Wednesday, July 15, 2020

Story of Delhi through Ages_दिल्ली के उजड़ने-बसने की कहानी










दुनिया में बहुत कम शहर ऐसे हैं जो दिल्ली की तरह अपने दीर्घकालीन अविच्छिन्न अस्तित्व एवं प्रतिष्ठा को बनाए रखने का दावा कर सकें। दिल्ली का इतिहास, शहर की तरह की रोचक है। ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली, दमिशक और वाराणसी के साथ आज की दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक है।

कुछ पुस्तकों में यह भी उल्लिखित है कि प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व एक राजा  'ढिलू' के नाम पर इसका नाम दिल्ली पड़ा, जो बाद में देलही, देहली, दिल्ली  आदि नामों से जाना गया। दिल्ली का नाम राजा ढिल्लू के “ढिल्लिका”(800 ई.पू.) के नाम से माना गया है, जो मध्यकाल का पहला बसाया हुआ शहर था, जो दक्षिण-पश्चिम सीमा के पास स्थित था, जो वर्तमान में महरौली के पास है।

प्राचीन प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में यह (दिल्ली) नाम ढिल्ली अथवा ढिल्लिका के नाम से उल्लिखित है। यह शहर मध्यकाल के सात शहरों में सबसे पहला था, इसे योगिनीपुरा के नाम से भी जाना जाता है, जो योगिनी (एक प्राचीन देवी) के शासन काल में था। इस प्रदेश को खण्डप्रस्थ और योगिनीपुर के नाम से भी जाना जाता था। वर्ष 1966 में कालका जी मन्दिर के पास बहाईपुर गाँव (श्रीनिवासपुरी) में मिले मौर्य सम्राट अशोक का प्राकृत शिलालेख और पूर्व एवं मध्यकाल में रचित विपुल जैन काव्य तथा नाथपंथी काव्य के अतिरिक्त इस (दिल्ली) का मध्ययुगीन नाम योगिनीपुर भी इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य है।

भारतीय इतिहास में दिल्ली का उल्लेख महाभारत काल से ही मिलता है। महाभारत काल में दिल्ली का नाम इन्द्रप्रस्थ था। ऐसे इस शहर के इतिहास का सिरा भारतीय महाकाव्य महाभारत के समय तक जाता है, जिसके अनुसार, पांडवों ने इंद्रप्रस्थ के निर्माण किया था। उल्लेखनीय है कि उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ तक दिल्ली में इंद्रप्रस्थ नामक गाँव हुआ करता था। पाँच प्रस्थों में एक इन्द्रप्रस्थ के अस्तित्व का प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। अन्य चार प्रस्थ-पानीपत, सोनीपत, बागपत और तिलपत थे। इन्हीं पाँचों स्थानों पर प्रसिद्ध महाभारत का युद्ध लड़ा गया था। जातकों के अनुसार, इंद्रप्रस्थ सात कोस के घेरे में बसा हुआ था। पांडवों के वंशजों की राजधानी इंद्रप्रस्थ में कब तक रही यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता किंतु पुराणों के साक्ष्य के अनुसार परीक्षित तथा जनमेजय के उत्तराधिकारियों ने हस्तिनापुर में भी बहुत समय तक अपनी राजधानी रखी थी।

दूसरी शताब्दी के ’टालेमी’ के विवरण में ट्राकरूट पर मौर्य शासकों द्वारा बसाई गई नगरी 'दिल्ली' नाम से उल्लिखित है। बाद में मौर्य, गुप्त, पाल आदि अनेक राजवंशों का दिल्ली पर शासन रहा। दिल्ली शहर की स्थापना के सन्दर्भ में कई कथाएँ प्रचलित हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में कराये गये खुदाई में जो भित्तिचित्र मिले हैं, उनसे इसकी आयु ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व का लगाया जा रहा है, जिसे महाभारत के समय से जोड़ा जाता है, पुरातात्विक रूप से जो पहले प्रमाण मिलते हैं उन्हें मौर्य-काल (ईसा पूर्व 300) से जोड़ा जाता है। मौर्यकाल के पश्चात लगभग 13 सौ वर्ष तक दिल्ली और उसके आसपास का प्रदेश अपेक्षाकृत महत्वहीन बना रहा।

