडेन्ट हुआ करता था। दिल्ली के आयुक्त (कमिश्नर) कर्नल हैमिल्टन इस म्युनिसिपल कमीशन के अध्यक्ष तथा डब्ल्यू. एच. मार्शल इसके अवैतनिक सचिव हुआ करते थे। तत्कालीन दौर में इसके कुल कर्मचारियों में सुपरिटेंडेन्ट, नायब सुपरिटेंडेन्ट, जमादार, मुंशी, चपरासी और कर की उगाही करने वाला कर्मचारी होते थे। कई बरसों तक म्युनिसिपल कमीशन में सेक्रेटरी ही प्रमुख अधिकारी होता था परंतु बाद में इस पद को इंजीनियर-सेक्रेटरी में बदल दिया गया।
दिल्ली म्युनिसिपल कमीशन की एक जनवरी 1863 को हुई पहली साधारण बैठक में प्रथम आय-व्यय के अनुमान में चुंगी के रूप में तम्बाकू, घी, चीनी, तेल और पान जैसी वस्तुओं पर कर लगाया गया। वर्ष 1891 में राजधानी की जनसंख्या 1.92 लाख हो गई थी। म्युनिसिपल कमीशन का 1884-85 में बजट 30,3900 रूपए था जो कि 1938-39 में बढ़कर 50 लाख रूपए से अधिक हो गया था।
1911 में किंग जॉर्ज पंचम के तीसरे दिल्ली दरबार में ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) से दिल्ली लाने की घोषणा के साथ ही दिल्ली को एक नयी पहचान मिली| उस समय देश की राजधानी से पहले दिल्ली, पंजाब प्रांत की तहसील थी| दिल्ली को राजधानी बनाने के लिए दिल्ली और बल्लभगढ़ जिले के 128 गांवों की जमीन अधिग्रहित की गई थी| इसके अलावा, मेरठ जिले के 65 गांवों को भी शामिल किया गया था| मेरठ जिले के इन गांवों को मिलाकर यमुनापार क्षेत्र बनाया गया| तत्कालीन वाइसराय लार्ड हार्डिंग लिखते है कि इस घोषणा से दर्शकों में एक आश्चर्यजनक रूप से एक गहरा मौन पसर गया और चंद सेंकड बाद करतल ध्वनि गूंज उठी। ऐसा होना स्वाभाविक था। अपने समृद्व प्राचीन इतिहास के बावजूद जिस समय दिल्ली को अनचाहे राजधानी बनने का मौका दिया गया, उस समय दिल्ली किसी भी लिहाज से एक प्रांतीय शहर से ज्यादा नहीं थी।
1 अक्टूबर, 1912 को दिल्ली जिले की दो तहसील और 528 वर्गमील के महरौली क्षेत्र को मिलाकर दिल्ली को मुख्य आयुक्त के अंतर्गत सूबा घोषित किया गया एवं दिल्ली कानून अधिनियम 1912 लागू किया गया। सन् 1912 में नागरिक प्रशासन के रूप में कार्यरत दिल्ली नगर समिति के अधिनियम में बदलाव कर इसे 25 सदस्य किया गया, जिसमें 11 निर्वाचित, 11 मनोनीत व तीन अधिकारी सदस्यों के रूप में तय किए गए।
तब तक डिप्टी कमिश्नर ही इस कमेटी का प्रधान हुआ करता था और दिल्ली प्रांत के समस्त आवश्यक प्रशासनिक कार्यों की देखरेख करता था। यह सेक्रेटरी सफाई, स्वास्थ्य, अर्थ सम्बन्धी कार्यों के अलावा जिला मेजिस्ट्रेट भी होता था। इस तरह से, पूरा प्रशासन एक सूत्र में बंधा हुआ था और सारे मुख्य विषय निर्णय के लिए डिप्टी कमिश्नर के पास भेजे जाते थे। बाद में, डिप्टी कमिश्नर एच. सी.बीडन की अध्यक्षता में प्रशासन में कुछ अन्य स्वतन्त्र विभागों की स्थापना हुई।
दिल्ली नगर पालिका में कुछ चुनींदा भारतीय प्रतिनिधियों ने धीमे कार्य से असंतुष्ट होकर आन्दोलन किया, जिसके कारण नवंबर 1946 में डिप्टी कमिश्नर के स्थान पर उन्हें अपना प्रतिनिधि प्रधान चुनने का अधिकार मिला। दिल्ली के स्थानीय शासन के लिए यह एक महान जीत थी। शेख हबीबुर्रहनाम दिल्ली नगर पालिका के प्रथम निर्वाचित प्रधान बने तथा बाद में डॉक्टर युद्धवीर सिंह फरवरी 1948-1951 तक इसके प्रधान रहे।
