Friday, July 31, 2020

History of Ambala Air Base_Rafele_अम्बाला एयर बेस का इतिहास_रफेल

अम्बाला एयरफील्ड में 'फ्रोजन टियर' युद्ध स्मारक 



भारत में रफेल लड़ाकू विमानों के भारतीय वायुसेना के अम्बाला सैन्य हवाई अड्डे पर उतरने के कारण चर्चा में है। अगर इस सैन्य हवाई अड्डे के इतिहास में झांके तो पता चलता है कि जिस अम्बाला सैनिक हवाई अड्डे पर रफेल विमान उतरे, यहाँ सबसे पहली हवाई पट्टी अंग्रेजों के जमाने में वर्ष 1919 में बनी थी। उल्लेखनीय है कि भारतीय वायुसेना के गठन के पहले से ही अविभाजित हिन्दुस्तान में पंजाब सूबे का हिस्सा अंबाला, राॅयल एयर फोर्स के आरंभिक दिनों से ही वायुसेना के प्रशिक्षण का केन्द्र रहा। आज हरियाणा में आने वाला यह क्षेत्र, देश से सबसे बड़ी छावनी क्षेत्रों में से एक है। 


वर्ष 1919 में अम्बाला में कैंप अम्बाला की योजना के साथ सैनिक विमानों का आवागमन शुरू हुआ था। जब रॉयल एयर फोर्स की 99 स्क्वाड्रन ने ब्रिस्टल युद्वक विमानों के साथ यहां डेरा डाला था। यहां एयर फोर्स स्टेशन पर लगी एक पट्टिका के अनुसार, वर्ष 1922 में अंबाला को रॉयल एयर फोर्स की इंडिया कमान का मुख्यालय बनाया गया। 


"काॅम्बेक्ट लोरः इंडियन एयर फोर्स 1930-1945" शीर्षक वाली पुस्तक में अंग्रेजी के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक सोमनाथ सप्रू लिखते हैं कि अंबाला मुख्य रूप से भारतीय वायु सेना की नंबर वन स्क्वाड्रन के प्रशिक्षण और तैयारी के लिए नंबर 28 आरक्षित का बेस था। जबकि इसके साथ, रॉयल एयर फोर्स की दूसरी स्क्वाड्रन के विमान भी मध्य पूर्व से लेकर बर्मा और सिंगापुर तक यही से अंतर महाद्वीपीय हवाई उड़ाने भरते थे।


अम्बाला में आरंभिक दिनों में, डी हैविलैंड 9 ए और ब्रिस्टल एफ2बी जैसे विमानों ने उड़ान भरी। अंग्रेज भारत में हवाई परिचालन के बढ़ने के कारण अम्बाला में अधिक वायु सैनिक अधिकारियों को तैनात किया जाने लगा। 18 जून, 1938 को अम्बाला को वायुसेना का एक स्थायी हवाई अड्डा बना दिया गया। यहां तक कि उस समय यहां पर एक एडवांस्ड फ्लाइंग ट्रेनिंग स्कूल भी बनाया गया। यह बात कम जानी है कि इसी एयरबेस से 1947-48 के कश्मीर ऑपरेशन में, श्रीनगर घाटी के संघर्ष के लिए हवाई प्रशिक्षकों ने स्पिटफायर और हार्वर्ड्स की उड़ानें भरी थी। 


देश की आजादी से पहले अंबाला नंबर 1 स्क्वाड्रन का भी ठिकाना रहा है। नंबर 1 स्क्वाड्रन, भारतीय वायु सेना की पहली यूनिट थी जिसकी शुरूआत कराची में हुई थी। 1930 के दशक के मध्य में, उत्तर पश्चिमी सीमांत सूबे में कबीलों के विरुद्व अभियान के बाद, इस स्क्वाड्रन को अंबाला स्थानांतरित कर दिया गया। मार्च 1939 में, यहां भारतीय वायुसेना के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक घटी। जब तत्कालीन फ्लाइट लेफ्टिनेंट (बाद में एयर मार्शल) सुब्रतो मुखर्जी ने अम्बाला में स्क्वाड्रन लीडर सी एच स्मिथ से स्क्वाड्रन के नेतृत्व का दायित्व ग्रहण किया। इस तरह, वे अंग्रेज भारत में हवाई स्क्वाड्रन की कमान संभालने वाले पहले भारतीय अधिकारी बन गए। अगस्त 1939 में, सुब्रतो को स्क्वाड्रन लीडर के रूप में पदोन्नत किया गया। इससे पहले, वे फ्लाइट कमांडर बनने वाले पहले भारतीय अधिकारी भी बने थे। तब तक स्क्वाड्रन में तीनों फ्लाइट कमांडर भारतीय बन चुके थे।


वर्ष 1947 के अंक 21 वाले "इंडियन इनफरमेशन" नामक सरकारी पत्र के अनुसार, तब रक्षा सदस्य सरदार बलदेव सिंह के अंबाला हवाई अड्डे पर पहुंचने पर एयर कमोडोर आर. बी. जॉर्डन, कमांडिंग नंबर 1 इंडियन ग्रुप के ग्रुप कैप्टन आर. इ. बैन ने उनकी अगवानी की थी। उल्लेखनीय है कि सरदार बलदेव सिंह पंथिक पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल किए गए थे।


देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अम्बाला एयरबेस की कमान ग्रुप कैप्टन अर्जन सिंह, जो कि बाद में भारतीय वायु सेना के मार्शल बने, ने संभाली। तब दिल्ली के लालकिले पर हुए स्वतंत्रता दिवस समारोह में हुए सबसे पहले फ्लाईपास्ट का नेतृत्व अर्जन सिंह ने ही किया।


आजादी के बाद के शुरुआती वर्षों में, भारत सरकार देश की पूर्वी सीमा तक पहुंचने के लिए हवाई साधन पर ही निर्भर थी। तब के दौर में, अंबाला एयरबेस ने उत्तर पूर्व में हुई देश विरोधी गतिविधियों की रोकथाम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसके बाद, इसे एक नयी विधा एरियल फोटोग्राफिक सर्वे का केंद्र बनाया गया जो कि बाद के दिनों में बहुत महत्वपूर्ण साबित हुई। 


1 अप्रैल 1948 को यहां 'टाइगर्मोथ' एयरक्राफ्ट के साथ अम्बाला में फ्लाइंग इंस्ट्रक्टर्स स्कूल का गठन किया गया।जिसे छह साल बाद, अक्तूबर 1954 में चेन्नई के पास तांबरम में स्थानांतरित कर दिया गया। उसके बाद के दौर में, अंबाला में वैम्पायर्स, टोफानिस, मिस्ट्रेस और हंटर्स जैसे विमानों के साथ एक लड़ाकू भूमिका निभाई। 1 अगस्त, 1954 को नंबर 7 विंग के अपने वर्तमान पदनाम तक पहुंचने वाले अम्बाला एयर फोर्स स्टेशन अपनी भूमिका में अनेक परिवर्तन का साक्षी बना। वर्ष 1965 में पाकिस्तान ने भारत हमला किया। इस लड़ाई में पाकिस्तान ने अपने बी-57 बमवर्षकों से अम्बाला के एयरबेस पर बमबारी की। वह बात अलग है कि इस पाकिस्तानी हवाई हमले में अम्बाला हवाई क्षेत्र की एक तरफ बने गिरजाघर का ही नुकसान हुआ। जबकि बाकी रक्षा प्रतिष्ठान सुरक्षित रहें। 





देश का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परम वीर चक्र प्राप्त करने वाली भारतीय वायुसेना की एकमात्र स्क्वाड्रन, नंबर 18 स्क्वाड्रन, भी अम्बाला में ही स्थित थी। यहां तैनात जीनेट युद्धक विमानों के एक दल को वर्ष 1965 में हुए भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान श्रीनगर स्थानांतरित किया गया। फलाइंग लेफिटनेंट निर्मलजीत सिंह सेखों, जिन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र प्रदान किया गया, इसी युद्धक विमान चालकों में शामिल थे। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान के साथ वर्ष 1948 में  हुए युद्धविराम समझौते की शर्तों के तहत, भारत को शांतिकाल में श्रीनगर में लड़ाकू विमान तैनात करने की अनुमति नहीं थी। इस कारण युद्व की घोषणा होने की स्थिति में युद्धक विमानों के बेड़े को अम्बाला से श्रीनगर उड़ान भरनी पड़ती थी।


अम्बाला एयरफील्ड में 'फ्रोजन टियर' नामक एक युद्ध स्मारक बना हुआ है। यह इस हवाई पट्टी से उड़ान भरने वाले उन विमान चालकों समर्पित है। इस युद्ध स्मारक का उद्घाटन वर्ष 1982 में किया गया था। इस स्मारक की पृष्ठभूमि में हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स एचएएल जीनैट ई-1051 बना हुआ है। जिसमें प्रतीक स्वरूप एक आंसू को एक प्रस्तर के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। यह स्मारक अम्बाला एटीसी की इमारत के ठीक पीछे बना हुआ है।




Monday, July 27, 2020

Rajendra Prasad on Sardar Patel_सरदार पटेल_राजेन्द्र प्रसाद





सरदार पटेल_राजेन्द्र प्रसाद

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने 13 मई, 1959 को अपनी डायरी में लिखा, “आज जिस भारत के विषय में हम बात करते हैं और सोचते हैं, उसका श्रेय सरदार पटेल के राजनैतिक कौशल तथा सुदृढ़ प्रशासन को जाता है, फिर भी”, उन्होंने आगे लिखा है, “इस संदर्भ में हम उनकी उपेक्षा करते हैं।”


Tuesday, July 21, 2020

Hindi_Bhartendu harishchandra_Ramvilas Sharma_हिन्दी_भारतेन्दु हरिश्चंद्र_रामविलास शर्मा