उल्लेखनीय है कि रिज पर सुरक्षित तरीके से बसी पहले की अधिकांश बस्तियां-लालकोट, देहली-ए-कुना, महरौली, जहांपनाह, तुगलकाबाद-शहर के दक्षिण में स्थित थी। दिल्ली के दो प्रमुख प्राकृतिक स्थलों, ’रिज’ और 'यमुना' ने यहां की बस्तियों, शाही स्थलों और शहर की सामाजिक और आर्थिक संस्कृति के उन्नयन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

थानेश्वर के सम्राट हर्ष के साम्राज्य के छिन्न भिन्न होने के पश्चात उत्तरी भारत में अनेक छोटी मोटी राजपूत रियासतें बन गईं और इन्हीं में 12 वीं शती में पृथ्वीराज चौहान की भी एक रियासत थी, जिसकी राजधानी दिल्ली बनी। दिल्ली के जिस भाग में क़ुतुब मीनार है वह अथवा महरौली का निकटवर्ती प्रदेश ही पृथ्वीराज के समय की दिल्ली है। वर्तमान योगमाया का मंदिर मूल रूप से इसी चौहान सम्राट का बनवाया हुआ कहा जाता है। एक प्राचीन जनश्रुति के अनुसार, चौहानों ने दिल्ली को तोमरों से लिया था जैसा कि 1327 ईस्वी के एक अभिलेख से सूचित होता है, यह भी कहा जाता है कि चौथी शती ईस्वी में अनंगपाल तोमर ने दिल्ली की स्थापना की थी। इन्होंने इंद्रप्रस्थ के क़िले के खंडहरों पर ही अपना क़िला बनवाया।

यह विश्वास किया जाता है कि दिल्ली के प्रथम मध्यकालीन नगर की स्थापना तोमरों ने की थी, जो ढिल्ली या ढिल्लिका कहलाती थी जबकि ज्ञात अभिलेखों में "ढिल्लिका" का नाम सबसे पहले राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में बिजोलिया के 1170 ईस्वी के अभिलेख में आता है। जिसमें दिल्ली पर चौहानों के अधिकार किए जाने का उल्लेख है। राजा विग्रहराज चतुर्थ (1153-64) ने जो शाकंभरी (आज का सांभर जो कि अपनी नमक की झील के कारण प्रसिद्ध है) के चौहान वंश के बीसल देव के नाम से जाना जाता है, राज्य संभालने के तुरंत बाद शायद तोमरों से दिल्ली छीन ली थी।

उसके बाद जब पृथ्वीराज चौहान, जो कि राय पिथौरा के नाम से भी प्रसिद्ध थे, सिंहासन पर बैठे तो उन्होंने लाल कोट का विस्तार करते हुए एक विशाल किला बनाया। इस तरह, लाल कोट कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है बल्कि लाल कोट-रायपिथौरा ही दिल्ली का पहला ऐतिहासिक शहर है। इस किलेबंद बसावट की परिधि 3.6 किलोमीटर थी। चौहान शासन काल में इस किलेबंद इलाके का और अधिक फैलाव हुआ जो कि किला-राय पिथौरा बना। बिजोलिया के अभिलेख में उसके द्वारा दिल्ली पर अधिकार किए जाने का उल्लेख है जबकि अन्य अभिलेखों में दिल्ली पर तोमरों और चौहानों द्वारा क्रमशः शासन किए जाने का उल्लेख है।

उल्लेखनीय है कि हिन्दी भाषा का आरंभिक रूप चंदरबरदाई के काव्य 'पृथ्वीराज रासो' में मिलता है जो कि पृथ्वीराज चौहान के दरबार के राजकवि और बालसखा थे। ग्वालियर के तोमर राजदरबार में सम्मानित एक जैन कवि महाचंद ने अपने एक काव्यग्रंथ में लिखा है कि वह हरियाणा देश के दिल्ली नामक स्थान पर यह रचना कर रहा है।

“दिल्ली और उसका अंचल” पुस्तक के अनुसार, अनंगपाल को "पृथ्वीराज रासो" में अभिलिखित भाट परम्परा के अनुसार दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। यह कहा जाता है कि उस (अनंगपाल) ने लाल कोट का निर्माण किया था जो कि दिल्ली का प्रथम सुविख्यात नियमित प्रतिरक्षात्मक प्रथम नगर के अभ्यन्तर के रूप में माना जा सकता है। वर्ष 1060 में लाल कोट का निर्माण हुआ। जबकि सैयद अहमद खान के अनुसार, किला राय पिथौरा वर्ष 1142 में और ए. कनिंघम के हिसाब से वर्ष 1180 में बना। अंग्रेज इतिहासकार एच सी फांशवा ने अपनी पुस्तक “दिल्ली, पास्ट एंड प्रेजेन्ट” में लिखा है कि यह एक और आकस्मिक संयोग है कि दिल्ली में सबसे पुराने हिंदू किले का नाम लाल कोट था तो मुसलमानों (यानी मुगलों के) नवीनतम किले का नाम लाल किला है।

