ग्राम दृश्य_अमृता शेरगिल_1938 |
जीवन में सुनने की जिज्ञासा होनी चाहिए। शायद इसीलिए संकेत रूप में, हर मनुष्य के दो बड़े कान हैं।
अपनी बात कहने में ईमानदारी बरतनी चाहिए। चेहरे पर मुंह और मुंह में जिह्वा इसके लिए ही दी गई है।
हर काम में प्रतिबद्वता परिलक्षित होनी चाहिए। पूरा शरीर ही मानो हमारा जीवंत व्यक्तित्व है।
आज डिजिटल युग में संवाद की सबसे बड़ी समस्या बिना समझ के सुनने की है। हम बात को गुनने की बजाय मात्र उत्तर देने के लिए बात सुनते हैं। मानो हम एक एटीएम मशीन है, जिसमें काॅर्ड डलते ही प्रत्युत्तर में नोट आना जरूरी है।
जब हम जिज्ञासु भाव में बात सुनते हैं तब हमारे शरीर की समस्त इन्द्रियां, ग्रहणशीलता के लिए तत्पर होती है। हमारी मनोदशा टेनिस या बैडमिंटन के खेल में सामने वाली की सर्विस का जवाब स्मैश से देने के मनोविकार से ग्रसित नहीं होता है।
तभी हम शब्दो में निहित मूल मर्म को बूझ पाते हैं।
भरने के लिए स्वीकार का भाव ही शिष्यता के गुण को विकसित करता है।
भरा हुआ पात्र ही मौन होता है। यह मौन सबके भीतर है, बस उसे समझने भर का फेर है।
अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता "असाध्य वीणा" के शब्दों में
"वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सबमें गाता है।"
No comments:
Post a Comment