जो लोग सोचते हैं कि हिन्दी तभी मिट जाती तो बड़ा अच्छा होता, उनकी बात दूसरी है, परन्तु जो समझते हैं कि हिन्दी न मिटी तो अच्छा हुआ, उन्हें भारतेन्दु (हरिश्चंद्र) और उस युग के लेखकों का कृतज्ञ होना चाहिये जिन्होंने उसे जीवित रखने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी।

-रामविलास शर्मा, भारतेन्दु युग

Wednesday, July 15, 2020

Story of Delhi through Ages_दिल्ली के उजड़ने-बसने की कहानी










दुनिया में बहुत कम शहर ऐसे हैं जो दिल्ली की तरह अपने दीर्घकालीन अविच्छिन्न अस्तित्व एवं प्रतिष्ठा को बनाए रखने का दावा कर सकें। दिल्ली का इतिहास, शहर की तरह की रोचक है। ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली, दमिशक और वाराणसी के साथ आज की दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक है।

कुछ पुस्तकों में यह भी उल्लिखित है कि प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व एक राजा  'ढिलू' के नाम पर इसका नाम दिल्ली पड़ा, जो बाद में देलही, देहली, दिल्ली  आदि नामों से जाना गया। दिल्ली का नाम राजा ढिल्लू के “ढिल्लिका”(800 ई.पू.) के नाम से माना गया है, जो मध्यकाल का पहला बसाया हुआ शहर था, जो दक्षिण-पश्चिम सीमा के पास स्थित था, जो वर्तमान में महरौली के पास है।

प्राचीन प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में यह (दिल्ली) नाम ढिल्ली अथवा ढिल्लिका के नाम से उल्लिखित है। यह शहर मध्यकाल के सात शहरों में सबसे पहला था, इसे योगिनीपुरा के नाम से भी जाना जाता है, जो योगिनी (एक प्राचीन देवी) के शासन काल में था। इस प्रदेश को खण्डप्रस्थ और योगिनीपुर के नाम से भी जाना जाता था। वर्ष 1966 में कालका जी मन्दिर के पास बहाईपुर गाँव (श्रीनिवासपुरी) में मिले मौर्य सम्राट अशोक का प्राकृत शिलालेख और पूर्व एवं मध्यकाल में रचित विपुल जैन काव्य तथा नाथपंथी काव्य के अतिरिक्त इस (दिल्ली) का मध्ययुगीन नाम योगिनीपुर भी इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य है।

भारतीय इतिहास में दिल्ली का उल्लेख महाभारत काल से ही मिलता है। महाभारत काल में दिल्ली का नाम इन्द्रप्रस्थ था। ऐसे इस शहर के इतिहास का सिरा भारतीय महाकाव्य महाभारत के समय तक जाता है, जिसके अनुसार, पांडवों ने इंद्रप्रस्थ के निर्माण किया था। उल्लेखनीय है कि उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ तक दिल्ली में इंद्रप्रस्थ नामक गाँव हुआ करता था। पाँच प्रस्थों में एक इन्द्रप्रस्थ के अस्तित्व का प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। अन्य चार प्रस्थ-पानीपत, सोनीपत, बागपत और तिलपत थे। इन्हीं पाँचों स्थानों पर प्रसिद्ध महाभारत का युद्ध लड़ा गया था। जातकों के अनुसार, इंद्रप्रस्थ सात कोस के घेरे में बसा हुआ था। पांडवों के वंशजों की राजधानी इंद्रप्रस्थ में कब तक रही यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता किंतु पुराणों के साक्ष्य के अनुसार परीक्षित तथा जनमेजय के उत्तराधिकारियों ने हस्तिनापुर में भी बहुत समय तक अपनी राजधानी रखी थी।

दूसरी शताब्दी के ’टालेमी’ के विवरण में ट्राकरूट पर मौर्य शासकों द्वारा बसाई गई नगरी 'दिल्ली' नाम से उल्लिखित है। बाद में मौर्य, गुप्त, पाल आदि अनेक राजवंशों का दिल्ली पर शासन रहा। दिल्ली शहर की स्थापना के सन्दर्भ में कई कथाएँ प्रचलित हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में कराये गये खुदाई में जो भित्तिचित्र मिले हैं, उनसे इसकी आयु ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व का लगाया जा रहा है, जिसे महाभारत के समय से जोड़ा जाता है, पुरातात्विक रूप से जो पहले प्रमाण मिलते हैं उन्हें मौर्य-काल (ईसा पूर्व 300) से जोड़ा जाता है। मौर्यकाल के पश्चात लगभग 13 सौ वर्ष तक दिल्ली और उसके आसपास का प्रदेश अपेक्षाकृत महत्वहीन बना रहा।

उल्लेखनीय है कि रिज पर सुरक्षित तरीके से बसी पहले की अधिकांश बस्तियां-लालकोट, देहली-ए-कुना, महरौली, जहांपनाह, तुगलकाबाद-शहर के दक्षिण में स्थित थी। दिल्ली के दो प्रमुख प्राकृतिक स्थलों, ’रिज’ और 'यमुना' ने यहां की बस्तियों, शाही स्थलों और शहर की सामाजिक और आर्थिक संस्कृति के उन्नयन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

थानेश्वर के सम्राट हर्ष के साम्राज्य के छिन्न भिन्न होने के पश्चात उत्तरी भारत में अनेक छोटी मोटी राजपूत रियासतें बन गईं और इन्हीं में 12 वीं शती में पृथ्वीराज चौहान की भी एक रियासत थी, जिसकी राजधानी दिल्ली बनी। दिल्ली के जिस भाग में क़ुतुब मीनार है वह अथवा महरौली का निकटवर्ती प्रदेश ही पृथ्वीराज के समय की दिल्ली है। वर्तमान योगमाया का मंदिर मूल रूप से इसी चौहान सम्राट का बनवाया हुआ कहा जाता है। एक प्राचीन जनश्रुति के अनुसार, चौहानों ने दिल्ली को तोमरों से लिया था जैसा कि 1327 ईस्वी के एक अभिलेख से सूचित होता है, यह भी कहा जाता है कि चौथी शती ईस्वी में अनंगपाल तोमर ने दिल्ली की स्थापना की थी। इन्होंने इंद्रप्रस्थ के क़िले के खंडहरों पर ही अपना क़िला बनवाया।

यह विश्वास किया जाता है कि दिल्ली के प्रथम मध्यकालीन नगर की स्थापना तोमरों ने की थी, जो ढिल्ली या ढिल्लिका कहलाती थी जबकि ज्ञात अभिलेखों में "ढिल्लिका" का नाम सबसे पहले राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में बिजोलिया के 1170 ईस्वी के अभिलेख में आता है। जिसमें दिल्ली पर चौहानों के अधिकार किए जाने का उल्लेख है। राजा विग्रहराज चतुर्थ (1153-64) ने जो शाकंभरी (आज का सांभर जो कि अपनी नमक की झील के कारण प्रसिद्ध है) के चौहान वंश के बीसल देव के नाम से जाना जाता है, राज्य संभालने के तुरंत बाद शायद तोमरों से दिल्ली छीन ली थी।

उसके बाद जब पृथ्वीराज चौहान, जो कि राय पिथौरा के नाम से भी प्रसिद्ध थे, सिंहासन पर बैठे तो उन्होंने लाल कोट का विस्तार करते हुए एक विशाल किला बनाया। इस तरह, लाल कोट कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है बल्कि लाल कोट-रायपिथौरा ही दिल्ली का पहला ऐतिहासिक शहर है। इस किलेबंद बसावट की परिधि 3.6 किलोमीटर थी। चौहान शासन काल में इस किलेबंद इलाके का और अधिक फैलाव हुआ जो कि किला-राय पिथौरा बना। बिजोलिया के अभिलेख में उसके द्वारा दिल्ली पर अधिकार किए जाने का उल्लेख है जबकि अन्य अभिलेखों में दिल्ली पर तोमरों और चौहानों द्वारा क्रमशः शासन किए जाने का उल्लेख है।

उल्लेखनीय है कि हिन्दी भाषा का आरंभिक रूप चंदरबरदाई के काव्य 'पृथ्वीराज रासो' में मिलता है जो कि पृथ्वीराज चौहान के दरबार के राजकवि और बालसखा थे। ग्वालियर के तोमर राजदरबार में सम्मानित एक जैन कवि महाचंद ने अपने एक काव्यग्रंथ में लिखा है कि वह हरियाणा देश के दिल्ली नामक स्थान पर यह रचना कर रहा है।

“दिल्ली और उसका अंचल” पुस्तक के अनुसार, अनंगपाल को "पृथ्वीराज रासो" में अभिलिखित भाट परम्परा के अनुसार दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। यह कहा जाता है कि उस (अनंगपाल) ने लाल कोट का निर्माण किया था जो कि दिल्ली का प्रथम सुविख्यात नियमित प्रतिरक्षात्मक प्रथम नगर के अभ्यन्तर के रूप में माना जा सकता है। वर्ष 1060 में लाल कोट का निर्माण हुआ। जबकि सैयद अहमद खान के अनुसार, किला राय पिथौरा वर्ष 1142 में और ए. कनिंघम के हिसाब से वर्ष 1180 में बना। अंग्रेज इतिहासकार एच सी फांशवा ने अपनी पुस्तक “दिल्ली, पास्ट एंड प्रेजेन्ट” में लिखा है कि यह एक और आकस्मिक संयोग है कि दिल्ली में सबसे पुराने हिंदू किले का नाम लाल कोट था तो मुसलमानों (यानी मुगलों के) नवीनतम किले का नाम लाल किला है।

दिल्ली में विदेशी तुर्की मुस्लिम शासनकाल तराइन की दूसरी लड़ाई (1192) में अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हार और अफगान हमलावर मोहम्मद गोरी की जीत के साथ शुरू हुआ। 