दिल्ली में विदेशी तुर्की मुस्लिम शासनकाल तराइन की दूसरी लड़ाई (1192) में अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हार और अफगान हमलावर मोहम्मद गोरी की जीत के साथ शुरू हुआ। 

सिक्का, फरमान और खुतबा मध्ययुगीन मुस्लिम काल के ऐतिहासिक शोध की दृष्टि से साक्ष्य के आरंभिक बिंदु हैं। अगर इस हिसाब से देखें तो बात ध्यान आती है कि दिल्ली में गोरी काल के सिक्कों पर पृथ्वीराज के शासन वाले हिंदू देवी-देवताओं के प्रतीक चिन्हों और देवनागरी को यथावत रखा। गोरी ने दिल्ली में पाँव जमने तक पृथ्वीराज चौहान के समय में प्रचलित प्रशासकीय मान्यताओं में विशेष परिवर्तन नहीं किया। यही कारण है कि हिंदू सिक्कों में प्रचलित चित्र अंकन परंपरा के अनुरूप, इन सिक्कों में लक्ष्मी और वृषभ-घुड़सवार अंकित थे। गोरी ने हिन्दू जनता को नई मुद्रा के चलन को स्वीकार न करने के “रणनीतिक उपाय” के रूप में हिन्दू शासकों, चौहान और तोमर वंशों के सिक्कों के प्रचलन को जारी रखा। उस समय भी हिन्दी भाषा, जनता की भाषा थी और गोरी अपने शासन की सफलता के लिये भाषा का आश्रय लेना चाहता था। वह हिन्दू जनता को यह भरोसा दिलाना चाहता था कि यह केवल व्यवस्था का स्थानान्तरण मात्र है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने दिल्ली की महरौली में लाल कोट (या किला राय पिथौरा) के खंडहरों की दो बार खुदाई की थी। पहली बार, 1991-92 में और दूसरी बार 1994-95 में। यहां मिले 287 मध्यकालीन सिक्कों के ऐतिहासिक महत्व के अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार, इस खुदाई के दौरान जमीन की विभिन्न परतों में चौहान और तोमर शासकों, मामलुक (13 वीं शताब्दी), और खिलजी (1290-1320) और तुगलक (14 वीं शताब्दी) सुल्तानों के समय के सिक्के पाए गए। यह अध्ययन भी इस बात को स्वीकारता है कि नए (विदेशी मुस्लिम) शासकों ने पूर्व प्रचलित सिक्कों का चलन बनाए रखा।

गोरी के निसंतान होने के कारण दिल्ली में राज की जिम्मेदारी गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने संभाली। ऐबक के समय में तोमरों और चौहानों के लाल कोट के भीतर बनाए सभी मन्दिरों को गिरा दिया और उनके पत्थरों को मुख्यतः कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद के लिए पुनः इस्तेमाल किया गया। कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई, नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार, इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में मुस्लिम शासन से पहले प्रचलित राजपूत मुद्रा “देहलीवाल“ कहलाती थी। दिल्ली सल्तनत में चांदी और तांबे के सिक्कों पर आधारित मुद्रा प्रणाली ही बनी रही, जिसमें चांदी के टका और देहलीवाल का प्रभुत्व था। इसके साथ ही, तांबे का जीतल का भी प्रचलन था।

