Saturday, April 22, 2017

Battle of Patparganj for Delhi_दिल्ली पर प्रभुत्व_पटपड़गंज की लड़ाई

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आज दिल्ली के यमुना पार इलाके के पटपड़गंज क्षेत्र की पहचान वहाँ पर बनी प्रसिद्ध आवासीय सोसाइटियों और मदर डेयरी संयंत्र के कारण है। यह बात कम लोगों को ही पता है कि यह स्थान कभी दिल्ली के लिए हुई निर्णायक लड़ाई का मैदान था।

पटपड़गंज की लड़ाई, दिल्ली पर प्रभुत्व का संघर्ष था।इससे पहले यानि तब दिल्ली में मराठों का वर्चस्व था। अपनी राजधानी में स्वयं प्रवेश करने में असमर्थ निर्वासित मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय को वर्ष 1772 में महादजी सिन्धिया की मराठा सेना इलाहाबाद से दिल्ली लाकर उसे दिल्ली की गद्दी पर फिर से बिठाया था। इसकी एवज में बादशाह ने लगभग सब अधिकार मराठों को दे दिए थे।

शाह आलम ने एहसान फरामोशी दिखाते हुए मराठों के प्रभाव से मुक्त होने के लिए लॉर्ड लेक से संरक्षण की गुहार की। अंग्रेज़ भी इसी मौके की तलाश में थे। सो इसका नतीजा पटपड़गंज के युद्ध के रूप में सामने आया।

आज से करीब दो सौ तेरह साल पहले, पटपड़गंज में 11 सितंबर 1803 को अंग्रेज जनरल गेरार्ड लेक के सैनिकों और फ्रांसिसी कमांडर लुई बॉरक्विएन के नेतृत्व में वाली सिंधिया की मराठा सेना में एक भयंकर लड़ाई हुई। दिल्ली की इस लड़ाई में मराठों की हार ने उत्तर भारत में मराठा शक्ति के अवमूल्यन और अंग्रेजो के प्रभुत्व को निर्णायक रूप से तय कर दिया।

पटपड़गंज के इस निर्णायक युद्ध की कहानी नोएडा के हरे-भरे गोल्फ कोर्स के बीच खड़े स्मारक-स्तंभ से पता चलती है। यहाँ पर 1916 में लगाए गए स्तंभ के अनुसार, इस स्थान के पास 11 सितम्बर 1803 को दिल्ली की लड़ाई लड़ी गई थी, जिसमें लुई बॉरक्विएन की कमान में सिन्ध्यिा की मराठा फौजों को जनरल गेरार्ड लेक के नेतृत्व में ब्रितानी सेना ने पराजित किया था। सिन्धिया की मराठा सेना की हार के तीन दिन बाद दिल्ली ने भी हथियार डाल दिए।

"द एंग्लो-मराठा कैम्पैनस एंड द कन्टेस्ट फॉर इंडियाः द स्ट्रगल" पुस्तक में रैंडोल्फ जी एस कूपर लिखते हैं कि इस लड़ाई का स्थान एक छोटा सा दोआब था जो कि पूर्व में हिंडन नदी और पश्चिम में यमुना नदी से घिरा हुआ था। कुछ ने इसे पटपड़गंज की लड़ाई कहा है लेकिन लेक के प्रयासों से मिली सफलता के कारण यह स्थान दिल्ली की लड़ाई के रूप में ही जाना गया।

शाह आलम द्वितीय ने मराठों के खिलाफ अंग्रेजों से मदद क्या मांगी कि वास्तव में सत्ता ही उनके हाथ से निकल गई। “शाहजहानाबादः द साविरजिन सिटी ऑफ़ मुगल इंडिया 1639-1739” में स्टीफन पी. ब्लेक लिखते हैं कि अंग्रेजों और मुगल सम्राट के बीच संबंध तनावपूर्ण थे और इस संबंध में 1858 में बहादुर शाह द्वितीय के अपदस्थ होकर निर्वासित होने तक गांठ बनी ही रही। शाह आलम ने लार्ड लेक से संरक्षण की गुहार की थी लेकिन इसको लेकर एक औपचारिक संधि कभी नहीं हुई।

वर्ष 1805 के एक आदेश से अंग्रेजों ने मुग़ल बादशाह के संरक्षण के नियम तय किए। इस तरह, अंग्रेजों ने पहले तो मुगल बादशाह के नाम पर शासन करना शुरू किया और बाद में सत्ता पर ही काबिज हो गए। मराठों से गद्दारी का नतीजा यह निकला कि कभी लगभग पूरे भारत पर ही राज्य करने वाले मुगलों के वंशज अब अंग्रेजों पेंशनर बन गए। कहने को तो पहले की ही तरह वे बादशाह थे लेकिन असली सत्ता अंग्रेज रेजीडेंट के हाथों में चली गई।

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