सिक्का, फरमान और खुतबा मध्ययुगीन मुस्लिम काल के ऐतिहासिक शोध की दृष्टि से साक्ष्य के आरंभिक बिंदु हैं। अगर इस हिसाब से देखें तो बात ध्यान आती है कि दिल्ली में गोरी काल के सिक्कों पर पृथ्वीराज के शासन वाले हिंदू देवी-देवताओं के प्रतीक चिन्हों और देवनागरी को यथावत रखा। गोरी ने दिल्ली में पाँव जमने तक पृथ्वीराज चौहान के समय में प्रचलित प्रशासकीय मान्यताओं में विशेष परिवर्तन नहीं किया। यही कारण है कि हिंदू सिक्कों में प्रचलित चित्र अंकन परंपरा के अनुरूप, इन सिक्कों में लक्ष्मी और वृषभ-घुड़सवार अंकित थे। गोरी ने हिन्दू जनता को नई मुद्रा के चलन को स्वीकार न करने के “रणनीतिक उपाय” के रूप में हिन्दू शासकों, चौहान और तोमर वंशों के सिक्कों के प्रचलन को जारी रखा। उस समय भी हिन्दी भाषा, जनता की भाषा थी और गोरी अपने शासन की सफलता के लिये भाषा का आश्रय लेना चाहता था। वह हिन्दू जनता को यह भरोसा दिलाना चाहता था कि यह केवल व्यवस्था का स्थानान्तरण मात्र है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने दिल्ली की महरौली में लाल कोट (या किला राय पिथौरा) के खंडहरों की दो बार खुदाई की थी। पहली बार, 1991-92 में और दूसरी बार 1994-95 में। यहां मिले 287 मध्यकालीन सिक्कों के ऐतिहासिक महत्व के अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार, इस खुदाई के दौरान जमीन की विभिन्न परतों में चौहान और तोमर शासकों, मामलुक (13 वीं शताब्दी), और खिलजी (1290-1320) और तुगलक (14 वीं शताब्दी) सुल्तानों के समय के सिक्के पाए गए। यह अध्ययन भी इस बात को स्वीकारता है कि नए (विदेशी मुस्लिम) शासकों ने पूर्व प्रचलित सिक्कों का चलन बनाए रखा।

गोरी के निसंतान होने के कारण दिल्ली में राज की जिम्मेदारी गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने संभाली। ऐबक के समय में तोमरों और चौहानों के लाल कोट के भीतर बनाए सभी मन्दिरों को गिरा दिया और उनके पत्थरों को मुख्यतः कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद के लिए पुनः इस्तेमाल किया गया। कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई, नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार, इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में मुस्लिम शासन से पहले प्रचलित राजपूत मुद्रा “देहलीवाल“ कहलाती थी। दिल्ली सल्तनत में चांदी और तांबे के सिक्कों पर आधारित मुद्रा प्रणाली ही बनी रही, जिसमें चांदी के टका और देहलीवाल का प्रभुत्व था। इसके साथ ही, तांबे का जीतल का भी प्रचलन था।

गुलाम बादशाह बलबन के समय के पालम-बावली अभिलेख तिथि 1272 ईस्वी (विक्रम संवत् 1333) में लिखा है कि हरियाणा पर पहले तोमरों ने तथा बाद में चौहान ने शासन किया। अब यह शक शासकों के अधीन है। यह अभिलेख देहली और हरियाणा के राजाओं को तोमर, चौहान और शक बतलाता है, इनमें से पहले दो राजाओं को राजपूत वंश माना गया है तथा अंतिम से अभिप्राय सुल्तान है। यह बात शकों की एक विस्तृत सूची अर्थात् तब तक के शासक बलबन समेत देहली के सुल्तानों की एक सूची से स्पष्ट कर दी गई है। शिलालेख की सूची से पता चलता है कि 'शक' शब्द का प्रयोग दिल्ली के पूर्व सुल्तानों मुहम्मद गोर से बलबन तक के लिए होता है। बलबन सहित गुलाम वंश के सभी शासकों को यहां पर शक शासक की संज्ञा दी गई है। जहां तक पालम बावली के शिलालेख का संबंध है कुछ दशक पूर्व यह लालकिला संग्रहालय में हुआ करता था। इतिहास के अध्ययन के हिसाब से यह शिलालेख कई दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। पहली बार इसमें "ढिल्ली" शब्द का उल्लेख दिल्ली के लिए हुआ है। इसके अतिरिक्त, यह पहला शिलालेख है जिसमें हरियाणा क्षेत्र का उल्लेख किया गया है।

अलाउद्दीन खिलजी के सीरी शहर के भग्न अवशेष हौजखास के इलाके में आज भी देखे जा सकते हैं जबकि गयासुद्दीन तुगलक ने दिल्ली के तीसरे किले बंद नगर तुगलकाबाद का निर्माण किया जो कि एक महानगर के बजाय एक गढ़ के रूप में बनाया गया था। फिरोजशाह टोपरा और मेरठ से अशोक के दो उत्कीर्ण किए गए स्तम्भ दिल्ली ले आया और उसमें से एक को अपनी राजधानी और दूसरे को रिज में लगवाया। आज तुगलकाबाद किले की जद में ही शहर का सबसे बड़ा शूटिंग रेंज है, जहां एशियाई खेलों से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों की तीरदांजी और निशानेबाजी प्रतियोगिताओं का सफल आयोजन हुआ। आज यहां इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय से लेकर सार्क विश्वविद्यालय तक है।सैय्यदों और लोदी राजवंशों ने वर्ष सन् 1433 से करीब एक शताब्दी तक दिल्ली पर राज किया। उन्होंने कोई नया शहर तो नहीं बसाया पर फिर भी उनके समय में बने अनेक मकबरों और मस्जिदों से मौजूदा शहरी परिदृश्य को बदल दिया। आज की दिल्ली के उत्तरी छोर से दक्षिणी छोर, जहां कि आज कुकुरमुत्ते की तरह असंख्य फार्म हाउस उग आए हैं, तक लोदी वंश की इमारतें इस बात की गवाह है। आज के प्रसिद्ध लोदी गार्डन में सैय्यद लोदी कालीन इमारतें को बाग के रखवाली के साथ सहेजा गया है। आज दिल्ली में बौद्धिक बहसों के बड़े केंद्र जैसे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, इंडिया हैबिटैट सेंटर और इंडिया इस्लामिक सेंटर लोदी गार्डन की परिधि में ही है।

उल्लेखनीय है कि सोलहवीं शताब्दी (वर्ष 1540) में अफगान शासक शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराकर भारत से बेदखल कर दिया। शेरशाह ने एक और दिल्ली की स्थापना की। यह शहर 'शेरगढ़' के नाम से जाना गया, जिसे दीनपनाह के खंडहरों पर बनाया गया था। आज दिल्ली के चिड़ियाघर के नजदीक स्थित पुराना किला में शेरगढ़ के अवशेष देखें जा सकते हैं। शेरशाह ने दीनपनाह को नष्ट करके कई सभ्यताओं के अवशेषों पर अपना शहर बसाया। शेरशाह ने पांच साल तक इसी किले से दिल्ली पर शासन किया। शेरशाह ने लगभग इसी जगह पर एक नया शहर बसाया था, जिसे दिल्ली 'शेरशाही' या 'शेरगढ़' का नाम दिया गया। कुछ अवशेष ही कभी दिल्ली के इन बादशाहों के यहां पर बसाए जाने के प्रमाण हैं। शेरशाह सूरी ने नया शहर बसाने की बजाय हुमायूँ के शहर में ही बहुत कुछ जोड़ा। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि पुराने किले और उसके आसपास 'दीनपनाह' और 'शेरगढ़' नाम के दिल्ली के दो शहर रहे। 

"भारतीय सिक्कों का इतिहास" में गुणाकर मुले लिखते हैं कि इन आरंभिक तुर्की सुलतानों ने इस्लामी ढंग के नए सिक्के जारी किए। सैय्यदों और अफगान-लोदियों ने भी उन्हीं का अनुकरण किया। फिर शेरशाह सूरी ने रूपये की जिस मुद्रा-प्रणाली की शुरूआत की वह मुगलकाल, ब्रिटिश शासनकाल और स्वतंत्र भारत में भी जारी रही।

वर्ष 1545 में शेरशाह की मौत हो गई। उसके बेटे सलीमशाह या इस्लामशाह ने गद्दी संभाली। यमुना के किनारे लालकिले के साथ बना सलीमगढ़ का किला शेरशाह के इसी बेटे सलीमशाह का बनवाया हुआ है। “तारीख एक खानजहां” के लेखक की माने तो सलीमशाह ने सलीमगढ़ के किले को बनवाने के बाद हुमायूँ के किले के चारों ओर एक दीवार भी बनवाई थी। शाहजहांनाबाद बसाए जाने के दौरान मुग़ल शासक शाहजहां और उसके सहयोगियों के सलीमगढ़ के किले में अस्थायी रूप से रहने का उल्लेख मिलता है। हुमायूं के दोबारा सत्ता पर काबिज होने के बाद उसने निर्माण कार्य पूरा करवाया और शेरगढ़ से शासन किया।

हुमायूं के 'दीनापनाह', दिल्ली का छठा शहर, से लेकर शाहजहां तक तीन शताब्दी के कालखंड में मुगलों ने पूरी दिल्ली की इमारतों को भू परिदृश्य को परिवर्तित कर दिया। बाबर, हुमायूं और अकबर के मुगलिया दौर में निजामुद्दीन क्षेत्र में सर्वाधिक निर्माण कार्य हुआ, जहां अनेक सराय, मकबरे वाले बाग और मस्जिदें बनाई गईं।

हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह और दीनापनाह के किले पुराना किले के करीब मुगल सम्राट हुमायूं के मकबरे, फारसी वास्तुकला से प्रेरित मुगल शैली का पहला उदाहरण, के अलावा नीला गुम्बद के मकबरे, सब बुर्ज, चौंसठ खम्बा, सुन्दरवाला परिसर, बताशेवाला परिसर, अफसारवाला परिसर, खान ए खाना और कई इमारतें बुलंद की गईं। एक तरह से यह इलाका शाहजहांनाबाद से पूर्व मुगल दौर की दिल्ली था। 

“दास्तान ए दिल्ली” पुस्तक में आदित्य अवस्थी लिखते हैं कि हुमायूँ के मकबरे को दिल्ली की पहली और महत्वपूर्ण मुगलकालीन इमारत कहा जा सकता है। बगीचों, चलते फव्वारों और बहते पानी के बीच बने इस मकबरे को दिल्ली की सबसे खूबसूरत मुगलकालीन इमारतों में से एक माना जाता है।

मुग़ल बादशाह शाहजहां वर्ष 1638 में आगरा से राजधानी को हटाकर दिल्ली ले आया और दिल्ली के सातवें नगर शाहजहांनाबाद की आधारशिला रखी। इसका प्रसिद्ध दुर्ग लालकिला यमुना नदी के दाहिने किनारे पर शहर के पूर्वी छोर पर स्थित है सन् 1639 में बनना शुरू हुआ और नौ साल बाद पूरा हुआ। महेश्वर दयाल की पुस्तक “दिल्ली जो एक शहर है“ के अनुसार, शाहजहानाबाद की दीवार 1650 में पत्थर और मिट्टी की बनाई गई थी, जिस पर तब पचास हजार रूपए का खर्चा आया। यह 1664 गज चौड़ी और नौ गज ऊंची थी और इसमें तीस फुट ऊंचे सत्ताईस बुर्ज थे।

इतालवी लेखिका पिलर मारिया गयएरीरी ने अपनी पुस्तक “मैप्स ऑफ़ दिल्ली“ में लिखा है कि शाहजहाँनाबाद के स्थान के चयन पर विचार करें तो पता चलेगा कि यह एक पहाड़ी पर बना शहर था जो कि प्राकृतिक रूप से बाढ़ से बचाव की स्थिति में था। इसी लालकिले की प्राचीर से आजादी मिलने के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपना भाषण दिया था। सन् 1650 में शाहजहां ने अपनी विशाल जामे मस्जिद का निर्माण पूरा करवाया जो कि भारत की सबसे बड़ी मस्जिद है।

अंग्रेजों से पहले दिल्ली पर मराठा आधिपत्य के समय में मालीवाड़ा, चिप्पीवाड़ा और तेलीवाड़ा जैसे मोहल्ले अस्तित्व में आएं। यह बात मराठी प्रत्यय 'वाडा' से इंगित होती है। मराठी में 'वाडा' का अर्थ रहने की जगह
होता है। उल्लेखनीय है कि अपनी राजधानी में स्वयं प्रवेश करने में असमर्थ निर्वासित मुगल बादशाह शाह आलम को वर्ष 1772 में मराठा सेनापति महादजी सिंधिया के नेतृत्व में मराठा सेनाएं अपने संगीनों के साये में, इलाहाबाद से दिल्ली लाईं और उसे दिल्ली की गद्दी पर फिर से बिठाया। तब लगभग सभी अधिकार मराठों के पास आ गए थे। गौरतलब है कि अंग्रेजों ने पटपड़गंज की लड़ाई (वर्ष 1803) में मराठाओं को हराकर दिल्ली पर कब्जा किया था। 

मुगल बादशाह तो बस नाम का ही शाह था, जिसके लिए “शाह आलम, दिल्ली से पालम“ की कहावत प्रसिद्ध थी। उर्दू के मशहूर शायर मीर तकी 'मीर' (1710-1823) की प्रसिद्ध आत्मकथा "दिल्ली-जिक्र ए मीर", उनके अपने उजड़ने और बसने से ज्यादा दिल्ली के बार बार उजड़ने और बसने की कथा है।

वर्ष 1857 देश की आजादी की पहली लड़ाई में बादशाह बहादुर शाह जफर की हार के बाद दिल्ली अंग्रेजों के गुस्से और तबाही का शिकार बनी। जब अंग्रेजों ने दिल्ली पर दोबारा कब्जा किया तो इमारतों को नेस्तानाबूद कर दिया और उनकी जगह सैनिक बैरकें बना दी। इसी तरह, जामा मस्जिद और शाहजहांनाबाद के दूसरे हिस्सों को भी समतल कर दिया गया। इस तरह न केवल सैकड़ों रिहाइशी हवेलियों बल्कि शाहजहां की दौर की अकबराबादी मस्जिद भी को जमींदोज कर दिया गया। शहर में रेलवे लाइन के आगमन के साथ जहांआरा बेगम द्वारा चांदनी चौक के निर्मित बागों में भी इमारतें खड़ी कर दी गई और इस तरह शाहजहांनाबाद का स्थापत्य और शहरी स्वरूप हमेशा के लिए बदल गया।

वर्ष 1858 में अपने शागिर्द मुंशी हरगोपाल तफ्ता के नाम लिखी चिट्ठी में मिर्जा ग़ालिब ने 'ग़दर' का हाल बयान करते हुए लिखा है कि यह कोई न समझे कि मैं अपनी बेरौनकी और तबाही के ग़म में मरता हूँ। जो दुःख मुझको है उसका बयान तो मालूम, मगर उस बयान की तरफ़ इशारा करता हूँ। अंग्रेज़ की कौम से जो इन रूसियाह कालों के हाथ से कत्ल हुए, उसमें कोई मेरा उम्मीदगाह था और कोई मेरा शागिर्द। हिंदुस्तानिओं में कुछ अज़ीज़, कुछ दोस्त, कुछ शागिर्द, कुछ माशूक, सो वे सबके सब ख़ाक में मिल गए। एक अज़ीज़ का मातम कितना सख्त होता है! जो इतने अज़ीज़ों का मातमदार हो, उसको ज़ीस्त क्योंकर न दुश्वार हो। हाय, इतने यार मरे कि जो अब मैं मरूँगा तो मेरा कोई रोने वाला भी न होगा। 

अंग्रेजों के जमाने में दिल्ली एक लंबे कालखंड (1857-1911) तक तबाही की गवाह बनी। उसके बाद यहाँ रेलवे के आगमन के साथ ही इमारतों के बनने का सिलसिला शुरू हुआ। दिल्ली शहर के पश्चिम की दिशा के भू-भाग में स्थानीय जनता की भलाई के लिए विकास के कुछ प्रयास किये गए। लिहाजा, तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार ने अपनी सेना और प्रशासन में गोरे कर्मचारी और अफसरानों के लिए घर, कार्यालय, चर्च और बाजार बनाए। इस तरह, कुछ समय में ही शाहजहांनाबाद के परकोटे की दीवार से बाहर गोरों की आबादी वाला नया शहर दिल्ली के नक़्शे उभरकर सामने आया।

वर्ष 1861 में दिल्ली में रेलवे लाइन बिछाने की योजना के तहत लाल किले के कलकत्ता गेट सहित कश्मीरी गेट और मोरी गेट के बीच के इलाके को ध्वस्त कर दिया। 1857 की घटना से अंग्रेजों ने यह सबक सीखा कि दिल्ली की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण है और उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है। ऐसे में, अंग्रेज़ सरकार भविष्य में भारतीयों के बगावत को आसानी से नहीं होने देने की मंशा के बीच कलकत्ता गेट के स्थान को समेटते रेलवे पटरी बिछाई गयी। इस तरह, रेलवे का मुख्य मक़सद भविष्य में भारतीयों की सशस्त्र चुनौती से निपटने के लिए अंग्रेज़ सेना को दिल्ली पहुंचाना था।
जहां एक तरफ, दिल्ली में हिंदुस्तानियों पर निगरानी रखने के इरादे से अंग्रेजी सेना को शाहजहांनाबाद के भीतर स्थानांतरित किया गया वही दूसरी तरफ, शहर में आज़ादी की भावना को काबू करने के हिसाब से रेलवे स्टेशन के लिए जगह चुनी गई। 

शाहजहांनाबाद में आजादी की पहली लड़ाई के कारण क्रांतिकारी भावनाओं का ज़ोर अधिक था इसी वजह से रेलवे लाइनों और स्टेशन को उनके वर्तमान स्वरूप में बनाने का अर्थ शहर के एक बड़े हिस्से से आबादी को उजाड़ना था। 1867 में नए साल की पूर्व संध्या की अर्धरात्रि को रेल की सीटी बजी और दिल्ली में पहली रेल दाखिल हुई। गालिब की "जिज्ञासा का सबब" इस 'लोहे की सड़क' से शहर की जिंदगी बदलने वाली थी।

इस बात से कम व्यक्ति ही वाकिफ है कि ब्रिटिश शासन की एक बड़ी अवधि तक दिल्ली नहीं बल्कि कलकत्ता भारत की राजधानी थी। तीसरा दिल्ली दरबार दिसंबर 1911 में सम्राट जॉर्ज पंचम के संरक्षण में दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट किंग्सवे कैंप में आयोजित किया गया। इसी दरबार में सम्राट ने राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के अपने निर्णय की घोषणा की। 15 दिसंबर, 1911 को उत्तरी दिल्ली में किंग्सवे कैंप के समीप कोरोनेशन पार्क में जॉर्ज पंचम और महारानी मैरी के द्वारा नई दिल्ली का
शिलान्यास किया गया।

