Sunday, September 30, 2018
Saturday, September 29, 2018
Wednesday, September 26, 2018
Gandhi_Ram_Tribals_गांधी_राम_संथाल
सार्वजनिक सभा गुमिया में संथालों के बीच भाषण में गांधी जी कहते हैं, आपको पूरी आस्था व भक्ति के साथ राम नाम लेना सीखना चाहिये। राम नाम पढ़ने पर आप तुलसीदास से सीखेंगे कि इस दिए नाम की आध्यात्मिक शक्ति क्या है।
आप पूछ सकते हैं कि मैंने ईश्वर के अनेक नामों में से केवल राम नाम को ही क्यों जपने के लिए कहा यह सच है कि ईश्वर के नाम अनेक हैं किसी नाम वृक्ष की पत्तियों से अधिक है ओर में आपको गॉड शब्द का प्रयोग करने के लिए भी कह सकता था लेकिन यहां के परिवेश में आपके लिये उसका क्या अर्थ होगा गॉड शब्द के साथ यहां आपकी कौन सी भावनायें जुड़ी हुई हैं।
गॉड शब्द का जप करते समय आपको हृदय में उसे महसूस भी हो, उसके लिये मुझे आपको थोडी अंग्रेजी पढ़ानी होगी मुझे विदेशों की जनता के विचार ओर उनकी मान्यताओं से भी आपको परिचित करना होगा, परंतु राम नाम जपने के लिये कहते हुए मैं आपको एक एक ऐसा नाम दे रहा हूँ।
जिसकी पूजा इस देश की जनता न जाने कितनी पीढि़यों से करती आ रही हे यह एक ऐसा नाम है जो हमारे यहां के पशुओं, पक्षियों, वृक्षों और पाषाण तक के लिए हजारों हजारों वर्षों से परिचित रहा है आप अहिल्या कि कथा जानते हैं पर मैं देख रहा हूँ कि आप नहीं जानते पर, रामायण का पाठ करने से आपको पता चल जायेगा कि राम के स्पर्श से ही कैसे सड़क के किनारे पड़ा एक पत्थर प्राण युक्त सजीव हो गया था।
Saturday, September 22, 2018
RSS_in view of Mahatma Gandhi to Mohan Bhagwat_संघ दृष्टि: गांधी से लेकर भागवत तक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत ने दिल्ली में“भविष्य का भारत-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण” विषय पर तीन दिवसीय (17-19 सितंबर 2018) कार्यक्रम में अपने संगठन की रीति-नीति और कार्य के सिद्वांत, स्वरूप, और अवधारणा की खुली चर्चा की। यह देश के इतिहास में एक संयोग ही कहा जा सकता है कि आज से ठीक 71 साल पहले महात्मा गांधी ने 16 सितंबर 1947 को नई दिल्ली नगर पालिका परिषद् में स्थित आज की वाल्मीकि बस्ती में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रैली में उसके सदस्यों से अपनी मन की बात कही थी। भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की ओर से पूरे १०० खण्डों के महात्मा गाँधी वांग्मय में यह पूरा वर्णन (खंड ९६) सविस्तार से प्रकाशित है।
गाँधी ने कहा कि वे बरसों पहले वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर में गए थे जब उसके संस्थापक श्री हेडगेवार (डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार) जीवित थे। दिवंगत श्री जमनालाल बजाज उन्हें शिविर में ले गए थे और वे संघ के अनुशासन, किसी भी तरह की छुआछूत न होने और बेहद सादगी से काफी प्रभावित हुए थे। तब से संघ का विस्तार हुआ है। गाँधी का मानता था कि जिस संगठन में सेवा का लक्ष्य और सच्चा त्यागभाव रहता है, उसकी ताकत बढ़ती ही है। पर सही मायने में उपयोगी होने के लिए आत्मोसर्ग के साथ लक्ष्य के प्रति शुचिता और सच्चे ज्ञान का समावेष होना आवश्यक है। इन दोनों के बिना त्याग समाज के लिए दुखदायी हो सकता है।
