Sunday, January 19, 2020

poem_kadambani_और कादम्बिनी?




हर बार कहना जरूरी नहीं होता!
सो चुप रहा।
फिर भी मन भारी रहा!


मानो मौन घनीभूत पीड़ा थी।
अनुत्तरित प्रश्नों का कहाँ कोई ठौर?
स्वयं में ही सिमट गए।


श्वास ही साक्ष्य थे

और पसरा था, मौन।
बस मेघों का था गर्जन!


और कादम्बिनी?
मेघ राग की थी, रागिनी
बूंद बनकर हरीतिमा हो गई।


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