अंग्रेज इतिहासकार कर्नल गार्डन हेअर्न ने वर्ष 1908 में लिखी किताब “दी सेवन सीटिज आफ डेल्ही”, जिसका दूसरा संस्करण 1928 में छपा था, में सात दिल्ली का विवरण है। जबकि ब्रजकृष्ण चांदीवाला की किताब “दिल्ली की खोज” (वर्ष 1964) में अठारह दिल्ली का उल्लेख है।
एक शहर की इतनी गिनती से स्वयंसिद्ध है कि इस शहर की किस्मत में ही उजड़ना और बसना लिखा था। आखिर परिवर्तन ही जीवन का मूल तत्व है। यही कारण है कि यह नगर अनेक बार उजडा़ और दोबारा स्थान बदलकर नए ढंग से बसता रहा। इस उजड़ने और बसने के सिलसिले में इस नगर के नाम भी बदलते रहे हैं। ज्ञात इतिहास में दिल्ली पुराना नाम है और यह आज भी प्रचलित है। ऐसे में, दिल्ली से सम्बन्धित नामों पर अलग-अलग रूप में विचार बनता है।
दिल्ली का सबसे प्राचीन नाम, जिसे पाण्डवों की दिल्ली कहा गया है, का नाम इन्द्रप्रस्थ है। इस समय दिल्ली का पुराना किला जहां स्थित है, वहां पर पहले पाण्डवों का यह नगर था, ऐसा कहा जाता है।
“पृथ्वीराजरासउ” के अनुसार, महाभारत के आदिपर्व में इस नगर का वर्णन मिलता है। पाण्डवों ने श्रीकृष्ण की सहायता से खाण्डवप्रस्थ पहुंचकर इन्द्र के सहयोग से इन्द्रप्रस्थ नाम नगर बसाया। इसके बसाने में विश्वकर्मा ने अद्भुत कार्य किया है, जिसका महाभारत में विस्तार से वर्णन मिलता है। जातकों और पुराणों में भी इन्द्रप्रस्थ का उल्लेख मिलता है। पुराने किले के भीतर का भाग दिल्ली का सबसे प्राचीन भाग है। इस भाग को इन्द्रप्रस्थ से सम्बन्धित भाग कहा जाता है। इन्द्र ने यह नगर बसाने में सहयोग दिया, अतः उसी के नाम पर यह नगर इस भूमि से जुड़कर इन्द्रप्रस्थ कहलाया।
महाभारत में इन्द्रप्रस्थ का वर्णन जिस रूप में है, वह अद्भुत नगरी के रूप में है। आदिपर्व के 206 वें अध्याय में इस नगरी के निर्माण का वर्णन है। यह नगर योजनाबद्ध है। विश्वकर्मा ने इस नगरी को बनाया था। पाण्डवों को जब आधा राज्य दिया गया तो उन्होंने इन्द्रप्रस्थ को अपनी राजधानी बनाया। पाण्डवों के समय से तोमरों के समय तक का ऐतिहासिक विवरण उपलब्ध नहीं है। इस बीच का दिल्ली का इतिहास अज्ञात है और विद्वानों ने तरह-तरह के अनुमान ही प्रस्तुत किए हैं। दिल्ली का ज्ञात इतिहास तोमर वंश के राज्य के बाद का ही है।
तोमरों के समय से पूर्व दिल्ली का जो विवरण मिलता है, उसे पौराणिक मानना चाहिए। पुराण, इतिहास का प्राचीन रूप है, जिसके साथ धर्म भी जुड़ा हुआ है। ईसा पूर्व की पांचवीं शती से लेकर आठवीं शती तक (तोमरों के अस्तित्व में आने तक) का दिल्ली का इतिहास ज्ञात नहीं है। लगभग डेढ़ हजार वर्ष तक (ज्ञात इतिहास से पूर्व) का इतिहास नहीं मिलता।
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट, भाग-एक में अलेक्जेंडर कनिंघम ने दिल्ली के सम्बन्ध में कुछ पारम्परिक मिथकीय आख्यान भी लिखे हैं। इनमें राज दिलू या ढिलू का वृत्त है। कहा गया है कि फरिश्ता ने इसे परम्परा के आधार पर लिखा है। कनिंघम ने निष्कर्ष रूप में लिखा है कि न चाहते हुए भी मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि (दो अपवादों को छोड़ते हुए-लौह स्तम्भ और कुतुब-मंदिरों के अवशेष) दसवीं तथा ग्यारहवीं शती से पूर्व के कुछ भी अवशेष हमें उपलब्ध नहीं हैं।
दिल्ली का नाम योगिनीपुर के रूप में भी प्रसिद्व रहा है। इस नाम का कारण योगमाया का मन्दिर है। इस मन्दिर का सम्बन्ध भी महाभारत काल से जोड़ा जाता है।