वर्ष 1951 में पहली बार दिल्ली नगर पालिका के लिए राजधानी को को 49 चुनाव क्षेत्रों में बांटा गया और व्यस्कों ने वोट डाला। इसमें तीन क्षेत्र द्वि-सदस्यीय क्षेत्र थे। औद्योगिक, व्यापारिक और श्रमिकों के भी चार तथा दो प्रतिनिधियों के लिए सुरक्षित सीटें थीं। शिक्षा निदेशक, स्वास्थ्य निदेशक, दिल्ली इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट के अध्यक्ष तथा संयुक्त जल व मल मंडल के सचिव-इंजीनियर इस कमेटी के चार पदेन सदस्य बने। इसके अलावा, दिल्ली के मुख्य आयुक्त की ओर से मनोनीत तीन अन्य सदस्य भी हुए। कुल 63 सदस्यों वाली इस नगर पालिका में 50 सदस्य सीधे तौर पर चुने गए थे।
इस तरह, पहली बार व्यस्क मताधिकार पर निर्वाचित नगर पालिका के प्रधान के रूप में लाला शामनाथ ने 30 नवम्बर 1951 को कार्य भार सम्भाला। आज उत्तरी दिल्ली के सिविल लाइन्स से कश्मीरी गेट की तरफ जाने वाला रास्ता शामनाथ मार्ग कहलाता है जो कि इन्हीं लाला शामनाथ के नाम है।
पर बाद में, मुख्य आयुक्त के आदेशानुसार तीन और क्षेत्रों को द्वि-सदस्यीय बना दिया गया तथा तीन अन्य नए क्षेत्र, जो अब तक पश्चिमी नोटिफाइड एरिया कमेटी के अंतर्गत थे, इसी में मिला दिए गए। इस प्रकार नगर पालिका के कुल सदस्यों की संख्या बढ़कर 69 हो गई जिनमें 56 सीधे मतदाताओं से चुने गए थे।
वर्ष 1954 में दोबारा हुए कमेटी के चुनाव में रामनिवास अग्रवाल प्रधान चुने गए। कम व्यक्तियों को इस बात की जानकारी है कि आज आईटीओ चौक या चौराहा इन्हीं रामनिवास अग्रवाल के नाम पर है। फिर, सात अप्रैल 1958 को एक बृहद नगर निगम की स्थापना हुईं, जो कि दिल्ली नगर निगम के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
अंग्रेजी राज और देसी रियासतों का संबंध_British Empire and princely states
दैनिक जागरण 01042017 |
जब एड्विंस लुटियन और हरबर्ट बेकर ने अंग्रेजों की नयी राजधानी नई दिल्ली के डिजाइन करने पर काम शुरू किया, उस समय ब्रितानी भारत में करीब 600 रजवाड़े-रियासतें थीं। इन रियासतों के शासक दिखाने के लिए तो भारतीय राजा-महाराजा थे पर असली ताकत दरबारों में मौजूद अंग्रेज रेजिडेंट के हाथ में थी। अंग्रेज सरकार के इन प्रतिनिधियों के बिना रियासतों में कुछ नहीं होता था।
इन राजाओं को अंग्रेजी राज का स्वामिभक्त बनाए रखने के लिहाज से भारत सरकार अधिनियम 1919 को शाही स्वीकृति देने के बाद 23 दिसंबर 1919 को अंग्रेज सम्राट जॉर्ज पंचम ने चैंबर ऑफ प्रिंसेस की स्थापना की घोषणा की। इस नरेन्द्र मंडल के नाम से भी जाना जाता था। 8 फरवरी 1921 को दिल्ली में चैंबर की पहली बैठक हुई। इस अवसर पर लालकिले के 'दीवान-ए-आम' में आयोजित उद्घाटन समारोह में 'ड्यूक-ऑफ़-कनाट' ने अंग्रेज राजा के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।
चैंबर ऑफ प्रिंसेस की आंरभिक बैठक में देसी रियासतों के 120 राजप्रमुख सदस्य थे। इनमें से 108 राजा अति महत्वपूर्ण राज्यों के थे जो स्वयं ही सदस्य थे। जबकि शेष 12 सीटों के लिए अन्य 127 रियासतों में से प्रतिनिधित्व था। जबकि 327 छोटी रियासतों का चैंबर में कोई प्रतिनिधित्व नहीं था।