आरंभ में जो प्रार्थना गाई गई, जिसमें भारत माता, हिंदू संस्कृति और हिंदू धर्म का गुणगान था। उन्होंने (गांधी) दावा किया कि वे सनातनी हिंदू हैं। उन्होंने “सनातन” शब्द के मूल अर्थ बताया। हिंदू शब्द का सच्चा मूल क्या है, यह बहुत ही कम लोग जानते हैं। यह नाम हमें दूसरों ने दिया और हमने उसे अपना लिया। हिंदू धर्म ने दुनिया के सभी मतों की अच्छी चीजों को समाहित (अपने में पचा लेने की ताकत) किया है और इस अर्थ में यह एक विशिष्ट महजब नहीं है। इसी कारण उसका इस्लाम या उसके अनुनायियों के कोई झगड़ा नहीं हो सकता जो कि दुर्भाग्य से आज का मसला है।
जब अस्पृश्यता का विष हिंदू धर्म में प्रविष्ट हुआ, तो उसका पतन शुरू हुआ। एक बात निश्चित थी कि वे (गांधी) सार्वजनिक रूप से घोषित कर रहे थे कि अगर अस्पृश्यता कायम रहेगी तो हिंदू धर्म को मरना होगा। इसी प्रकार, अगर हिंदुओं का यह मानना है कि भारत में हिंदुओं को छोड़कर किसी और के लिए कोई स्थान नहीं है और यदि गैर हिंदुओं, विशेष रूप से मुस्लिम अगर यहां रहने की इच्छा रखते हैं, तो उन्हें हिंदुओं के दासों के रूप में रहना होगा तो ऐसा विचार रखकर वे हिंदू धर्म को समाप्त देंगे। इसी तरह से, यदि पाकिस्तान यह मानता है कि पाकिस्तान में केवल मुस्लिमों को ही रहने का हक है और गैर-मुसलमानों को वहां पीड़ित और उनके गुलामों की तरह वहां रहना पड़ेगा, तो यह भारत में इस्लाम के लिए मौत की घंटी होगी।
वे (गांधी) कुछ दिन पहले उनके (संघ) गुरूजी (संघ के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य गुरूजी) से मिले थे। उन्होंने गुरूजी से कलकत्ता और दिल्ली में संघ के विषय में उन्हें मिली शिकायतों के बारे में बताया। गुरूजी ने उन्हें आश्वस्त किया कि वैसे तो वे संघ के प्रत्येक सदस्य के उचित आचरण की बात सुनिश्चित नहीं कर सकते पर इतना निश्चित है कि संघ की नीति पूरी तरह से हिंदुओं और हिंदू धर्म की सेवा करना है और वह भी किसी दूसरे को हानि पहुंचाकर कतई नहीं। संघ आक्रमकता में विश्वास नहीं रखता। वह आत्मरक्षा की कला सिखाता है। उसने कभी प्रतिशोध की बात नहीं सिखायी।
संघ एक संगठित, अनुशासित संगठन था जिसकी शक्ति का प्रयोग भारत के हित में या अहित में हो सकता था। उन्हें (गाँधी) नहीं पता कि क्या संघ के खिलाफ लगाए गए आरोपों में कोई सत्यता थी या नहीं। अपने समरूप व्यवहार से आरोपों को निराधार साबित करने का दायित्व संघ का था।
1947 में हुए भारत विभाजन के बाद दिल्ली में पाकिस्तान से सर्वाधिक हिंदू-सिख शरणार्थियों ने अपना डेरा जमाया। इतना ही नहीं, राजधानी भी सांप्रदायिक दंगों की मार से अछूती नहीं थी। ऐसी विपरीत परिस्थिति में महात्मा गांधी राजधानी में शांति-सद्भाव कायम करने के प्रयासों में लगे थे।
