Paid Labor in Ancient India_Ramvilas Sharma_भारत में पगारवाले श्रम की प्रथा_रामविलास शर्मा
भारत में ऐसी व्यवस्था थी और उसका आधार पगार देकर श्रम कराने की प्रथा थी। रोम-यूनान और भारत के आर्थिक विकास में अन्तर यह है कि रोम-यूनान में पगारवाली प्रथा गौण थी, भारत में वह प्रधान थी, रोम-यूनान में दासों का श्रम प्रधान था, भारत में वह गौण था। रोम-यूनान में दासप्रथा का फिर व्यापक चलन न हुआ, इसलिए लगभग हजार साल तक वहां उद्योग-व्यापार-केन्द्र भी कायम न हुए। भारत में कभी पूरी तरह पगारवाले श्रम की प्रथा का नाश नहीं हुआ, इसलिए बार-बार लूटे जाने पर भी ये उद्योग-व्यापार-केन्द्र फिर विकसित हुए। इसके सााि ही इन केन्द्रों के बार-बार तबाह होने से वह सामाजिक शक्ति क्षीण हुई जो विशेषाधिकारी वर्णव्यवस्था की जड़ काटने वाली थी। इसी कारण भारतीय इतिहास में वर्णव्यवस्था बार-बार टूटती और बिखरती दिखाई देती है किन्तु पूरी तरह नष्ट नहीं होती। जब भी वह टूटती दिखाई देगी, विनिमय केन्द्र सक्रिय होंगे, नगर सभ्यता देहात पर हावी होगी। टूटते-टूटते जब वह फिर जुड़ती दिखाई देगी, तब नगर तबाह होंगे और देहाती कृषितंत्र की प्रधानता होगी। जितने बड़े पैमाने पर भारत की उत्पादक शक्तियों का विनाश अंग्रेजी राज में हुआ, उतने बड़े पैमाने पर पहले कभी न हुआ था। इसलिए अंग्रेजी राज में भारत जैसा खेतिहर देश मात्र बनकर रह गया, वैसा वह पहले कभी न था। इस खेतिहर देश में वर्णव्यवस्था को, धार्मिक अन्धविश्वासों को और हर तरह के सामाजिक रूढ़िवाद को नया जीवन मिला। अंग्रेजों के जाने के बाद यह सब कायम है, उसमें इजाफा भी हुआ है, क्योंकि अंग्रेजों के बनाये हुए आर्थिक और राजनीतिक चौखटे को पूरी तरह तोड़ने में यह देश अभी तक असमर्थ सिद्ध हुआ है।
-रामविलास शर्मा, मार्क्स और पिछड़े हुए समाज, पेज 246,
No comments:
Post a Comment