चैंबर ऑफ़ प्रिंसेस का मुख्य काम रियासतों-रजवाड़ों से जुड़े विभिन्न मामलों पर अंग्रेज वाइसराय को सलाह देना था। तत्कालीन वायसराय ने चैंबर के गठन के अवसर पर कहा था कि इसका मुख्य कार्य राज्यों को प्रभावित करने वाले या रजवाड़ों के समान विषय सहित ब्रितानी हुकूमत की भलाई के लिए जरूरी मामलों पर चर्चा करना है। वैसे भी, अंग्रेज सरकार ने प्रिंसेस के चैंबर की भूमिका कार्यकारी न रखकर सलाहकार के रूप में तय की थी।
किसी समय में विभिन्न रियासतों के सुंदर वेशभूषाओं में सजे-धजे शासकों के भरा रहने वाले हॉल का उपयोग अब संसद में सांसदों के अध्ययन कक्ष के रूप में होता है। हर साल फरवरी या मार्च में चैंबर ऑफ प्रिंसेस की बैठक कांउसिल हाउस (आज का संसद भवन) के निर्दिष्ट हॉल में होती थी। बैठक के दौरान अपने दिल्ली प्रवास में राजा-महाराजा अपने राजधानी स्थित महलों में राजपरिवारों के सदस्यों और बड़े संख्या में नौकर-चाकरों के साथ ठहरते थे। इस दौरान सामाजिक जमावड़ों के साथ राजाओं के आपस में छोटे समूहों वाली पार्टियां धूमधाम और पूरे उत्साह के साथ आयोजित की जाती थी। राजा-महाराजा अंग्रेज वायसराय से भेंट करते थे तो इसी तर्ज पर वायसराय अपने यहां या दिल्ली जिमखाना क्लब में राजपरिवारों के लिए पार्टी देता था। ऐसी पार्टियों में खानदानी बावर्चियों का बनाया विशेष भोजन और पेय परोसे जाते थे। शाम को होने वाली पार्टियों में राजपरिवारों के सदस्य और सरकारी उच्च अधिकारी मेहमान होते थे।
चैंबर ऑफ प्रिंसेस के गठन का एक सीधा परिणाम अंग्रेजों की नई राजधानी में राजा-महाराजाओं को स्थान देने के रूप में आया। आखिर चैंबर की बैठकों में हिस्सा लेने के लिए राजधानी आने पर दिल्ली में ठहरने के लिए जगह की जरूरत थी। इस जरुरत का परिणाम था, प्रिंसेस पार्क। आज के इंडिया गेट के आस-पास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण रजवाड़ों के शासकों को महल बनाने के लिए आठ एकड़ आकार के 36 भूखंड पट्टे पर दिए गए। इस तरह, हैदराबाद, बड़ौदा,बीकानेर, पटियाला और जयपुर रियासतों को इंडिया गेट की छतरी के किंग्स वे (अब राजपथ) के चारों ओर स्थान आवंटित हुए। जबकि उनसे कम महत्व रखने वाले जैसलमेर, त्रावणकोर, धौलपुर और फरीदकोट के शासकों को केंद्रीय षट्भुज (सेंट्रल हैक्सागन) से निकलने वाली सड़कों पर निर्माण के लिए भूमि दी गई।
इसके बावजूद, लुटियन की दिल्ली के अनुरूप डिजाइन होने की शर्त भी थी। इसके लिए रजवाड़ों को अपने महलों के नक्शों को अंग्रेज सरकार से स्वीकृत करवाना पड़ता था। देश की आजादी के बाद देसी रियासतों के भारतीय संघ में विलय के साथ ही राजा-महाराजाओं के सभी महल भारत सरकार की संपत्ति बन गए। इनमें से अधिकांश पर अभी भी सरकार का स्वामित्व है, जहां केंद्रीय सरकर के विभिन्न विभागों के कार्यालय हैं जैसे धौलपुर हाउस में संघलोक सेवा आयोग का कार्यालय है जो कि देश के भावी प्रशासकों यानी आइएएस के चयन का कार्य करता है।
देश की आजादी तक कायम रहे चैंबर ऑफ प्रिंसेस (1921-1947) के चार चांसलर यानी प्रमुख हुए। ये बीकानेर के महाराज गंगा सिंह, महाराजा पटियाला सरदार भूपिंदर सिंह, नवानगर के महाराज रंजीतसिंहजी और नवानगर के ही महाराज दिग्विजयसिंहजी तथा भोपाल के नवाब हमदुल्लाह खान थे।
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