गुलाम बादशाह बलबन के समय के पालम-बावली अभिलेख तिथि 1272 ईस्वी (विक्रम संवत् 1333) में लिखा है कि हरियाणा पर पहले तोमरों ने तथा बाद में चौहान ने शासन किया। अब यह शक शासकों के अधीन है। यह अभिलेख देहली और हरियाणा के राजाओं को तोमर, चौहान और शक बतलाता है, इनमें से पहले दो राजाओं को राजपूत वंश माना गया है तथा अंतिम से अभिप्राय सुल्तान है। यह बात शकों की एक विस्तृत सूची अर्थात् तब तक के शासक बलबन समेत देहली के सुल्तानों की एक सूची से स्पष्ट कर दी गई है। शिलालेख की सूची से पता चलता है कि 'शक' शब्द का प्रयोग दिल्ली के पूर्व सुल्तानों मुहम्मद गोर से बलबन तक के लिए होता है। बलबन सहित गुलाम वंश के सभी शासकों को यहां पर शक शासक की संज्ञा दी गई है। जहां तक पालम बावली के शिलालेख का संबंध है कुछ दशक पूर्व यह लालकिला संग्रहालय में हुआ करता था। इतिहास के अध्ययन के हिसाब से यह शिलालेख कई दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। पहली बार इसमें "ढिल्ली" शब्द का उल्लेख दिल्ली के लिए हुआ है। इसके अतिरिक्त, यह पहला शिलालेख है जिसमें हरियाणा क्षेत्र का उल्लेख किया गया है।

अलाउद्दीन खिलजी के सीरी शहर के भग्न अवशेष हौजखास के इलाके में आज भी देखे जा सकते हैं जबकि गयासुद्दीन तुगलक ने दिल्ली के तीसरे किले बंद नगर तुगलकाबाद का निर्माण किया जो कि एक महानगर के बजाय एक गढ़ के रूप में बनाया गया था। फिरोजशाह टोपरा और मेरठ से अशोक के दो उत्कीर्ण किए गए स्तम्भ दिल्ली ले आया और उसमें से एक को अपनी राजधानी और दूसरे को रिज में लगवाया। आज तुगलकाबाद किले की जद में ही शहर का सबसे बड़ा शूटिंग रेंज है, जहां एशियाई खेलों से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों की तीरदांजी और निशानेबाजी प्रतियोगिताओं का सफल आयोजन हुआ। आज यहां इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय से लेकर सार्क विश्वविद्यालय तक है।सैय्यदों और लोदी राजवंशों ने वर्ष सन् 1433 से करीब एक शताब्दी तक दिल्ली पर राज किया। उन्होंने कोई नया शहर तो नहीं बसाया पर फिर भी उनके समय में बने अनेक मकबरों और मस्जिदों से मौजूदा शहरी परिदृश्य को बदल दिया। आज की दिल्ली के उत्तरी छोर से दक्षिणी छोर, जहां कि आज कुकुरमुत्ते की तरह असंख्य फार्म हाउस उग आए हैं, तक लोदी वंश की इमारतें इस बात की गवाह है। आज के प्रसिद्ध लोदी गार्डन में सैय्यद लोदी कालीन इमारतें को बाग के रखवाली के साथ सहेजा गया है। आज दिल्ली में बौद्धिक बहसों के बड़े केंद्र जैसे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, इंडिया हैबिटैट सेंटर और इंडिया इस्लामिक सेंटर लोदी गार्डन की परिधि में ही है।

उल्लेखनीय है कि सोलहवीं शताब्दी (वर्ष 1540) में अफगान शासक शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराकर भारत से बेदखल कर दिया। शेरशाह ने एक और दिल्ली की स्थापना की। यह शहर 'शेरगढ़' के नाम से जाना गया, जिसे दीनपनाह के खंडहरों पर बनाया गया था। आज दिल्ली के चिड़ियाघर के नजदीक स्थित पुराना किला में शेरगढ़ के अवशेष देखें जा सकते हैं। शेरशाह ने दीनपनाह को नष्ट करके कई सभ्यताओं के अवशेषों पर अपना शहर बसाया। शेरशाह ने पांच साल तक इसी किले से दिल्ली पर शासन किया। शेरशाह ने लगभग इसी जगह पर एक नया शहर बसाया था, जिसे दिल्ली 'शेरशाही' या 'शेरगढ़' का नाम दिया गया। कुछ अवशेष ही कभी दिल्ली के इन बादशाहों के यहां पर बसाए जाने के प्रमाण हैं। शेरशाह सूरी ने नया शहर बसाने की बजाय हुमायूँ के शहर में ही बहुत कुछ जोड़ा। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि पुराने किले और उसके आसपास 'दीनपनाह' और 'शेरगढ़' नाम के दिल्ली के दो शहर रहे। 