11 सिंतबर 1947 को गांधी की ओर अखबारों को जारी एक प्रेस वक्तव्य के अनुसार, आज राजकुमारी अमृतकौर और डाॅक्टर सुशीला नैयर मुझे इरविन अस्पताल ले गई थी। वहां पर जात वगैरह का कोई भेदभाव रखे बगैर सिर्फ जख्मी लोगों का ही इलाज किया जाता है। मरीजों में एक बच्चा था, जिसकी उमर मुश्किल से पांच बरस की होगी। गोली लगने से उसके बदन पर घाव हो गया था। डाक्टर और नर्सों पर काम का भारी बोझ था, वहां मुसलमान मरीजों की तादाद ज्यादा थी, क्योंकि हिंदू और सिख मरीजों को दूसरे अस्पतालों में भेज दिया गया था।
राजकुमारी से मुझे पता चला कि प्रयास शरणार्थी कैंपों में पाखाने साफ करने के लिए सफाई कर्मियों को भेजना करीब-करीब नामुमकिन है। इससे हैजे-जैसी छूत की बीमारी के फैलने का डर है। मेरी राय में शरणार्थियों को अपने-अपने कैपों में खुद सफाई करनी चाहिए। पाखाने भी उन्हें साफ करने चाहिए और कैंप-व्यवस्था की स्वीकृति से कुछ उपयोगी काम करना चाहिए। सिर्फ उन लोगों को छोड़कर, जो शारीरिक मेहनत नहीं कर सकते, बाकी सब पर यह नियम लागू होता है। सारे शरणार्थी-कैंप सफाई, सादगी और मेहनत के नमूने होने चाहिए। उल्लेखनीय है कि यह वक्तव्य "हरिजन" अखबार के 21 सिंतबर 1947 के अंक में भी प्रकाशित हुआ था।
Monday, September 17, 2018
cinema of delhi_दिल्ली का सिनेमा
दिल्ली में हुए तीसरे अंग्रेजी दरबार (वर्ष 1911) में ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली होने की बात तय हुई। इसके साथ ही नई राजधानी के निर्माण और प्रबंधन के लिए अंग्रेज अफसर, बाबू और सैनिक दिल्ली पहुंचने लगे। राजधानी में इस नए अंग्रेजी समाज के मनोरंजन के लिए थिएटर बने। मूक फिल्मों के उस दौर में थिएटरों में विशेष रूप से अंग्रेज दर्शकों के लिए हाॅलीवुड फिल्में दिखाई जाती थी।
यह बात कम जानी है कि 1925 में दिल्ली के वकीलों, जज सहित दूसरे पेशेवरों ने बाॅम्बे टाकीज के हिमांशु राॅय को बुद्ध के जीवन पर आधारित "लाइट आॅफ एशिया" फिल्म के निर्माण में पैसे से सहायता की थी। इसी काम के लिए ग्रेट ईस्टर्न फिल्म नामक एक बैकिंग काॅरपोरेशन बनाया। उल्लेखनीय है कि यह काॅरपोरेशन जर्मनी के इमेल्का स्टुडियो के साथ "लाइट आॅफ एशिया" का सह निर्माता था। एडविन अर्नोल्ड की कविता “द लाइट ऑफ एशिया” से प्रेरित और निरंजन पाल की पटकथा वाली इस फिल्म में गौतम बुद्व की भूमिका हिमांशु रॉय ने निभाई थी। जर्मन निर्माता पीटर ओस्टरमावेर और सह निर्देशक फ्रैंज ऑस्टीन वाली यह पहली बहुप्रचारित भारतीय फिल्म थी जो कि मध्य यूरोप में सफल रही।
हिंदी की पहली बोलती फिल्म "आलम आरा" का प्रदर्शन 1931 में हुआ। राजधानी में यह "एक्सेलसियर" में दिखाई गई। सवाक फिल्मों के साथ ही यहां सिनेमाई दर्शकों में इजाफा हुआ तो दिल्ली उत्तरी भारत के एक महत्वपूर्ण फिल्म वितरण केंद्र के रूप में स्थापित हुई। गानों और संवादों वाली सवाक फिल्मों की दौर के साथ थिएटरों में नियमित रूप से श्वेत-श्याम फिल्मों के शो होने लगे।