ब्रजकृष्ण चांदीवाला ने अपनी किताब “दिल्ली की खोज” में लिखा है कि श्रीकृष्ण के जन्म के सम्बन्ध में भागवत में कथा है कि वह योगमाया की सहायता से कंस के जाल से बच पाए। उसी योगमाया की स्मृति में सम्भवतः पांडवों ने यह मन्दिर स्थापित किया होगा या यह हो सकता है कि उस खांडव वन को जलाकर श्रीकृष्ण और अर्जुन निवृत्त हुए तो उसे विजय की स्मृति में यह मन्दिर बना दिया हो। क्योंकि बिना भगवान की योगशक्ति के इन्द्र को पराजित करना आसान न था। जब तोमरवंशीय राजपूतों ने इस स्थान पर दिल्ली बसाई तो सम्भव है कि उन्होंने योगमाया की पूजा करनी प्रारम्भ कर दी हो क्योंकि वह भी चन्द्रवंशी थे और देवी के उपासक थे।
“पृथ्वीराज रासो” में दिल्ली का नाम जुग्गिनिपुर के रूप में आया है। पंक्तियां इस प्रकार है-
तिहिं तप आषेटक भयौ, थिरू न रहैं चहुंवान।
वर प्रधान जुग्गिनि पुरह, धर रष्षै परधान।
(अर्थात कैमास को राज्य का भार सौंपकर पृथ्वीराज स्वयं (दुर्गा वन में) मृगयार्थ चला गया। कैमास को जुग्गिनिपुर की रक्षा का भार सौंपा गया।)
“पुरातन प्रबन्ध संग्रह” में पृथ्वीराज प्रबंध के जो छन्द उद्घृत हैं, उनमें दिल्ली को योगिनीपुरा कहा गया है।
संस्कृत में योगिनीपुर कहा गया है और रासो की भाषा में उसी का रूप जुग्गिनिपुर है। इस नाम का उल्लेख तोमरों के बाद के इतिहास में ही मिलते हैं। तोमरों का जब राज्य था, उस समय यह नाम अधिक प्रचलित रहा हो और बाद में पृथ्वीराज चौहान के समय में भी यह नाम प्रचलित रहा है।
महेश्वर दयाल ने अपनी पुस्तक "दिल्ली, मेरी दिल्ली" के अनुसार, कहा गया है कि इस समय में योगमाया का जो मन्दिर है उसे अकबर द्वितीय के काल में सन् 1827 में लाला सिद्धमलजी ने बनवाया था। योगिनीपुर से सम्बन्धित उल्लेखों को देखते हुए इस मन्दिर के प्राचीन होने के सम्बब्ध में सन्देह नहीं किया जा सकता। "इन्द्रप्रस्थ प्रबन्ध" (1715 वर्ष के आसपास की रचना) में दिल्ली के ग्यारह नाम दिए गए हैं। उनमें योगिनीपुर भी है।
हरिहर निवास द्विवेदी की किताब "दिल्ली के तोमर" के अनुसार, ग्यारह नामों से सम्बन्धित पंक्तियां इस प्रकार है
शक्रपंथा इन्द्रप्रस्था शुभकृत् योगिनीपुरः
दिल्ली ढ़िल्ली महापुर्या जिहानाबाद इष्यते।
सुषेणा महिमायुक्ता शुभाशुभकरा इति।
एकादशमितनामा दिल्लीपुरी च वर्तते।
इनमें शक्रपंथा, इन्द्र के राज्य का सतयुग का नाम है, दिल्ली और शाहजहांबाद तोमरों के पश्चात के नाम हैं। दूसरे सर्ग में शक्रपंथा से इन्द्रप्रस्थ नाम कैसे पड़ा इसका वर्णन है। शक्रपंथा में इन्द्र ने राज्य किया, इस कारण उसका नाम इन्द्रप्रस्थ पड़ा था फिर पांडव वंश के राजाओं के नाम दिये गये हैं। तृतीय सर्ग में रामवंश का राज्य प्रारम्भ होता है। रामवंश का पहला राजा शंखध्वज है। योगिनीपुर राजधानी बनाई तथा राजधानी का नाम दिल्ली रखा। उसके पश्चात परमार विक्रमी राजा हुआ।
दिल्ली के नामों में योगिनीपुर का नाम अनेक ग्रन्थों में मिलता है। तोमरों के समय में यह नाम प्रचलित रहा होगा। इस नाम के ऐतिहासिक उल्लेखों को देखते हुए, (इन उल्लेखों में अनुश्रुतियां अधिक हैं, फिर भी) इस बात को तो स्वीकार करना ही पड़ता है कि दिल्ली से यह नाम पुराना है।
अनंगपुर
इन्द्रप्रस्थ से दिल्ली को हटाकर सातवीं या आठवीं शती में प्रथम अनंगपुर ने अड़गपुर बसाया। इसे अनकपुर तथा अनंगपुर भी कहा गया है। यह बदरपुर-महरौली रोड से पूर्व दिषा में कोई ढाई मील के अन्तर पर पहाड़ियों में बना हुआ है। हरिहर निवास द्विवेदी ने "दिल्ली के तोमर" पुस्तक अनंगपाल प्रथम को तोमरों का संस्थापक माना है। उन्होंने लिखा है कि परन्तु एक बात में कोई सन्देह नहीं है कि दिल्ली के प्रथम राजा का विरूद अनंगपुर था। इतिहास के प्रयोजन के लिए दिल्ली के तोमर राज्य के संस्थापक का नाम अनंगपाल प्रथम मानकर चलना सुविधाजनक होगा।
यह अनंगपुर बहुत दिनों तक आबाद नहीं रहा। स्वयं तोमरों के काल में ही राजधानी का स्थान बदल गया। अनंगपाल प्रथम का समय 736 वर्ष से 754 वर्ष माना गया है।