"भारतीय सिक्कों का इतिहास" में गुणाकर मुले लिखते हैं कि इन आरंभिक तुर्की सुलतानों ने इस्लामी ढंग के नए सिक्के जारी किए। सैय्यदों और अफगान-लोदियों ने भी उन्हीं का अनुकरण किया। फिर शेरशाह सूरी ने रूपये की जिस मुद्रा-प्रणाली की शुरूआत की वह मुगलकाल, ब्रिटिश शासनकाल और स्वतंत्र भारत में भी जारी रही।

वर्ष 1545 में शेरशाह की मौत हो गई। उसके बेटे सलीमशाह या इस्लामशाह ने गद्दी संभाली। यमुना के किनारे लालकिले के साथ बना सलीमगढ़ का किला शेरशाह के इसी बेटे सलीमशाह का बनवाया हुआ है। “तारीख एक खानजहां” के लेखक की माने तो सलीमशाह ने सलीमगढ़ के किले को बनवाने के बाद हुमायूँ के किले के चारों ओर एक दीवार भी बनवाई थी। शाहजहांनाबाद बसाए जाने के दौरान मुग़ल शासक शाहजहां और उसके सहयोगियों के सलीमगढ़ के किले में अस्थायी रूप से रहने का उल्लेख मिलता है। हुमायूं के दोबारा सत्ता पर काबिज होने के बाद उसने निर्माण कार्य पूरा करवाया और शेरगढ़ से शासन किया।

हुमायूं के 'दीनापनाह', दिल्ली का छठा शहर, से लेकर शाहजहां तक तीन शताब्दी के कालखंड में मुगलों ने पूरी दिल्ली की इमारतों को भू परिदृश्य को परिवर्तित कर दिया। बाबर, हुमायूं और अकबर के मुगलिया दौर में निजामुद्दीन क्षेत्र में सर्वाधिक निर्माण कार्य हुआ, जहां अनेक सराय, मकबरे वाले बाग और मस्जिदें बनाई गईं।

हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह और दीनापनाह के किले पुराना किले के करीब मुगल सम्राट हुमायूं के मकबरे, फारसी वास्तुकला से प्रेरित मुगल शैली का पहला उदाहरण, के अलावा नीला गुम्बद के मकबरे, सब बुर्ज, चौंसठ खम्बा, सुन्दरवाला परिसर, बताशेवाला परिसर, अफसारवाला परिसर, खान ए खाना और कई इमारतें बुलंद की गईं। एक तरह से यह इलाका शाहजहांनाबाद से पूर्व मुगल दौर की दिल्ली था। 

“दास्तान ए दिल्ली” पुस्तक में आदित्य अवस्थी लिखते हैं कि हुमायूँ के मकबरे को दिल्ली की पहली और महत्वपूर्ण मुगलकालीन इमारत कहा जा सकता है। बगीचों, चलते फव्वारों और बहते पानी के बीच बने इस मकबरे को दिल्ली की सबसे खूबसूरत मुगलकालीन इमारतों में से एक माना जाता है।

मुग़ल बादशाह शाहजहां वर्ष 1638 में आगरा से राजधानी को हटाकर दिल्ली ले आया और दिल्ली के सातवें नगर शाहजहांनाबाद की आधारशिला रखी। इसका प्रसिद्ध दुर्ग लालकिला यमुना नदी के दाहिने किनारे पर शहर के पूर्वी छोर पर स्थित है सन् 1639 में बनना शुरू हुआ और नौ साल बाद पूरा हुआ। महेश्वर दयाल की पुस्तक “दिल्ली जो एक शहर है“ के अनुसार, शाहजहानाबाद की दीवार 1650 में पत्थर और मिट्टी की बनाई गई थी, जिस पर तब पचास हजार रूपए का खर्चा आया। यह 1664 गज चौड़ी और नौ गज ऊंची थी और इसमें तीस फुट ऊंचे सत्ताईस बुर्ज थे।

इतालवी लेखिका पिलर मारिया गयएरीरी ने अपनी पुस्तक “मैप्स ऑफ़ दिल्ली“ में लिखा है कि शाहजहाँनाबाद के स्थान के चयन पर विचार करें तो पता चलेगा कि यह एक पहाड़ी पर बना शहर था जो कि प्राकृतिक रूप से बाढ़ से बचाव की स्थिति में था। इसी लालकिले की प्राचीर से आजादी मिलने के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपना भाषण दिया था। सन् 1650 में शाहजहां ने अपनी विशाल जामे मस्जिद का निर्माण पूरा करवाया जो कि भारत की सबसे बड़ी मस्जिद है।