अंग्रेजों ने भारतीय शहरों की प्रकृति, भारतीयों के दोबारा आजादी की लड़ाई छेड़ने के भय और शहरों में नए निर्माण की जगह बनाने के लिए पुराने शहर के केंद्रों को खत्म करने की बातों का ध्यान करते हुए नए शहरों की योजना बनाई। इस तरह, भारत की अंग्रेजी हुकूमत ने दिल्ली के वजूद को राजधानी के तौर पर दोबारा कायम करने का फैसला लिया और इसलिए शाहजहांनाबाद और रिज के साथ उत्तरी छोर तक के कश्मीरी गेट इलाके में अस्थायी राजधानी बनाई गई।वाइसराय लाज, जहां अब दिल्ली विश्वविद्यालय है, के साथ अस्पताल, शैक्षिक संस्थान, स्मारक, अदालत और पुलिस मुख्यालय बनाए गए। एक तरह से, अंग्रेजों
की सिविल लाइंस को मौजूदा दिल्ली के भीतर आठवां शहर कहा जा सकता है।

सन् 1911 में, सबसे पहले अंग्रेजों ने राजधानी के लिए दिल्ली के उत्तरी छोर का चयन किया था, जहां पर तीसरे दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया, जिसे बाद में शाहजहांनाबाद के दक्षिण में रायसीना पहाड़ी पर नई दिल्ली बनाने के निर्णय के कारण छोड़ दिया गया। एडवर्ड लुटियन के दिशानिर्देश में बीस के दशक में नियोजित और निर्मित दिल्ली की शाही सरकारी इमारतों, चौड़े –चौड़े रास्तों और आलीशान बंगलों को एक स्मारक की महत्वाकांक्षा के साथ बनाया गया था।

इंपीरियल सिटी, जिसे अब नई दिल्ली कहा जाता है, का जब तक निर्माण नहीं हो गया और कब्जा करने के लिए तैयार नहीं हो गई तब तक तो पुरानी दिल्ली के उत्तर की ओर एक अस्थायी राजधानी का निर्माण किया जाना था। इस अस्थायी राजधानी के भवनों का निर्माण रिज पहाड़ी के दोनों ओर किया गया। मुख्य भवन पुराना सचिवालय पुराने चंद्रावल गांव के स्थल पर बना है। इसी में 1914 से 1926 तक केंद्रीय विधानमंडल ने बैठकें कीं और काम किया। सरकार के आसन के दिल्ली स्थानांतरित होने के शीघ्र बाद, इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल का सत्र मेटकाफ हाउस (आज के चंदगीराम अखाड़ा के समीप) में हुआ, जहां से इसका स्थान बाद में पुराना सचिवालय स्थानांतरित कर दिया गया। वर्ष 1927 में संसद भवन का निर्माण के पूरा होने पर सेंट्रल असेंबली की बैठकें पुराना सचिवालय के स्थान पर संसद भवन में होनी प्रारंभ हो गई थीं।

अंग्रेज भारत की राजधानी के कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित होने के बाद वर्ष 1931 की जनगणना में दो शहर, पुरानी दिल्ली और नयी दिल्ली या शाही दिल्ली दर्ज किए गए। पुरानी दिल्ली शहर में पुरानी दिल्ली म्युनिसिपलिटी, फोर्ट नोटिफाइड कमेटी और शाहदरा का इलाका तथा नयी दिल्ली म्युनिसिपलिटी और नए छावनी के तहत क्षेत्रों को नयी दिल्ली शहर में सम्मिलित कर लिया गया।

राजधानी के निर्माण का कार्य पूरा होने के साथ, नई दिल्ली का औपचारिक रूप से उद्घाटन वर्ष 1931 में हुआ। अंग्रेज पहले दिन से ही इस शहर को एक आधुनिक शाही शहर वायसराय के तबोताब और ताकत की निशानी की हैसियत में ढ़ालने को बेताब थे। संसद भवन की आधारशिला 12 फरवरी, 1921 को महामहिम द डय़ूक ऑफ कनाट ने रखी थी। इस भवन के निर्माण में छह वर्ष लगे और इसका उद्घाटन समारोह भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड इर्विन ने 18 जनवरी, 1927 को आयोजित किया। इसके निर्माण पर 83 लाख रूपये की लागत आई।

यह भी एक कमतर जानी बात है कि 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश शासन के भारत को सत्ता का हस्तान्तरण संसद के केन्द्रीय कक्ष में हुआ था। इतना ही नहीं, भारतीय संविधान की रचना भी केन्द्रीय कक्ष में ही हुई। विश्व के भव्यतम गुम्बदों में से एक माना जाने वाले गोलाकार केन्द्रीय कक्ष के गुम्बद का व्यास 98 फुट (29.87 मीटर) है। शुरू में केन्द्रीय कक्ष का उपयोग पूर्ववर्ती केन्द्रीय विधान सभा और राज्य सभा के ग्रन्थागार के रूप में किया जाता था। वर्ष 1946 में इसका स्वरूप परिवर्तित कर इसे संविधान सभा कक्ष में बदल दिया गया। यह केन्द्रीय कक्ष ऐतिहासिक महत्व का स्थान है, जहां 9 दिसम्बर, 1946 से 24 जनवरी, 1950 तक की अवधि में संविधान सभा की बैठकें हुईं ।

इस तरह, अंत में सार रूप में यह कहा जा सकता है कि एक दिल्ली में अनेक शहर समाए हुए हैं और यही कारण है कि यहां इतिहास की कई तहें हैं। दिल्ली अलग-अलग हिस्सों से बना एक शहर है, जिसके हरेक हिस्से की अपनी विशिष्टताएं और विशेषताएं हैं। ये इतने भिन्न हैं कि हम वास्तव में इन भागों को शहर के भीतर अनेक शहर के रूप में पहचान सकते हैं। समूची दिल्ली के हर कोने में मौजूद स्मारक की अपनी एक अलग कहानी है। ऐसे में बस जरूरत है, उस छिपी हुई कहानी में दिलचस्पी होने और उसे खोजने की।


Monday, July 13, 2020

Writer’s secret_Orhan Pamuk_लेखक के लिखने का रहस्य_ओरहान पामुक_तुर्की लेखक

ओरहान पामुक, तुर्की लेखक




लेखक के लिखने का रहस्य प्रेरणा में निहित नहीं है क्योंकि यह कभी स्पष्ट नहीं होता कि वह कहाँ से उत्पन्न होती है। यह रहस्य उसकी जिद है, उसका धैर्य है जो कि उसके लेखन को संभव बनाते हैं।


-ओरहान पामुक, तुर्की लेखक, वर्ष 2006 में साहित्य के लिए मिले नोबेल पुरस्कार के अपने भाषण में


Sunday, July 12, 2020

Sapta Sindhu_seven rivers of saraswati valley_सप्तसिन्धु_सप्तसिंधव_सरस्वती घाटी






सरस्वती घाटी की सात नदियाँ मूल रूप से सप्तसिन्धु का निर्माण करती हैं। जिन सात नदियों के कारण सप्तसिंधव प्रदेश का नाम सप्तसिंधव पड़ा था वे थीं-सिन्धु, विपाशा (व्यास), शुतुद्रि या शतद्रु (सतलज/सतलुज), वितस्ता (झेलम), असिकी (चनाब/चिनाब), परुष्णी (रावी) और सरस्वती। यह सप्तसिंधव प्रायः वही प्रदेश है जिसका नाम आजकल पंजाब-कश्मीर है।

उन दिनों सिन्धु और सरस्वती का ही यशोगान होता था। वेद-मंत्रों में सिन्धु को सीधे बहनेवाली, श्वेत वर्ण, दीप्यमाना, वेगवती, अहिंसिता और नदियों में श्रेष्ठ नदी कहा गया है। उल्लेखनीय है कि ऋगवेद के दशम मंडल के पचहतरवें सूक्त में सिन्धु की महिमा गान की गई है। वैसे सिंधु और ब्रह्मपुत्र का उनके वेग और प्रवाह क्षेत्र के कारण नद माना जाता है।

सरस्वती उन दिनों महा नदी थी। ऋगवेद में उसके संबंध में कहा गया है-"नदी के रूप में प्रकट होकर सरस्वती ने ऊंचे पहाड़ों को अपनी वेगवान विशाल लहरों से इस प्रकार तोड़फोड़ डाला है जैसे जड़ों को खोदने वाले मिट्टी के ढेरों या टीलों को तोड़ डालते हैं।''
(सप्तसिन्धु का मानचित्र-के.एस. वल्दिया रिपोर्ट के सौजन्य से)

Friday, July 10, 2020

History of Government Media_सरकारी मीडिया का इतिहास





भारत की आजादी से पहले रेडियो विभाग की ओर से श्रोताओं को प्रसारित होने वाले आगामी रेडियो कार्यक्रमों की जानकारी देने के लिए पाक्षिक पत्रिकाएं निकलती थीं। तब तीन भाषाओें में प्रकाशित होने वाले इन पाक्षिक पत्रिकाओं के नाम 'इंडियन लिसनर' (अंग्रेजी), 'सारंग' (हिन्दी) और 'आवाज' (उर्दू) थे। अप्रैल 1944 में, इन पत्रिकाओं की प्रचार संख्या 63,350 थी। आकाशवाणी दिल्ली की ओर से जुलाई, 1938 में देवनागरी लिपि में प्रकाशित हिंदी पाक्षिक पत्रिका 'सारंग' निकलनी आरम्भ हुईइस पत्रिका में विभिन्न रेडियो स्टेशनों के कार्यक्रमों के विवरण, उनसे जुड़ी रोचक जानकारियां और कलाकारों के छायाचित्रों का दुर्लभ संकलन प्रकाशित हुए जो कि अब प्रसार भारती के अभिलेखागार में उपलब्ध है। जनवरी, 1958 से 'सारंग' पत्रिका का नाम बदलकर “आकाशवाणी (हिन्दी)” कर दिया गया। “आकाशवाणी (हिन्दी)” और आकाशवाणी (अंग्रेजी) पत्रिकाओं का प्रकाशन वर्ष 1984 तक हुआ। (29072020)


