Kashmir_From Down the Ages to Today_कश्मीर_पुरातन से आधुनिक काल तक
कम से कम तेईस सौ वर्ष पुराने विवरणों में 'काश्मीर' नाम का ही प्रयोग हुआ है। संस्कृत के 'कस्मीर' से बदलकर यह नाम फारसी का 'कश्मीर' और हिन्दी का 'काश्मीर' हो गया है। घाटी में इसे स्थानीय लोग 'कशीर' पुकारते हैं, जो कि भाषा विज्ञान की दृष्टि से संस्कृत के 'कस्मीर' से निकला है। भाषाविदों के अनुसार पूर्ववर्ती ऊष्म के सारूप्य और अन्तिम स्वर के क्रमशः पतन के साथ संस्कृत की बोलियों में मध्य का म, व के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इसलिए कशीर के पहले प्राकृत में कभी 'कस्मीर' को 'कस्वीर' भी बोला जाता होगा, जिसे टोलमी ने 'कस्पीर' या 'कस्पीरिया' के रूप में लिखा है। टोलमी (दूसरी शताब्दी का ज्योतिषी) ने ही सबसे पहले अपने भारतवर्ष के भूगोल में काश्मीर का कस्पीरिया के रूप में उल्लेख किया है।
पाणिनी (600 ईसापूर्व) के व्याकरण के गणों में केवल कस्मीरियों के देश 'कस्मीर' का उल्लेख मिलता है और पातंजलि की इस पर टीका है। पुराणों में 'कस्मीरज; की गणना उत्तरी राष्ट्रों में कराई गई है। और वराहमिहिर (500 ईस्वी) ने अपनी पुस्तक 'बृहत्संहिता' में 'काश्मीर' को उत्तर पूर्वी भाग में रखा है।
घाटी के बाहर का प्राचीन संस्कृत साहित्य 'काश्मीर' के बारे में केवल इतनी ही उपयोगी सूचना देता है कि इस देश को 'कस्मीर' या 'कस्मीरज' कहते थे। 'कस्मीरज', 'केसर' का पर्याय भी था। इन पुस्तकों में एक और शब्द 'कुष्ठ' (कुठ) की सूचना मिलती है। 'कुठ' एक बूटी है, जो अनेक औषधियों में प्रयुक्त होती है। इन वस्तुओं का उन दिनों भी 'काश्मीर' से निर्यात होता था।
काश्मीरी तीर्थों के बारे में जो सबसे प्राचीन पुस्तक है उसका नाम 'नीलमत पुराण' है। कल्हण ने भी इस पुस्तक को आधार माना है। एक मान्यता है कि वर्तमान रूप में 'नीलमत पुराण' छठी या सातवीं शताब्दी से पहले की नहीं हैै। फिर भी इतना मान सकते हैं कि माहात्म्यों की तरह 'नीलमत पुराण' एक मनगढन्त रचना नहीं है।
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