अंग्रेजों से पहले दिल्ली पर मराठा आधिपत्य के समय में मालीवाड़ा, चिप्पीवाड़ा और तेलीवाड़ा जैसे मोहल्ले अस्तित्व में आएं। यह बात मराठी प्रत्यय 'वाडा' से इंगित होती है। मराठी में 'वाडा' का अर्थ रहने की जगह
होता है। उल्लेखनीय है कि अपनी राजधानी में स्वयं प्रवेश करने में असमर्थ निर्वासित मुगल बादशाह शाह आलम को वर्ष 1772 में मराठा सेनापति महादजी सिंधिया के नेतृत्व में मराठा सेनाएं अपने संगीनों के साये में, इलाहाबाद से दिल्ली लाईं और उसे दिल्ली की गद्दी पर फिर से बिठाया। तब लगभग सभी अधिकार मराठों के पास आ गए थे। गौरतलब है कि अंग्रेजों ने पटपड़गंज की लड़ाई (वर्ष 1803) में मराठाओं को हराकर दिल्ली पर कब्जा किया था। 

मुगल बादशाह तो बस नाम का ही शाह था, जिसके लिए “शाह आलम, दिल्ली से पालम“ की कहावत प्रसिद्ध थी। उर्दू के मशहूर शायर मीर तकी 'मीर' (1710-1823) की प्रसिद्ध आत्मकथा "दिल्ली-जिक्र ए मीर", उनके अपने उजड़ने और बसने से ज्यादा दिल्ली के बार बार उजड़ने और बसने की कथा है।

वर्ष 1857 देश की आजादी की पहली लड़ाई में बादशाह बहादुर शाह जफर की हार के बाद दिल्ली अंग्रेजों के गुस्से और तबाही का शिकार बनी। जब अंग्रेजों ने दिल्ली पर दोबारा कब्जा किया तो इमारतों को नेस्तानाबूद कर दिया और उनकी जगह सैनिक बैरकें बना दी। इसी तरह, जामा मस्जिद और शाहजहांनाबाद के दूसरे हिस्सों को भी समतल कर दिया गया। इस तरह न केवल सैकड़ों रिहाइशी हवेलियों बल्कि शाहजहां की दौर की अकबराबादी मस्जिद भी को जमींदोज कर दिया गया। शहर में रेलवे लाइन के आगमन के साथ जहांआरा बेगम द्वारा चांदनी चौक के निर्मित बागों में भी इमारतें खड़ी कर दी गई और इस तरह शाहजहांनाबाद का स्थापत्य और शहरी स्वरूप हमेशा के लिए बदल गया।

वर्ष 1858 में अपने शागिर्द मुंशी हरगोपाल तफ्ता के नाम लिखी चिट्ठी में मिर्जा ग़ालिब ने 'ग़दर' का हाल बयान करते हुए लिखा है कि यह कोई न समझे कि मैं अपनी बेरौनकी और तबाही के ग़म में मरता हूँ। जो दुःख मुझको है उसका बयान तो मालूम, मगर उस बयान की तरफ़ इशारा करता हूँ। अंग्रेज़ की कौम से जो इन रूसियाह कालों के हाथ से कत्ल हुए, उसमें कोई मेरा उम्मीदगाह था और कोई मेरा शागिर्द। हिंदुस्तानिओं में कुछ अज़ीज़, कुछ दोस्त, कुछ शागिर्द, कुछ माशूक, सो वे सबके सब ख़ाक में मिल गए। एक अज़ीज़ का मातम कितना सख्त होता है! जो इतने अज़ीज़ों का मातमदार हो, उसको ज़ीस्त क्योंकर न दुश्वार हो। हाय, इतने यार मरे कि जो अब मैं मरूँगा तो मेरा कोई रोने वाला भी न होगा। 

अंग्रेजों के जमाने में दिल्ली एक लंबे कालखंड (1857-1911) तक तबाही की गवाह बनी। उसके बाद यहाँ रेलवे के आगमन के साथ ही इमारतों के बनने का सिलसिला शुरू हुआ। दिल्ली शहर के पश्चिम की दिशा के भू-भाग में स्थानीय जनता की भलाई के लिए विकास के कुछ प्रयास किये गए। लिहाजा, तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार ने अपनी सेना और प्रशासन में गोरे कर्मचारी और अफसरानों के लिए घर, कार्यालय, चर्च और बाजार बनाए। इस तरह, कुछ समय में ही शाहजहांनाबाद के परकोटे की दीवार से बाहर गोरों की आबादी वाला नया शहर दिल्ली के नक़्शे उभरकर सामने आया।

