दिल्ली में स्वामीजी का डेरा सेठ श्री श्यामल दास का घर था। इस बारे में स्वामी गम्भीरानन्द लिखते हैं कि इस घर को केन्द्र बनाकर वे (स्वामी विवेकानन्द) अतीत काल के राजप्रासाद, दुर्ग, समाधिस्थल, परित्यक्त राजधानी के भग्न खण्डहर और गुल्माच्छादित निवास-स्थान और अन्यान्य प्राचीन गौरव के समाप्तप्राय अवशेष आदि को देखने निकलने लगे। उनकी अध्यात्मानुभूति पुष्ट ऐतिहासिक चेतना ने उन्हें बता दिया कि भारत की सभ्यता कितनी पुरानी है, भारत की संस्कृति किस प्रकार अविनश्वर है और विभिन्न धाराओं के मिलन से कितनी विचित्र तथापि क्रमश: वृद्धिशील है। पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं के इस अपूर्व लीलाक्षेत्र ने हजारों लुप्त महिमाओं की साक्ष्य अपने वक्ष में धारण कर उनके वैराग्यप्रवण मन को सहज रूप में ही बता दिया था कि सांसारिक ऐश्वर्य के क्षणभंगुर होने पर भी उसी के बीच में आत्मा की महिमा किस प्रकार चिरउज्जवल दीप्ति और विभिन्न भंगिमाओं से अपना विकास करती चली है। उनका मन उन दिनों काफी तेजपूर्ण था और दिल्ली के शीतकाल की विशुद्ध जलवायु के फलस्वरूप उनका शरीर भी स्वस्थ और सबल था।
मेरठ से स्वामी जी के किसी को बिना बताए आने के कारण उनके गुरुभ्राताओं ने दस दिनों बाद दिल्ली में उन्हें खोज निकाला और उनके साथ सम्मिलित हो गए। स्वामीजी को उनसे मिलकर प्रसन्नता तो हुई पर उन्हें अपनी तपस्या में बाधा की आशंका हुई। उन्होंने अपने गुरुभ्राताओं से कहा, देखो भाई मैंने तुम लोगों को पहले ही कहा है कि मैं अकेला रहना चाहता हूँ, मैंने तुम लोगों से कह रखा है कि मेरा पीछा मत करो। वही बात फिर कहता हूँ-मैं यह नहीं चाहता हूँ कि कोई मेरे साथ रहे। मैं अभी दिल्ली छोड़कर जा रहा हूँ।
कोई मेरे पीछे चलने की चेष्टा न करे, कोई मुझे ढूंढ़ निकालने के लिए प्रयास न करें। मैं चाहता हूँ कि तुम लोग मेरी बातों का पालन करो। मैं सारे पुराने सम्बन्धों को तोड़ना चाहता हूँ। मैं अपनी इच्छा से भ्रमण करूंगा-पहाड़, जंगल, मरुभूमि अथवा नगर में-चाहे जो हो, जो मुसीबत आवे। मैं चला। मेरी इच्छा है कि हर कोई अपनी बुद्धि के अनुसार साधना करने में लग जाय। गुरुभाइयों ने उन्हें समझाकर कहा, हम लोगों को यह मालूम ही नहीं था कि तुम यहां ठहरे हो। हम लोग केवल दिल्ली नगर देखने आए थे। यहां आकर स्वामी विविदिशानन्द नामक एक अंग्रेजी-भाषी साधु के विषय में खबर मिली। तब उन्हें देखने आए। अतएव, तुमसे जो मुलाकात हो गयी, यह एक आकस्मिक घटना मात्र है।
जैसे भी हो, स्वामीजी उस समय शान्त हो गए और तुरन्त दिल्ली त्यागकर नहीं गए। उनके दूसरे गुरुभाइयों के अलग-अलग स्थानों पर जाने के बाद दिल्ली में स्वामीजी के साथ स्वामी अखण्डानन्द और स्वामी अद्वैतानन्द ही रह गए।
तब स्वामीजी गले में टाॅन्सिल होने के कारण उस समय दिल्ली के प्रसिद्ध डाक्टर हेमचन्द्र सेन को अपना गला दिखाने गए। तब डाक्टर सेन उनसे प्रभावित न होने के बावजूद गहन वार्तालाप के लिए उत्सुक थे। इस कारण डाक्टर साहब ने एक दिन अपने घर पर महाविद्यालय के अनेक अध्यापकों को बुला लिया और स्वामीजी भी अपने दोनों गुरुभाइयों के साथ उस बैठक में उपस्थित हुए। बैठक में शीघ्र ही विचार-विमर्श होने लगा और स्वामीजी की तीक्ष्ण बुद्वि और अगाध पाण्डित्य देखकर सभी चकित हो गए। इसके कुछ दिनों बाद, फरवरी 1891 में स्वामीजी दिल्ली से अलवर के लिए निकल गए।
दिल्ली की प्राचीनता का स्वामीजी पर एक अमिट प्रभाव पड़ा। विदेशी भूमि की यात्रा के समय उन्हें दिल्ली के भूदृश्य के समान स्थान देखने को मिलें। उन्होंने कैलिफोर्निया में 'सांता फे रूट' के बारे में सिस्टर निवेदिता को लिखा कि आज मैं जिन भूदृश्यों से होते हुए गुजर रहा हूं, वह दिल्ली के पड़ोस की तरह है। जहां आरंभ में एक बड़ा मरूस्थल, बेरंग पहाड़, डरावनी-कंटीली झाड़ियाँ और बेहद कम पानी है। यहां छोटी जल धाराएं (ठंड के कारण) जमी हुई हैं, लेकिन दिन में गर्मी है। मुझे लगता है, गर्मियों में ऐसा ही होना चाहिए।
स्वामीजी को पेरिस यात्रा के समय दिल्ली की भावना की अनुभूति हुई। इस विषय पर स्वामीजी लिखते हैं कि मुझे ऐसा लगता है कि दिल्ली का चांदनी चौक एक समय में डे लाॅ कॉनकॉर्ड की तरह रहा होगा। यहाँ और वहां विजय स्तंभ, विजयी मेहराबें, पुरुषों और स्त्रियों तथा सिंहों की विशाल मूर्तियां मूर्तिकला कला के रूप में चौराहे पर सजी हुई हैं।
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