ढिल्लिकापुरी
अनंगपाल प्रथम के पुत्र महीपाल ने महीपालपुर बसाया था। कहते हैं, इसी महीपालपुर और योगिनीपुर के बीच में दूसरे अनंगपाल ने 1052 वर्ष के आसपास ढिल्लिकापुरी नई राजधानी बसाई।
कहते हैं दिल्ली के पास ही सारवन/सरवन नामक एक गांव में विक्रम संवत् 1384 (सन 1328 वर्ष) का एक शिलालेख मिलता है। इस शिलालेख में लिखा है
देशोऽस्ति हरियानाख्याः पृथ्व्यिां स्वर्गसन्निभः
ढ़िल्लिकाख्या पुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता।
तोमरान्तरं तस्यां राज्यं हितकंटकम्
चाहामाना नृपाष्चक्रः प्रजापालन तत्पराः।
इन पंक्तियों में ढ़िल्लिकाख्या पुरी ढ़िल्लिकापुरी का उल्लेख है। यदि यह उल्लेख प्रामाणिक है, तो इस बात पर विचार करना पड़ेगा कि दिल्ली का मूल नाम ढ़िल्लिकापुरी है।
इन्द्रप्रस्थ से ढ़िल्लिकापुरी तक के नाम संस्कृत भाषा से सम्बन्धित प्रतीत होते हैं। इन्द्रप्रस्थ तो विशुद्ध रूप से संस्कृत है। योगिनीपुर भी संस्कृत है। इस योगिनीपुर से सम्बन्धित इसका एक और रूप जुग्गिनिपुर मिलता है। अनंगपुर, संस्कृत का नाम है। इन नामों में इन्द्रप्रस्थ नाम प्राचीन है।
इस इन्दरपत के सम्बन्ध में सर सैयद अहमद खां ने "अतहर असनादीद" में लिखा है, पहले इन्द्रप्रस्थ उस मैदान का नाम था जो पुराने किले और दरीबे के खूनी दरवाजे के दरमियान में है। हिन्दुओं के एअतकाद में इन्द्र नाम है अकास के राजा का जो हिन्दुओं के महजब में एक मुकररी राजा है और प्रस्थ कहते हैं, दोनों हाथों के मिले हुए लबों को। हिन्दुओं के एअतकाद में ये बात है के यहां के राजा इन्द्र ने किसी फरजी जमाने में दोनों हाथ भरकर मोतियों का दान किया था। इस सबब से इस जगह को इन्द्रप्रस्थ कहते हैं। कसरत इस्तेमाल से ’रे’ और ’सीन’ हजफ (लोप) हो गया और इन्दरपत मशहूर हो गया और मेरी समझ में ये मानी तो ऐसे ही है जैसे और हिन्दुओं की कहानियां। सही बात ये मालूम होती है के पत के मानी साहब और मालिक और हाकिम के हैं। जब शहर आबाद हुआ तो आबाद करने वाले ने नेक फाल समझकर इन्दरपत नाम रखा यानी इस शहर का मालिक इन्द्र है जो अकास और बहिश्त का राजा है। पहले जमाने में यहां के राजाओं की तख्तेगाह में हस्तिनापुर था जो गंगा के किनारे दिल्ली से तखमीनन सौ मील दूर है। अब इस शहर का निशान नहीं रहा लेकिन शहर शाहजहान आबाद के जुनुब की तरफ दिल्ली दरवाजे के बाहर जो जमीन है, इन्दरपत की जमीन कहलाती है। मगर खास इन्दरपत की आबादी अब नहीं रही और सारी जमीन में अब जिआरत होती है और वहां के जमीनदार पुराने किले में बसते हैं और ये सबसे पहला शहर है जो यहां आबाद हुआ। इसके बाद फिर और आबादियां इसके आसपास होती रही।
इन्द्रप्रस्थ का रूप इन्दरपत बना है। यह नाम दिल्ली में बाद में बोलचाल में प्रचलित हुआ।
इन्द्रप्रस्थ नाम पांडवों के समय का नाम है। इन्द्रप्रस्थ से लेकर दिल्ली नामकरण तक के नामों में अरबी, फारसी, तुर्की भाषाओं का कोई प्रभाव नहीं दिखलाई नहीं देता।
मुहम्मद गौरी का जब आक्रमण हुआ और बाद में गुलाम वंश का शासन यहां पर हो गया, उस समय तक दिल्ली नाम का प्रचलन हो गया था। दिल्ली यह नाम तोमरों के समय का नाम है।
कुतुबद्दीन ऐबक द्वारा निर्मित मस्जिद पर हिजरी सन् 587 के शिलालेख है कि उक्त मस्जिद के निर्माण में पांच करोड़ दिल्लियाल (दिल्ली की मुद्राओं का) मूल्य का मसाला लगा था।
इस दिल्लियाल शब्द में दिल्ली रूप है। इस रूप के लिखे जाने में दिल्ली का प्रयोग मुस्लिम शासकों द्वारा, उनके यहां पर बस जाने के बाद हुआ है। 'याल' यहां मुद्रा के अर्थ में प्रयुक्त है। बाद में फारसी में इसी मुद्रा के लिए (हसन निजामी के ताजुल-मआसिर में) "देहलीवाल" शब्द का प्रयोग हुआ है। दिल्लीयाल तथा देहलीयाल दोनों में भाषा भेद है।