वर्ष 1861 में दिल्ली में रेलवे लाइन बिछाने की योजना के तहत लाल किले के कलकत्ता गेट सहित कश्मीरी गेट और मोरी गेट के बीच के इलाके को ध्वस्त कर दिया। 1857 की घटना से अंग्रेजों ने यह सबक सीखा कि दिल्ली की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण है और उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है। ऐसे में, अंग्रेज़ सरकार भविष्य में भारतीयों के बगावत को आसानी से नहीं होने देने की मंशा के बीच कलकत्ता गेट के स्थान को समेटते रेलवे पटरी बिछाई गयी। इस तरह, रेलवे का मुख्य मक़सद भविष्य में भारतीयों की सशस्त्र चुनौती से निपटने के लिए अंग्रेज़ सेना को दिल्ली पहुंचाना था।
जहां एक तरफ, दिल्ली में हिंदुस्तानियों पर निगरानी रखने के इरादे से अंग्रेजी सेना को शाहजहांनाबाद के भीतर स्थानांतरित किया गया वही दूसरी तरफ, शहर में आज़ादी की भावना को काबू करने के हिसाब से रेलवे स्टेशन के लिए जगह चुनी गई। 

शाहजहांनाबाद में आजादी की पहली लड़ाई के कारण क्रांतिकारी भावनाओं का ज़ोर अधिक था इसी वजह से रेलवे लाइनों और स्टेशन को उनके वर्तमान स्वरूप में बनाने का अर्थ शहर के एक बड़े हिस्से से आबादी को उजाड़ना था। 1867 में नए साल की पूर्व संध्या की अर्धरात्रि को रेल की सीटी बजी और दिल्ली में पहली रेल दाखिल हुई। गालिब की "जिज्ञासा का सबब" इस 'लोहे की सड़क' से शहर की जिंदगी बदलने वाली थी।

इस बात से कम व्यक्ति ही वाकिफ है कि ब्रिटिश शासन की एक बड़ी अवधि तक दिल्ली नहीं बल्कि कलकत्ता भारत की राजधानी थी। तीसरा दिल्ली दरबार दिसंबर 1911 में सम्राट जॉर्ज पंचम के संरक्षण में दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट किंग्सवे कैंप में आयोजित किया गया। इसी दरबार में सम्राट ने राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के अपने निर्णय की घोषणा की। 15 दिसंबर, 1911 को उत्तरी दिल्ली में किंग्सवे कैंप के समीप कोरोनेशन पार्क में जॉर्ज पंचम और महारानी मैरी के द्वारा नई दिल्ली का
शिलान्यास किया गया।

अंग्रेजों ने भारतीय शहरों की प्रकृति, भारतीयों के दोबारा आजादी की लड़ाई छेड़ने के भय और शहरों में नए निर्माण की जगह बनाने के लिए पुराने शहर के केंद्रों को खत्म करने की बातों का ध्यान करते हुए नए शहरों की योजना बनाई। इस तरह, भारत की अंग्रेजी हुकूमत ने दिल्ली के वजूद को राजधानी के तौर पर दोबारा कायम करने का फैसला लिया और इसलिए शाहजहांनाबाद और रिज के साथ उत्तरी छोर तक के कश्मीरी गेट इलाके में अस्थायी राजधानी बनाई गई।वाइसराय लाज, जहां अब दिल्ली विश्वविद्यालय है, के साथ अस्पताल, शैक्षिक संस्थान, स्मारक, अदालत और पुलिस मुख्यालय बनाए गए। एक तरह से, अंग्रेजों
की सिविल लाइंस को मौजूदा दिल्ली के भीतर आठवां शहर कहा जा सकता है।

सन् 1911 में, सबसे पहले अंग्रेजों ने राजधानी के लिए दिल्ली के उत्तरी छोर का चयन किया था, जहां पर तीसरे दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया, जिसे बाद में शाहजहांनाबाद के दक्षिण में रायसीना पहाड़ी पर नई दिल्ली बनाने के निर्णय के कारण छोड़ दिया गया। एडवर्ड लुटियन के दिशानिर्देश में बीस के दशक में नियोजित और निर्मित दिल्ली की शाही सरकारी इमारतों, चौड़े –चौड़े रास्तों और आलीशान बंगलों को एक स्मारक की महत्वाकांक्षा के साथ बनाया गया था।