आल इंडिया रेडियो (आकाशवाणी) के पटना प्रसारण स्टेशन से 26 जनवरी 1948 को प्रसारण आरंभ किया गया। यह प्रसारण 6.3 मीटर की वेव लैंथ (1131 केसी/एस) पर हुआ। श्री बी.एस. मरढेकर पटना स्टेशन के पहले स्टेशन निदेशक नियुक्त किए गए थे।(23072020)


हिन्दुस्तान के आजाद होने के बाद जम्मू और कश्मीर राज्य में रेडियो कश्मीर के श्रीनगर स्टेशन का उद्घाटन 2 जुलाई, 1948 को हुआ था। उसी दिन वहां से कश्मीरी और उर्दू भाषा में रेडियो कार्यकम का प्रसारण भी शुरू हुआ। रेडियो कश्मीर के श्रीनगर स्टेशन की शुरुआत में, प्रसारण का एकमात्र प्रमुख उद्देश्य श्रोताओं (सुनने वालों) को देश और राज्य में होने वाली घटनाओं से परिचित करवाने के साथ पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (रेडियो आजाद कश्मीर) और उसके दूसरे प्रसारण स्टेशनों से कश्मीर और भारत के खिलाफ होने वाले दुष्प्रचार का मुकाबला करना था। यह चरण नेहरू-लियाकत संधि पर हस्ताक्षर होने तक नियमित रूप से जारी रहा। (16072020)

स्त्रोत: द रेडियो प्ले इन कश्मीरः अली मोहम्मद लोन, इंडियन लिटरेचर, जनवरी-जून 1973 अंक


अठारहवीं शताब्दी के दौरान भारत में पहली बार समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी समाचार पत्रों को सूचना देने के पक्ष में नहीं थी। यही कारण था कि भारत में 29 जनवरी 1780 को हिक्की का 'बंगाल गजट' या 'द ओरिजनल कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर' नामक पहला अंग्रेजी अखबार निकालने वाले आयरलैंड के जेम्स ऑगस्टस हिक्की को सजा के साथ कारावास भी भुगतना पड़ा। तब कंपनी सरकार ने समाचार पत्रों को जानकारी देना अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध माना था। वर्ष 1836 में, तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड ने काबुल और उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत से प्राप्त खुफिया सूचनाओं के संकलन समाचार पत्र के संपादकों को देने की परंपरा शुरू की। वह बात अलग है कि कुछ समय बाद ही सरकार ने सूचना साझा करना बंद कर दिया। 

(14 072020)


देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ हुए विभाजन का दंश देशवासियों के साथ ऑल इंडिया रेडियो को भी झेलना पड़ा। आजादी के साथ हुए हिंदुस्तान के बंटवारे का परिणाम यह हुआ कि 15 अगस्त, 1947 को ऑल इंडिया रेडियो के पास भारत में केवल दिल्ली, बंबई, कलकत्ता, मद्रास, लखनऊ और तिरुचिरापल्ली के छह रेडियो स्टेशन ही बचे थे। नवंबर, 1947 में, भारतीय पंजाब में अमृतसर में एक रिले स्टेशन के साथ जालंधर में एक स्टेशन खोला गया। जबकि जनवरी, 1948 में, बिहार के पटना और ओड़िशा के कटक में दो और रेडियो स्टेशन खोले गए। इस तरह, 1947-48 के वित्तीय वर्ष के अंत में देश में रेडियो स्टेशनों की कुल संख्या बढ़कर नौ हो गई।(11072020)


आज की पीढ़ी में इस बात से कम लोग ही परिचित है कि देश के स्वतंत्र होने के बाद रेडियो सेट इंगलैंड से आयात होते थे। आयातित रेडियो सेटों के महत्व का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि भारत सरकार ने जनवरी 1948 में बाकायदा एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी। इस प्रेस विज्ञप्ति में इस बात का खंडन किया गया था कि भारत ने यूनाइटेड किंगडम से एक लाख सस्ते रेडियो सेट आयात करने का आदेश दिया है। (10072020)


Thursday, July 9, 2020

A map of Lutyens' projected Imperial Delhi_अंग्रेज वास्तुकार एडवर्ड लुटियन की प्रस्तावित इंपीरियल दिल्ली_अंग्रेजों की शाही दिल्ली का एक मानचित्र



A map of Lutyens' projected Imperial Delhi 

from Encyclopædia Britannica Eleventh Edition December 1911




अंग्रेज वास्तुकार एडवर्ड लुटियन की प्रस्तावित 'इंपीरियल दिल्ली' (अंग्रेजों की शाही दिल्ली) का एक मानचित्र, यह एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के ग्यारहवें संस्करण में दिसंबर 1911 को प्रकाशित हुआ था।

Monday, July 6, 2020

Uttar Pradesh_National Importance Places_उत्तर प्रदेश_राष्ट्रीय महत्व_745 स्मारक_स्थल




उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय महत्व के 745 स्मारक/स्थल है।प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के तहत उत्तर प्रदेश के कुल 745 स्मारकों/स्थलों का जिलेवार वर्गीकरण निम्न है. 

ललितपुर में 73, आगरा में 69, लखनऊ में 60, मथुरा में 43, महोबा में 30, चित्रकूट में 30, कानपुर देहात में 25, फतेहपुर में 25, झांसी में 22, मिर्जापुर में 19, वाराणसी में 19, फरुर्खाबाद में 16, जौनपुर में 16, इलाहाबाद अब प्रयाग में 15, अलीगढ़ में 14, बिजनौर में 14, बरेली में 13, गाजीपुर में 13, कन्नौज में 12, हरदोई में 12, एटा में 11, मुरादाबाद में 11, देवरिया में दस, कुशीनगर में दस, बुलन्दशहर में दस, जालौन में नौ, मेरठ में नौ, बांदा में आठ, हाथरस में सात, कानपुर में सात, आजमगढ़ में सात, फैजाबाद में छह, सिद्वार्थ नगर में छह, श्रावस्ती नगर में छह, मुजफ्फरनगर में छह, गोरखपुर में छह, चंदौली में छह, बहराईच में पांच, औरेया में पांच, बदांयू में चार, इटावा में चार, फिरोजाबाद में चार, ज्योतिबा फुले नगर में चार, सहारनपुर में चार, बलरामपुर में चार, कौशाम्बी में चार और सुल्तानपुर में चार, रायबरेली में तीन, हमीरपुर में तीन, बागपत में तीन, गाजियाबाद में दो और मैनपुरी में एक, पीलीभीत में एक, खीरी में एक, उन्नाव में एक, बलिया में एक, मऊ में एक, संतरविदास नगर में एक, सोनभद्रा में एक, चन्दलुई में एक, महाराजगंज में एक, अहमदनगर में एक, गोंडा में एक हैं।

Saturday, July 4, 2020

Impact of Vivekananda on National Freedom Struggle and Freedom Fighters_भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विवेकानंद का प्रभाव




‘‘भारत भूमि पवित्र भूमि है, भारत मेरा तीर्थ है, भारत मेरा सर्वस्व है, भारत की पुण्य भूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारतवर्ष है, जहाँ मानव प्रकृति एवं अन्तर्जगत् के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे ।’’


स्वामी विवेकानन्द के इन शब्दों से भारत, भारतीयता और भारतवासी के प्रति उनके प्रेम, समर्पण और भावनात्मक संबंध स्पष्ट परिलक्षित होते है । स्वामी विवेकानंद को युवा सोच का संन्यासी माना जाता है। विवेकानंद केवल आध्यात्मिक पुरूष नहीं थे वरन् वे विचारों और कार्यों से एक क्रांतिकारी संत थे, जिन्होंने अपने देश के युवकों का आह्वान किया था-उठो, जागो और महान बनो ।


सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि स्वामी विवेकानंद ने ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए कभी भी प्रत्यक्ष रूप से प्रयास नहीं किए या यहाँ तक कि उस बारे में कभी बात भी नहीं की । यद्यपि यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि भारत के प्रति जो अगाध प्रेम स्वामी जी ने अन्य व्यक्तियों में संचारित किया था, वही स्वतंत्रता आन्दोलन की मुख्य प्रेरणा थी। नवजीवन प्रकाशन कलकत्ता से प्रकाशित भूपेन्द्र नाथ दत्त की पुस्तक “पेट्रिओट प्रॉफिट स्वामी विवेकानंद” में उल्लेख है कि अपनी फ्रांसीसी शिष्या जोसेफाईन मोक्लियान से स्वामी जी ने कहा कि क्या निवेदिता जानती नहीं है कि मैंने स्वतंत्रता के लिए प्रयास किया, किन्तु देश अभी तैयार नहीं है, इसलिए छोड़ दिया। देश भ्रमण के दौरान पूरे देश के राजाओं को जोड़ने का प्रयत्न संभवतः स्वामी जी ने किया होगा, जिसका संकेत उक्त चर्चा में मिलता है । स्वामी विवेकानंद की भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रत्यक्ष रूप से कोई भागीदारी नहीं थी पर फिर भी आजादी के आंदोलन के सभी चरणों में उनका व्यापक प्रभाव था। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर विवेकानंद का प्रभाव, फ्रांसीसी क्रांति पर रूसो के प्रभाव अथवा रूसी और चीनी क्रांतियों पर कार्ल मार्क्स के प्रभाव की तुलना में किसी भी तरह से कमतर नहीं था ।


