Monday, September 17, 2018

cinema of delhi_दिल्ली का सिनेमा






दिल्ली में हुए तीसरे अंग्रेजी दरबार (वर्ष 1911) में ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली होने की बात तय हुई। इसके साथ ही नई राजधानी के निर्माण और प्रबंधन के लिए अंग्रेज अफसर, बाबू और सैनिक दिल्ली पहुंचने लगे। राजधानी में इस नए अंग्रेजी समाज के मनोरंजन के लिए थिएटर बने। मूक फिल्मों के उस दौर में थिएटरों में विशेष रूप से अंग्रेज दर्शकों के लिए हाॅलीवुड फिल्में दिखाई जाती थी।


यह बात कम जानी है कि 1925 में दिल्ली के वकीलों, जज सहित दूसरे पेशेवरों ने बाॅम्बे टाकीज के हिमांशु राॅय को बुद्ध के जीवन पर आधारित "लाइट आॅफ एशिया" फिल्म के निर्माण में पैसे से सहायता की थी। इसी काम के लिए ग्रेट ईस्टर्न फिल्म नामक एक बैकिंग काॅरपोरेशन बनाया। उल्लेखनीय है कि यह काॅरपोरेशन जर्मनी के इमेल्का स्टुडियो के साथ "लाइट आॅफ एशिया" का सह निर्माता था। एडविन अर्नोल्ड की कविता “द लाइट ऑफ एशिया” से प्रेरित और निरंजन पाल की पटकथा वाली इस फिल्म में गौतम बुद्व की भूमिका हिमांशु रॉय ने निभाई थी। जर्मन निर्माता पीटर ओस्टरमावेर और सह निर्देशक फ्रैंज ऑस्टीन वाली यह पहली बहुप्रचारित भारतीय फिल्म थी जो कि मध्य यूरोप में सफल रही।

हिंदी की पहली बोलती फिल्म "आलम आरा" का प्रदर्शन 1931 में हुआ। राजधानी में यह "एक्सेलसियर" में दिखाई गई। सवाक फिल्मों के साथ ही यहां सिनेमाई दर्शकों में इजाफा हुआ तो दिल्ली उत्तरी भारत के एक महत्वपूर्ण फिल्म वितरण केंद्र के रूप में स्थापित हुई। गानों और संवादों वाली सवाक फिल्मों की दौर के साथ थिएटरों में नियमित रूप से श्वेत-श्याम फिल्मों के शो होने लगे।

तब जमाने की बदलती चाल के साथ नाम भी बदले। यही कारण था कि अब दिल्ली में सिनेमाहाॅलों को टॉकीज कहा जाने लगा। इसी चलन के मारे कई हॉलों ने अपने नाम के आगे टाॅकीज लगा लिया जैसे मोती टॉकीज, कुमार टॉकीज, रॉबिन टॉकीज। एक तरह से कहा जा सकता है कि आज के मल्टीप्लेक्स की तर्ज पर उस समय किसी भी थिएटर के नाम के आगे टाकीज होना फैशनेबल और आधुनिकता की निशानी था।
दिल्ली में सबसे पुराने सिनेमा हॉल चांदनी चौक में थे, जो कि 1920-30 के दशक तक पुराने थे। नए सिनेमाहाॅल कनॉट प्लेस में बने थे। जबकि चांदनी चौक और कनाट प्लेस में पहाड़गंज के दो ऐतिहासिक हाॅल थे-इंपीरियल और खन्ना। खन्ना की उम्र तो पुरानी दिल्ली के टॉकीज से भी पुरानी है। तब भी हरेक हॉल की अपनी वफादार दर्शकों की भीड़ थी। एक ओर मुस्लिम समुदाय जामा मस्जिद के पास जगत को पसंद करता था हिंदू दर्शक चांदनी चौक के मोती के मुरीद थे।

सवाक फिल्मों में भाग्य चमकाने के लिए युवा कलाकारों के दिल्ली घराने के उस्तादों तालीम लेने की रफ्तार बढ़ी। तानरस खां ने दिल्ली घराने को स्थापित किया था। यह घराना ख्यालों की कलापूर्ण बंदिशों, तानों का निराले ढंग और द्रुतलय में बोल तानों का प्रयोग के लिए मशहूर था। मल्लिका पुखराज भी तीस के दशक में गायन सीखने राजधानी आई। उस दौर की तीन प्रसिद्व गजल गाने वाली मल्लिका पुखराज, फरीदा खानम और इकबाल बानो दिल्ली घराने की ही थी। जो कि देश के बंटवारे के बाद में पाकिस्तान चली गयी।

तब की सवाक हिंदी फिल्मों के संवाद उर्दू में होते थे तो गाने फिल्म के हिट होने का आधार। तब ऐतिहासिक फिल्मों के चलन के कारण फिल्म निर्माताओं में दिल्ली की पुरानी इमारतों और ऐतिहासिक स्मारकों को लेकर खासा लगाव था। यह बात उस दौर में ऐतिहासिक दिल्ली के कथानकों पर आधारित "हुमायूं", "शाहजहां", "बाबर", "चांदनी चौक", "नई दिल्ली", "रजिया सुल्तान", "मिर्जा गालिब" और "1857" नामक फिल्मों से साबित होती है।


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