इंपीरियल सिटी, जिसे अब नई दिल्ली कहा जाता है, का जब तक निर्माण नहीं हो गया और कब्जा करने के लिए तैयार नहीं हो गई तब तक तो पुरानी दिल्ली के उत्तर की ओर एक अस्थायी राजधानी का निर्माण किया जाना था। इस अस्थायी राजधानी के भवनों का निर्माण रिज पहाड़ी के दोनों ओर किया गया। मुख्य भवन पुराना सचिवालय पुराने चंद्रावल गांव के स्थल पर बना है। इसी में 1914 से 1926 तक केंद्रीय विधानमंडल ने बैठकें कीं और काम किया। सरकार के आसन के दिल्ली स्थानांतरित होने के शीघ्र बाद, इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल का सत्र मेटकाफ हाउस (आज के चंदगीराम अखाड़ा के समीप) में हुआ, जहां से इसका स्थान बाद में पुराना सचिवालय स्थानांतरित कर दिया गया। वर्ष 1927 में संसद भवन का निर्माण के पूरा होने पर सेंट्रल असेंबली की बैठकें पुराना सचिवालय के स्थान पर संसद भवन में होनी प्रारंभ हो गई थीं।

अंग्रेज भारत की राजधानी के कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित होने के बाद वर्ष 1931 की जनगणना में दो शहर, पुरानी दिल्ली और नयी दिल्ली या शाही दिल्ली दर्ज किए गए। पुरानी दिल्ली शहर में पुरानी दिल्ली म्युनिसिपलिटी, फोर्ट नोटिफाइड कमेटी और शाहदरा का इलाका तथा नयी दिल्ली म्युनिसिपलिटी और नए छावनी के तहत क्षेत्रों को नयी दिल्ली शहर में सम्मिलित कर लिया गया।

राजधानी के निर्माण का कार्य पूरा होने के साथ, नई दिल्ली का औपचारिक रूप से उद्घाटन वर्ष 1931 में हुआ। अंग्रेज पहले दिन से ही इस शहर को एक आधुनिक शाही शहर वायसराय के तबोताब और ताकत की निशानी की हैसियत में ढ़ालने को बेताब थे। संसद भवन की आधारशिला 12 फरवरी, 1921 को महामहिम द डय़ूक ऑफ कनाट ने रखी थी। इस भवन के निर्माण में छह वर्ष लगे और इसका उद्घाटन समारोह भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड इर्विन ने 18 जनवरी, 1927 को आयोजित किया। इसके निर्माण पर 83 लाख रूपये की लागत आई।

यह भी एक कमतर जानी बात है कि 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश शासन के भारत को सत्ता का हस्तान्तरण संसद के केन्द्रीय कक्ष में हुआ था। इतना ही नहीं, भारतीय संविधान की रचना भी केन्द्रीय कक्ष में ही हुई। विश्व के भव्यतम गुम्बदों में से एक माना जाने वाले गोलाकार केन्द्रीय कक्ष के गुम्बद का व्यास 98 फुट (29.87 मीटर) है। शुरू में केन्द्रीय कक्ष का उपयोग पूर्ववर्ती केन्द्रीय विधान सभा और राज्य सभा के ग्रन्थागार के रूप में किया जाता था। वर्ष 1946 में इसका स्वरूप परिवर्तित कर इसे संविधान सभा कक्ष में बदल दिया गया। यह केन्द्रीय कक्ष ऐतिहासिक महत्व का स्थान है, जहां 9 दिसम्बर, 1946 से 24 जनवरी, 1950 तक की अवधि में संविधान सभा की बैठकें हुईं ।

इस तरह, अंत में सार रूप में यह कहा जा सकता है कि एक दिल्ली में अनेक शहर समाए हुए हैं और यही कारण है कि यहां इतिहास की कई तहें हैं। दिल्ली अलग-अलग हिस्सों से बना एक शहर है, जिसके हरेक हिस्से की अपनी विशिष्टताएं और विशेषताएं हैं। ये इतने भिन्न हैं कि हम वास्तव में इन भागों को शहर के भीतर अनेक शहर के रूप में पहचान सकते हैं। समूची दिल्ली के हर कोने में मौजूद स्मारक की अपनी एक अलग कहानी है। ऐसे में बस जरूरत है, उस छिपी हुई कहानी में दिलचस्पी होने और उसे खोजने की।


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