तब जमाने की बदलती चाल के साथ नाम भी बदले। यही कारण था कि अब दिल्ली में सिनेमाहाॅलों को टॉकीज कहा जाने लगा। इसी चलन के मारे कई हॉलों ने अपने नाम के आगे टाॅकीज लगा लिया जैसे मोती टॉकीज, कुमार टॉकीज, रॉबिन टॉकीज। एक तरह से कहा जा सकता है कि आज के मल्टीप्लेक्स की तर्ज पर उस समय किसी भी थिएटर के नाम के आगे टाकीज होना फैशनेबल और आधुनिकता की निशानी था।
दिल्ली में सबसे पुराने सिनेमा हॉल चांदनी चौक में थे, जो कि 1920-30 के दशक तक पुराने थे। नए सिनेमाहाॅल कनॉट प्लेस में बने थे। जबकि चांदनी चौक और कनाट प्लेस में पहाड़गंज के दो ऐतिहासिक हाॅल थे-इंपीरियल और खन्ना। खन्ना की उम्र तो पुरानी दिल्ली के टॉकीज से भी पुरानी है। तब भी हरेक हॉल की अपनी वफादार दर्शकों की भीड़ थी। एक ओर मुस्लिम समुदाय जामा मस्जिद के पास जगत को पसंद करता था हिंदू दर्शक चांदनी चौक के मोती के मुरीद थे।
सवाक फिल्मों में भाग्य चमकाने के लिए युवा कलाकारों के दिल्ली घराने के उस्तादों तालीम लेने की रफ्तार बढ़ी। तानरस खां ने दिल्ली घराने को स्थापित किया था। यह घराना ख्यालों की कलापूर्ण बंदिशों, तानों का निराले ढंग और द्रुतलय में बोल तानों का प्रयोग के लिए मशहूर था। मल्लिका पुखराज भी तीस के दशक में गायन सीखने राजधानी आई। उस दौर की तीन प्रसिद्व गजल गाने वाली मल्लिका पुखराज, फरीदा खानम और इकबाल बानो दिल्ली घराने की ही थी। जो कि देश के बंटवारे के बाद में पाकिस्तान चली गयी।
तब की सवाक हिंदी फिल्मों के संवाद उर्दू में होते थे तो गाने फिल्म के हिट होने का आधार। तब ऐतिहासिक फिल्मों के चलन के कारण फिल्म निर्माताओं में दिल्ली की पुरानी इमारतों और ऐतिहासिक स्मारकों को लेकर खासा लगाव था। यह बात उस दौर में ऐतिहासिक दिल्ली के कथानकों पर आधारित "हुमायूं", "शाहजहां", "बाबर", "चांदनी चौक", "नई दिल्ली", "रजिया सुल्तान", "मिर्जा गालिब" और "1857" नामक फिल्मों से साबित होती है।
Saturday, September 15, 2018
Delhi_Telephone_दिल्ली में टेलीफोन
19 वीं शताब्दी में मीडिया क्रांति के हिसाब से टेलीग्राफ के बाद टेलीफोन दूसरा बड़ा अविष्कार था। अमेरिका में जहां टेलीफोन के अविष्कार के तुरंत बाद कम समय में ही उसे पूरी तरह अपना लिया गया वही यूरोप में आम समाज में निजी तौर पर टेलीफोन को लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिखा। खासकर अंग्रेजों के प्रभु वर्ग में टेलीफोन को घरेलू संचार का उपकरण भर माना गया। अंग्रेज आभिजात्य वर्ग के इस नजरिए का असर अंग्रेजी उपनिवेशों सहित भारत पर भी पड़ा। इसी पृष्ठभूमि के चलते भारत की अंग्रेज सरकार ने टेलीफोन का केवल प्रशासनिक और सैनिक नियंत्रण की जरूरतों के साधन के रूप में सीमित विस्तार किया।