"पृथ्वीराजरासो" (बृहत् संस्करण) का तीसरा समय दिल्ली किली कथा है। इसी तरह दिल्ली की राजावली भी मिलती है। इनमें अनुश्रतियां हैं। लौहस्तम्भ को दिल्ली की किली कहा गया है। इस सम्बन्ध में जो अनुश्रति है, उसे कनिंघम ने भी अनुश्रति के रूप में ही लिखा है। वस्तुतः ज्ञात इतिहास में सबसे पुरानी दिल्ली का भाग कुतुब मीनार के पास का भाग है। लौहस्तम्भ यही है। लालकोट का भाग भी यही है। पृथ्वीराज चौहान का सम्बन्ध इस दिल्ली के साथ जोड़ा जाता है और जब कुतुबुद्दीन ऐबक का राज्य शुरू हुआ तो उसकी राजधानी भी इसी भाग में थी। दिल्ली नामकरण का सम्बन्ध इसी भाग से है।
गुलाम वंश के समय में राजधानी तोमरों की दिल्ली ही रही। इसी वंश के दसवें बादशाह कैकबाद ने (बलबन के पोते ने) 1286 वर्ष में किलोखड़ी में एक महल बनाया और वहां नया शहर बसाया।
इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी ने 1303 वर्ष में सीरी को राजधानी बनाया।
बाद में गयासुद्दीन तुगलक ने 1321-1332 वर्ष में राजधानी का स्थान बदल दिया। सीरी से हटाकर उसने नया नगर तुगलकाबाद बसाया। उसी के लड़के मोहम्मद आदिलशाह ने तुगलकाबाद के निकट आदिलाबाद बसाया। कुछ वर्ष बाद उसने दिल्ली (तोमरों की) और सीरी के चारों ओर एक दीवार 1327 वर्ष में बनवाई और इस तरह जो नया शहर बना, उसका नाम जहांपनाह रखा। बाद में फिरोजशाह तुगलक ने 1354 वर्ष में एक और नया नगर फीरोजाबाद के नाम से आबाद किया। तैमूर के आक्रमण ने इस नये शहर को पूरी तरह से बरबाद कर दिया। बाद में सैयद खानदान ने पहले बादशाह खिजर खां ने 1418 वर्ष में खिजराबाद बसाने का प्रयत्न किया और उसके बाद बाद मुबारकशाह ने 1432 वर्ष में मुबारकाबाद आबाद किया। जब मुगलों ने (बाबर ने) भारत पर आक्रमण किया, उस समय तक दिल्ली के इतने रूप बन गए थे। मुबारकाबाद के बसने के बाद में ही मुगल बादशाह भारत में आते हैं।
मुस्लिम बादशाहों का शासन 1193 वर्ष में शुरू होता है और तब से 1286 वर्ष तक लगभग (गुलाम वंश के दसवें सुल्तान तक) 93 वर्ष तक राजधानी कुतुब के पास ही दिल्ली (तोमरों की दिल्ली) ही रहती है। किलोखड़ी (1286 वर्ष) नया शहर बसाया गया, 17 वर्ष बाद 1303 वर्ष में सीरी, आठ वर्ष बाद 1321 वर्ष में तुगलकाबाद, दो वर्ष बाद 1323 वर्ष में आदिलाबाद, चार वर्ष बाद 1327 वर्ष में जहांपनाह, सत्ताईस वर्ष बाद 1354 वर्ष में फीरोजाबाद, 54 वर्ष बाद 1458 वर्ष में खिज्रबाद और 14 वर्ष बाद 1432 वर्ष में मुबारकबाद (जिसे मुबारकपुर भी कहा गया है) शहर बसते हैं।
लोदियों के समय राजधानी आगरे चली जाती है और फिर बाद में मुगल आ जाते हैं। कुल मिलाकर,1193 वर्ष से 1432 वर्ष तक 239 वर्ष की अवधि में तोमरों की दिल्ली से मुबारकाबाद तक पहुँच जाते हैं। इनमें भी प्रथम 93 वर्ष तक राजधानी पुरानी दिल्ली ही रहती है। इन 93 वर्षों को हटा दे तो 146 वर्षों के भीतर की दिल्ली किलोखड़ी, सीरी, तुगलकाबाद, आदिलाबाद, जहांपनाह, फीरोजाबाद, खिज्राबाद और फिर मुबारकाबाद है। इस बीच आठ स्थल बदल जाते हैं। मेहरौली के निकट ढ़ीली है। इसी तरह ढ़िली के निकट खिड़की (खिरकी) है और उससे निकट सीरी है और सीरी से उत्तरी में किलोखड़ी है।
जब मुस्लिम सत्ता ने दिल्ली पर अधिकार किया, उस समय उसका नाम ढ़िली के रूप में प्रचलित रहा होगा। बाद में इन सुल्तानों ने अपनी सुविधा के लिए जब नये नगर बसाए, तो उनका नामकरण उनकी अपनी भाषा में है। तुगलकाबाद, आदिलाबाद, जहांपनाह, फिरोजाबाद, खिज्राबाद तथा मुबारकाबाद नाम ऐसे ही हैं। बलबन के पोते ने (कैकबाद ने) ने जब नया शहर बसाया तो उसने उसका नाम बदला नहीं, किलोखड़ी गांव के पास यह नया शहर बसाया गया।