कोई भी स्वतंत्रता आंदोलन व्यापक राष्ट्रीय चेतना की पृष्ठभूमि के बिना संभव नहीं है । सभी समकालीन स्रोतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में राष्ट्रीयता की भावना के जागरण में विवेकानंद का सबसे सशक्त प्रभाव था । भगिनी निवेदिता के अनुसार, वह नींव के निर्माण में लगने वाले कार्यकर्ता थे । वास्तव में, जिस तरह रामकृष्ण बिना किसी पुस्तकीय ज्ञान के वेदांत के एक जीवंत प्रतीक थे तो उसी प्रकार विवेकानंद राष्ट्रीय जीवन के प्रतीक थे । अंग्रेज पहले ही आशंकित हो चुके थे। अल्मोड़ा में पुलिस विवेकानंद की गतिविधियों पर दृष्टि रख रही थी। २२ मई को श्रीमती एरिक हैमंड को भेजे अपने पत्र में भगिनी निवेदिता ने लिखा, “आज सुबह एक भिक्षु को यह चेतावनी मिली थी कि पुलिस अपने जासूसों के द्वारा स्वामी जी पर दृष्टि रख रही है निसंदेह, हम सामान्य रूप से इस बारे में जानते हैं। किन्तु अब यह और स्पष्ट हो गया है और मैं इसे अनदेखा नहीं कर सकती, यद्पि स्वामी जी इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं । सरकार अवश्य ही मूर्खता कर रही है या कम से कम तब ऐसा स्पष्ट हो जाएगा, यदि वह उनसे उलझेगी । वह पूरे देश को जगाने वाली मशाल होगी । और मैं इस देश में जीने वाली अब तक कि सबसे निष्ठावान अंग्रेज महिला...उस मशाल से जागने वाली पहली महिला होऊँगी । हम स्वामी जी के शब्दों का प्रभाव कुख्यात ‘विद्रोह कमिटी’ की रिपोर्ट में देख सकते हैं। रिपोर्ट कहती है, "उनके (स्वामी विवेकानंद) लेखों और शिक्षा ने अनेक सुशिक्षित हिन्दुओं पर गहरी छाप छोड़ी है।" ब्रिटिश सीआईडी जहाँ भी किसी क्रांतिकारी के घर की तलाशी लेने जाया करती थी, वहां उन्हें विवेकानंद जी की पुस्तकें मिलतीं थीं।



प्रसिद्ध देशभक्त-क्रांतिकारी ब्रह्मबांधव उपाध्याय और अश्विनी कुमार दत्त से चर्चा के दौरान हेमचन्द्र घोष ने सन १९०६ में टिप्पणी की, "मुझे अच्छी तरह याद है कि स्वामीजी ने मुझे बंगाली युवाओं की अस्थियों से एक ऐसा शक्तिशाली हथियार बनाने को कहा था, जो भारत को स्वतंत्र करा सके।" अपनी प्रेरणादायी रचना, ‘द रोल ऑफ ऑनर एनेक्डोट ऑफ इंडियन मार्टियर्स’ में कालीचरण घोष बंगाल के युवा क्रांतिकारियों के मन पर स्वामी जी के प्रभाव के बारे में लिखते हैं, "स्वामी जी के सन्देश ने बंगाली युवायों के मनों को ज्वलंत राष्ट्र-भक्ति की भावना से भर दिया और उनमें से कुछ में राजनैतिक गतिविधियों की प्रवृत्ति उत्पन्न की।          



"स्वामी विवेकानंद के देहांत से पूर्व, देश ऐसे संगठनों के महत्व के प्रति जागरुक हो गया था, जो बड़े पैमाने पर शारीरिक उन्नति, खेल, तलवारबाजी, कृपाण और लाठी के खेल, समाज-सेवा और राहत कार्य करते थे। सन् १९०२ तक ऐसे संगठन उभर आए थे, जिनमें प्रखर राष्ट्रवाद के साथ ही ‘एक आध्यात्मिक भावना’ भी थी, जैसे सतीश मुखर्जी और पी.मित्रा के नेतृत्व में अनुशीलन समिति।"



स्वामी विवेकानंद के बौद्धिक जगत में तैयार किए विक्षोभ के वातावरण के विस्फोट का आभास उनके देहांत के बाद बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन के नेता के रूप में श्री अरविंद के उदभव के तौर पर सामने आया । भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद के देशभक्ति और राष्ट्र निर्माण के आदर्शों को एक आधारभूत संबल प्रदान किया। सन् 1910 में जब श्री अरविंद को दूसरी बार गिरफ्तार करने की बात की चर्चा थी, उस समय निवेदिता की सलाह थी कि "नेता घर से दूर रहते हुए भी घर जितना काम कर सकता है" और इस सलाह ने उनके फ्रांसीसी क्षेत्र पांडिचेरी जाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया।



हम राष्ट्रीय परिदृश्य पर स्वामी विवेकानंद के उभरने से पहले की स्थिति पर एक दृष्टि डालें । अंग्रेजी शिक्षा, देसी साहित्य, भारतीय प्रेस, कांग्रेस सहित विभिन्न सुधार आंदोलन और राजनीतिक संगठन अस्तित्व में आ चुके थे और विवेकानंद से पूर्व उनका प्रभाव फैल चुका था। इन सबके बावजूद, एक सर्वव्यापी राष्ट्रीय चेतना का अभाव था । अगर ऐसा नहीं होता तो मद्रास से प्रकाशित होने वाला दैनिक "द हिन्दू" सन् 1893 की शुरूआत में प्रमुख समुदाय हिंदुओं के धर्म के बारे में यह कैसे लिख सकता था कि यह मर चुका है और उसकी क्षमता चुक गई है । पर इसी अंग्रेजी समाचार पत्र ने एंग्लो इंडियन और मिशनरी अखबारों सहित अन्य प्रकाशनों के साथ एक वर्ष (और भी बाद में) से भी कम समय में लिखा कि वर्तमान समय हिन्दुओं के इतिहास में पुनर्जागरण काल के रूप में वर्णित किया जा सकता है  (मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज पत्रिका, मार्च 1897) । इसे एक राष्ट्रीय विद्रोह का नाम दिया गया (मद्रास टाइम्स, 2 मार्च 1895)। यह चमत्कार कैसे हुआ ? हमें समकालीन विवरणों से जो एक उत्तर प्राप्त होता है, वह यह कि विवेकानंद ने धर्म संसद में भाग लेते हुए वहाँ पर भारतीय धर्म और सभ्यता की महिमा का प्रचार किया और अपने देश की प्राचीन विरासत की मान्यता को प्राप्त किया और इस तरह अपने देशवासियों को दीर्घकाल से खोए हुए उनके आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को वापस लौटाया। स्वामी ने आत्मग्लानि में धंसे भारतीय समाज को बाहर निकाला। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मुझे गर्व है कि मैं ऐसे धर्म में पैदा हुआ हूँ जिसने सदियों से दुनिया को राह दिखाई । चेतनाहीन समाज को चैतन्य करना उनका सबसे बड़ा योगदान है ।



स्वामी रामकृष्ण परमहंस का एक तार्किक अथवा सतही अध्ययन, भारत को स्वतंत्र कराने वाले राष्ट्रवादी आंदोलन से उनकी भूमिका को कतई भी नहीं जोड़ेगा जबकि गहराई से देखने पर उनके शिष्य और क्रांतिकारी संत स्वामी विवेकानंद को उस राष्ट्रवादी भावना से अलग करना कठिन होगा, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन की आत्मा के नाते कार्य किया । जहां स्वामी रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक साधना ने स्वामी विवेकानंद के राष्ट्रवादी कार्य के लिए शक्तिपुंज का कार्य किया वहीं स्वामी विवेकानंद के क्रांतिकारी विचार भारतभर में सैंकड़ों-हजारों राष्ट्रवादी कार्यों के लिए प्रेरणा सूत्र बन गए। अलौकिक भारत की दृष्टि से देखें तो प्राचीन राष्ट्र के हित में स्वामी रामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानंद की आध्यात्मिक-राष्ट्रवादी परम्परा से जुड़े ।



स्वामी विवेकानंद के विचारों तथा शिक्षा ने राष्ट्रीय जीवन व संस्कृति को काफी प्रभावित किया। भारतीय क्रांतिकारियों की अनेक पीढ़ियां, 20 वीं सदी के प्रारंभ से ही उनके जोशीले भाषण तथा लेखन से व्यवहारतः उठ खड़ी हुईं और दृढ़ बनीं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार के अनुसार, भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का यदि किसी एक व्यक्ति को श्रेय है, तो वह है विवेकानंद फिर चाहे वो आन्दोलन अहिंसात्मक हो अथवा क्रांतिकारी । महर्षि अरविन्द को क्रान्ति व योग की प्रेरणा देने वाले भी विवेकानंद जी ही थे । देश की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी से लेकर जितने बड़े नेता हुए, जिन्होंने देश को सबकुछ माना, उनके जीवन की प्रेरणा स्वामी विवेकानन्द थे ।



देशभक्ति से ओतप्रोत स्वामीजी के भाषणों से पैदा की गई विचारों की चिंगारी का असर विनायक दामोदर सावरकर तथा लोकमान्य वाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रभक्तों पर भी दिखाई देता है। वीर सावरकर ने तो संघर्ष कर अंडमान जेल में भी जो लाईब्रेरी बनवाई उसमें विवेकानंद साहित्य रखवाया । अपने बृहत काव्य 'सप्तर्षि' में सावरकर जी ने लिखा कि निराशा के क्षणों में उन्हें विवेकानंद के विचार ही प्रेरणा देते थे । सन् १९०१ में बेल्लूर में हुए कांग्रेस अधिवेशन के समय तिलक लगातार आठ दिन तक विवेकानंद जी से नियमित मिलते रहे । तिलक के लेखों में उसके बाद ही 'दरिद्र नारायण' शब्द का प्रयोग प्रारम्भ हुआ । अंग्रेजों के बनाए सिडीशन कमीशन की रिपोर्ट में इस भेंट का उल्लेख है । कमीशन ने इसे हिन्दू पुनर्जागरण की साजिश करार दिया ।



दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध कवि सुब्रह्मण्यम भारती की प्रारंभिक कविताओं में तमिल राष्ट्रवाद का उल्लेख मिलता है, किन्तु स्वामी जी के प्रभाव में आने के बाद उनकी जीवन के उत्तरार्ध में लिखी कवितायें भारतीय हिन्दू राष्ट्रवाद का गुणगान करती हैं । उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया कि यह परिवर्तन, उनकी गुरू भगिनी निवेदिता और स्वामीजी के कारण उत्पन्न हुआ । वहीं दूसरी ओर, महान स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार तथा 'युगांतर' के संस्थापकों में से एक बारींद्रनाथ घोष और भूपेन्द्र नाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद जी के छोटे भाई ) को बंगाल में क्रांतिकारी विचारधारा को फैलाने का श्रेय दिया जाता है । 


बारींद्रनाथ, महान अध्यात्मवादी श्री अरविन्द घोष के छोटे भाई थे। भगत सिंह से पहले का भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन एक तरह से स्वामी दयानंद और विवेकानंद जैसे आध्यात्मिक पुरूषों से अनुप्राणित रहा है। सुप्रसिद्ध बांग्ला उपन्यासकार शरत्चंद्र ने बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर 'पथेर दावी' उपन्यास लिखा । पहले यह 'बंग वाणी' में धारावाहिक रूप से निकला, फिर पुस्तकाकार छपा तो तीन हजार का संस्करण तीन महीने में ही समाप्त हो गया। इसके बाद, ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया।



छोटे-छोटे समूहों के साथ अनौपचारिक वार्तालाप के दौरान विवेकानंद ने राजनैतिक स्वतंत्रता का आदर्श अपने देशवासियों, विशेषतः युवाओं के सामने, उनके तात्कालिक लक्ष्य के रूप में रखा। क्रांतिकारी ब्रह्मबांधव उपाध्याय ने बताया कि, वर्ष १९०१ में उनकी ढाका यात्रा के दौरान जब युवाओं का एक समूह उनसे मिला और परामर्श लिया, तो उन्होंने कहा, “बंकिमचन्द्र को पढ़ों और देशभक्ति व सनातन धर्म का अनुकरण करो। सबसे पहले भारत को राजनैतिक रूप से स्वतंत्र कराया जाना चाहिए।



यह कोई संयोग नहीं है कि स्वामी विवेकानंद की समाधि के तीन वर्षों बाद ही उनकी प्रज्वलित अग्नि ने बंगाल के विभाजन के विरुद्ध एक विशाल आंदोलन भड़का दिया जो कि अपने आप में एक महान स्वतंत्रता आंदोलन बन गया। स्वामी विवेकानंद जी के ऐसे योगदान के कारण ही तिलक की पत्रिका “मराठा” ने विवेकानंद को भारतीय राष्ट्रवाद का जनक माना। १४ जनवरी १९१२ के अंक में पत्रिका ने लिखा, "स्वामी विवेकानंद भारतीय राष्ट्रवाद के वास्तविक जनक हैं, प्रत्येक भारतीय को आधुनिक भारत के इस पिता पर गर्व है।" आज भारत को सभी प्रकार की नकल, निर्भरताओं और विदेशी शक्तियों के नियंत्रण से मुक्ति पाने के लिए अपनी समस्त शक्ति एकत्र करने की आवश्यकता है।



स्वामी विवेकानंद का आह्वान भारतीय स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत क्रांतिवीरों के लिए एक मिशन बन गया। निरूसंदेह स्वतंत्रता आंदोलन, जो कि महर्षि अरविंद के क्रांतिकारी विचारों से लेकर बाल गंगाधर तिलक की तीक्ष्ण राजनीति से लेकर महात्मा गांधी के उदारवादी अभियान तक विविध रूपों में सक्रिय था, स्वामी विवेकानंद के भारतमाता की भक्ति के विचार से प्रभावित था। गांधी, तिलक, जवाहर लाल नेहरू से लेकर राजाजी तक सभी इस बात से सहमत थे कि स्वामी विवेकानंद ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नैतिक और बौद्धिक आधार रखा था। ऐसे में, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन राजनीतिक था पर उसके मूल आधार की जड़ सनातन धर्म में अंतर्निहित आध्यात्मिक स्वरूप में समाहित थी। कांग्रेस में गरम दल जिसका नेतृत्व अरविंद घोष, लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और विपिन चंद्र पाल ने किया, 1857 के क्रांतिकारी संघर्ष से प्रेरित थे। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1857 की हार से विक्षुब्ध होकर राष्ट्रीय पुनर्जागरण के लिए आर्य समाज की स्थापना की और देश को स्वराज्य का मंत्र सबसे पहले उन्होंने ही दिया।



स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- ‘यदि हमारे इस समाज में, इस राष्ट्रीय जीवनरूपी जहाज में छिद्र है, तो हम तो उसकी सन्तान हैं । आओ चलें, उन छिद्रों को बन्द कर दें- उसके लिए हँसते-हँसते अपने हृदय का रक्त बहा दें और यदि हम ऐसा न कर सकें तो हमारा मर जाना ही उचित है । हम अपना भेजा निकालकर उसकी डाट बनाएँगे और जहाज के उन छिद्रों में भर देंगे । पर उसकी कभी भर्त्सना न करें ! इस समाज के विरुद्ध एक कड़ा शब्द तक न निकालो ।’ देश के युवकों से दबे-कुचले लाखों मूक लोगों के ज्ञानोदय के लिये संघर्ष करने की उनकी अपील, धनी वर्गों की सुविधायें खत्म करने और राष्ट्रीय संपदा में मेहनतकशों को समुचित हिस्सा देने की समस्या के प्रति उनका क्रांतिकारी दृष्टिकोण, छुआछूत के खिलाफ उनका उपदेश और सबसे बढ़कर आत्मा के शुद्धिकरण की उनकी शिक्षा- इन सबको बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समेत विभिन्न राजनीतिक एवं सामाजिक संगठनों ने अपनाया।



स्वामी विवेकानंद की शिक्षाओं से ही प्रेरित होकर 19वीं शती में क्रांतिकारी आंदोलन, अनुशील समिति और युगांतर का गठन हुआ। रासबिहारी बोस, शचीन्द्र नाथ सान्याल से लेकर सुभाष चन्द्र बोस तक राष्ट्रीय आंदोलन की क्रांतिकारी धारा और गदर पार्टी से लेकर चन्द्रशेखर आजाद और भगतसिंह तक हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ की क्रांतिकारी धारा पर स्वामी विवेकानंद और आर्य समाज का यह प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।



देश की आजादी में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले अनेक महापुरुष हुए हैं। ऐसी ही महान विभूतियों में से एक थे सुभाष चन्द्र बोस, महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त कहा था। स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानने वाले सुभाष चन्द्र बोस जब भारत आए तो रविन्द्रनाथ ठाकुर के कहने पर सबसे पहले गाँधी जी से मिले थे । नेताजी का मानना था कि अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में भागवत गीता प्रेरणा का स्रोत है. वह अपनी युवावस्था से ही स्वामी विवेकानंद से प्रभावित थे। इतिहासकार लियोनार्ड गॉर्डन ने उनके बारे में माना, ‘आंतरिक धार्मिक खोज उनके जीवन का भाग रही. यही वजह है जिसने उन्हें तत्कालीन नास्तिक समाजवादियों व कम्युनिस्टों की श्रेणी से अलग रखा।’



स्वामी विवेकानंद न केवल क्रांतिकारियों को प्रभावित किया है बल्कि उत्तरोत्तर काल के राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों को भी । रोमां रोलां बताते है कि बेलूर मठ की वाटिका में दिए एक व्याख्यान में महात्मा गांधी ने स्वीकार किया था कि “विवेकानंद के अध्ययन और उनकी पुस्तकों ने उनकी देशभक्ति को बढ़ाया।” इस प्रकार, भारत की आजादी के लिए गांधीजी के आंदोलन में विलीन होने वाले सभी क्रांतिकारी राष्ट्रवादी आंदोलन स्वामीजी की सिंह गर्जना उठो, जागो के बाद ही शुरू हुए ।



Wednesday, July 1, 2020

Hemant Kumar on Kishore Kumar and his film singing_प्रसिद्व संगीतकार और गायक हेमन्त कुमार_किशोर कुमार पर

  प्रसिद्व संगीतकार और गायक हेमन्त कुमार_किशोर कुमार




वह किशोर (कुमार) था। वह कुछ भी कर सकता था। कोई उसे बता नहीं सकता था कि उसे क्या करना है। दरअसल, किशोर किसी भी संगीत निर्देशक के लिए एक उपहार था। संगीत की दृष्टि से वह नैसर्गिक रूप से प्रतिभाशाली था। उसे अपने शुरुआती वर्षों में, सचिन (देव बर्मन) बाबू से उत्कृष्ट स्वर प्रशिक्षण मिला, जिसने किशोर की गायन शैली को हीरे की तरह पूरी तरह से तराश दिया। उसने सचिन बाबू से बहुत कुछ सीखा और जीवन भर उस सीख का पूरा लाभ उठाया। वह सभी गाने अपने तरीके से गाता था। मैं एक धुन बनाऊंगा और वह उसे अपने हिसाब से बदलकर ढाल लेगा। ये बदलाव असाधारण थे, एक उत्कृष्ट कार्य। इस लिहाज से, उसका हर संगीतकार के संगीत को बेहतर बनाने में अतुलनीय योगदान है। 


First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...