बंगाल चैम्बर आॅफ काॅमर्स के दबाव में वर्ष 1881 में ब्रिटिश भारत में टेलीफोन की शुरूआत हुई। टेलीग्राफ की तरह, सरकार ही टेलीफोन की भी नीति नियंता थी। वर्ष 1932-33 भारतीय डाक और टेलीग्राफ विभाग की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के ऊपरी हिस्से के प्रमुख शहर टेलीफोन ट्रंक लाइनों से जुड़े थे पर वह इस बात का भी उल्लेख करती है कि 1932 के अंत तक ब्रिटिश भारत में भारतीय उपमहाद्वीप को शेष विश्व से जोड़ने वाली टेलीफोन लाइनें नहीं थी। 1930 के आरंभ में कलकत्ता और मुंबई टेलीफोन की सीधी ट्रंक लाइन से आपस में जुड़ गए। जबकि इसी समय में वाया लखनऊ और दिल्ली में औसतन हर महीने की टेलीफोन काॅलों की संख्या 180 से बढ़कर 1250 हो गई।
अंग्रेजों की गुलामी का जुआ उतारने के बाद आजाद भारत में टेलीफोन लाइनों की घोर कमी थी। 1948 में भारत में केवल 82000 टेलीफोन और 17600 किलोमीटर ट्रंक लाइनें थीं। जहां दिल्ली में 1920 के दशक में आठ हजार टेलीफोन थे वहीं 1921 में कलकत्ता में दस हजार, मुंबई में छह हजार और 1923 में चेन्नई में 1224 टेलीफोन थे।
1911 में अंग्रेजों ने अपनी राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने का निर्णय किया तो उन्हें नई राजधानी में टेलीफोन की अनिवार्यता महसूस हुई। टेलीफोन ने नई दिल्ली को एक आदर्श शहर के रूप में स्थापित करने की अंग्रेजों की योजना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
इस तरह, 1911 के दिल्ली दरबार के समय दिल्ली में प्रथम नियमित टेलीफोन सेवा शुरू हुई थी। 1920 के अंत तक लगभग 800 हस्तचालित टेलीफोन राजधानी में काम कर रहे थे। उसी वर्ष इन्हें स्वचालित पद्वति में बदलने का निश्चय किया गया। यह परिवर्तन 1925 में तीन स्वचालित टेलीफोन केंद्रों की स्थापना के साथ पूरा हुआ जिनमें रिले स्वचालित पद्वति के नवीनतम उपकरण लगे हुए थे। एक एक्सचेंज सचिवालय में, 1500 लाईनों वाला एक अन्य एक्सचेंज लोथियन रोड पर और 300 लाइनों वाला एक और एक्सचेंज दिल्ली छावनी में लगाया गया।
दिल्ली में टेलीफोन सेवाओं के विकास का इतिहास राजधानी में लगातार बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए उत्तरोत्तर विकास का इतिहास है। वर्ष 1935 से 700 लाइनों की क्षमता वाला एक टेलीफोन एक्सचेंज, कनाट प्लेस में स्थापित किया गया। बाद के वर्षों में उसमें और लाइनें जोड़ी गईं। वर्ष 1951 में उसकी क्षमता 7000 लाइनों की हो गई और इस प्रकार वह शहर का एकमात्र सबसे बड़ा एक्सचेंज बन गया। 1951-52 मे, दिल्ली में 11844, कलकत्ता में 33828, मुंबई में 44500 और चेन्नई में 11102 टेलीफोन थे।
Tuesday, September 11, 2018
Love_shadow_ghazal_जुदा_खुदा
रात की बोझिल आँखों में,
उसकी रोशनी का सपना तारी था.
अपनी यादों के समंदर में,
उसके होने का अहसास बाकी था.
क्या कहते-बुझते जुबान-दिल से हम,
जब उसकी नज़र की इनायत ही थी कम.
दिल के कुछ राज थे गहरे,
जिस पर थे उसकी नज़र के पहरे.
क्या बयान करते घाव जो थे गहरे इस कदर,
जिसकी उसकी नज़र को न थी कोई चिंता-न फ़िकर.
मेरे लिए होने न होने के अहसास से जुदा,
गर उसकी निग़ाह में था कोई दूसरा ही खुदा.