यह नाम बहुत दिनों तक आबाद नहीं रहा।
इसी तरह, अलाउद्दीन खिलजी के समय सीरी को राजधानी बनाया गया। सीरी नाम भी गांव का है और यह पुराना नाम है।
विदेशी मुस्लिम हुकुमरानों की एक शताब्दी के आसपास का समय दिल्ली में ही गुजरा है। बाद में जब नगर का विस्तार हुआ और किलों का निर्माण भी हुआ, तो वे उसी नाम के नगर से जाने गए। किलोखड़ी हो या सीरी या और कोई-आबाद, सब के सब दिल्ली के ही भाग रहे। यहां तक कि मुगल बादशाह शाहजहां का बसाया हुआ शहर भी शाहजहांबाद के रूप में ख्यात नहीं हो सका, वह भी दिल्ली कहलाया, आज की पुरानी दिल्ली, शाहजहांबाद है।
तुगलकाबाद (1321 वर्ष से 1323 वर्ष तक जिसका निर्माण हुआ) के दरवाजों के नाम निम्नलिखित है। चकलाखाना दरवाजा, धोवन धोवनी दरवाजा, नीमवाला दरवाजा, बड़ावली दरवाजा, चोर दरवाजा, होड़ी दरवाजा, लालघंटी दरवाजा, तैखंड दरवाजा, तलाई दरवाजा। ये सारे शब्द ऐसे हैं, जो स्थानीय है। दरवाजों के नामकरण में वे तथ्य अधिक काम करते हैं, जो दरवाजे के पास पाए जाते हैं। इन नामों में 'दरवाजा' तो फारसी शब्द है। 'चकला' शब्द तुर्की है।
शाहजहांबाद (इस समय की पुरानी दिल्ली) के 52 दरवाजे बतलाए जाते हैं। इन दरवाजों के सम्बन्ध में लिखा गया है, इस नये शहर जहांपनाह (मुहम्मद तुगलक के समय में बने) के पुरानी दिल्ली (कुतुब मीनार के पास की) और सीरी (अलाउद्दीन खिलजी के समय में बसाया गया शहर) को मिलाकर 13 दरवाजे थे। इन 13 मंे से 6 उत्तर-पश्चिम में थे, जिनमें से एक का नाम मैदान दरवाजा था, लेकिन यजदी ने इसका नाम हौजखास दरवाजा लिखा है क्योंकि वह इस नाम के हौजखास दरवाजा लिखा है क्योंकि वह इस नाम के हौज की ओर खुलता है। इन नामों में 'मैदान' तो फारसी शब्द है और 'बुरका' अरबी है। कुतुब मीनार के पास का अलाई दरवाजा अलाउद्दीन खिलजी (1310 वर्ष) का बनाया हुआ है। इसमें 'अलाई' (1310 वर्ष) का तात्पर्य बनाया हुआ है। इसमें 'अलाई' (तात्पर्य ऊंचा) शब्द अरबी है और दरवाजा फारसी शब्द है।
तोमरों के समय जो दिल्ली थी, उसमें सुल्तानों के समय में बहुत विस्तार हुआ। यह विस्तार सुल्तानों के समय में जहांपनाह के रूप में सबसे अधिक हुआ। उसने (मुहम्मद तुगलक) मेवातियों की लूटमार से बचाने के लिए पुरानी दिल्ली और सीरी दोनों की आबादियों को जोड़ दिया। यह नई चारदीवारी 'जहांपनाह' कहलाने लगी। मुहम्मद बिन तुगलक के ही समय में ही दिल्ली से हटकर देवगिरी राजधानी बनाई गई थी। इससे बसा-बसाया नगर उजड़ गया, बाद में फिर दिल्ली को ही राजधानी बनाया गया।
जियाउद्दीन बरनी ने "तारीख-ए-फीरोजशाही" में लिखा है, सुल्तान की दूसरी योजना यह थी कि उसने देवगिरी को अपनी राजधानी बनाया और उसका नाम दौलताबाद रखा। इससे साम्राज्य की राजधानी नश्ट हो गई। सुल्तान ने किसी से सलाह नहीं की और लाभ-हानि पर विचार नहीं किया, जिससे दिल्ली नगर, जो 170 या 180 वर्ष से बगदाद और कैरो की प्रतिस्पर्धा करता था और जिसकी स्मृद्वि बढ़ती जाती थी, नष्ट-सा हो गया।
बाद में फिरोजशाह तुगलक के समय में दिल्ली फिर आबाद ही गया। फिरोजाबाद का निर्माण हुआ। शम्स-ए-सिराज-अफीफ ने फिरोजाबाद के निर्माण के बाद की दिल्ली का वर्णन इस प्रकार किया है-सुल्तान ने फिरोजशाह तुगलक ने जमुना नदी के तट पर गाबिन नामक गांव की भूमि पसन्द करके दूसरी बार लखनौती जाने से पहले वहां फिरोजाबाद नामक नगर स्थापित किया। यहां उसने एक महल का निर्माण शुरू किया। दरबार के अमीरों ने भी वहां पर अपने मकान बनवा लिए। इस प्रकार दिल्ली में पांच कोस की दूरी पर एक नया नगर खड़ा हो गया।
