Impact of Vivekananda on National Freedom Struggle and Freedom Fighters_भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विवेकानंद का प्रभाव
‘‘भारत भूमि पवित्र भूमि है, भारत मेरा तीर्थ है, भारत मेरा सर्वस्व है, भारत की पुण्य भूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारतवर्ष है, जहाँ मानव प्रकृति एवं अन्तर्जगत् के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे ।’’
स्वामी विवेकानन्द के इन शब्दों से भारत, भारतीयता और भारतवासी के प्रति उनके प्रेम, समर्पण और भावनात्मक संबंध स्पष्ट परिलक्षित होते है । स्वामी विवेकानंद को युवा सोच का संन्यासी माना जाता है। विवेकानंद केवल आध्यात्मिक पुरूष नहीं थे वरन् वे विचारों और कार्यों से एक क्रांतिकारी संत थे, जिन्होंने अपने देश के युवकों का आह्वान किया था-उठो, जागो और महान बनो ।
सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि स्वामी विवेकानंद ने ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए कभी भी प्रत्यक्ष रूप से प्रयास नहीं किए या यहाँ तक कि उस बारे में कभी बात भी नहीं की । यद्यपि यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि भारत के प्रति जो अगाध प्रेम स्वामी जी ने अन्य व्यक्तियों में संचारित किया था, वही स्वतंत्रता आन्दोलन की मुख्य प्रेरणा थी। नवजीवन प्रकाशन कलकत्ता से प्रकाशित भूपेन्द्र नाथ दत्त की पुस्तक “पेट्रिओट प्रॉफिट स्वामी विवेकानंद” में उल्लेख है कि अपनी फ्रांसीसी शिष्या जोसेफाईन मोक्लियान से स्वामी जी ने कहा कि क्या निवेदिता जानती नहीं है कि मैंने स्वतंत्रता के लिए प्रयास किया, किन्तु देश अभी तैयार नहीं है, इसलिए छोड़ दिया। देश भ्रमण के दौरान पूरे देश के राजाओं को जोड़ने का प्रयत्न संभवतः स्वामी जी ने किया होगा, जिसका संकेत उक्त चर्चा में मिलता है । स्वामी विवेकानंद की भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रत्यक्ष रूप से कोई भागीदारी नहीं थी पर फिर भी आजादी के आंदोलन के सभी चरणों में उनका व्यापक प्रभाव था। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर विवेकानंद का प्रभाव, फ्रांसीसी क्रांति पर रूसो के प्रभाव अथवा रूसी और चीनी क्रांतियों पर कार्ल मार्क्स के प्रभाव की तुलना में किसी भी तरह से कमतर नहीं था ।
कोई भी स्वतंत्रता आंदोलन व्यापक राष्ट्रीय चेतना की पृष्ठभूमि के बिना संभव नहीं है । सभी समकालीन स्रोतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में राष्ट्रीयता की भावना के जागरण में विवेकानंद का सबसे सशक्त प्रभाव था । भगिनी निवेदिता के अनुसार, वह नींव के निर्माण में लगने वाले कार्यकर्ता थे । वास्तव में, जिस तरह रामकृष्ण बिना किसी पुस्तकीय ज्ञान के वेदांत के एक जीवंत प्रतीक थे तो उसी प्रकार विवेकानंद राष्ट्रीय जीवन के प्रतीक थे । अंग्रेज पहले ही आशंकित हो चुके थे। अल्मोड़ा में पुलिस विवेकानंद की गतिविधियों पर दृष्टि रख रही थी। २२ मई को श्रीमती एरिक हैमंड को भेजे अपने पत्र में भगिनी निवेदिता ने लिखा, “आज सुबह एक भिक्षु को यह चेतावनी मिली थी कि पुलिस अपने जासूसों के द्वारा स्वामी जी पर दृष्टि रख रही है निसंदेह, हम सामान्य रूप से इस बारे में जानते हैं। किन्तु अब यह और स्पष्ट हो गया है और मैं इसे अनदेखा नहीं कर सकती, यद्पि स्वामी जी इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं । सरकार अवश्य ही मूर्खता कर रही है या कम से कम तब ऐसा स्पष्ट हो जाएगा, यदि वह उनसे उलझेगी । वह पूरे देश को जगाने वाली मशाल होगी । और मैं इस देश में जीने वाली अब तक कि सबसे निष्ठावान अंग्रेज महिला...