Monday, September 10, 2018
Delhi Ridge_short introduction_राजधानी की खोज_दिल्ली रिज की कहानी
दिल्ली के दो प्रमुख प्राकृतिक स्थलों, रिज और यमुना नदी ने उसकी बसावट के विकास की दशा-दिशा तय करने में निर्णायक भूमिका अदा की है। बीती शताब्दियों में रिज और यमुना नदी के बीच के त्रिभुज क्षेत्र में विभिन्न राजवंश पनपे, जिसकी पुष्टि यहां मिले पुरातात्त्विक अवशेषों से होती है।
अरावली पर्वत श्रृंखला की मेवाती शाखा का अंतिम छोर को राजधानी में रिज कहा जाता है। दिल्ली की सबसे प्रमुख स्थलाकृतिक विशेषता वाली ये पहाड़ियां, वर्षा जल की अवस्थिति को सर्वाधिक प्रभावित करती हैं।
यहां के निवासियों को सदियों से गर्मी-लू से बचाने वाली रिज का जंगल आज तीन हिस्सों-उत्तरी रिज, मध्य रिज, दक्षिण मध्य रिज और दक्षिणी रिज में बंट गया है। एक समय में, रिज का फैलाव लगभग 15 प्रतिशत जमीन पर था। जबकि आज यहां की ज्यादातर जमीन अति खनन के कारण बंजर हो चुकी है जहां कीकर, करील और बेर सरीखे कांटेदार-झाड़ी वाली वनस्पति ही उगती है।
दक्षिणी दिल्ली से आरंभ होकर रिज की पहाड़ियां, उत्तर पूर्व की दिशा में बढ़ते हुए यमुना नदी पर जाकर समाप्त होती है। दिल्ली को उत्तर पश्चिम और पश्चिम दिशा में घेरती रिज मानो राजधानी की सुरक्षा की प्राकृतिक प्राचीर है। रिज की एक शाखा भाटी माइंस के पास मुख्य श्रृंखला से अलग होकर उत्तर पूर्वी दिशा में अनंगपुर तक वक्र आकार बढ़ती हुई दोबारा मुख्य श्रृंखला से मिल जाती है। भाटी माइंस के पास रिज की ऊंचाई सबसे अधिम 1045 फुट है।
यह दुखद है कि रिज को दिल्ली के बेतहाशा शहरीकरण के कारण हुए शोषण का मूल्य अपने मूल स्वरूप के विखंडन के रूप में चुकानी पड़ी है। एक समय में यह पहाड़ियों की एक विशिष्ट श्रृंखला थी। आज के वसंत विहार में मुरादाबाद पहाड़ी, मध्य दिल्ली में पहाड़गंज और पहाड़ी धीरज, राष्ट्रपति भवन की रायसीना पहाड़ी और जामा मस्जिद का आधार भोजला पहाड़ी सहित आनंद पर्वत की स्मृति ही शेष है।
14 वीं शताब्दी में रिज एक घना जंगल होती थी, जिसे अंग्रेजों ने काटकर बाग-बगीचों में बदला। मध्यकालीन दौर में जंगली जानवरों के शिकार के लिए जहान-नुमा (यानी दुनिया की तस्वीर, जिसका नाम बाद में कमला नेहरू रिज रखा गया) रिज के जंगल का क्षेत्र, पालम से मालचा तक दो हिस्सों में बंटा हुआ था।
अंग्रेज सैनिक सर्वेक्षक एफ. एस. व्हाईट का बनाया “1807 का दिल्ली के परिवेश” शीर्षक वाले मानचित्र में नीले रंग से नदियों और धाराओं का तो छायांकन चिन्ह से रिज और पहाड़ियों की उपस्थिति को बताया गया है। जबकि “दिल्ली का घेराबंदी” (1857) शीर्षक वाला श्वेत-श्याम सैन्य मानचित्र, अँग्रेजी सैन्य व्यवस्था के साथ-साथ दिल्ली रिज की स्थलाकृति को भी दर्शाता है।
जट्टा-जैन-नेउबाउर की पुस्तक “वाटर डिजाइन, इनवायरमेंट एंड हिस्ट्रिज” के अनुसार, दिल्ली में पानी की चार प्रमुख धाराएं थी। इनमें से एक हौजखास तालाब में पहुंचती थी, कुशक नाला दक्षिणपूर्व दिल्ली को सिंचित करता था, मध्य रिज की पहाड़ी धाराएं थीं और अंतिम घुमावदार धाराएं थीं, जिससे लोदी मकबरे के बागों और गांवों को पानी पहुँचता था। ये सभी अंग्रेजों के अपनी राजधानी नई दिल्ली के निर्माण के साथ खत्म हो गईं।
