Monday, September 17, 2018
cinema of delhi_दिल्ली का सिनेमा
हिंदी की पहली बोलती फिल्म "आलम आरा" का प्रदर्शन 1931 में हुआ। राजधानी में यह "एक्सेलसियर" में दिखाई गई। सवाक फिल्मों के साथ ही यहां सिनेमाई दर्शकों में इजाफा हुआ तो दिल्ली उत्तरी भारत के एक महत्वपूर्ण फिल्म वितरण केंद्र के रूप में स्थापित हुई। गानों और संवादों वाली सवाक फिल्मों की दौर के साथ थिएटरों में नियमित रूप से श्वेत-श्याम फिल्मों के शो होने लगे।
तब जमाने की बदलती चाल के साथ नाम भी बदले। यही कारण था कि अब दिल्ली में सिनेमाहाॅलों को टॉकीज कहा जाने लगा। इसी चलन के मारे कई हॉलों ने अपने नाम के आगे टाॅकीज लगा लिया जैसे मोती टॉकीज, कुमार टॉकीज, रॉबिन टॉकीज। एक तरह से कहा जा सकता है कि आज के मल्टीप्लेक्स की तर्ज पर उस समय किसी भी थिएटर के नाम के आगे टाकीज होना फैशनेबल और आधुनिकता की निशानी था।
सवाक फिल्मों में भाग्य चमकाने के लिए युवा कलाकारों के दिल्ली घराने के उस्तादों तालीम लेने की रफ्तार बढ़ी। तानरस खां ने दिल्ली घराने को स्थापित किया था। यह घराना ख्यालों की कलापूर्ण बंदिशों, तानों का निराले ढंग और द्रुतलय में बोल तानों का प्रयोग के लिए मशहूर था। मल्लिका पुखराज भी तीस के दशक में गायन सीखने राजधानी आई। उस दौर की तीन प्रसिद्व गजल गाने वाली मल्लिका पुखराज, फरीदा खानम और इकबाल बानो दिल्ली घराने की ही थी। जो कि देश के बंटवारे के बाद में पाकिस्तान चली गयी।
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