Sunday, September 30, 2018

Judgement Day_Hindu_Nirmal Verma_निर्मल वर्मा_कुंभ_हिन्दू_आदि से अंत_ईसाई कल्पना





कैसा अंत? क्‍या कोई ऐसी जगह है, जिसे हम अंत कहकर छुट्टी पा सकें? जिस जगह एक नदी दूसरी में समर्पित हो जाए और दूसरी अविरल रूप से बहती रहे, वहां अंत कैसा? हिंदू-मानस में कोई ऐसा बिंदु नहीं, जिस पर अंगुली रखकर हम कह सकें, यह शुरू है, यह अंत है। यहां कोई आखिरी पड़ाव, 'जजमेंट डे' नहीं, जो समय को इतिहास के खंडों में बांटता है।

नहीं, अंत नहीं है और मरता कोई नहीं, सब समाहित हो जाते हैं, घुल जाते हैं, मिल जाते हैं। जिस मानस में व्‍यक्ति की अलग सत्‍ता नहीं, वहां अकेली मृत्‍यु का डर कैसा? मुझे रामकृष्‍ण परमहंस की बात याद हो आती है, 'नदियां बहती हैं, क्‍योंकि उनके जनक पहाड़ अटल रहते हैं।' शायद इसीलिए इस संस्‍कृति ने अपने तीर्थस्‍थान पहाड़ों और नदियों में खोज निकाले थे-शाश्‍वत अटल और शाश्‍वत प्रवाहमान। मैं एक के साथ खड़ा हूं, दूसरे के साथ बहता हूं।

-निर्मल वर्मा, सुप्रसिद्ध साहित्यकार

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