निष्क 'निष्क' में 'ठक्' जोड़ने से नैष्किक बनता है। पाणिनी के समय में जिस नैष्किक शब्द का प्रयोग होता था उसका अर्थ था एक निष्क से मोल ली हुई वस्तु। 'अष्टाध्यायी' में निष्क सिक्के का उल्लेख हुआ है। द्वित्रिपूर्वात् निष्कात् (5-1-30) सूत्र में दो निष्क और तीन निष्क से मोल ली जानेवाली वस्तु के लिए द्विनैष्किक, त्रिनैष्किक रूप में सिद्ध किए गए हैं। पाणिनी के समय में भी सौ निष्क की हैसियत वाला व्यक्ति 'नैष्कशतिक' और एकसहस्त्र निष्क वाला 'नैष्कसहस्त्रिक' कहलाता था।
व्यापारिक समृद्धि के उस युग में व्यक्ति विशेष के आढ्यभाव या आर्थिक प्रतिष्ठा का निर्देश करने के लिए ये वास्तवित पदवियां थीं। नगर की समृद्धि का अनुमान नागरिकों की अमीरी से लगाया जाता था। पतंजलि ने 'निष्कधन' और 'शतक निष्कधन' शब्दों का उल्लेख किया है।
'ऋगवेद' में निष्क शब्द का चार स्थानों पर उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद में निष्क शब्द का प्रयोग आभूषण के रूप में हुआ है, क्योंकि इसी अर्थ में 'निष्कग्रीव' तथा 'निष्ककण्ठ' शब्द प्रयुक्त हुआ है। निष्क पहनने वाले पुरुष को 'निष्की' और स्त्री को 'निष्किनी' कहते थे।
वैदिक युग में सोने के आभूषणों में 'निष्क' मुख्य था। यह सोने का होता था और गले में पहना जाता था और इसे पहनने वाले को 'निष्कग्रीव' कहा जाता था। क्षत्ता (दूत, सारथि) को निष्कग्रीवः कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि पुरुष निष्क पहनते थे। यह एक सुवर्ण आभूषण था। इसे गले में पहना जाता है।
महाभारत के अनुशासन पर्व में, सौ निष्क और सहस्त्र निष्कवाली सम्पत्ति का उल्लेख आया है। 108 सुवर्ण मुद्राओं के साथ एक निष्क महाभारत के समय धन की इकाई मानी जाती थी।
अधिकतर इतिहासकार ऋगवेदीय 'निष्क' को मुद्रा के रूप में स्वीकार किया हैं और इस प्रकार वे भारतीय मुद्रा का आरम्भ ऋगवेदीय काल से ही स्वीकार करते हैं। श्रीपद दामोदर सातवलेकर ने निष्क का अनुवाद, सोने के सिक्के किया है जो सही मालूम होता है। वेदिक इंडेक्स के लेखकों ने क्रय के प्रसंग में सुझाया है कि निष्क संपत्ति का ऐसा रूप था जिसे आदमी आसानी से लेकर इधर उधर चल सकता था और यह संभव है कि वह विनिमय का माध्यम बना हो। फिर निष्क के अंतर्गत उन्होंने लिखा है कि ऋगवेद में इस बात के चिन्ह मिलते हैं कि निष्क एक तरह की मुद्रा था।
अथर्व वेद में सौ सुवर्ण निष्कों का उल्लेख है। स्मृतियों के आधार पर निष्क चार सुवर्ण के बराबर मान का होता था तथा एक सुंवरेंर्ग अस्सी कृष्णल का होता था।यद्द्यपि वैदिक युग से ही निष्क, शतमान आदि धातु खंडों की बहुमूल्यता स्वीकृत हो चुकी थी तथापि विनिमय के माध्यम के रूप में इन धातु खंडों के उपयोग का कोई निश्चित उल्लेख नहीं मिलता है।
जातक, महाभारत और पाणिनी तीनों की सामग्री का एक ही ओर संकेत है। डाक्टर देवदत्त रामकृष्ण भांडारकर के मत से जातकों में जो निष्क का जिक्र है उससे निष्क सोने का सिक्का ही मालूम होता है। जातकों में निष्क का चलन निव खः शब्द द्वारा ज्ञात होता है। बौद्व जातक कथाओं में मुद्रा के उल्लेख तथा पुरातात्त्विक अनुसन्धानों में आहत मुद्राओं की प्राप्ति को दृष्टि में रखते हुए यह मानना युक्तिसंगत लगता है कि पाणिनी की अष्टाध्यायी में निष्क मुद्रा का ही सूचक है।
समकालीन साक्ष्यों के सम्यक् विवेचन से ऐसा प्रतीत होता है कि निष्क बुद्ध के काल में स्वर्ण मुद्रा रहा होगा। मूल्यवान होने के कारण दैनिक जीवन में इसका उपयोग नहीं होता होगा। सम्भवतः इसी कारण अभी तक इसके पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिल सके हैं। साहित्यिक स्त्रोत स्वर्ण, रजत एवं ताम्र के कार्षापणों का उल्लेख करते हैं। स्वर्ण कार्षापण, सुवर्ण एवं निष्क के नाम से भी जाना जाता था, जबकि रजत कार्षापण, पुराण एवं धरण के नाम से विख्यात था।
बाद के युगों में, निष्क नियत सुवर्ण मुद्रा बन गई थी, ऐसा निश्चित ज्ञात होता है। मुद्राशास्त्र की दृष्टि से तथ्य यह था कि निष्क पाणिनीकाल में एक चालू सिक्का था। शतपथ ब्राहाण में स्पष्ट इस बात का उल्लेख है कि निष्क सोने का सिक्का था।
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