उस मशाल से जागने वाली पहली महिला होऊँगी । हम स्वामी जी के शब्दों का प्रभाव कुख्यात ‘विद्रोह कमिटी’ की रिपोर्ट में देख सकते हैं। रिपोर्ट कहती है, "उनके (स्वामी विवेकानंद) लेखों और शिक्षा ने अनेक सुशिक्षित हिन्दुओं पर गहरी छाप छोड़ी है।" ब्रिटिश सीआईडी जहाँ भी किसी क्रांतिकारी के घर की तलाशी लेने जाया करती थी, वहां उन्हें विवेकानंद जी की पुस्तकें मिलतीं थीं।
प्रसिद्ध देशभक्त-क्रांतिकारी ब्रह्मबांधव उपाध्याय और अश्विनी कुमार दत्त से चर्चा के दौरान हेमचन्द्र घोष ने सन १९०६ में टिप्पणी की, "मुझे अच्छी तरह याद है कि स्वामीजी ने मुझे बंगाली युवाओं की अस्थियों से एक ऐसा शक्तिशाली हथियार बनाने को कहा था, जो भारत को स्वतंत्र करा सके।" अपनी प्रेरणादायी रचना, ‘द रोल ऑफ ऑनर एनेक्डोट ऑफ इंडियन मार्टियर्स’ में कालीचरण घोष बंगाल के युवा क्रांतिकारियों के मन पर स्वामी जी के प्रभाव के बारे में लिखते हैं, "स्वामी जी के सन्देश ने बंगाली युवायों के मनों को ज्वलंत राष्ट्र-भक्ति की भावना से भर दिया और उनमें से कुछ में राजनैतिक गतिविधियों की प्रवृत्ति उत्पन्न की।
"स्वामी विवेकानंद के देहांत से पूर्व, देश ऐसे संगठनों के महत्व के प्रति जागरुक हो गया था, जो बड़े पैमाने पर शारीरिक उन्नति, खेल, तलवारबाजी, कृपाण और लाठी के खेल, समाज-सेवा और राहत कार्य करते थे। सन् १९०२ तक ऐसे संगठन उभर आए थे, जिनमें प्रखर राष्ट्रवाद के साथ ही ‘एक आध्यात्मिक भावना’ भी थी, जैसे सतीश मुखर्जी और पी.मित्रा के नेतृत्व में अनुशीलन समिति।"
स्वामी विवेकानंद के बौद्धिक जगत में तैयार किए विक्षोभ के वातावरण के विस्फोट का आभास उनके देहांत के बाद बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन के नेता के रूप में श्री अरविंद के उदभव के तौर पर सामने आया । भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद के देशभक्ति और राष्ट्र निर्माण के आदर्शों को एक आधारभूत संबल प्रदान किया। सन् 1910 में जब श्री अरविंद को दूसरी बार गिरफ्तार करने की बात की चर्चा थी, उस समय निवेदिता की सलाह थी कि "नेता घर से दूर रहते हुए भी घर जितना काम कर सकता है" और इस सलाह ने उनके फ्रांसीसी क्षेत्र पांडिचेरी जाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
हम राष्ट्रीय परिदृश्य पर स्वामी विवेकानंद के उभरने से पहले की स्थिति पर एक दृष्टि डालें । अंग्रेजी शिक्षा, देसी साहित्य, भारतीय प्रेस, कांग्रेस सहित विभिन्न सुधार आंदोलन और राजनीतिक संगठन अस्तित्व में आ चुके थे और विवेकानंद से पूर्व उनका प्रभाव फैल चुका था। इन सबके बावजूद, एक सर्वव्यापी राष्ट्रीय चेतना का अभाव था । अगर ऐसा नहीं होता तो मद्रास से प्रकाशित होने वाला दैनिक "द हिन्दू" सन् 1893 की शुरूआत में प्रमुख समुदाय हिंदुओं के धर्म के बारे में यह कैसे लिख सकता था कि यह मर चुका है और उसकी क्षमता चुक गई है । पर इसी अंग्रेजी समाचार पत्र ने एंग्लो इंडियन और मिशनरी अखबारों सहित अन्य प्रकाशनों के साथ एक वर्ष (और भी बाद में) से भी कम समय में लिखा कि वर्तमान समय हिन्दुओं के इतिहास में पुनर्जागरण काल के रूप में वर्णित किया जा सकता है (मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज पत्रिका, मार्च 1897) । इसे एक राष्ट्रीय विद्रोह का नाम दिया गया (मद्रास टाइम्स, 2 मार्च 1895)। यह चमत्कार कैसे हुआ ? हमें समकालीन विवरणों से जो एक उत्तर प्राप्त होता है, वह यह कि विवेकानंद ने धर्म संसद में भाग लेते हुए वहाँ पर भारतीय धर्म और सभ्यता की महिमा का प्रचार किया और अपने देश की प्राचीन विरासत की मान्यता को प्राप्त किया और इस तरह अपने देशवासियों को दीर्घकाल से खोए हुए उनके आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को वापस लौटाया। स्वामी ने आत्मग्लानि में धंसे भारतीय समाज को बाहर निकाला। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मुझे गर्व है कि मैं ऐसे धर्म में पैदा हुआ हूँ जिसने सदियों से दुनिया को राह दिखाई । चेतनाहीन समाज को चैतन्य करना उनका सबसे बड़ा योगदान है ।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस का एक तार्किक अथवा सतही अध्ययन, भारत को स्वतंत्र कराने वाले राष्ट्रवादी आंदोलन से उनकी भूमिका को कतई भी नहीं जोड़ेगा जबकि गहराई से देखने पर उनके शिष्य और क्रांतिकारी संत स्वामी विवेकानंद को उस राष्ट्रवादी भावना से अलग करना कठिन होगा, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन की आत्मा के नाते कार्य किया । जहां स्वामी रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक साधना ने स्वामी विवेकानंद के राष्ट्रवादी कार्य के लिए शक्तिपुंज का कार्य किया वहीं स्वामी विवेकानंद के क्रांतिकारी विचार भारतभर में सैंकड़ों-हजारों राष्ट्रवादी कार्यों के लिए प्रेरणा सूत्र बन गए। अलौकिक भारत की दृष्टि से देखें तो प्राचीन राष्ट्र के हित में स्वामी रामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानंद की आध्यात्मिक-राष्ट्रवादी परम्परा से जुड़े ।
स्वामी विवेकानंद के विचारों तथा शिक्षा ने राष्ट्रीय जीवन व संस्कृति को काफी प्रभावित किया। भारतीय क्रांतिकारियों की अनेक पीढ़ियां, 20 वीं सदी के प्रारंभ से ही उनके जोशीले भाषण तथा लेखन से व्यवहारतः उठ खड़ी हुईं और दृढ़ बनीं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार के अनुसार, भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का यदि किसी एक व्यक्ति को श्रेय है, तो वह है विवेकानंद फिर चाहे वो आन्दोलन अहिंसात्मक हो अथवा क्रांतिकारी । महर्षि अरविन्द को क्रान्ति व योग की प्रेरणा देने वाले भी विवेकानंद जी ही थे । देश की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी से लेकर जितने बड़े नेता हुए, जिन्होंने देश को सबकुछ माना, उनके जीवन की प्रेरणा स्वामी विवेकानन्द थे ।
देशभक्ति से ओतप्रोत स्वामीजी के भाषणों से पैदा की गई विचारों की चिंगारी का असर विनायक दामोदर सावरकर तथा लोकमान्य वाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रभक्तों पर भी दिखाई देता है। वीर सावरकर ने तो संघर्ष कर अंडमान जेल में भी जो लाईब्रेरी बनवाई उसमें विवेकानंद साहित्य रखवाया । अपने बृहत काव्य 'सप्तर्षि' में सावरकर जी ने लिखा कि निराशा के क्षणों में उन्हें विवेकानंद के विचार ही प्रेरणा देते थे । सन् १९०१ में बेल्लूर में हुए कांग्रेस अधिवेशन के समय तिलक लगातार आठ दिन तक विवेकानंद जी से नियमित मिलते रहे । तिलक के लेखों में उसके बाद ही 'दरिद्र नारायण' शब्द का प्रयोग प्रारम्भ हुआ । अंग्रेजों के बनाए सिडीशन कमीशन की रिपोर्ट में इस भेंट का उल्लेख है । कमीशन ने इसे हिन्दू पुनर्जागरण की साजिश करार दिया ।
दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध कवि सुब्रह्मण्यम भारती की प्रारंभिक कविताओं में तमिल राष्ट्रवाद का उल्लेख मिलता है, किन्तु स्वामी जी के प्रभाव में आने के बाद उनकी जीवन के उत्तरार्ध में लिखी कवितायें भारतीय हिन्दू राष्ट्रवाद का गुणगान करती हैं । उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया कि यह परिवर्तन, उनकी गुरू भगिनी निवेदिता और स्वामीजी के कारण उत्पन्न हुआ । वहीं दूसरी ओर, महान स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार तथा 'युगांतर' के संस्थापकों में से एक बारींद्रनाथ घोष और भूपेन्द्र नाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद जी के छोटे भाई ) को बंगाल में क्रांतिकारी विचारधारा को फैलाने का श्रेय दिया जाता है ।
बारींद्रनाथ, महान अध्यात्मवादी श्री अरविन्द घोष के छोटे भाई थे। भगत सिंह से पहले का भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन एक तरह से स्वामी दयानंद और विवेकानंद जैसे आध्यात्मिक पुरूषों से अनुप्राणित रहा है। सुप्रसिद्ध बांग्ला उपन्यासकार शरत्चंद्र ने बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर 'पथेर दावी' उपन्यास लिखा । पहले यह 'बंग वाणी' में धारावाहिक रूप से निकला, फिर पुस्तकाकार छपा तो तीन हजार का संस्करण तीन महीने में ही समाप्त हो गया। इसके बाद, ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया।
छोटे-छोटे समूहों के साथ अनौपचारिक वार्तालाप के दौरान विवेकानंद ने राजनैतिक स्वतंत्रता का आदर्श अपने देशवासियों, विशेषतः युवाओं के सामने, उनके तात्कालिक लक्ष्य के रूप में रखा। क्रांतिकारी ब्रह्मबांधव उपाध्याय ने बताया कि, वर्ष १९०१ में उनकी ढाका यात्रा के दौरान जब युवाओं का एक समूह उनसे मिला और परामर्श लिया, तो उन्होंने कहा, “बंकिमचन्द्र को पढ़ों और देशभक्ति व सनातन धर्म का अनुकरण करो। सबसे पहले भारत को राजनैतिक रूप से स्वतंत्र कराया जाना चाहिए।
यह कोई संयोग नहीं है कि स्वामी विवेकानंद की समाधि के तीन वर्षों बाद ही उनकी प्रज्वलित अग्नि ने बंगाल के विभाजन के विरुद्ध एक विशाल आंदोलन भड़का दिया जो कि अपने आप में एक महान स्वतंत्रता आंदोलन बन गया। स्वामी विवेकानंद जी के ऐसे योगदान के कारण ही तिलक की पत्रिका “मराठा” ने विवेकानंद को भारतीय राष्ट्रवाद का जनक माना। १४ जनवरी १९१२ के अंक में पत्रिका ने लिखा, "स्वामी विवेकानंद भारतीय राष्ट्रवाद के वास्तविक जनक हैं, प्रत्येक भारतीय को आधुनिक भारत के इस पिता पर गर्व है।" आज भारत को सभी प्रकार की नकल, निर्भरताओं और विदेशी शक्तियों के नियंत्रण से मुक्ति पाने के लिए अपनी समस्त शक्ति एकत्र करने की आवश्यकता है।
स्वामी विवेकानंद का आह्वान भारतीय स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत क्रांतिवीरों के लिए एक मिशन बन गया। निरूसंदेह स्वतंत्रता आंदोलन, जो कि महर्षि अरविंद के क्रांतिकारी विचारों से लेकर बाल गंगाधर तिलक की तीक्ष्ण राजनीति से लेकर महात्मा गांधी के उदारवादी अभियान तक विविध रूपों में सक्रिय था, स्वामी विवेकानंद के भारतमाता की भक्ति के विचार से प्रभावित था। गांधी, तिलक, जवाहर लाल नेहरू से लेकर राजाजी तक सभी इस बात से सहमत थे कि स्वामी विवेकानंद ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नैतिक और बौद्धिक आधार रखा था। ऐसे में, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन राजनीतिक था पर उसके मूल आधार की जड़ सनातन धर्म में अंतर्निहित आध्यात्मिक स्वरूप में समाहित थी। कांग्रेस में गरम दल जिसका नेतृत्व अरविंद घोष, लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और विपिन चंद्र पाल ने किया, 1857 के क्रांतिकारी संघर्ष से प्रेरित थे। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1857 की हार से विक्षुब्ध होकर राष्ट्रीय पुनर्जागरण के लिए आर्य समाज की स्थापना की और देश को स्वराज्य का मंत्र सबसे पहले उन्होंने ही दिया।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- ‘यदि हमारे इस समाज में, इस राष्ट्रीय जीवनरूपी जहाज में छिद्र है, तो हम तो उसकी सन्तान हैं । आओ चलें, उन छिद्रों को बन्द कर दें- उसके लिए हँसते-हँसते अपने हृदय का रक्त बहा दें और यदि हम ऐसा न कर सकें तो हमारा मर जाना ही उचित है । हम अपना भेजा निकालकर उसकी डाट बनाएँगे और जहाज के उन छिद्रों में भर देंगे । पर उसकी कभी भर्त्सना न करें ! इस समाज के विरुद्ध एक कड़ा शब्द तक न निकालो ।’ देश के युवकों से दबे-कुचले लाखों मूक लोगों के ज्ञानोदय के लिये संघर्ष करने की उनकी अपील, धनी वर्गों की सुविधायें खत्म करने और राष्ट्रीय संपदा में मेहनतकशों को समुचित हिस्सा देने की समस्या के प्रति उनका क्रांतिकारी दृष्टिकोण, छुआछूत के खिलाफ उनका उपदेश और सबसे बढ़कर आत्मा के शुद्धिकरण की उनकी शिक्षा- इन सबको बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समेत विभिन्न राजनीतिक एवं सामाजिक संगठनों ने अपनाया।
स्वामी विवेकानंद की शिक्षाओं से ही प्रेरित होकर 19वीं शती में क्रांतिकारी आंदोलन, अनुशील समिति और युगांतर का गठन हुआ। रासबिहारी बोस, शचीन्द्र नाथ सान्याल से लेकर सुभाष चन्द्र बोस तक राष्ट्रीय आंदोलन की क्रांतिकारी धारा और गदर पार्टी से लेकर चन्द्रशेखर आजाद और भगतसिंह तक हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ की क्रांतिकारी धारा पर स्वामी विवेकानंद और आर्य समाज का यह प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
देश की आजादी में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले अनेक महापुरुष हुए हैं। ऐसी ही महान विभूतियों में से एक थे सुभाष चन्द्र बोस, महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त कहा था। स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानने वाले सुभाष चन्द्र बोस जब भारत आए तो रविन्द्रनाथ ठाकुर के कहने पर सबसे पहले गाँधी जी से मिले थे । नेताजी का मानना था कि अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में भागवत गीता प्रेरणा का स्रोत है. वह अपनी युवावस्था से ही स्वामी विवेकानंद से प्रभावित थे। इतिहासकार लियोनार्ड गॉर्डन ने उनके बारे में माना, ‘आंतरिक धार्मिक खोज उनके जीवन का भाग रही. यही वजह है जिसने उन्हें तत्कालीन नास्तिक समाजवादियों व कम्युनिस्टों की श्रेणी से अलग रखा।’
स्वामी विवेकानंद न केवल क्रांतिकारियों को प्रभावित किया है बल्कि उत्तरोत्तर काल के राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों को भी । रोमां रोलां बताते है कि बेलूर मठ की वाटिका में दिए एक व्याख्यान में महात्मा गांधी ने स्वीकार किया था कि “विवेकानंद के अध्ययन और उनकी पुस्तकों ने उनकी देशभक्ति को बढ़ाया।” इस प्रकार, भारत की आजादी के लिए गांधीजी के आंदोलन में विलीन होने वाले सभी क्रांतिकारी राष्ट्रवादी आंदोलन स्वामीजी की सिंह गर्जना उठो, जागो के बाद ही शुरू हुए ।
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