तैमूरलंग ने जब भारत पर आक्रमण किया, तो उसने दिल्ली को लूटा था। स्वयं तैमूर ने अपनी आत्मकथा "मुलफुजात-ए-तैमूर" में उस समय की दिल्ली का वर्णन किया है। तैमूर के शब्दों में दिल्ली का वर्णन ऐसे हैं, जिस रात को मैंने सुल्तान और उसके सेनापतियों के दिल्ली से भाग जाने की खबर सुनी तथा अमीर अल्लाहदाद और दूसरे अफसरों के हौज रानी के दरवाजे की चौकसी करने के लिए भेजा। इसी दरवाजे से महमूद भागा था। बरक नामक दरवाजे से मल्लू खां भागा था। मैंने अपने आदमी सारे दरवाजों पर भेज दिए और आदेश दिया कि किसी को निकलने नहीं दिया जाय।
तैमूरलंग ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि सीरी गोल नगर हैं इसमें ऊंची-ऊंची इमारतें हैं। इनके चारों ओर ईंट और पत्थर की प्राचीरें बनी हुई हैं। जिसको जहांपनाह कहा जाता है। वह आबाद शहर के मध्य में स्थित है। इन तीनों नगरों की प्राचीर में 30 दरवाजे हैं। जहांपना में 13 दरवाजे हैं। सीरी के सात दरवाजे हैं। पुरानी दिल्ली की प्राचीर में दस दरवाजे हैं।
सुल्तानों के समय में जो दिल्ली रही है, वह इस समय पूरी तरह से दिखलाई नहीं देती। कुछ खंडहर, कुछ इमारतें और मकबरे शेष हैं। दिल्ली का सबसे पुराना भाग तो अब भी (कुतुब मीनार के पास का) सुरक्षित है किन्तु किलोखड़ी, सीरी, तुगलकाबाद, आदिलाबाद, जहांपनाह, फिरोजाबाद, मुबारकाबाद आदि सब उजड़ गए हैं। सुल्तानों के समय में ही दिल्ली दो बार तो पूरी तरह से उजड़ गई थी। मुहम्मद तुगलक के समय में जब उसने अपनी राजधानी देवगिरी से बदल दी थी और दूसरे जब तैमूरलंग का आक्रमण हुआ, उस समय भी नष्ट किया गया। इनके बाद जब शेरशाह सूरी ने दिल्ली पर विजय प्राप्त की दिल्ली की दीवारें तोड़ दीं और उसी के मसाले से अपना नया नगर बसाया। कहना यह है कि सुल्तानों की दिल्ली जिस तेजी से घनी आबाद हुई, उतनी ही तेजी से वह नष्ट भी हुईं।
सुल्तानों के शासन के 322 वर्षों से (1193 वर्ष से 1525 वर्ष तक) जो दिल्ली रही हेै, उस दिल्ली के आज हमें नगर के रूप में दर्शन नहीं होते। स्वयं सुल्तानों ने समय-समय पर दिल्ली में ही अपनी-अपनी सुविधानुसार दिल्ली में स्थान बदले हैं और आबादियां बसाई हैं। मुगलों के समय-समय पर आक्रमण हुए हैं और विशेष रूप से तैमूर का आक्रमण तो बहुत प्रबल था। मुहम्मद तुगलक के समय तो दिल्ली देवगिरी में स्थानांतरित हुई थी और बाद में जब मुगल यहां आए (बाबर), उस समय से पहले ही राजधानी आगरे में चली गई थी। सिकन्दर लोदी ने ही राजधानी बदल दी थी। दिल्ली से हटकर राजधानी आगरे में स्थानांतरित हो गई। इस सम्बन्ध में नियामतुल्ला ने "मखजन-ए-अफगानी" और "तारीखे-ए-खानजहां लोदी" में लिखा है, सुल्तान (सिकन्दर लोदी) को बहुत पहले ध्यान आया था कि जमुना के तट पर एक नगर बसाया जाय, जहां सुल्तान निवास किया करे और जो सेना का केन्द्र बने और जहां से उधर के विद्रोहियों को दबाया जा सकें, जिससे वे फिर विद्रोह करने के अवसर से वंचित तो जाएं।
तात्पर्य यह है कि 1505 वर्ष के बाद दिल्ली का प्रभाव कम हो गया। बाबर के आगमन से पूर्व ही राजधानी का स्थान बदल गया था।
सुल्तानों के शासनकाल में ही राजधानी दिल्ली से आगरा चली गई किन्तु सारे देश में दिल्ली को ख्याति मिल गई थी, वह ख्याति आगरे को नहीं मिली। आगरे में रहने वाला बादशाह दिल्ली के बादशाह के रूप में ही ख्यात रहा। आगरा एक प्रकार से निवास स्थान हो गया। आगरे में किले का निर्माण हुआ। अकबर, जहांगीर तथा शाहजहां का काल आगरे में ही गुजरा।
