Saturday, April 29, 2017

Maps of Delhi_Pilar Maria Guerrieri_मानचित्रों में समाया दिल्ली का इतिहास_पिलर मारिया गयएरीरी

29042017_दैनिक जागरण



दिल्ली और उसका इतिहास इतनी परतों में सिमटा हुआ है कि किसी एक विशिष्ट क्षेत्र का चयन संभव नहीं है। देश की राजधानी में चंहुओर बिखरे स्मारकों की हरेक की अपनी एक अलग कहानी है। सो, ऐसे में एक खोजी की दृष्टि से दिल्ली को देखने की जरुरत है।


पिछले 16 साल समकालीन दिल्ली पर काम कर रही इतालवी लेखिका पिलर मारिया गयएरीरी एक ऐसी ही अन्वेषक है, जिनकी हाल में ही रोली बुक्स से “मैप्स ऑफ़ दिल्ली” नामक एक कॉफ़ी टेबल बुक प्रकाशित हुई है।


पिलर मारिया ने अपनी पुस्तक में दिल्ली शहर की वास्तुकला और योजना बनाते समय देसी संदर्भ, उसका भूविज्ञान, जलवायु और संस्कृति, की अनदेखी को रेखांकित किया है। इसी क्रम में उन्होंने भारतीय वास्तुकारों के इन मूलभूत कारकों पर ध्यान देने की अपेक्षा केंद्रीयकृत योजना यानी ऊपर से थोपने की प्रवृति की कमी को उजागर किया है। उनके अनुसार, गुडगांव और नोएडा में अपनी स्थानीय आवश्यकताओं से हटकर बनी नई चमकदार कांच और लोहे वाली वास्तुकला की इमारतें इस बात का जीता जागता उदाहरण है।


पुस्तक में दिल्ली के शानदार अतीत के नक्शों को देखना-बूझना एक अच्छा अनुभव है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि इस पुस्तक की लेखिका को अपने अध्ययन में हाथ से बने नक्शे सबसे अधिक पसंद आए। उसमें भी विशेष रूप से 1807 के एक पुराना नक्शा जो उन्हें तत्कालीन दौर के गांवों, जलमार्गों, नहरों और खेतों वाली विलक्षण दिल्ली दिखाता है। इसको देखना कुछ ऐसा है मानो समय का पहिया उलटा घूम गया हो।


इस पुराने नक़्शे से इस बात का पता चलता है कि तब शहरी नियोजन में भूगोल और स्थलाकृति का विशेष ध्यान रखा जाता था। और कैसे दिल्ली जैसा प्राचीन शहर वास्तव में प्रकृति के समरूप बसा था न कि उसके विरुद्ध। उदाहरण के लिए अगर शाहजहांनाबाद के स्थान के चयन पर विचार करें तो पता चलेगा कि यह एक पहाड़ी पर बना शहर था जो कि प्राकृतिक रूप से बाढ़ से बचाव की स्थिति में था।


पुस्तक में शाहजहांनाबाद शहर की पुरानी दिल्ली और पुराने मोहल्ला के उपखंड (विलियम मैकेन्जी के प्रकाशित शाहजहांनाबाद के नक्शे से) से पड़ोसियों के स्थान साझा करने की अवधारणा, मिश्रित गतिविधियों (उत्पादन/वाणिज्यिक/आवासीय) को अपनाने तथा एक पैदल चलने वाले के लिए जगह रखने वाले शहर का अनुभव सीखने लायक है। इसी वजह से लेखिका का मानना है कि वास्तुकारों और योजनाकारों को पुरानी राजधानी के प्रकृति के साथ सहयोग की भूमिका के संबंध से प्रेरित होकर एक बेहतर और पर्यावरण-अनुकूल शहर बनाने की दिशा में काम होना चाहिए।


इसी तरह, बाजार का प्रारूप प्राचीन भारतीय शहरों की विशेषता दिखाते हुए विभिन्न प्रकार की गतिविधियों-उत्पादों के जटिल विभाजन और संगठन होने की बात को दर्शाता है। ये सभी अवधारणाएं, क्षेत्रीय सिद्धांतों और कॉलोनियों के शहर नियोजन मॉडल के साथ विलुप्त हो गई हैं।


पुस्तक में इन नक्शों को देखने से पता चलता है कि कब और क्यों नालियों की प्रणाली (ड्रेनेज सिस्टम) की समस्या और जल संरक्षण की सुविधाएं शुरू हुई। अंग्रेज इंजीनियर अच्छे थे और उनकी बनाई निकासी प्रणालियों के डिजाइन बेहतर थे, जिनसे समस्याएं पैदा नहीं होनी चाहिए थी। पर वास्तविकता यही है कि ब्रितानी युग के बाद देश में भू-विज्ञान और भू-स्थलाकृति के उलट नगर योजनाएं बनाई गईं और ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ा।


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