1991 में "कल्पवृक्ष" नामक एक गैर सरकारी संगठन ने "द दिल्ली रिज फाॅरेस्ट, डिकलाइन एंड कन्जरवेशन" नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की। जिसमें राजधानी में कुल 444 सूचीबद्ध पक्षियों में से लगभग 200 प्रजातियां दिल्ली रिज से थी। उल्लेखनीय है कि हजारों की संख्या में प्रवासी-स्थानीय प्रजातियों के पक्षी दिल्ली रिज में आकर्षित होकर आते हैं।
Monday, September 3, 2018
Sunday, September 2, 2018
communist party of pakistan_sajjad jahir_कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ पाकिस्तान_सज्जाद जहीर
सज्जाद जहीर_फैज़ अहमद फैज़
कलकत्ता में १९४८ में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ पाकिस्तान बनाने वाले प्रगतिशील मुसलमान सज्जाद जहीर जब अपनी कम्युनिस्ट पार्टी को पाकिस्तान ले गए तो उन्हें वहां के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली सरकार ने फैज़ अहमद फैज़ सहित जहीर को देशद्रोह और तख्ता पलट के अपराध में जेलखाने में डाल दिया था.
इतना ही नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ पाकिस्तान को प्रतिबंधित कर दिया गया. १९५० में जब बाकि लोगों की लंबी सज़ा माफ़ की गई तो जहीर को भी हिंदुस्तान निर्वासित कर दिया गया!
जहीर को पाकिस्तान में रावलपिंडी साजिश केस में फांसी की सजा हुई थी। जिस पर तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस मामले में व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप करके उसकी सजा इस शर्त पर माफ करवाई थी कि पाकिस्तान उसे निर्वासित कर देगा। इतना ही नहीं, नेहरु के कारण जहीर को हिंदुस्तान में शरण और हिन्दुस्तानी नागरिकता दोनों मिली। इस तरह, नेहरू ने जहीर की वह सम्पत्ति भी वापस कर दी, जिसे कस्टोडियन ने शत्रु सम्पति होने के नाते जब्त कर लिया था ।
इस तरह जहीर का पाकिस्तान में लाल क्रांति का सपना असफल रहा और पाकिस्तान के हुक्मरानों-फौज ने जहीर को उन के सपनों के मुल्क से बेदखल कर दिया. गौरतलब है कि जहीर, लखनऊ के जस्टिस वजीर अली के पुत्र थे जो कि मोतीलाल नेहरू के गहरे दोस्त थे । सज्जाद के बड़े भाई का नाम अली जहीर था, जो उत्तर प्रदेश के प्रमुख कांग्रेसी नेता होने के कारण उतर प्रदेश में 30 साल तक मंत्री के पद पर रहे।
Saturday, September 1, 2018
Map of Natural History of Delhi_नक्शे में समाया प्राकृतिक इतिहास
01092018_दैनिक जागरण |
आज के समय में महानगर की विकास योजना एक प्रमुख चुनौती है। फैलती मानवीय बसावट के कारण दिल्ली के प्राकृतिक स्थलों का संरक्षण एक चुनौती बन गया है। लैंडस्केप फाउंडेशन इंडिया ने "दिल्लीः प्रकृति की गोद में बसी राजधानी" शीर्षक से प्रकाशित शोध-दस्तावेज को एक मानचित्र फोल्डर के रूप में प्रस्तुत किया है। इस दस्तावेज में पिछले बारह सौ साल में दिल्ली के प्राकृतिक इतिहास और यहां पनपी विभिन्न संस्कृतियों के प्रकृति से बदलते रिश्तों पर प्रकाश डाला है। इस मानचित्र में पर्यावरण के लिहाज से महत्वपूर्ण, दिल्ली के मौजूदा इलाकों, जंगलों, नदी, उद्यानों और जल संरचनाओं का विवरण दिया गया है। आखिरकार किसी भी शहर का ऐतिहासिक चरित्र उसके संरक्षित विरासत स्थलों से ही उजागर होता है।