मुगलकाल में शाहजहांबाद के रूप में जो दिल्ली बनी है, वह आज पुरानी दिल्ली के रूप में मौजूद है। किन्तु उससे पूर्व मुगलकाल में ही दिल्ली का निर्माण और दो स्थानों पर अलग-अलग रूप मंे हुआ है। एक है दीनपनाह। इसका निर्माण हुमायूं के समय में हुुआ था। यद्यपि सिकन्दर लोदी के समय से ही राजधानी आगरे में चली गई थी तथापि दिल्ली आना-जाना बना हुआ था। दीनपनाह के सम्बन्ध में लिखा गया है-खोन्दामीर के हुमायूंनामा से, उसने (हुमायूं ने) दीनपनाह नामक नगर का निर्माण करवाया। जमना के तट पर एक ऊंचा स्थान जो नगर से तीन कोस दूर था, दीनपनाह की स्थापना के लिए पसन्द किया गया।
दीनपनाह आज पुराना किला कहलाता है। इन्दरपत गांव उसी के पास है। पांडवों के समय की दिल्ली का स्थान भी यही बतलाया जाता है। इस किले के भीतर ही खुदाई हुई है। यह भी कहा जाता है कि हुमायूं ने उसी पुराने किले को ठीक ठाक करवाकर उसका नाम दीनपनाह रखवा दिया है। पुराने किले में खुदाई वाले स्थानों को देखें और उनमें खुदाइयों के क्रम (स्तर के अनुसार) को देखें तो कुतुब की दिल्ली से पूर्व के अवशेष वहां मिलते हैं। इस नाते इतना तो कहा जा सकता है कि दीनपनाह बनने से पूर्व वहां नगर और किला था। इन्दरपत गांव वहां पर होने के कारण उसे इन्द्रप्रस्थ का बिगड़ा हुआ रूप मानकर पांडवों की दिल्ली के रूप में भी उसे पहचाना जा सकता हे।
बाबर का शासन अल्पकालीन था और हुमायूं आगरे में ही रहता था। उसने दीनपनाह बनावाया और दिल्ली आता-जाता रहता था। वैसे राजधानी दिल्ली से हट गई थी किन्तु दीनपनाह का वहां निर्माण इस बात का द्योतक है कि राजधानी की ख्याति दिल्ली को प्राप्त थी। इसके बाद में शेरशाह सूरी के शासनकाल में दिल्ली शेरगढ़ का निर्माण हुआ। कहते हैं दीनपनाह के किले को ठीक करके उसका नाम शेरगढ़ रखा गया।
"तारीखे शेरशाही" में लिखा है कि दिल्ली शहर की पहली राजधानी यमुना से फासले पर थी जिसे शेरशाह ने तुड़वाकर फिर से यमुना के किनारे पर बनवाया और उस शहर में दो किले बनवाने का हुक्त दिया-छोटा किला गवर्नर के रहने को और दूसरा तमाम शहर की रक्षा के लिए चारदीवारी के रूप में।
"तारीखे दाउदी" में लिखा है कि 1540 वर्ष में शेरशाह आगरे से दिल्ली गया और उसने सीरी में अलाउद्दीन के किले को मिसमार करवा दिया तथा यमुना के किनारे फीरोजाबाद व किलोखड़ी के बीच में इन्दरपत से दो-तीन कोस की दूरी पर किला बनवाया। इस किले का नाम शेरगढ़ रखा, लेकिन उसकी हुकूमत के मुख्तसर होने से वह अपने जीवनकाल में इसे पूरा न करवा सका। किलोखड़ी बारहपुले के पुल से आगे तक फैली हुई थी।
अफगान शासक सलीमशाह सूरी ने 1546 वर्ष में दीनपनाह के स्तर पर यमुना के किनारे पर एक मजबूत किला बनवाया। किन्तु इसके निर्माण होते-होते बादशाह की मृत्यु हो गई। उसके बाद में उस किले की उपेक्षा होती रही। लाल किले के कोने में यह बना हुआ है। (लालकिला बाद में बना है) लाल किला बनने के बाद इसका उपयोग शाही कैदखाने के रूप में किए जाने लगा। इस सम्बन्ध में लिखा है, यह लम्बाई में पांच मील भी नहीं है और किले का तमाम चक्कर पौन मील के करीब है। यह यमुना के पश्चिमी किनारे पर एक द्वीप में बना हुआ है। नूरूद्दीन जहांगीर ने पांच महराबों का एक पुल इसके दक्षिण दरवाजे में सामने बनवाया था। तब ही से इसका नाम नूरगढ़ पड़ गया था। लेकिन आम नाम सलीमगढ़ ही रहा।
दीनपनाह से सलीमगढ़ तक का काल ऐसा है, जिसे अस्थिर ही कहा जा सकता है। यह राजनीतिक अस्थिरता है। दीनपनाह 1533 वर्ष में बसाया गया, शेरगढ़ 1540 वर्ष में बना और सलीमगढ़ 1546 वर्ष में। बारह-तेरह वर्ष में अलग-अलग स्थान पर किलों का निर्माण होना, राजनीतिक स्थिरता का द्योतक नहीं है। इसमें फिर यह समय ऐसा रहा है कि राजधानी के रूप में आगरे का आकर्षण अलग बना रहा। मुगल बादशाह तो आगरे में ही रहते थे।
ऐसा लगता है कि सुल्तानों के समय की दिल्ली लोदी बादशाहों के समय में ही उजड़ने लगी थी। सिकन्दर लोदी के आगरा चले जाने के बाद ही दिल्ली कुछ उपेक्षित हो गई। उसका राजनीतिक महत्व तो कम नहीं हुआ किन्तु नगर की श्रीवृद्वि की ओर ध्यान नहीं दिया गया।
लगभग एक शताब्दी तक मुगलों का ध्यान दिल्ली की ओर नहीं गया। दीनपनाह (निर्माण काल 1533 वर्ष) के बाद शाहजहांबाद का निर्माण 106 वर्षों के बाद 1639 वर्ष में होता है। शाहजहांबाद के किले और शहर के निर्माण में लगभग नौ वर्ष निकल जाते हैं। 1648 वर्ष में यह कार्य पूर्ण होता है।
"दिल्लीः मेरी दिल्ली" में महेश्वर दयाल ने लिखा है मुकर्रमत मीर इमारत को हुक्म मिला कि दिल्ली में बादशाह शाहजहां के लिए एक शानदार लाल पत्थर का किला बनाने के लिए कोई अच्छी जगह तलाश की जाए। बहुत खोज के बाद तालकटोरा बाग और उसके पास की जगह पसन्द आई। यहां पानी की कमी नहीं थी और हर तरफ हरियाली ही थी। मीर इमारत ने किला बनवाने के लिए दिल्ली के दो मशहूर कारीगरों को बुलवाया जिनके नाम उस्तार हामिद और उस्ताद हीरा थे। इन दोनों को लाल पत्थर का किला बनाने का काम सौंपा गया। दोनों उस्तादों ने तालकटोरा और उसके आसपास की जगह को लाल पत्थर की इमारत के लिए ठीक न समझा। इन उस्तादों ने दिल्ली में जमना के किनारे शेरशाह सूरी के बेटे सलीमशाह के बनाए सलीमगढ़ के पास खुली जगह पर एक किला बनाने की राय दी। शाहजहां का दिल्ली का लाल किला नौ बरस में तैयार हुआ।
शाहजहां ने उन उस्तादों के कार्य से प्रसन्न होकर उन्हें इनाम दिया और हरने के लिए हवेलयिां थी। कहते हैं दिल्ली के जामा मस्जिद के पास बड़े दरीबे के बाहर उस्ताद हामिद और उस्तार हीरे के नाम से कूचे आज भी दिल्ली में मौजूद हैं।
“शाहजहांनामा” में लिखा है कि बादशाह ने आगरा और लाहौर की गलियों और अश्वशालाओं को तंग देखकर दिल्ली के मैदान में नूरगढ़ के पास जमुना के ऊपर एक नया शहर बसाने का आदेश दिया था (1639 वर्ष) अब वह चालीस लाख रूपए के खर्च से बन चुका था। और इतना ही रूपया जनाने महलों और मरदानी इमारतों में खर्च हुआ था।
“शाहजहांनामे” के अनुसार, बादशाह शाहजहां ने 8 अप्रैल 1648 वर्ष को नदी के मार्ग से किले में प्रवेश किया।
शाहजहां द्वारा बनाया गया शहर शाहजहांबाद पूरी तरह से नया आबाद किया हुआ शहर है। यही शहर आज पुरानी दिल्ली के रूप में ख्यात है। शाहजहां के समय में ही इसे ही नई दिल्ली कहा गया है। शाहजहांबाद के रूप में नये आबाद शहर का मूल ढांचा शाहजहां के समय का ही है। उस समय से लेकर आज तक उस मूल ढांचे में बहुत परिवर्तन नहीं हुआ है। शहर के मुहल्ले, बाजार, मार्ग, प्राचीन तथा दरवाजे आदि सब शाहजहां के समय के ही बने हैं।
फ्रांसिसी यात्री बर्नियर ने जिस दिल्ली का वर्णन किया है, वह शाहजहांबाद का ही है। उसने इस नगर के बसने के 40 वर्ष बाद का वर्णन किया है। वर्णन इस प्रकार है-किला जिस शाही महलसरा और मकान है, अर्ध गोलाकार सी है। इसके सामने जमुना नदी बहती है। किले की दीवार और जमुना नदी के बीच में एक बड़ा रेतीला मैदान है। जिसमें हाथियों की लड़ाई दिखाई जाती हैं और अमीरों, सरदारों और हिन्दू राजों की फौज बादशाह के देखने के लिए खड़ी की जाती है। जिन्हें बादशाह महल के झरोखों से देखा करता है।
बर्नियर ने दिल्ली के जनजीवन की झांकियां भी प्रस्तुत की है। किले के महल का और दरबार का विवरण दिया है और वहां के शिल्प का भी विस्तार से वर्णन किया है। इन वर्णनों में दरवाजों का विवरण है, और मीना बाजार का भी आंखों देखा हाल है। कहना यह है कि बर्नियर ने दिल्ली शहर का आंखों देखा हाल लिखा है। उसने जिस समय का यह चित्र खींचा है, दाराशिकोह और औरंगजेब के समय का चित्र है।
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