इसमें दिल्ली के प्रारंभिक शहरों-लालकोट, देहली-ए-कुना, महरौली, जहांपनाह, तुगलकाबाद, दीनपनाह, फिरोजाबाद और शाहजहांनाबाद तक से लेकर अंग्रेजों तक के दौर की प्राकृतिक यात्रा का संक्षिप्त रूप से विवरण दिया गया है। उल्लेखनीय है कि रिज पर सुरक्षित तरीके से बसी पहले की अधिकांश बस्तियां- लालकोट, देहली-ए-कुना, महरौली, जहांपनाह, तुगलकाबाद-शहर के दक्षिण में स्थित थी।
दिल्ली के दो प्रमुख प्राकृतिक स्थलों, 'रिज' और 'यमुना' ने यहां की बस्तियों, शाही स्थलों और शहर की सामाजिक और आर्थिक संस्कृति के उन्नयन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
राजधानी के पर्यावरण संवेदी इलाकों में जंगल के हिसाब से उत्तरी रिज, मध्य रिज, दक्षिण मध्य रिज और दक्षिणी रिज आती हैं, जहां अब उत्खनन प्रतिबंधित होने के कारण इस क्षेत्र के अधिकतम भाग की भूमि बंजर है। वही शहर में, सुरक्षित जंगलों (वन क्षेत्रों) में रजोकरी, मितरांव, मुखमेलपुर, घुम्मनहेड़ा और बवाना सम्मिलित हैं। शहर के बाहरी इलाकों में कुछ वन क्षेत्रों को खेतों में परिवर्तित कर दिया गया।
नक्शे के अनुसार, यमुना नदी पल्ला गांव से दिल्ली में प्रवेश करके 26 किलोमीटर की दूरी तय करती हुई वजीराबाद बांध पहुंचती है। फिर यह नदी राजधानी में 22 किलोमीटर बहकर ओखला बैराज से होते हुए और चार किलोमीटर बहकर जैतपुर गांव से उत्तर प्रदेश में चली जाती है। यमुना के बाढ़ के मैदानों में भूजल वाले कई जलाशय और पर्यावरण के लिहाज से महत्वपूर्ण विशेषताएं मौजूद हैं। ये मैदान तरह-तरह के भू-क्षेत्रीय चरित्र प्रदर्शित करते हैं, जैसे-बालुका विस्तार, प्राकृतिक वनस्पतियां, दलदली भूमि और कृषि भूमि। यमुना पर कई बैराजों के निर्माण के कारण नदी में गर्मी के दिनों में पानी नहीं रह जाता। मौजूदा समय में 20 से अधिक नाले अपना गंदा पानी विभिन्न स्थानों पर नदी में उड़ेल रहे हैं। यमुना बाढ़ के मैदानों को किसी भी तरह के निर्माण, अतिक्रमण और रेत-खनन की गतिविधियों से बचाने की सख्त आवश्यकता है।
वर्ष 1947 में भारत की आजादी के बाद दिल्ली शरणार्थियों का एक शहर बन गया। पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए हिन्दू-सिख नागरिकों को बसाने के लिए यहां कई सारी बस्तियां अस्तित्व में आईं। दिल्ली इस तरह एक विशाल शहर बन गया और जनसंख्या घनत्व का भारी दबाव यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ा।परिणाम स्वरूप रिज अंधाधुंध शहरीकरण का शिकार बनकर कर धीरे-धीरे खंडित हो गई। नियम-कानून के बावजूद नदी और रिज के साथ शहर का शोषण वाला जो रिश्ता धीरे-धीरे विकसित हुआ, वह अब तक कायम है। ऐसे में, शहर की प्राकृतिक संपदा की फिर से खोज करने और भावी पीढ़ी के लिए एक पर्यावरण संवेदी, व रहने योग्य वातावरण तैयार करने के लिए प्राकृतिक संपदाओं को बचाने के लिए व्यावहारिक उपाय करने की तत्काल आवश्यकता है।
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First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान
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